चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
(सास और ससुर के यह शब्द मेरा हृदय चीर गए थे। उन्होंने ’रिजर्व कोटे’ वाले शब्द पर विशेष तौर पर जोर दिया था। इस तरह कहने से मुझे ऐसा महसूस हुआ था, जैसे किसी ने मेरे मुँह में कुनेन की गोलिया डाल दी हो।
.....रिजर्व कोटे वालों को कौन-सा बिनो पढ़े नौकरियाँ मिल जाती हैं?
बिना डिग्री किए ?
उसने फस्ट डीविजन
में एम.ए. पास की है...एम. फिल की और फिर
यू. जी. सी. नेट पास किया। उसके बाद पी. पी. एस. के टेस्ट
और साक्षात्कार पास किए .........यदि मान भी लिया जाए कि रिजर्व कोटे में कुछ
नम्बरों की छूट हुई पर इसका मतलब यह तो नहीं हैं कि सरकार अनपढ़ को ही ऐसे अधिकार
सौंप दे।“ मैं गुस्से से भर गयी थी कहना मैं भी चाहती थी कि पिछले पाँच वर्ष से मेहनत
करने के बावजूद भी आपके लाडले से नेट पास नहीं हुआ, और अगर जीजा
कुलवन्त व्याख्यता बन गए हैं तो आपको जलन क्यों हो रही हैं, पर यह शब्द मैंने अपने कंठ में ही दबा लिए थे। दरअसल मैं यह
भी समझती थी कि इस परिवार को हरजीत की बार-बार असफलता उतना ही दुखी नहीं करती,
जितनी कुलवन्त की
सफलता दुखी करती हैं।)
मूल पंजाबी भाषा में कहानी:चीख/गुरमीत कडियावली
अनुवाद हिंदी - सुरजीत सिंह वरवाल
मैंने एक बार नहीं अनेक बार सोचा है कि इस मूर्ख परिवार के
सामने दीदी और जीजा जी से सम्बन्धित कोई बात नहीं करनी फिर भी कोई न कोई बात
स्वभाविक हो ही जाती है। आज भी मैंने जीजा कुलवन्त के बारे में पंजाब सर्विस कमीशन की तरफ से कॉलेज लेक्चरार चुने जाने की खबर बतायी थी। दरअसल जब से जीजा जी की
सिलेक्शन संबंधी दीदी का फोन आया था, मैं पूरी तरह से खुशी से आन्तरिक और
बाहरी सराबोर हो गयी थी। जल्दी से जल्दी यह खुशी कि खबर सारे पंजाब को बता देना
चाहती थी। इसी खुशी से मैंने यह खबर हरजीत को सुनाई थी।
“......कुलवन्त को तो यह लेक्चरषिप मिल ही जानी थी।“ हरजीत की ठण्डी
सांसो में जान ही नहीं थी। सरकारी नौकरियाँ मिल ही जाती हैं।“
......बात तो यह है कि सरकारी नौकरियाँ तो रह ही ’रिजर्व कोटे’
के लिए गयी है।
सास और ससुर के यह शब्द मेरा हृदय चीर गए थे। उन्होंने ’रिजर्व कोटे’
वाले शब्द पर विशेष तौर पर जोर दिया था। इस तरह कहने से मुझे ऐसा
महसूस हुआ था, जैसे किसी ने मेरे मुँह में कुनेन की गोलिया डाल दी हो।
.....रिजर्व कोटे वालों को कौनसा बिना पढे नौकरियाँ मिल जाती हैं?
बिना डिग्री किए ?
उसने फस्ट डीविजन
में एम.ए. पास की है...एम. फिल की और फिर
यू . जी. सी. नेट पास किया। उसके बाद पी. पी. एस. के टेस्ट
और साक्षात्कार पास किए .........यदि मान भी लिया जाए कि रिजर्व कोटे में कुछ
नम्बरों की छूट हुई पर इसका मतलब यह तो नहीं हैं कि सरकार अनपढ़ को ही ऐसे अधिकार
सौंप दे।“ मैं गुस्से से भर गयी थी कहना मैं भी चाहती थी कि पिछले पाँच वर्ष से मेहनत
करने के बावजूद भी आपके लाडले से नेट पास नहीं हुआ, और अगर जीजा
कुलवन्त व्याख्यता बन गए हैं तो आपको जलन क्यों हो रही हैं, पर यह शब्द मैंने अपने कंठ में ही दबा लिए थे। दरअसल मैं यह
भी समझती थी कि इस परिवार को हरजीत की बार-बार असफलता उतना ही दुखी नहीं करती,
जितनी कुलवन्त की
सफलता दुखी करती हैं।
..... मैंने कब कहा कि
तेरे जीजा जी अनपढ़ और ग्वार हैं...? “ हरजीत के इन शब्दों में छुपा हुआ जहरीला
व्यंग्य समझ में आता है।
......हाँ इन्टेलीजेन्ट है तभी तो नौकरियाँ उनके आगे पीछे घूमती
हैं...।“
...... हाँ जी, इन्टेलीजेन्ट करके
ही तो ढुढाँ है तेरी दीदी ने। सास ससुर के मुहँ से फिर आग निकलती हैं मैं तड़प कर
रह जाती हूँ। इस परिवार से बहस करने का क्या फायदा इनके मुँह से जली कटी बातें और
दिल जलाने वाली निकलेगी। मैं रसोई में जाकर
काम करने लगती हूँ। सास और ससुर अभी भी कान खुजला रहे हैं। मुझे पता नहीं चलता कि
कब सास और ससुर का चेहरा मास्टर ढण्ढ और साईंस मास्टर पवित्रकौर की तरफ हो जाता है,
पवित्रकौर के
बारें में बात करने लगते हैं।
......यह जो सरदार
सुरेन्द्र सिंह सरोवा साहब बनकर कुर्सी पर चौड़ा हुआ बैठे हैं, यह रिर्जेवेशन कोटे में होने के कारण लग गया, और अब हैड मास्टर बनकर हमारे ऊपर हुकुम चलाता हैं। इसको कोई
मजदूरी करने नहीं ले जाता था नौकर नहीं रखता था..........कम से कम मैं तो नहीं
रखता । मास्टर ढण्ढ का ताँबे जैसा रंग और भी गहरा हो जाता।
.............दोनों साठ हजार से
उपर कमाते हैं .... गाँव में टूटा-फूटा घर होता था.......अब शहर में प्लॉट लेकर
बैठे हैं, और कहते हैं शहर में बच्चों की शिक्षा के लिए कोठी डालनी है। कोठी डालकर बाहर
नेम प्लेट लगायेंगे हैड मास्टर सुरेन्द्र सिंह सरोवा एम. ए. बी.
एड.............चमालडी..........।“ पवित्र नाक को सिकोड़ते हुए बार - बार अपने गात्रे को ठीक
करती रहती हैं। मुझे उसके नाम पर हँसी आती रहती है। मुझे गाँव वाली दानों याद आ
जाती है कहा करती थी, सारे गाँव की जूठ नाम पवित्र सिंह, कहते थे डरता तो
गीदड़ से है और नाम रखते है दिलेर सिंह ..........इसी तरह वह कितने ही नाम गिना
देती थी।
................ढण्ढ साहिब,
हैड साहिब ही नहीं
हम सभी की भी नौकरियाँ रिर्जेवेशन के कारण ही लगी हैं। आपको भी अच्छी तरह पता है शिक्षा मंत्री अपने ही क्षेत्र का था, नही तो जैसे नम्बर अपने बी. ए. बी.एड में
हैं किसी ने मास्टर तो क्या चपरासी भी नहीं लगाना था। मेरी खरी - खरी बाते सुनकर
ढण्ढ मास्टर तिरछी नजरों से देखने लगता था। दरअसल मैं और राजेश ढण्ढ , पहले बी.ए.के समय
और फिर बी. एड. के समय क्लासमेट रहे हैं। ढण्ढ स्कूली पढ़ाई के समय से ही बेक बेंचर
था। बी. एड. का चाइलेड साईक्लोजी (बाल मनोविज्ञान) का विषय तो उसने तीसरी बार में
पास किया था।
’’......मैडम परमीत की तो
हैडसाहिब जैसे ’कोटे वालो’ के साथ काफी हमदर्दी है।“ ढण्ढ ने अजीब ढंग
से व्यंग्य किया था। मुझे लगता था ढण्ढ हमदर्दी की जगह नजदीकी रिश्तेदारी बनाना
चाहता हो।
.........इसकी कोई खास वजह
ही होगी।“ पवित्र अपना गात्रा ठीक करती हुई आँखों में हल्का सा मुस्कराती है।
’’......वजह तो मैडम परमीत
ही बता सकते हैं...।“ पवित्र और ढण्ढ मास्टर की आँखें आपस में मिलती हैं। मैं
बताना तो बहुत कुछ चाहती, पर क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी जाती। सोचती कि इंसानियत हीन
लोगो के मुँह क्यों लगे, नहीं तो उत्तर मेरे पास बहुत थे।
’’........उत्तर तो मैंने
हरजीत को दिया था जब उसने कहा था“ परमीत अपनी दीदी को बोले की कागजों में हमारा बेटा गोद ले।
रिजर्व कोटे में आने के कारण उसको भी अच्छे कोर्स में दाखला मिल जायेगा।
“............सरदार हरजीत सिंह भुल्लर साहिब ........................
रिजर्वेशन जन्म आधारित हैं। उस नीची जाति में जन्म लेने के कारण जो मानसिक और
सामाजिक पीड़ा की जलीलता आप जैसे लोगों से उसके प्रत्यूतर में मिलता है ‘’रिजर्व कोटा’’
। यह सुनकर हरजीत
का चपटा नाक और भी चपटा हो गया था।
’’................तुम तो सीधी बात का भी टेढ़ा अर्थ निकाल लेती
हो...............मेरा मतलब वह नहीं हैं जो तुम समझ रही हो।’’
’’................जनाब अपने जैसे लोगों की यह सीधी बाते, अकसर सीधी नहीं
होती हैं।’’ तुम्हारे जैसे लोगों की जगह पर मुझसे अपने जैसे लोगों को
कहा गया था। अचानक ही मेरे से बहुत बड़ा सच बोला गया था। यह सच सिर्फ बड़ा ही नहीं
बहुत कड़वा भी था। मेरे अपने लिए भी बहुत कड़वा। दीदी परम ने एम. ए. बी. एड पास कर
ली थी, तब मैने विश्वविद्यालय के पंजाबी ओनर्स बी.ए. द्वितीय वर्ष में प्रवेश लिया
था। दीदी और जीजा कुलवन्त के बीच चल रहे अफेयर के बारे में सिर्फ मुझे ही पता था।
इस बात को लेकर दीदी के साथ मेरी नोक झोंक हमेशा चलती ही रहती थी। मुझे भी ऐसा
लगता था जैसे बहुत बड़़ी अनहोनी घटना होने जा रही हो। दीदी का फैसला मुझे किसी भी
तरह सही नहीं लगता था। जीजा कुलवन्त के बारे में सोचते ही हमारे खेतों में काम
करने वालों नौकरों के अन्दर धसे हुए चेहरे मेरे सामने आ जाते। उनके मैले कुचेले
कपड़ो की बदबू मेरे नाक में चढने लगती मैं उम्र का लिहाज किए बिना ही दीदी को खरी
खोटी सुनाने लग जाती।
’’......इश्क ने तेरी आँखों पर पट्टी बान्ध दी है। तुम्हें अच्छे
बुरे की पहचान नहीं रही।’’
’’कुलवन्त में बुराई क्या है ? पढ़ा लिखा नहीं ?
लूला लगंड़ा है। ?
कुष्ठ रोगी है ?
उसका सारा परिवार
नहीं पढ़ा लिखा ?’’ दीदी जवाब की बजाये उल्टा प्रश्न करती थी।
’’समाज में उसके रूतबे का पता है तुझे ? जिनका समाज में
कोई रूतबा न हो व लंगडे़ लूले ही होते है।’’
’’............ क्या हुआ है उसके रूतबे को ? कोई चोर डाकू है ?
’’
’’बहुत ऊँचा रूतबा है कुलवन्त का। वही रूतबा जो अपने नौकर
गन्ते का है। मेरी इस बात की पीड़ा से दीदी की आँखों से आँसु छलक पड़े थे।
’’अपने घर के पशुओं की नाँद के पास पड़े हुए गन्ते नौकर का
कटोरे के बारे में तो तुम्हें पता ही होगा,.........अब तूं सोचती है कि गन्ते नौकर का वह कटोरा उठाकर
अपने आंगन में सजा ले।
’’इन्सान तो सारे एक जैसे होते है।’’
’’किताबों ने तेरा दिमाग खराब कर दिया है तू पढ़ - पढ़कर पागल
हो गयी है । अगर सारे इन्सान एक जैसे होते तो ये जात - पात जैसी चीजें नहीं बनती
थी तुम उल्टी गंगा बहाने को लगी हो...।’’ क्या बोलती दीदी मेरी दलीले उसके सामने
कहाँ चलती? तर्कबाजी तो वहाँ चलती जहाँ कोई तर्क सुनने वाला यहाँ तो मैं जातिवाद का पल्लू
पकड़़कर उसकी बात को शुरू से खारिज कर बैठी थी। तैयार हो ही जैसे मास्टर ढण्ढ मैडम
पवित्र और उसकी मण्डली हर बात को रद्दकर देती हूँ। अगर हैड कहे कि आज बुधवार है तो
ये मण्डली कहेगी नही आज शुक्रवार है हैड उसके जैसे और मास्टरों को नीचा दिखाकर
इनको गहरी मानसिक तसल्ली होती है। और तो और यह मण्डली हैड जैसों की जातियाँ
वृक्षों में भी टटोलती रहती हैं। अपने साथी अध्यापकों के नाम भी जाति के आधार पर
ही रखे हुए हैं। जगदीश राज शर्मा को पीपल तरखान जाति के मास्टर दयाल सिंह को तेसा
मास्टर दर्जी बियादरी के गुरूनेक सिंह मास्टर को सुईधागा और मजहबी जाति के निर्मल
को उसकी पीठ पीछे बबूल कहते हैं। ढण्ढ अपने आप को शहतूत और पवित्र को टेहनी कहते
है। हैडमास्टर की पीठ पीछे ठक - ठक शब्द का उच्चारण किया जाता है। जब कभी साहिब फ्री
बैठी इस मण्डली को कोई काम धन्धा बोल दे, या क्लास एटेण्ड करने को कह दे तो सारी
मण्डली उनके खिलाफ आग उगलने लगती हैं।
’’ साली जॉत की टागें सारा दिन थड़ी से बाहर नहीं निकलेगी। दिन
ठक- ठक करने ताना बुनते रहना था। अब हमारे ऊपर हुकुम चलाता हैं। साली आजादी तो
हमारे लिए राख ले आई, बगल की जूऐं सिर पर चढ गयी। पता नहीं साली सरकार ने इनमें
क्या देखा है।’’
ढण्ढ मण्डली की तरह मैंने भी ऐसे ही कहा था जब दीदी ने
घरवालों के सामने दबे स्वर में अपनी पसन्द के लड़के कुलवन्त के साथ शादी करने की
इच्छा जाहिर की थी। घर में तो जैसे भूकम्प ही आ गया हो ।
’’परम तो ऐसे जात पांत के पीछे लगी फिरती है। इसने पता नहीं
उस लड़के में क्या देखा रंग तो ऐसा है तवे के साथ शर्त लगी हो इसकी।’’ कुलवन्त का सांवला
रंग भी मुझे काला सा लगता था।
......उसमें क्या नहीं है ? ’’
......’’ बेटा जवानी में सौ बातें हो जाती है ऐसे दिल पर नहीं लगाते
जितनी उसके साथ बीत गयी ठीक है अब जवाब दे दे उस लड़के को मैने एक लड़का देखा है
तेरे लिए नोटों के थैले भर-भर लाता है। नहरी विभाग में ओवरसीयर लगा हुआ है अभी तीन
साल नहीं हुए डयूटी लगे को, घर शानदार बना लिया लेन्टर ही लेन्टर ......चमकीली फरशे । मशीने .........गिनती नहीं होती सुविधानुसार हर छोटी से छोटी चीज मौजूद हैं। जैसे
बोलोगी उसी तरह से तेरी शादी करेंगे। छोड़ उस नीची जाति के लड़के को।
अम्बाले वाली बुआ ने परम केा अपना फैसला बदलने के लिए जोर
डाला था । दूर के रिश्तेदारों ने भी अपना - अपना जोर लगाया था। चाचा और ताऊ के
लड़कों ने तो धमकी वाला हथियार भी प्रयोग करके देख लिया था। फिर भी टस से मस नहीं
हुई थी। उपना फैसला बदलने के लिए दीदी को शारीरिक कष्ट दिया जा रहा था। दीदी की
हालत विचारणीय बनी हुई थी। दीदी की शादी का सबसे ज्यादा विरोध मैं ही कर रही थी कि
विरोध के पीछे भी मेरा अपना स्वार्थ था। मैं यह सोचती थी कि अगर दीदी ने अपनी
मर्जी से शादी करवा ली तो मेरा क्या होगा। हो सकता है घरवाले मुझे भी यूनिवर्सिटी
से हटाकर घर में बैठा लें। उन दिनों मैं खुद ही हरजीत के चक्कर में उलझ चुकी थी।
हरजीत से बिछुड़कर मैं जिन्दगी जीने के बारे में सोच ही नहीं सकती थी। पता नहीं
मेरे दिमाग में उस समय यह सोच क्यों नहीं आई कि यदि मैं हरजीत के बिना नहीं रह
सकती तो दीदी कुलवन्त के बिना कैसे रह सकती है। कुलवन्त उस समय कुलवन्त दर्दी होता
था जिसके चर्चे विश्वविद्यालय के गलियारों में गुजां करते थे। जिसकी कविता अखबारों,
मैग्जीनो, से लेकर बड़े - छोटे कवि दरबारों में वाहवाही लूटने लगी थीं
कुलवन्त जीजू उस समय दीदी को लम्बे - लम्बे पत्र लिखा करता था। बड़ी ही प्यारी
लेखनी में उस समय मैंने, दीदी और कुलवन्त के सम्बन्धों का खुलकर विरोध षुरू नहीं किया
था। कुलवन्त जीजा विश्वविद्यालय के हॉस्टल में आ जाते थे। मुझे भी दो तीन पत्र
लिखे थें कविता में ही जैसे उसके समाजिक सच्चाई और मनुष्य की उत्पति सम्बन्धी
समस्त इतिहास लिख दिया है। मैंने कई-कई बार पढ़ी थी । सचमुच मैं इन कविताओं के शब्दों
में खो गई थी। मेरा दिल तो कुलवन्त और दीदी के रिश्ते का समर्थन करने के लिए करता
था। लेकिन मेरा दिमाग सचेत होकर विरोध करने को कहता था। जीजा के जादुई शब्दों के
जाल से बाहर निकलकर ,पत्रों को फाड़कर डस्टबीन के हवाले करके और दीदी का खुलकर
विरोध करना शुरू कर दिया था। मैने उस समय कुलवन्त जीजा को बड़ा कठोर शब्द भरा पत्र भी लिखा था।
’.................जीजु कुलवन्त आप दीदी के साथ जिस घर की कल्पना कर रहे हो,
ऐसे घर जब टूट
जाते हैं तो इनका मलबा उठाते - उठाते कई
युग लग जाते है।’’ कितनी गलत साबित हुई हूँ। मलबा तो मैं उठा रही हूँ। दीदी
परम और जीजा कुलवन्त के घर की नींव तो बहुत मजबूत है।
दीदी परम का विरोध करते हुए मैं उनके अहसानों को भी भूल गयी
थी। उसकी बदौलत ही मैं विश्वविद्यालय आई थी। मेरा प्रवेश करवाने के लिए दीदी ने
रात-दिन एक कर दिया था। वैसे भी किसी के एहसान को याद कौन रखता है। रात ये
गुरूसीमरत, हैड साहब के साथ सबसे ज्यादा नफरत करती है। जब गुरूसीमरत के मम्मी पापा की सड़क
हादसे में मृत्यु हुई थी, तब इसी हैड साहब ने 15 दिन ऐडजेस्ट किए
थे। बाद में भी एक महीना क्लास नहीं लेने दी थी। हैड साहब खुद क्लाष लेते रहे थे।
अब जब भी हैड साहब के बारे में बात चलती है तो यही गुरूसीमरत सबसे ज्यादा बोलती
है। हैड साहब की जुबान तो सारा दिन ठक - ठक करती रहती है पढ़ाओ - पढ़ाओ इसके अलावा
कोई अच्छी बात ही नही आती। पढ़ाने को तो बिल्कुल दिल नहीं करता। किसको पढ़ाये ?
स्कूल में तो कोई
ढंग का बच्चा रही ही नहीं गयी मुझे तो दुर्गन्ध सी आती रहती है। अब इन कीड़े मकोड़े
के साथ मगज खपाई करते रहो। पढ़ा - पढ़ा कर बना दो इनको अफसर , हैड साहब की तरह हमारे
ऊपर ही ठक -ठक करने के लिए’’।
कोई न कोई बात तो घर के अन्दर भी हो जाती है’’ परमीत हम तो इन
नीची जाति के लोगो को घर के पास भी नहीं भटकने देते ...............तेरी दीदी तो
पता नहीं कैसे .................? कुलवन्त के रिश्तेदार भी तो आते होंगे, उनसे दुर्गन्ध
नहीं आती ? मानसा की तरफ विवाहित हरजीत की दीदी ने एक बार कहा था जिसका घरवाला तम्बाकु
खाता है और जिसकी मुँह से हमेशा लार गिरती रहती है। मेरा मन तो किया कि कहुँ ’’
तुझे अपने घरवाले
से दुर्गन्ध नहीं आती ? लेकिन मैं रिश्तो की सीमाओं में घीरी होने के कारण कुछ बोल
नहीं पायी।
हरजीत की बड़ी बहन प्रकाश जिसका खुद दो बार तलाक हो चुका है
और अब तीसरी बार जिस घर में गयी है वहां भी महाभारत किया हुआ है। बातों - बातों
में एक दिन कह रही थीं परमीत तेरी दीदी और कुलवन्त की ज्यादा दिनों तक निभेगी नहीं
..... ऐसे रिश्ते ज्यादा दिनों तक नहीं
चलते होते मैं उसके मुँह की तरफ देखती रह गयी थी। कितनी बड़ी बात उसने सहजता के साथ
कह दी थीं मेरा मन किया कि उसको करारा सा जवाब दूँ कि अगर ना निभेगी तो तेरी तरह
दूसरा और फिर तीसरा विवाह कर लेगी। दिमाग कुछ सोचकर चुप रह गया। हम भी तो कभी
सोचते थे कि एक साल मुश्किल से दीदी का घर । चल पायेगा। टूट जायेगें दोनों ...।
पर दूसरी तरफ हम हैं ...मैं और हरजीत ...। हम जुड़े ही कब थे?
....बस इसी तरह बहुत से लोग सोचते हैं। हैड साहिब सुरेन्द्र
सिंह के बारे में भी यही सोचते थे जब वे पदोन्नत होकर नए - नए स्कूल में आए थे। उस
समय पवित्र, गुरूसीमरत और ढाण्ढ साहब जैसे लोगों ने कहा था अफसरी करनी
इन लोगों के बस की बात नहीं ........................अफसरी तो कोई घातक जट ही कर
सकता है। ऐसे ही हर कोई जात का अफसर बन रहा है। मुश्किल से एक वर्ष
निकालेगा............. छोड़कर भाग जायेगा........।’’ मेरी तरफ ये
मण्डली भी गलत साबित हुई। हैड साहब भागकर कही नहीं गए। चार वर्ष हो गए इस मण्डली
को विरोध करते हुए इसके बावजूद भी हैड साहब की अफसरी चल रही है मण्डली का वष नही
चलता।
अन्दर ही अन्दर
जलती और सड़ती रहती है।
’’ रिजर्वेशन ने तो इस देश का सत्यानाश कर दिया योग्यता देखता
ही नहीं ............बस कुड़ा ..........कबाड़ उठा उठाकर कुर्सियों पर बिठा रहें है
हैड साहब पता नहीं मण्डली का मुँह तोड़ जवाब क्यों नहीं देतें। मुझे याद है,
विश्वविद्यालय में एक बार योग्यता बनाम रिजर्वेशन विषय की
डीबेट हुई थी। उस समय भगवन्त नाम के लड़के ने बहुत कठोर जवाब दिया था।
जब रामायण लिखने
की जरूरत पड़ी तो वाल्मिकी आगे आये। महाभारत लिखते समय वेद व्यास के बिना बात नहीं
बनी। जब संविधान लिखने की आवश्यकता पड़ी तो तब यही लोग काम आए। बताओ योग्यता सिद्ध
करने की अभी जरूरत बाकी है? उनकी इन दलीलों का जवाब किसी को नही आया था। बस इधर-उधर की
बातें कर रहे थे।
जवाब तो मेरी
दलीलों का भी पवित्र और ढण्ढ मण्डली के पास नही होता थ। इस मण्डली की योग्यता
बोर्ड कक्षाओं के परिणाम ही बता देते है इसके बावजूद भी इनको शर्म नहीं आती। जबकि ‘‘सरकार ने पास होने
के लिए 33 प्रतिशत नम्बरों की सीमा रखी है, और हमारे तो फिर भी 45 प्रतिषत है।’’
यह बातें करके सभी
खिलखिलाकर हंसते है। मैं कई बार कड़वी-कड़वी सुना देती हूँ।
गाँव की दुर्दशा तो गाँव में लगे हुए गोबर के ढेर से पता चल जाती है। हैड साहब की योग्यता परखते हो
आपकी योग्यता तो परखने की भी जरूरत नहीं ... आपकी योग्यता सामने लिखी दिवार पर पढ़ी
जा सकती है।’’ मेरी यह बात सुनकर पवित्र को मिर्ची लग जाती है। गात्रे को
बार-बार ठीक करते हुए मुँह से आग उगलने लगती है।
तुम्हे तो ज्यादा
हमदर्दी है...........। मेरा वश वस चले तो मैं इनको उठाकर स्कूल से बाहर फेंक दूँ ।
सभी नीच जात स्कूल पर कब्जा करके बैठी है।
स्कूल ही क्यों,
देश से बाहर निकाल
सभी को। गुरू की प्रिय तेरा बस तो कभी नही चलना।’’ मेरे इस जवाब से
ही तिलमिला उठती है।
देखा जाए तो तेरे
जैसी काली भेड़े ही हमारी कौम का कुछ बनने नही देती। इतिहास गवाह है, जब-जब सिक्ख कौम
का राज गया, तो वह उसके अन्दर के गद्दारो के कारण ही गया था। तेरे अन्दर
तो अपनी कौम का दर्द भी नहीं है पवित्र जब गुस्से से लाल होती तो अपने गात्रे को
बड़ी तेजी से आग पीछे करने लगती थी। उसकी अपनी ‘‘कौम का दर्द’’
वाली बात पर मुझे
हंसी आने लगी थी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोक ली थी। हंसी कौम का ऐसा दर्द पवित्र
जैसी कई दर्दमन्दो के अन्धर भरा पड़ा है। पहले हैड मास्टर जरनैल सिंह के अन्दर भी ‘‘कौम का ऐसा दर्द’’
भरा रहता था। वह
मुझे अक्सर कहता, तू हमारी अपनी
लड़की है ..... यह देखकर तेरी ऐ.सी.आर, आउटस्टेडिंग लिखी है, सबसे बढ़िया। ये
गुरदीस और प्रवीनबाला की भी देख ले, औसत भरी है। मेरे अन्दर तो कौम का दर्द
है, इसलिए मैने तो पक्का नियम बनाया है कि अपने लोगों की तो गुप्त रिपोर्ट उत्तम
ही लिखी है। कर्मचारी चाहे कितना भी निक्कमा क्यो न हो। ये नीची जॉति के लोगो की
तो औसत से ज्यादा नही भेजना। उस समय मुझे हैडमास्टर जरनैल सिंह की बातों पर अन्दर
ही अन्दर हंसी आई थी। वैस भी ऐसे लोगो पर हंसा ही जा सकता हैं या फिर रहम किया जा
सकता है। अन्दर से कितने खोखले है ये लोग। बिल्कुल हरजीत और उसके परिवार जैसे
दिखावे के लिए कितने आडम्बर करते है। गुरूद्वारे की चौखट को घिसा देते है माथा
रगड़-रगड़ कर। बाहर से तो धार्मिक पुरूष का ढ़ोग करते हैं और अन्दर से यह जातिवाद के
जहर से भरे पड़े हैं। ये चाहे जितना भी दबाये, लेकिन इनका जहर
दिमाग से बाहर आ ही जाता है।
उस समय ओनम दो-एक
महीने का था। उसके जन्म सम्बन्धी पार्टी भी की थी। शर्म के मारे हरजीत ने कुलवन्त
और दीदी को भी बुला लिया था। हरजीत अपने मित्रो में ही व्यस्त रहा था। कुलवन्त
जीजा चुपचाप अजनबियों की तरह पास बैठे हुए थे। रात तो जैसे तैसे बीत गई थी। लेकिन
सुर्योदय होते ही कुलवन्त ने मेरे से शिकायत की थी। ‘‘हरजीत तो अपने
यारो-मित्रेां के साथ ही व्यस्त रह सभी मिलकर रात भर शराब पीते रहे, मुझे तो उन्होने
पूछा तक नहीं। मेरा तो परिचय तक नही करवाया। मैं क्या लेने आया हूँ यहॉं? मुझे रात ही क्यो
नही बताया? तुमने रात कैसे काट ली? मैं तेा इस घर में एक मिनिट भी नही रूकती।’’ दीदी क्रोधित स्वर
में बोल रही थी। आए हुए मेहमान अभी घर में ही थे। दीदी का इस तरह से क्रोधित होना
बुरा हो सकता था लेकिन मुझे बिल्कुल भी बुरा नही लगा। एक पल में ही दीदी समान
समेटकर चले गए। मैने भी उनको रोका नहीं था। मुझे एक सुखमय सन्तुष्टि का अहसास हुआ
था जैसे दीदी ने हरजीत के पुरे परिवार के मुँह पर करारा तमाचा जड़ दिया हो।
मैं तो अक्सर
चाहती हूँ की ऐसे लोगो के मुँह पर ऐसे ही
तमाचे पड़ते रहे। मुझे उस समय दुख होता जब हैड साहब मेरे प्रति भी वैसा ही व्यवहार
करते जैसा ढण्ढ पवित्र और गुरूसीमरत अध्यापकों के साथ। दरअसल लगातार होते इस
जातिवाद ने उनके दोस्त और दुश्मन की पहचान को खत्म कर दिया है। मैने उनके इस
व्यवहार पर ऐतराज अन्दर भी किया था, मेरे साथ आपका ऐसा व्यवहार मुझे दुखी
करता है। प्लीज बी हवे सेन्सएबली लाइक युअर फेमली मेम्बर।’’
हैड साहब कितनी
देर सोचने के बाद बोले थे, जातिवाद तुम जैसे लोगो की मानसिकता के अन्दर तक बैठ गया है।
तुम लोग चाहते हुए भी बर्दाश्त नहीं कर सकते, मेरे जैसों को,
मै आपको इंसान
नहीं, एक अछूत ही नजर आता हूँ ।मेरे अन्दर मेरी आपको अफसरी नही मेरी जाति नजर आती
है।’’ हैड साहब की इस बात में बहुत बड़ी सच्चाई है जातिवाद से भरे हुए अध्यापक उसका
हुकुम नहीं मानते। अफरा-तफरी मचाते है स्कूल में। इस तरह के लोग स्कूल में नहीं
पूर समाज में अफरा-तफरी मचाते है। तो ढण्ड जैसे लोगो की हरकत सहनयोग नहीं होती,
लेकिन कोई बोलता
ही नहीं। मण्डी की गलत हरकतो के बावजूद भी हैड साहिब चुप रहते है। हैडसाहब की
क्यों, निर्मल, गुरदीश , प्रवीन बाला, मास्टर दयाल सिंह, गुरनेक जैसे लोग
भी ऐसी बातो को नजर अंदाज करके चुपचाप बैठे रहते है।
पर मेरे लिए तो ये
बाते असहाय है। मुझे भी दीदी परम द्वारा रामदासीयों के लड़के से विवाह करने की बात
बार-बार सुनाई जाती है। उस समय मुझे काफी कष्ट होता है। सोचती हूँ , जो लोग सदियो से ऐसी बातें सुनते आ रहे है, वे कितना दुख सहते
होगें। जब घर में ऐसी बात होती है, तो मन करता है ऊँची चीख मारू चीख इतनी जोर से हो कि घर की
छत उखड़ जाय। दीवारे टूटकर गिर जाए और मैं इस घर की उॅंची कैद से मुक्त होकर उस खुले
आसमान में सांस लू सकू।
काफी देर तक तो
चुप रहती हूँ . लेकिन जब ये परिवार ज्यादा ही सिर चढ़कर बोलने लगता है तो उस समय
में चीख मारने की आवश्यकता पड़ ही जाती है। उस समय हरजीत का परिवार छुई-मुई हो जाता
है। चीख तो मैंने बचपन में ही सुनी थी। उस समय मैं मॉं के साथ रोजाना गुरूद्वारा
साहिब सेवा करने जाती थी। मजहबी सिक्खों के मोहल्ले से अमृतधारी महेन्द्रो भी
गुरूद्वारे में सेवा करने आती थी। महेन्द्रो को लंगर हाल में देखकर मॉं सहित कई
औरते नाक और भौहे फैलाती थी। उसको किसी न किसी बहाने से सफाई करने या आग जलाने के
लिए ही लगाए रखती थी। यदि महेन्द्रो आटा गुन्थने के लिए परात उठाती तो उससे परात
पकड़ लेती। महेन्द्रो कितनी ही देर इस वृतान्त को अन्दर ही अन्दर सहन करती रही। एक
दिन जब मॉं ने उसके हाथ से परात पकड़ी, तो वह क्रोधित हो गई।
शेरनी की तरह बडी
सिक्खनियों कुछ तो शर्म करो .......... गुरू महाराज से कुछ भय खाओ। तुम तो
गुरूद्वारों में आकर भी ऊच नीच का भेदभाव नहीं छोडती। अन्दर से मैल जाती ही नहीं।
संभालो अपने महाराज को ..............आराम से बैठो मैं नही आती गुरूद्वारे। मैने
क्या लेना है आपके महाराज से।’’ उस समय महेन्द्रो की इस क्रोध भरी आवाज से मॉं और अन्य सभी
एक तरह शान्त चित हो गयी थी। आवाज सुनकर, बहुत से लोग जो सेवा कर रहे थे लंगर हाल
में आ गए थे। जब बात का पता चला तो बहुत से बुजुर्ग और अनुभवी लोगों ने मॉं को ही
गलत ठहराया। माँ को इन लोगो से पीछा छुड़ाना ही मुश्किल हो गया था।
अब मैं देखती हूँ
कि पवित्र, ढण्ढ मण्डली के बार-बार जलील करने के पश्चात् भी हैड साहिब चुप रहते है। मैं
हैरान हेाती हूँ , कैसे बर्दाश्त कर लेते है। ये लोग चीख
क्यों नही मारते? मैं सोचती हूँ, अगर हैड साहिब, निर्मल, गुरदीष, प्रवीन बाला,
दयाल और मास्टर
गुरनेक जैसे लोग हिम्मत दिखाए तो माँ की तरह ढण्ढ पवित्र मण्डलो को भी पीछा छुड़ाना
मुश्किल हो जाए। मेरी समझ से यह बात बाहर है कि ये लोग इस चीख को अपने कंठ में ही
दबाकर क्यों रह जाते है?
सुरजीत सिंह वरवाल,सीनियर रिसर्च फेलो, विभाग-हिंदी
डॉ हरी सिंह
गौर विश्विद्यालय, सागर,मध्य
प्रदेश, भारत
मो-9424763585
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