अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
विस्थापन का संकट आदिवासी
प्रतिरोध और हिंदी उपन्यास डा.शशि भूषण मिश्र
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
आदिवासी केन्द्रित रचनाओं में जिस प्रामाणिकता और यथार्थ की
माँग बराबर उठती रही है उसकी पूर्ति पिछले दो दशकों में आए हिंदी उपन्यास काफी हद
तक करते हैं| उजड़ते जंगलों और टूटते स्वप्नों के बीच उपजे
आदिवासियों के प्रतिरोध के गूंजते स्वर इन उपन्यासों मे सुने जा सकते हैं| ये
उपन्यास आदिवासियों के जीवन और अस्मिता के मूलभूत सवालों से टकराते हुए विमर्श का
नया कैनन तैयार करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| जनजातीय
समूहों की तमाम विविधताओं को समेटते हुए उनके जीवन से गुंथे कई सूक्ष्मातिसूक्ष्म
सन्दर्भों को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया है|
समकालीन उपन्यासों में आदिवासी जीवन के अनछुए
प्रसंगों,संश्लिष्ट अनुभवों और बहुस्तरीय संघर्षों को नए ढंग से
देखने की कोशिश की गई है| इस सन्दर्भ में रणेंद्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ तथाकथित
आधुनिक समाज के विकास संबंधी मॉडल को नकारता एक विचारोत्तेजक आख्यान
प्रस्तुत करता है| रणेंद्र इस उपन्यास में ग्लोबल गाँव के देवताओं के साथ
स्थानीय देवताओं के कारनामों को भी बेनकाब करते हैं| एक तरफ भिन्न –भिन्न सभ्यता –संस्कृति और भाषाई विविधता को कमजोर कर वैश्विक
गाँव के निर्माण का छद्म गढ़ा जा रहा है तो दूसरी ओर उसकी आड़ में आदिवासियों को
उनके भूगोल-इतिहास से वंचित किया जा रहा है| वैश्वीकरण आज खुद को मुख्य धारा की संस्कृति के
रूप में प्रतिस्थापित कर चुका है और मुख्य धारा की संस्कृति के
ठेकेदारों-संरक्षकों द्वारा आदिम जनजातीय समूहों को मिटाने की कोशिश कर रहा है- “ सामान्य तौर पर इन आकाशचारी देवताओं को जब अपने
आकाश मार्ग से या सेटेलाईट की आँखों से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड आदि राज्यों की खनिज सम्पदा, जंगल
और अन्य संसाधन दिखते हैं तो उन्हें लगता है कि इन पर तो हमारा हक़ है| उन्हें
मालूम है कि राष्ट्र-राज्य तो वे ही हैं, तो हक़ तो उनका ही हुआ| इन
खनिजों पर जंगलों में घूमते हुए लंगोट पहने असुर –बिरिजिया, उराव –मुंडा
आदिवासी, दलित–सदान दिखते हैं तो उन्हें बहुत कोफ़्त होती है| वे इन
कीड़ों-मकोड़ों से जल्द निजात पाना चाहते हैं|” [1]
प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर इन क्षेत्रों में रहने वाले
आदिवासी व्यवस्था की लूट का शिकार हैं| रणेंद्र
इस रचना में झारखंड के असुर आदिवासी समुदाय की भयावह व्यथा-कथा को व्यक्त करते हुए
‘आंतरिक उपनिवेशवाद’ की ओर हमारा ध्यान खीचते हैं| अंसारी, ठेकेदार, कन्हैया
पाण्डेय, राजेंद्र सिंह, बाबू अजोध्या सिंह, गोनू
उर्फ गणेश्वर सिंह राजपूत जैसे पात्र ‘आंतरिक उपनिवेशन’ के प्रतिनिधि चरित्र हैं| वेदान्त, शिन्डाल्को
जैसी कार्पोरेट ताकतें इस अभियान की नुमाइंदगी करती हैं | इसी
आंतरिक उपनिवेशवाद के प्रायोजित षड़यंत्र में लालचन असुर के चाचा की हत्या कराई
जाती है| बाबा शिवदास जैसे बहुरूपिये असुरों की सांस्कृतिक
स्वायत्तता में हस्तक्षेप कर मायाजाल रचते हैं| ललिता (लालचन की भतीजी ) जैसी स्त्री पात्र
जहाँ एक ओर बाबा की शक्ल में छुपे बर्बर चेहरे की असलियत को पहचानती है वहीं
दूसरी ओर लालचन से नाराजगी व्यक्त करते हुए असुर समाज के
पुरुषों की कमजोरी को सामने रखती है – “ मर्द खासकर असुर मर्द किसी के भी झाँसे में
आसानी से आ जाया करते हैं| कोई भी इन्हें आसानी से बेवकूफ बना लेता है| पुरानी
कहानियों से भी ये सीख नहीं लेते|” [2]
यह उपन्यास इस विमर्श को इतने में ही ख़त्म नहीं करता, इसे
और विस्तार देता है| असुरों के मिटते जाने की कथा के साथ विश्व के अन्य आदिवासी
समूहों के ख़त्म होते जाने के ज्वलंत प्रसंग भी उठाए गए हैं, मसलन
प्राचीन अमेरिका के इंका, माया , इंटैक और हजारों रेड इंडियंस इसी तरह मारे-भगाए
जा चुके हैं| मुख्य धारा के विद्रूपित सत्य को उद्घाटित करने वाली इस
रचना में झारखंड के आदिवासियों के साथ-साथ छत्तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे बसे
बिकने ,मणिपुर की इरोम शर्मिला ,केरल की सी.के.जानू ,महाराष्ट्र
के कोंकण की सुरेखा दलवी , छिंदवाड़ा की दयाबाई , मध्यप्रदेश
के रीवा जिले की दुवासिया देवी आदि की चर्चा करते हुए विमर्श के इस भूगोल को
विस्तार देते हुए राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय और
सत्ता के खूनी खेल की असलियत को स्पष्ट गया है| असुर
आदिवासियों की अपराजेय श्रम शक्ति और जिजीविषा को दिखाते हुए रणेंद्र लिखते
हैं- “अपने देवता सिंगबोंगा की तरह असुर आदिम जाति कभी नहीं थकती| आग
में उत्पन्न लोहा पिघलाने और पिघला लोहा खाने वाले वे लोग खुद ही लोहा थे|” [3] इस उपन्यास की महत्वपूर्ण स्थापनाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी
करते हुए मिथिलेश लिखते हैं– “ग्लोबल
गाँव के देवता वैश्वीकरण, मुख्यधारा की संस्कृति बनाम हाशिये की समानांतर संस्कृति के
बीच छिड़े संघर्ष के सवालों को बड़ी शिद्दत से उभारता है|” [4] आदिवासियों
को जिन खनिजों का लाभ मिलना चाहिए था , वह दूसरे ले रहे हैं| जिन
इलाकों में आदिवासी रहते हैं वो आमतौर पर बीहड़-सुदूर क्षेत्र हैं जहां खनिज
बहुतायत में मिलते हैं| इस क्षेत्र की धरती के गर्भ में बाक्साइट, लोहा और कोयला जैसे बहुमूल्य खनिज अटे पड़े हैं| पूंजी
के ढेर पर बैठी ताकतों की गिद्ध दृष्टि इन संसाधनों पर पड़ चुकी है और इनकी अनंत
भोग-लालसा की पूर्ति में मनचाहे तरीके से आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है| इनकी
लूट से इन धन कुबेरों का घर और कारोबार चमकता है और असुर जनजाति की जिन्दगी में
अन्धकार गहराता जा रहा है| रणेंद्र
इस उपन्यास में भूमंडलीकरण के घातक परिणामों को दिखाते हैं– “ युद्ध में विजय उसे मिलती है जो ज्यादा हिंसक ,ज्यादा
बर्बर और ज्यादा कुशल प्रशिक्षित हत्यारा होता है....युद्ध में विजय सत्य और न्याय
की नहीं हुआ करती ; जैसा कि हमें किस्सों-कहानियों में बताया जाता है|” [5]
आदिवासी समाज पर केन्द्रित राकेश कुमार सिंह का
उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है’ , संथाल आदिवासियों को केंद्र में रख कर लिखा गया
है| संथाल आदिवासी भारत के विभिन्न हिस्सों में फैले रहे हैं
किन्तु इनका मुख्य संकेन्द्रण झारखंड,उड़ीसा,असम और पश्चिम बंगाल में मिलता है| अपनी
स्वायत्तता, अपनी धरती और अपने वनों के लिए इस समुदाय ने जितनी शिद्दत
से विभिन्न लडाइयाँ लड़ी हैं ; मात्र विद्रोह कह कर उसका मूल्यांकन हमेशा ही
बहुत सीमित परिप्रेक्ष्य में किया गया है| यह उपन्यास संथालों के मुक्तिकामी अभियान के
साथ प्रारम्भ होता है और अंग्रेजों को बाहर खदेड़ने के संघर्ष के साथ आगे
बढ़ता है| सिद्धो-कान्हो द्वारा संथाल हूल को आधार बनाकर इसकी
कथावस्तु बुनी गयी है| हारिल मुरमू नामक पात्र के माध्यम से अंग्रेजों के समय से
लेकर संथालों के अब तक के संघर्षों को दिखाया गया है| उपन्यास
औपनिवेशिक सत्ता के अत्याचारों को दिखाते हुए आर्थिक शोषण को ब्योरेवार ढंग से
प्रस्तुत करता है- “ आदिवासियों ने अपने पराक्रम से जंगलों को जोता था| वन्य आपदाओं, हिंसक
पशुओं और प्राकृतिक विपदाओं को झेला था| जंगल काट कर अपने खेत गढ़े थे| ललमुहों
(अंग्रजों) की कम्पनी सरकार ने न उन्हें खेत दिए थे न हल , न बैल
और न ही बीज...फिर किस बात का रुपया वसूलते थे|” [6] अंग्रेजों ने जबरन नयी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों
के सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त किया और बिचौलियों का पूरा तंत्र निर्मित किया जिससे
उनका आर्थिक शोषण किया जा सके- “ जंगल के परम्परागत ढाँचे और ग्राम स्वाबलंबन की वन्य
सामाजिक सरंचना को कंपनी सरकार के हितों के अनुरूप ढालने के उद्देश्य से लार्ड
कार्नवालिस ने पूरी वन्य व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर डाले| भू
राजस्व की वसूली करने हेतु कम्पनी सरकार ने जंगल में एक नया वर्ग उत्पन्न किया| बिचौलियों
का वर्ग| साहू, बाबू और बन्दूक का प्रशासनिक तंत्र|” [7]
उपन्यास की इस शोषण गाथा के बीच युवा हारिल और लाली
की प्रेम -कथा रचना को नयी ताजगी देती है| यहाँ प्रेम की मस्ती में डूबते –उतराते
जीवन के कई रंग हैं- “ लाज भरी लाली पीछे मुड़कर भाग चली| खिलखिलाती
सहेलियां लाली के पीछे दौड़ पड़ी थीं| विजय फल से अभिभूत हो उठा था युवा हारिल का
मन...क्या चावल ,धोती और रुपए के लिए ही अपने मान प्रतिष्ठा की बाजी लगाकर
तीर खेलने उतरा था हारिल मुरमू ? इतने छोटे पुरस्कार –जिन्हें
हाट से खरीदा जा सकता था –के लिए कठिन अभ्यास करता रहा था हारिल मुरमू ? ना...!
हारिल की अभीप्सा थी लाली जो उसे रुईदास गढ़ की महारानी से भी सुन्दर लगती थी| लाली
की बोली बानी ...जैसे बारिश की बूंदों का पत्तियों से झरता संगीत...! हारिल मुरमू
के लिए तो लाली की नेह भरी आँखों में ही था उसका गाँव| अपना
जंगल| सारी दुनिया| लाली की कत्थई आँखें ही थीं बाघामुन्डी के उस
युवक धनुर्धर के जीने –मरने का निमित्त...!” [8] काव्यमय भाषा की मधुरता से आपूरित ऐसी प्रेमकथा जिसकी मिशाल देनी कठिन है| शब्दों
की पूरी संपदा को भी एक साथ इकठ्ठा कर लिया जाए तब भी शब्द कम पड़ जाएँ -हारिल और
लाली की अदम्य प्रेम कथा को व्यक्त करने में| खूंखार
व्यवस्था के खिलाफ लड़ता हारिल मुरमू मर कर भी अमर हो जाता है| जिसकी
आँखों के हरेपन में पृथ्वी जैसा बल,आसमान जैसी निश्छलता और नदियों जैसी जीवटता हो
वह भला कैसे मर सकता है|
उपन्यास में बंधुआ मजदूरी की समस्या को भी उठाया गया है| बेगारी
की घृणित प्रथा के कारण आदिवासियों का जीवन मुश्किल हो गया था| बेगारी
की प्रथा आदिवासियों को कर्जदार बनाती थी और यहीं से शुरू होता था अभावों का कभी न
ख़त्म होने वाला सिलसिला| उनकी जी-तोड़ मेहनत से उपजा सारा अन्न तो गोरे और सामंत हजम
कर जाते थे और खुद उनके बच्चे भूखे तड़पते-बिलखते जिन्दगी से हाथ धो बैठते| उन
नर-पिशाचों का जब इतने में भी जी नहीं भरता तो औरतों की आबरू पर हमला बोल देते – “आदिवासी किशोरियों-युवतियों को प्रायः अपने
तम्बू में खींच ले जाते थे| अकेली अदिवासिनें मद्यप ठेकेदार और वर्षों से स्त्री सुख को
तरसते रेल अधिकारियों की वासना पूर्ति हेतु उठा ली जाती थीं| राजमहल
क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति टुक-टुक ताकती रहने वाली उस बकरी की भांति थी जिसकी
आँखों के सामने से उसके छौने उठा ले जाता है कसाई| रिरियाती-गिड़गिड़ाती आदिवासी स्त्रियों को
खींचते देख माथे पर हाथ रखे मूक ताकते रहते थे निर्बल वनवासी| प्रात:
घायल स्तनों ,खरोंचों से भरे चेहरों और रक्त के थक्कों से लिथड़े
योनिकोशों के साथ तम्बुओं से बाहर फ़ेंक दी जाती थीं|” [9] नील की खेती के लिए इन आदिवासियों का पशुओं की तरह शोषण
किया गया| हाड़ तोड़ मेहनत के बाद अपने श्रम का हिस्सा तक मांग पाने की
हिम्मत नहीं जुटा पाते थे| आदिवासियों के अथक श्रम और उनके अवदान को उपन्यास में
परत-दर-परत उघाड़ते हुए लेखक ने कई महत्त्वपूर्ण सवाल खड़े किए हैं|
श्रीप्रकाश मिश्र का आदिवासी जीवन पर केन्द्रित उपन्यास ‘रूप
तिल्ली की कथा’ वर्ष 2006 में लोक भारती प्रकाशन से आया| इस
उपन्यास में मेघालय में बसने वाली खासी जनजाति के सांस्कृतिक आयामों को केंद्र में
रखकर आदिवासी अस्मिता के प्रश्नों को उठाया गया है| रूप तिल्ली पूर्वोत्तर प्रांत की एक पहाड़ी है
जिसके प्रांतर में निवास करने वाली खासी जनजाति की सामूहिकता और पारस्परिकता की
संस्कृति इस उपन्यास के समूचे संवहन में विन्यस्त है| रूप
तिल्ली की कथा 18वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक खासी जनजाति के भूगोल से चलकर
इतिहास में परिणत हो जाने वाली ऐसी कथा है जिसमें भय है, निर्ममता
है, जातीय सुख समृद्धि के लिए आत्मबलि और नरबलि का विधान है| मिश्र
जी खासी समाज के जीवन –जगत संबंधी रहस्यों पर विचार करते हुए नरबलि के
औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं| नरबलि के सम्बन्ध में देवधर झकाड़ी का कथन कितनी
मासूमियत से प्रकृति एवं मानव जीवन के मर्म को भेद जाता है- “ आदमी का जीवन खाकर जो
आदमी को जीवन दे , भला वह भी कोई देवता ! जो आदमी कोप लेने वाला होगा वह क्या
आदमी को खाएगा ? लेकिन यह सब तो तर्क की बात नहीं है, विश्वास
की बात है| तर्क की सीमा होती है , विश्वास की नहीं|” [10]
खासी राज्यों का जनतांत्रिक विधान और मातृप्रधान समाज में
स्त्री की दोयम स्थिति जैसे मुद्दों को संजीदगी से उठाते हुए कबीलाई समाज की
द्रवीभूत करने वाली स्थिति का विश्वस्त रेखांकन इस रचना में किया गया है| समस्याओं
की विपुलता के बीच स्त्री जीवन के कई उलझे-अंधकारमय प्रसंग यहाँ
पैबस्त हैं| जयन्ती किस प्रकार अतीत से चिपके रहने की जिद को आजीवन
ढोती है और अपनी इस मान्यता को अपरिवर्तनीय और सर्वश्रेष्ठ समझने का
दंभ भी पालती है| सब कुछ स्वीकार कर लेने और अपनी चेतना को गिरवी रख देने की
स्थितियों को जयन्ती के इस कथन में देखा जा सकता है- “ राजा का काम आइन चलाना होता है, बनाना
नहीं...आइन हमें परंपरा से मिलता है...परंपरा कोई नहीं बदलता क्योंकि परंपरा ही एक
कौम की पहचान बनाती है,वही अपने लोगों में एका स्थापित करती है|”[11] दूसरी ओर लेखन ने राली जैसी एक संभावनाशील स्त्री का चरित्र
रचा है जो इस परंपरा में परिवर्तन की जरूरत महसूस करती है| वह
इस झूठे गुमान को तोड़ना चाहती है कि उस समाज की परंपरा ही सर्वश्रेष्ठ
है| एक ऐसी परम्परा जिसमें सारे निर्णय करने का अधिकार राजा को
हो , वह ऐसी परंपरा बदलना चाहती है- “असली शासक वह स्वयं है; रियेम
नहीं, कि जिसने प्रजा को नर-बलि जैसी जघन्य परम्पराओं से मुक्ति
के लिए कोई प्रयास नहीं किया| उसे अपनी शक्ति का उपयोग कर नया क़ानून बनाना
चाहिए|”[12] लेकिन जयंती का जड़ विश्वास इससे भी नहीं टूटता| उसके
विचारों से खासी समाज की स्त्रियों की मानसिकता को पढ़ा जा सकता है| यहाँ नैतिकता, अनैतिकता,क्रूरता और कर्मकांड सब मौजूद हैं ,प्रत्यक्ष
हैं| प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के अलावा इस
उपन्यास में संस्कृतीकरण की समस्या को उभारते हुए यह दिखाया गया है कि गारो-खासी
पहाड़ियों के बीच रहने वाले इन आदिवासियों को एक ओर ईसाई समुदाय ईसाईयत में तब्दील
करने की कोशिश करता है तो दूसरी ओर हिन्दू समुदाय इस बात का प्रतिरोध करते हुए
उन्हें अपने में मिलाने की बाध्यकारी स्थितियां आरोपित करता है| उपन्यास
की अंतर्वस्तु में गहरे उतरकर जनजातियों के मानस को पढ़ने की ईमानदार कोशिश करते
हुए लेखक ने बहुत स्पष्टता से यह दिखाया है कि ये आदिवासी दोनों ही धार्मिक समूहों
में शामिल नहीं होना चाहते बल्कि अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं|
गौरीनाथ द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘बया’ में
धारावाहिक क्रम में छपते ही चर्चा में आया संजीव बख्शी का उपन्यास ‘भूलन
कांदा’ आदिवासी विमर्श की महत्वपूर्ण कड़ी है| छत्तीसगढ़
के जनजातीय समूहों में आज भी ऐसी मान्यता है कि धरती के भीतर जड़ों वाले भूलन कांदा
पर पैर पड़ने से व्यक्ति अपना रास्ता भूल जाता है| समय के चक्र में जड़ हो जाता है| यह
रचना छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज की गहन पड़ताल करती उनके मन की तहों में पड़े
जख्मों की सूक्ष्म निशानदेही की है| अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित होने की व्यथा
और खूंखार व्यवस्था की भेंट चढ़ते आदिवासियों के जंगल और जमीन के सवालों से टकराती
यह रचना उत्तर–आधुनिक समय–समाज की विखंडनीय स्थिति का प्रति-विमर्श रचती
है|
उपन्यास की कथा कोटवार यानी स्थानीय लोगों और उस इलाके के
चौकीदार की हत्या से शुरू होती है| दरअसल उसकी मृत्यु दुर्घटनावश होती है पर पुलिस
के लिए तो वह हत्या है| हत्या के कारणों की छानबीन करने वाला दरोगा उस
स्थानीय भूगोल और जनजीवन से लगभग अपरिचित सा है इसलिए तथ्यों का पता लगा
पाना उसके लिए संभव नहीं हो पा रहा है| उस क्षेत्र के सभी आदिवासी जानते हैं कि
यह हत्या नहीं एक संयोग है इसलिए सभी सामूहिक निर्णय लेते हैं है कि
कोई कुछ नहीं बोलेगा| चौकीदार यानी बिज्जू का जाना सभी के लिए तकलीफदेह तो
है पर दुर्घटनावश हल की फार लगने के कारण भकला को यदि जेल जाना पड़ा तो उसके परिवार
और छोटे –छोटे बच्चों का क्या होगा ! यही वह कारण था जिसके चलते यह
सामूहिक निर्णय लिया गया था| मुखिया के प्रति पूरे गाँव का विश्वास अटूट था
और मुखिया का निर्णय पूरे गाँव के लिए सर्वमान्य| भकला
का पड़ोसी जंगहा यह अपराध अपने सर ले लेता है| वह यह निर्णय किसी के दबाव में नहीं
लेता बल्कि उसे चिंता है कि कहीं पुलिस को पता चल गया तो भकला का परिवार संकट में
आ जाएगा | दया आधारित न्याय का यह अन्यतम उदाहरण है जिसे
हमारा कानून भले ही न माने पर हमारी आत्मा का कोई अंश तो इसे मानता ही है| जंगहा
जीवन में पहली बार दाल ,रोटी और सब्जी का आनंद एकसाथ लेता है ,मानो
जेल उसके लिए वरदान हो गया| गाँव का भूखा –बीमार जंगहा जेल में स्वस्थ हो जाता है| यहाँ
हमे प्रेमचंद और गांधी दोनों की याद आती है| आज हमारी पूरी न्याय प्रणाली से मानवीय
चेहरा गायब सा हो गया है| शहरी अदालतों के वकीलों ,बिचौलियों और कोर्ट के किताबी निर्णय प्रक्रिया
में संवेदना रिस चुकी है | बहरहाल संजीव बक्शी का यह उपन्यास एक रास्ता
बताता है| आदिवासियों की सामूहिक संस्कृति ही रचना का प्रस्थान बिंदु
है| उपन्यास का मूल्यांकन करते हुए विष्णु खरे ने कहा है कि - “आदिवासी समाज में संकटग्रस्त व्यक्ति को अकेला
छोड़ देने की नहीं, सामूहिक रूप से संकट के निवारण की प्रवृत्ति और सामाजिक
परम्परा है और यह उपन्यास इसे प्रमाणित करता है| ” [13] उपन्यास पाठक के मानस को मथता है और सोचने के
लिए बाध्य करता है कि हमारी सारी उपलब्धियां मानवीय दृष्टिकोण के अभाव में कितनी
बौनी हैं|
विकास किसके लिए किया जा रहा है ? उन
मुट्ठी भर पूंजीपतियों के लिए या उस अंतिम आदमी के लिए जिसके पास न रुतबा है ,न
ताकत है और न ही पूंजी का अथाह भण्डार| सवाल यह उठता है कि यह विकास किस कीमत पर किया
जा रहा है ? विकास के इन तमाम विचारणीय सवालों से बाबस्ता कराती महुआ माजी की
रचना ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ आदिवासियों के साथ व्यवस्था द्वारा किये जा रहे
क्रूर मजाक का हलफनामा है , दूसरे शब्दों में कहें तो आदिवासियों के विपर्यस्त समय की
विपर्यस्त दास्तान है| तैतीस अध्यायों और चार सौ दो पृष्ठों में फैला यह उपन्यास 2012 में राजकमल प्रकाशन से आया है| समाज
शास्त्रीय, मानव शास्त्रीय और पर्यावरणीय शोधपूर्ण समझ से लिखी
गयी यह रचना झारखंड की यूरेनियम खदानों से निकलने वाले विकिरण, प्रदूषण
और उसके बीच आदिवासियों के विस्थापन की पीड़ा को व्यक्त करती है| यूरेनियम
के रेडिएशन और उससे उपजे स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों ने पूरी दुनिया का ध्यान
खीचा है| उपन्यास में विनाश के व्यापक खतरों की ओर संकेत करते हुए
माजी लिखती हैं कि, “ परमाणु सयंत्रों में एक हजार मेगावाट बिजली पैदा करने से
करीब 27 किलोग्राम रेडियोधर्मी कचरा उत्पन्न होता है और
उसे निष्क्रिय होने में एक लाख साल से ज्यादा लग जाते हैं|” [14]
उपन्यास की कथा का
आरम्भ जाम्बीरा नामक ‘हो’ आदिवासी से होता है ; सात सौ पहाड़ियों के जंगल में रहने वाले ‘हो’ आदिवासियों के प्रतिनिधि जाम्बीरा से| उसकी आगामी पीढ़ी (जाम्बीरा का नाती संगेन) पर जो संकट मंडरा
रहा है उसे रचना के केंद्र में रखा गया है| संगेन के रूप में युवा पीढ़ी के प्रतिरोध और आक्रोश को
दिखाया गया है| आर्थिक तंगी के बावजूद अपने ताऊ की मदद से संगेन स्नातक तक की पढ़ाई पूरा करता
है और आदिवासी समुदाय की पर्यावरणीय समस्याओं को जानने लायक बनता है| जापान के परमाणु वैज्ञानिक प्रोफसर बोयदे ने मरंग
गोड़ा आकर जांच की और पाया कि वहाँ हवा में गामा किरणों की मात्रा अनुमन्य सीमा से दस गुना
ज्यादा है| मरंगगोड़ा के यूरेनियम खदान के आसपास के आदिवासियों की सांस्कृतिक धरोहर मिटने
की कगार पर है | आदिवासियों के हितों को दरकिनार कर मरंगगोड़ा की धरती से जो यूरेनियम निकाला जा
रहा है वह चारो ओर जहर फैला रहा है| संगेन ऐसे बुद्धिजीवियों का विरोध करता है जो महानगरों में विकिरण पर हाय -तौबा मचाते हैं लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में इस भीषण संकट
को देखने के बजाए अपनी आँखें मूँद लेते हैं| उपन्यास के अंतिम अध्यायों में विकास के वैकल्पिक
माडल की बेहद सारगर्भित चर्चाएँ समाहित की गई हैं | मोआर अनुरोध करता है कि- “ यूरेनियम को धरती के भीतर ही पड़े रहने दो| उसे मत छेड़ो वरना सांप की तरह वह हम सबको डस लेगा|” [15] उपन्यास विकास के समावेशी और बेहतर विकल्प के रास्तों की तलाश करता सिंहभूमि
के पूरे भूगोल को विविध सन्दर्भों में उभारता है|
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इन उपन्यासों में न
केवल आदिवासी जीवन और पर्यावरण पर गहराते संकट की ओर हमारा ध्यान खींचा गया है वरन विकास
के पूंजीवादी माडल की गंभीर विसंगतियों को भी पूरी विश्वसनीयता से विश्लेषित और
प्रश्नांकित किया गया है| आदिवासियों के विस्थापन और उसके फलस्वरूप उपजे उनके
प्रतिरोध की अनुगूंजें इन उपन्यासों में साफ़ सुनी जा सकती हैं|
सन्दर्भ-सूची
[1] रणेंद्र ,ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ,दिल्ली, चतुर्थ सं. 2013,पृ. 93
[2] पूर्वोक्त,पृ. 70
[3] पूर्वोक्त,पृ. 28
[4] मिथिलेश, वैश्वीकरण का त्रासद
आख्यान:ग्लोबल गाँव के देवता, आलोचना, दिल्ली,अप्रैल-जून, 2013,पृ.101
[5] रणेंद्र,ग्लोबल गाँव के देवता, पूर्वोक्त, पृ.42
[6] राकेश कुमार सिंह,जो इतिहास में नहीं है,भारतीय ज्ञानपीठ,दिल्ली,प्र.सं. 2005,पृ.39
[7] पूर्वोक्त, पृ. 40
[8] पूर्वोक्त, पृ. 71
[9] पूर्वोक्त, पृ. 51-52
[10] श्रीप्रकाश मिश्र,रूप तिल्ली की कथा,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,प्र.सं.2006,पृ.136
[11] पूर्वोक्त, पृ. 34
[12] पूर्वोक्त, पृ. 42
[13] विष्णु खरे,दैनिक भास्कर, 05 अप्रैल, 2012,रायपुर
[14] महुआ माजी, मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,प्र.सं. 2012,पृ. 37
[15] वही,पृ. 402
डा.शशि भूषण मिश्र,सहायक प्रोफेसर-हिंदी,
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाँदा,उ.प्र.ई-मेल:sbmishradu@gmail.com,मो.9457815024
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय बाँदा,उ.प्र.ई-मेल:sbmishradu@gmail.com,मो.9457815024
एक टिप्पणी भेजें