आत्मकथाओं में अभिव्यक्त स्त्री जीवन का साक्ष्य
मुदनर दत्ता सर्जेराव
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
आत्मकथा भी प्रथमत: और अन्तत: एक कथा ही है। उसे
आत्मकथा बनाने वाला तथ्य केवल लेखक का यह दावा है कि वह उसकी अपनी अपने जीवन की
सच्ची कथा है। कथा यानि व्यतिक्रम। रोजमर्रा में ऐसा कोई उलटफेर या ऐसा कुछ
अप्रत्याशित जो उसे दैनंदिन का विलोम बनाए। आत्म की दैनंदिनी उसकी कथा है और वह
कथा अपने व्यतिक्रमों से कहने.सुनने.लिखने.छपाने या छिपाने लायक बनती है। उसका
आत्मकथा होना मानो लेखिका का अपने पाठक के साथ एक अनुबंध है कि वह जो कहेगी। सच-सच
और सिर्फ सच कहेगी यही उनकी प्रमाणिकता हैं। इस अनुबंध के अलावा उसके सच का और कोई
साक्ष्य नहीं।
एक निश्चित वास्तविक स्त्री व्यक्ति के जीवन का बयान
होने के कारण उसके भौतिक परिणाम भी उसी अनुपात में पारिवारिक.सामाजिक प्रतिशोध
विद्रोह या ध्वंस हो तो यह भौतिक परिणाम भी उसी अनुपात में पारिवारिक.सामाजिक
प्रतिशोध या दंड या संबल.सहयोग.समर्थन का रूप ले सकते हैं। व्यक्तिगत होते हुए भी
आत्मकथा यूँ सामाजिक जीवन और परिवर्तन का दस्तावेज होती है और कई बार कारक
भी।समकालीन आत्मकथा साहित्य में स्त्री लेखिकाओं द्वारा स्त्री पर लेखन एक
महत्त्वपूर्ण आयाम बनकर उभरा है। स्वयं भुक्तभोगी होने के कारण अपनी वैचारिक
स्थिति को लेखिकाओं ने बहुत प्रामाणिकता के साथ अपनी आत्मकथाओं में रखा हैं।
दलित स्त्री और सवर्ण स्त्री एक साथ कई वर्चस्वशाली
अस्मिताओं पर कड़े सवाल करती हैं और शोषण करने वाली व्यवस्था की जटिलताओं को
उभारती हैं। इन आत्मकथाओं को व्यक्तिगत ब्यौरों से अधिक देखा गया है। इनकी
व्याख्या व्यक्तिगत जीवन के टेस्टीमोनियों ;साक्ष्य व वृत्तांत के रूप
में की गयी है, जिसमें मानसिक आघात, पीड़ा, प्रतिरोध, गरीबी,तिरस्कार व अपमान, घृणा और क्रूरता को सहन करने वाली अनेक रोजमर्रा में घटित होने वाली घटनाओं का
वर्णन है। इस सबके बावजूद इन आत्मकथाओं का अंतिम लक्ष्य अवसाद नहीं है इनमें
विरोध और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा है। इस संघर्ष से उपजी उर्जा से वे अपनी
चेतना का पुन:निर्माण भी करती हैं। पाठक इन आत्मकथाओं को पढ़ते हुए अभिव्यक्त
अवसाद व पीड़ा की बैचेनी से गुजरता है और उसे यह आभास होता है कि ये व्यक्तिगत
पीड़ा का आख्यान न होकर ऐतिहासिक साक्ष्य हैं,जो बेबी कांबले की आत्मकथा जिण
आमुचं (जीवन हमारा) और सरला एक विधवा की आत्मजीवनी आत्मकथाओं में दिखाई देता हैं।
जिन बच्चियों ने रंग.बिरंगे कपड़ों गहनों और
मिठाइयों से खुश होते हुए नासमझी की उम्र में जीवन भर के एक बंधन को अनजाने ही
स्वीकार कर लिया हो जीवन के क्रम में अचानक ही उनसे उनके कपड़े और गहने छीन ही
नहीं लिए जाते बल्कि सहज सामान्य जीवन जीने का अधिकार भी छीन लिया जाता है। उम्र
अधिक हो जाएगी तो विवाह की समस्या होगी इसलिए अबोध उम्र में ब्याह के बंधन में
बाँध दिया जाता है। अब विधवा हो गई तो समस्या यह है कि कहीं जीवन की रंगीनियों ने
आकर्षित कर लिया तो क्या होगा जाहिर है जीवन को बदरंग करके रंगीनियों से उनका
बचाव ही तो किया जा रहा था। जीवन के रंगों के प्रति उनका आकर्षण या ठीकरे में हीरे
की परख करने वाले पुरूष समाज के सदस्यों की ज्यादतियों की बात यदि किसी प्रकार
गर्भावस्था तक पहुँच गई तब देखें गर्भपात के वह.वह उपद्रव और प्राणांतक कष्टदायी
व्यापार किए जाते जिन्हें सुनकर पत्थर का भी कलेजा पसीजे और राक्षसों के भी रोंगटे
खड़े हों। अर्थात ऐसी अवस्था में जिसमें श्वास लेना भी कठिन हो जाता है और जब अपने
सिर के बाल बदन को बोझ रहते लेटाकर चार.चार स्त्रियों का पेट चढ़ना और पैर से पेट
को रौंदना, कूदना कि जिसमें प्राय: प्राण व्यय भी हो जाया करता है, यूँ ही बच्चों
को मारकर निकालना इस तरह से स्त्री जीवन है। स्त्री जीवन के बारे में सरला कहती
हैं कि पहले लड़की पैदा होना शुभ है किंतु स्वयं माता को भी लड़की के पैदा होने से
वह प्रसन्नता नहीं होती जो उसे लड़के के पैदा होने में होती है। तीसरी लड़की पैदा
होते ही लोग दुख मना लेते है इसलिए इसके मरने पर उन्हें दुरूख करने की आवश्यकता
नहीं रहती। इसके विपरीत लड़के के पैदा होते ही लोग खुशी मनाते हैं इसलिए उसके मरने
पर वे दुरूख करते हैं। सोचने लगी कि इन सब बातों का कारण क्या है ईश्वर ने लड़की
और लड़के दोनों को ही बनाया है। उसकी सृष्टि के लिए संसार के हित के लिए, उसकी
उन्नति उसके अभ्युदय के लिए दोनों ही एक से आवश्यक हैं। बिना पुरूष के संसार
स्थायी नहीं हो सकता साथ ही बिना स्त्री के वह मिनट भी नहीं चल सकता। दोनों के
उद्देश्य एक.से हैं। दोनों की आवश्यकता एक.सी है।
अपने.अपने उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त दोनों की
प्रकृति में भेद अवश्य हैं, किंतु यह भेद किसी बड़प्पन या हीनता का द्योतक नहीं
है। यदि पुरूष किसी एक बात में बड़ा है तो स्त्री किसी दूसरी बात में बड़ी है
वर्ना एक दृष्टि से तो यह भी कहा जा सकता है कि समाज के हित की दृष्टि से स्त्री
अधिक उपयोगी हैए क्योंकि समाज का साँचा वही है और अपने ही अनुसार वह
समाज.व्यक्तिगत पुरूषों के समूह को ढालती है। इस दृष्टि से स्त्री पुरूष की
अपेक्षा अधिक महत्त्व की वस्तु है। प्रश्न उठने लगे कि यह सब होते हुए भी स्त्री
की अपेक्षा पुरूष का आदर अधिक क्यों है।
संसार रूप बाजार में पुरूष का आदर अधिक है क्योंकि वह उपार्जन करता है, क्योंकि उसके द्वारा धन की आय और उसकी वृद्धि होती हैं। स्त्री लक्ष्मी होते हुए
भी पैदा नहीं करती इसी कारण से उसका मान कम है। यदि वह भी उपार्जन करती होती तो
पुरूष जैसा ही उसका मान.सम्मान होता। पुरूष लड़का पैदा करता है। वह सदा माता.पिता के पास रह सकता हैए सदा वह
उनकी सेवा.सुश्रूषा भी कर सकता हैए वृद्धावस्था में वह उनका सहारा होता है। इसके
विपरीत कन्या धन लाने के बजाय लेकर जाती है। वह सदा साथ भी नहीं रह सकती। इसलिए स्वार्थमय
संसार में उसका उतना मान नहीं जितना की लड़के का।
दिल जले हैं
ग़म से औए आँसू बहाना मना है
आग घर में लग रही है औए बुझाना मना है।
है जिगर में शोला औ' नाल उठाना मना है
चाक पर है चाक औए मरहम लगाना मना है।
लेखिका अपने बाल.विवाह की दयनीय स्थिति का वर्णन
करती हुई लिखती हैं कि 'याद नहीं किंतु सोचने से एक धुँधला चित्र दिखाई दे जाता
है। उस समय अवस्था मेरी बहुत कम थी। सुनती हूँ कि मैं ७ या ८ वर्ष की थी। घर में
चारों ओर धूम.धाम ती। चारों ओर आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। क्योंकि बाबूजी ने
अपने सब गाँवों से आदमियों को बुलवा लिया था। मेहमानों का भी खासा मजमा था। खूब
चहल-पहल थी। यह सब मेरे विवाह की . जिसका अर्थ तब तो क्या अब तक मैं नहीं समझी हूँ । किस्सा कोताह दो-तीन दिन बाद बारात आई। एक बेगाने लड़के के साथ
जिसकी सूरत - सीरत कल्पनाशक्ति को बहुत दबाने से भी याद नहीं आती। मैं बैठाई गई घुमाई गई और क्या-क्या हुआ सो याद नहीं। आगे शादी के बाद का वर्णन करती हुई लिखती
हैं कि 'हाँ इतना अवश्य है कि बारात चली जाने पर मैं विवाहिता समझी जाने लगी।
अड़ोस-पड़ोस की कितनी औरते मुझे देखने आने लगी। कोई गहना देखता कोई मिठाई देता।
कुछ दिन बाद यह सब भी बंद हो गया और मैं साधारण जीवन व्यतीत करने लगी।
शादी से पूर्व के अपने सुखद व्यतीत जीवन का भी वर्णन
करती हुई लेखिका लिखती हैं कि 'मेरा एक
छोटा नन्हा.सा भाई था। इसी के साथ दिन.रात मैं खेला करती थी। उसका नाम मोहन था।
जैसा उसका नाम वैसा वह भी 'मोहन' ही था। मुझे बाबूजी सरला कहकर पुकारते थे।
दिन.रात हम भाई-बहन उन्हीं के कमरे में खेला करते थे। दास-दासियों की कमी न थी।
गुड़ियों-खिलौनों से जहाँ हम लोग रहते स्थान भरा रहता था। दोपहर के समय अम्मा भी
बाबूजी के कमरे में आ जाती थी।उस समय में मोहन उनकी गोद में होता और मैं बाबूजी की
गोद में होती थी। मालूम नहीं क्यों किंतु अब भी मेरा यही खयाल है कि बाबूजी मोहन
से अधिक मुझे प्यार करते थे। मुझे भी वे माता से अधिक प्रिय थे। इस प्रकार के सुखद और दु:खद जीवन के अनेक
वर्णन उनकी आत्मकथा में प्राप्त होते हैं।
विवाह के बंधन में बंधते समय सभी की कामना होती है
कि वर और वधु सात जन्मों तक प्रेम पूर्वक साथ रहें। दोनों की जोड़ी सदा बनी रहे
तथा घर परिवार में सदा सुख-समृद्धि की परिस्थितियाँ कायम रहें। लेकिन भविष्य के
गर्भ में कितने कटु सत्य पल रहे हैं, इसका किसी को अंदाजा भी नहीं हो पाता। स्त्री
का धन उसका पति होता है। नियति या दुर्भाग्य के कारण जब किसी स्त्री का पति इस
दुनिया को छोड़ देता है तो उस स्त्री को जीवन में असंख्य चुनौतियाँ और कठिनाईयों
का सामना करना पड़ता है। विधवा के रूप में उसे कड़े संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता
है।
सरला की आत्मजीवनी में भी विधवा विवाह के प्रश्न से
टकराहट नहीं होती बल्कि बहुत बेचैनी के साथ इस बहस में जाने की कोशिश होती है कि
स्त्री-पुरूष जीवन की यह असमानता जैविक है या मनुष्य निर्मित यह बहस बहुत सारे
लोगों को आज के समय में महत्त्वपूर्ण लगती है। स्त्री को विधवा होने के बाद किन
तकलिफों से गुजरना पड़ता है,सरला इसका कुछ इस तरह वर्णन करती है.पड़ोस की कुछ स्त्रियाँ आ गई कहने लगी, बहु को देखने
आई हैं। यह सुनकर मैं समझी मुझसे कोई बोलेगा किंतु बोला कोई नहीं। मैं भी सिर
नीचा किए हुए अपने पैर के नाखूनों को देखती थी या जब जी ऊब जाता तो जमीन पर अँगुली
से कभी बाबूजी और कभी मोहन का नाम लिखे उन्हें याद करती थी। मैं इसी धून में लगी
थी कि एक स्त्री को अपने पास ही बैठी हुई दूसरी स्त्री से मैंने यह कहते हुए सुना अरे बड़ी कुलक्षिनी मालूम होती है इसी से तो इस अभागिनी का पैर आते ही यह
सोने का घर राख हो गया।
जब स्त्री विधवा होती है तब अकेली रहकर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता
है। विधवा के लिए समाज में क्या व्यवस्था है, उसका क्या मूल्य है प्रश्न शाश्वत
है। तलाक शुदा विधवा स्त्री एक प्रश्नचिह्न है। सरला का पति मरने के बाद वह अकेली
हो जाती है, न ही घरवाले उसके साथ अच्छी तरह से बात करते हैं, न सासूजी बात करती
है। इसका वर्णन करती हुई कहती हैं कि 'मैं अकेली बैठी थी। एक मजदूरिन ने आकर कहा था सासु बुलाती है। चलते
समय मेरी अम्मा ने मुझसे कहा था, बाबूजी ने भी कहा था कि वहाँ भी तुम्हारी एक
अम्मा हैं। यहाँ कोई पूछनेवाला ही नहीं। मजदूरिन मुझे रसोई में ले गई। सासूजी ने
इतना ही कहा बैठ जाव। लाड़.प्यार की मैं आदी थी वह न था। भूख न हों फिर भी बातें
कर खिला देने वाली अम्मा के दर्शन न हुआ। मेरे सामने सासूजी ने थाली रख दी। सवेरे
से कुछ खाए न थी पेट जल रहा था किंतु रसोई में जाते ही मेरी सब भूख काफूर हो गई।
कवर मुँह में धँसता ही न था। नीचे सिर किए किसी प्रकार भर लेना चाहती थी किंतु वह
भी न होता था। सासूजी की ओर देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मैं यों ही सिर लटकाएँ
मुँह चलाते बैठी रही।
समाज में भी बाल.विवाह और स्त्रियों की अशिक्षा की
समस्या थी। जागरूकता के प्रचार.प्रसार के साथ ऊँचे तबके में शिक्षा का थोड़ा.बहुत
प्रचलन आरंभ भी हुआ तो फिर भेदभाव कि लड़कियाँ कौन.कौन से विषय पढें विज्ञान पढ़ने
के लिए भी लड़कियों को लड़ाई लड़नी पड़ी क्योंकि जो काम वे करती हैं मसलन खाना
पकाना बच्चों को बड़ा करनाए पत्र लिखना बुनाई करना और रोजमर्रा के हिसाब रखना
इतनी ही उनको शिक्षा दी जानी थी। सरला कहती हैं 'एक दिन दोपहर को बाबूजी और अम्मा
बैठी पच्चीसी खेल रहे थे। पास ही मोहन एक चित्रमय पुस्तक लिए पढ़ता था। चित्रों को
देख हमारी भी पढ़ने की इच्छा हुई। बाबूजी से हमने तुरंत ही कहा। वे जवाब भी न दे
पाए थे कि अम्मा कह बैठीए वाह बिटियों के पढ़ाने को कौन चोंचला है। लड़कियाँ भी
कही पढ़ती हैं क्या तुम्हें भी कहीं नौकरी करनी है.बाबू जी ने कहा, नहीं नहीं यदि तू पढ़ना चाहती है
तो पढ़। मैं तुझे स्वयं पढ़ाऊँगा। उस दिन से बाबूजी से तो कम ही मैं मोहन से
पूछ-पूछ कर पढ़ने लगी और कुछ ही दिनों बाद मैं रामायण बाँचने और शुद्ध लिखने
लगी। बीसवीं सदी के आरंभिक तीन दशकों की
सामाजिक स्थिति मराठी समाज में भी कमोबेश वैसी ही थी जैसी भारत के अन्य भाषा-भाषी
समाजों की थी। बाल-विवाह और विधवा विवाह का उदाहरण तो स्वयं रमाबाई रानडे का
जीवन है. जिनका विवाह ग्यारह वर्ष की उम्र में ३२ वर्ष के विधुर महादेव गोविंद
रानडे से कर दिया था।
सरला ७ या ८ वर्ष की थी. तभी उसका विवाह कर दिया
जाता है। सोचने से एक धुँधला चित्र दिखाई दे जाता है। वह बाल्यावस्था में ब्याह दी
गई और उसी अवस्था में वैधव्य को प्राप्त हो जाती है। विवाह क्या बला है. उसका अर्थ
क्या है. उसका महत्त्व क्या है. और वह क्यों किया जाता है. यह सब तो वह जानती थी
ही नहीं किंतु इतना सत्य अवश्य है कि इतना सुनकर कि उसका विवाह होगा उसे बड़ी खुशी
हुई। खेल में गुड़ियों के विवाह का खेल वह खेला करती थी। वह यह जानती थी कि विवाह
में गुड़िया को मेवें मिठाई गहने खिलौने खूब दिए जाते हैं। बस यहीं समझकर की उसे यह
चीजें खूब मिलेंगी वह मन ही मन फूलें न समाती थी। विवाह का इससे भी परे कोई अर्थ
है. यह उसके मस्तिष्क में था ही नहीं। सरला प्रश्न करते हुए लिखती हैं कि 'याद
आया कि मैं राँड़ हो गयी और उसके बाद विचार उत्पन्न हुआ कि पुस्तकों को छोड़ आज
प्रात: काल यह गुड़ियों.खिलौनों का साज कैसा क्या विधवा होने पर दुनिया से नाता
तोड़ खिलौने और गुड़ियों में ही समय बिताना पड़ता है. ही सर्वस्व हो जाते हैं.
घर की चार दिवारी में सरला अपने आपको अकेला समझती
हैं, घर में माता.पिता का प्यार मिलता है मगर विधवा होने के कारण जिस तरह से समाज
में स्थान मिलना चाहिए उस तरह से नहीं मिल पाता। घर में कोई कार्यक्रम हो तो वह
आगे नहीं आ सकती क्योंकि वह विधवा है। बचपन तो गुड़ियों.खिलौनों में ही बीत जाता
हैं। घर में सभी का प्यार मिलने के बाद भी अपने जीवन से वह संतुष्ट नहीं है। सरला
विधवा होने से पहले और विधवा होने के बाद का वर्णन करती है. 'घर में यदि किसी में
मुझे कोई परिवर्तन न दिखाई देता था,तो वह मोहन था। वह पहले की भाँति अब भी मुझसे
बोलता, हँसता खेलता किंतु वह अधिकतर बाहर रहता था और मैं घर देहरी नहीं डाक सकती
थी। जो चार दिन पहले दिनभर बाहर रहती थी. वही अब एक मिनट के लिए भी बाहर नहीं निकल
सकती थी। दिन-रात भीतर रहते-रहते मेरी दशा और भी खराब होने लगी। चेहरे पर पीलापन आ
गया। घर में भी आनंद न दिखाई देता। अम्मा और बाबूजी सदा उदास रहते। जब सुनते मेरी
ही चर्चा उनमें होती रहती। अड़ोस-पड़ोस जहाँ कहीं जो कोई मुझे देखता दुखी होता।
जहाँ सुनती यही सुनाई देता कि संसार में मेरे लिए सुख नहीं। यह सब देखए सुनकर मुझे
और भी कष्ट होता। पड़ोस की स्त्रियाँ सखी सहेलियाँ मेरे दुख पर शोक प्रकट कर मुझे
और पागल कर देती।
सरला अपने परिवारजनों की तारिफ करती हैए वे उसे बहुत
प्यार करते हैं, बहुत लाड़.प्यार से बड़ा किया है। मा-बाप लड़काए लड़कियों में
भेद नहीं करते। जब मोहन ने पढ़ना शुरू किया तो उसने भी पढ़ने की इच्छा जाहिर करने
पर उसे भी बाबूजी ने हाँ कर दी। मगर सरला को समाज में पुरूष जैसा प्यार मिल जाताए
तो आत्मकथा और तरह की दिखाई देती। इस आत्मजीवन में लेखिका के निजी जीवन से जुड़े वह
हिस्से हैं,जो जीवन के एक खंड की कथा के रूप में तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य में
स्त्रियों से जुड़ी अनेक सामाजिक समस्याओं को उभारकर सामने ले आती हैं।
जिण आमुचं (जीवन हमारा) को मराठी स्त्री आत्मकथा लेखन परंपरा में एक
महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अंत:स्फोट से लेकर अब तक कई आत्मकथाएँ लिखी जा
चुकी है। 'हमारा जीवन ' इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण आत्मकथा है. कि यह केवल बेबी कांबले के निजी सुख.दुख
उतार.चढ़ाव का चित्र मात्र नहीं है बल्कि यह एक दलित स्त्री की दृष्टि और उन्होंने
भोगे हुए यथार्थ के माध्यम से मरे हुए ढोर.डंगरों के जीवन के साथ.साथ पशु से भी
बदतर जीवन जीने के लिए विवश दलित समुदाय के जीवन का प्रामाणिक साक्ष्य है। इसे हम
दलित स्त्री की टेस्टीमोनी की संज्ञा दे सकते हैं।'जीवन हमारा' में स्त्रियाँ विशेषता
दलित स्त्री जीवन के विविध प्रसंगों जीवन स्थितियों के साक्ष्य बिखरे हुए हैं जो
एक ढंग से पाठक के समक्ष दलित समुदाय के जीवन स्थितियों के आँकड़े उपस्थित करते
हैं। स्त्रियों की आर्थिक स्थिति कई प्रकार की रही हैं। स्त्रियों की आर्थिक
परिस्थिति प्राचीन काल से लेकर आज तक समाधान कारक नहीं है। समाज में सर्वाधिक
आर्थिक शोषण दलित स्त्रियों का ही होता हैं।
आर्थिक परिस्थितियों के कारण हमारा समाज साल के बारह
महीने और इन बारह महीनों में केवल एक महीना ऐसा जिसमें उनके लिए आनंद की गुंजाइश
निकले। नहाना.धोना साफ.सफाई करनाए मीठा ढंग का खाना खा सकने वाला महीना
अश्विन.कार्तिक महीने में आनेवाली दीवाली के पर्व से भी ज्यादा उल्लास और उमंग का
महीना उनके लिए आषाढ का होता। ग्यारह महीने शापग्रस्त और एक महीना शापमुक्ति जैसा
उन्मुक्त। उन दलित.पीड़ित लोगों के जीवन का यही एक सुखद.सा सच था। वरना तो उनके जीवन में आनंद नाम का अनुभव दिखाई
नहीं देता। आर्थिक परिस्थिति के कारण राई.भर सुख की आस में ये लोग पहाड़ जितना दुख
उठा लेते हैं। बारह महीने सुख से रहनेवालों को भी शायद आनंद की वह अनुभूति नहीं हो
सकती जितनी ये लोग एक महीने में महसूस कर लेते हैं। इस महिने में इनके लिए जैसे
आनंद का सोता.सा झरता रहता। विश्व रचयिता ने पृथ्वी के इन दीन.हीन गुलामों के लिए
सुख की यह व्यवस्था कर दी थी। जिसने चोंच दी है वह चारा भी देगा इस सिद्धांत के
तहत भगवान ने बारह में से यह एक महिना इन्हें भी बख्शा होगा।
मोहल्ले की औरतें एकदो बजे तक सिर पर लकड़ियों का
बोझ लिए लौटती। दो.तीन डिब्बे पानी पीने पर उन्हें थोड़ी राहत महसूस होती। फिर
थोड़ा सुस्ताकर वे रोटी की टोकरी की तरफ लपकतीं। लेकिन क्या? टोकरी में जतन से
बचाकर रखी रोटी गायब। जाहिर है, उसे बच्चों ने खा लिया होता। सवेरे से कुछ खाया
नहीं। पेट में आग.सी लगती महसूस होती थी। ऐसी स्थिति में ये औरतें अपने आस-पड़ोस में रोटी माँगने जाती हैं। बेबी कांबले कहती हैं हमारा घर तो खैर अन्न का भंड़ार
था क्योंकि खानेवाले मैं और मेरी नानी ही थे। मेरी नानी रोटियों को धूप में सुखाकर
रखती थी। सूखने पर जब वे कड़क हो जाती तो उन्हें बड़े मिट्टी के बर्तन में रख देती
थी। जिस औरत के पेट में अन्न नहीं होता वह मेरी नानी के पास आती थी। मेरी नानी
दयालु थी। अपने.अपने घर में लकड़ियाँ रखकर औरतें हमारे घर आ जाती और नानी से कहती
बच्चों रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं छोड़ा।
इस तरह से दलित समुदाय भूखे.प्यासे मर जाता था। जब
डोम भीख माँगने रात को निकलते तो कंधे पर लंबा बड़ा झोला होता जो कंबल का बना हुआ
होता। हाथ में घुँघरू लगी लकड़ी होती अपने मोहल्ले में से वह छाती फुलाएँ ऐंठ में
निकलता। एक हाथ से मूँछों को ताव देता। गले से जोर.जोर से खँखारता हुआ मानो सवारी
निकली हो। अपने हात की लकड़ी उसे राजचिह्न लगती। कंधे का झोला वकील का कोट लगता।
जैसे ही अपना मोहल्ला खत्म होता और गाँव शुरू होता तो अपने.आप उसकी कमर झुक जाती।
धीरे.धीरे गर्दन झुकाए, शरीरी का बोझ लकड़ी पर डाल वह चलता। उसे देखकर बेबी कांबले
कहती हैं मुझे निराला की कविता याद आ जाती।
पेट पीठ मिलकर दोनों है एक
चल रहा वह लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
दो टूक कलेजे के करताए पछताताए पथ पर आता
दलित समुदाय को या स्त्री को संपत्ति का अधिकार
प्राप्त दिखाई नहीं देता है। संपत्ति के
नाम पर उनकी झोंपड़ी तथा कुछ घरेलु सामान ही होते है। भारतीय सामाजिक संरचना में
शूद्र कही जानेवाली जातियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उनमें स्त्री का स्थान तो
बहुत ही निचला है। यह आत्मकथा दलित समाज के शोषण उत्पीड़न व यातनाओं का दस्तावेज
है। दलित वर्ग के साथ इस अन्याय के बीज भारत की पुरातन सामाजिक संरचना में मनुवादी
जातिव्यवस्था के रूप में पड़े हुए हैं। इस आत्मकथा से यह बात पूरी तरह से स्पष्ट
हुई है कि दलितों की सारी समस्याओं के मूल में जाति है। सफाई और मैला उठाने का काम
दलित ही करते हैं। यदि दलित इसका प्रतिकार करते हैं तो उन्हें जातीय उत्पीड़न और
हिंसा का शिकार होना पह़ता है। समाज में दलितों के प्रति सदभावपूर्ण व्यवहार नहीं
किया जाता। सवर्णों के लिए उनकी पहचान एक डोम या भंगी ही है।
उच्च जाति का होने की ग्रंथि सवर्ण समाज की संवेदना
को अंदर ही अंदर खोंखला कर रही है। स्वर्ण समाज ने दलित समाज को सभी नागरिक
अधिकारों से तो वंचित किया ही है साथ ही प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित करने की
कोशिश की है। प्यासे व्यक्ति को पानी पिलाकर कोई भी आदमी पुण्य का काम समझता है, लेकिन दलितों के लिए इतना भी समाज में संभव नहीं है। गाँव में सवर्ण समाज के लोग
दलित समुदाय को जो काम कहते थे वह काम उनको करना पड़ता है । दलित समाज को भी लगता
था कि जो दूसरा समाज गाँव में रीति-रीवाज से रहता हैंए उसी तरह हमें भी रहना
चाहिए। बेबी कांबले कहती हैं कि इसके बावजूद आशा का नन्हा-सा पौधा था. जो हमारे
भीतर पलता रहता। गाँव के बाकी के लोग जिस सुख.सुविधा और रीति-रीवाज से रहते हैं काश हमें भी वह सुख उपलब्ध हो. यह आस हमारे भीतर बलवती होती रहती। लेकिन जिस समाज
में हमारी उपस्थिति ही अमान्य थी. वहाँ हमारी आस का पौधा लहलहाता कैसे? उन लोगों के मन में नकेल
ड़ालकर नहीं रखी गई तो हमें थोड़ी ढील दी गई तो हम उनके सिर के बाल नोच लेंगे।'
सवर्ण समाज ने इस
बात की गाँठ मार ली थी कि इन्हें दबाकर ही रखना है। यही वजह थी कि दलित लोग किसी
भी तरह अपने में ही मस्त रहकर छोटा-मोटा सुख अर्जित करने के प्रयत्न में रहते थे।
हिंदू धर्म के देवताओं से ही वे अपनी इच्छा पूर्ण करने की प्रार्थना करते। मन को
समझा.बुझाकर वक्त का इंतजार करते।
दलित समाज में हर घर की शान है घर का बड़ा बेटा।
बड़ा बेटा यानी पोतराज या वाघोबा घर के सम्मान चिह्न थे। अपने बेटे को पारंगत करने
की जिम्मेदारी पिता की होती थी। पोतराज या वाघोबा हो जाने पर परिवार को घर खर्च की
चिंता नहीं रहती थी। पोतराज ही पीढ़ियों से चला आ रहा आय का स्थायी स्रोत था। उसी
तरह वाघोबा भी। पूर्वजों की यही एक संपत्ति थी। पूरे वर्ष लाचार बेबस वंचित और
दमित जीवन बिताने वाली निरीह औरतों का देवता के नाम पर होने वाला यह कारोबार ही
उनके उदास टूटे भूखे जीवन को चलाए रखने का अंतिम जरिया था शायद। आषाढ़ के पूरे चार
सप्ताह डोम गाँव में खुशी की लहर.सी छाई रहती। सारे गाँव वाले देवी के लिए पाँच
पकवानों का नैवेद्य लेकर आते। बेबी कहती हैं 'घर आने तक बच्चे आधे से आधा खाना
खा चुके होते थे। घर की बहु अपनी तृष्णा दबाए लाचार नजरों से बच्चों को खाना खत्म
करते देखा करती और कुढती रहती। अगर सास को कभी उनका ख्याल आ जाता तो बच्चों के पास
से एकाध टुकड़ा लेकर बहू के सामने डाल देती और बहू को झिड़कते हुए कहती 'ले खा ! मेरे बच्चे के
खाने पर नजर लगाए बैठी है। पहले बच्चों को तो खा लेने दे ढंग से। क्या तब से दीदे
गड़ाए बैठी है।'
गाँव में दलित समुदाय सवर्णों को झुककर प्रणाम करता
है। जब दलित पुरूष या स्त्री सवर्णों को प्रणाम नहीं करती तो गाँव भर में घूमकर वे
गालियाँ देते हैं। बेबी कांबले लिखती हैं कि 'अरे छोड़ो छोड़ो। सवर्ण का गर्जन जारी रहता देख
रहा हूँ तुम डोम लोगों को आजकल ज्यादा ही चर्बी चढ़ गई है। मुफ्त का खाना जो मिल
रहा है। आज के बाद अगर इस तरह की हिमाकत हुई तो कतई माफी नहीं मिलेगी। अरेए तुमने
क्या हमें अपनी जात का समझा है. जो इस तरह बेअदबी दिखाते हो।'
सवर्ण समाज की स्त्रियाँ भी डोमनियों को गालियाँ देती जब उनका हाथ लग जाता
किसी सामान को। देर तक वार्तालाप चलता रहता। इसी संवाद के दौरान डोमनियाँ लकड़ियाँ
साफ करके एक कोने में लकड़ियाँ रख देती।दलित समुदाय में या परिवार में जब स्त्री
प्रसूतावस्था में रहती हैए तब जवार का दलिया तैयार हो जाता तब उस जच्चा को पीने के
लिए दिया जाता। घर में अगर तेल होता तो एक चम्मच तेल उस नरम दलिये में डाल दिया
जाता। जच्चा इस दलियों को पीने में पल भर की देर न करती। इस तरह एक वक्त की पेट की
आग शांत होती। घर की दरिद्रता के बारे में बेबी कांबले कहती हैं 'पहली जचगी के समय लड़की
माता.पिता के घर जचगी के लिए आती। वैसे मायके और ससुराल में कोई फरक नहीं था।
दरिद्रता दोनों ही जगह समान रूप से थी। अभाव की दुनिया के बाशिंदों के लिए क्या
मायका और क्या ससुराल। बेटी के बच्चा होने के दिन जैसे.जैसे नजदीक आते जाते
माता.पिता जलवान इकठ्ठे करते जाते। क्योंकि जच्चा को नहाने और सेंक के लिए
लकड़ियाँ चाहिए। लड़की के पेट में दर्द शुरू होने लगा कि मुसीबत भी शुरू हो गई।'
सवर्ण स्त्रियों के साथ सामाजिक व्यवहार नैतिकता से
किए जाते हैं लेकिन वही दलित स्त्री समाज में अनैतिक व्यवहारों का सामना करती हैं।
सवर्ण स्त्रियों का आर्थिक शोषण नहीं होता हैए लेकिन जाति के नाम पर दलित
स्त्रियों को अपमानित किया जाता हैए वह सवर्ण स्त्री के साथ नहीं होता
है।पढ़ी.लिखी कामकाजी स्त्रियाँ भी पुरूषों की आर्थिक सत्ता के नीचे स्वयं को दबा
हुआ पाती हैं। ऐसा है तो छोड़ दो नौकरी। किसने कहा था तुमसे नौकरी करने को तुम्ही को शौक चढ़ा था। जैसे उलाहने सुनने को मिलते रहते हैं। इन उलाहनों में एक
अप्रत्यक्ष भावना अपनी पूरी तीव्रता के साथ उपस्थित रहती है कि परिवार की आर्थिक
सुदृढ़ता पुरूष के कमाने पर ही बनी रह सकती हैए स्त्री के कमाने पर नहीं।
कामकाजी स्त्री घर और कार्यस्थल दोनों जगह कभी भी
चारित्रिक संदेह के घेरे में ले ली जाती है। बॉस या मालिक स्त्री को अपने अधिकारों
के दम पर प्राप्त करने का प्रयास करता है तो पति या परिवार का पुरूष स्त्री के
कार्यस्थलीय पुरूष संबंधों में गहनता की तलाश करता रहता है। स्त्री इन दो पाटों के
बीच पिसती रहती है। स्त्रियों को आज भी अपने गर्भ पर अधिकार नहीं है। बेटी की माँ
बनना उसके लिए कष्टप्रद जीवन के द्वार खोलता है जबकि बेटे की माँ होने में गौरव ही
गौरव है। वे तब तक संतानें जन्मने को विवश हैं जब तक वे परिवार को एक पुत्र न दे
दे। यह भारतीय समाज का सच है।
जिस वर्ग के
पास जमीन का मालिकाना हक है वहीं वहाँ मुख्य शक्ति हैए बाकी सब उस पर निर्भर हैं।
भूमिहीन दलित स्त्री मजदूरी करके ही अपना और परिवार का भरण-पोषण करती है। वह
खेतों खलिहानों सड़क निर्माण भवन निर्माण ईंट-भट्टों पर काम करते हुए सड़क
किनारे या कंटीली झाडियों में कपड़े के झूले में उपने बच्चे को सूलाकर ठेकेदारों
जमींदारों की झिड़कियाँ खाने को मजबूर होती है. शाम को चूल्हा जलने की आशा में बच्चों को एक आध रोटी देने की इच्छा से आग उगलते सूरज के ताप को सहने काम निपटाने
की चिंता में मग्न दिखती है। अपना पेट काटकर बच्चों के लिए कॉपी पेंसिल खरीदती है
इस आशा में कि कल पढ़.लिखकर बेटा या बेटी उसे इस गुरबत की जिंदगी से बाहर
निकालेंगे। पति हुआ तो शाम को सीधे काम से शराब के ठेके पर पहुँचेगा और लड़खड़ाता
हुआ खाली हाथ लौटकर उस औरत पर जो सारा दिन खटती रही पतिपन की धौंस जताकर दो.चार
हाथ जड़ देगा। मानसिक असंतुलन के धनी मर्दवादी पुरूष के विचार इससे दूसरे कैसे हो
सकते हैं। इन्हें औरतों का संसार निहायत गंदगी और कामाचार से भरा दिखता है। बेबी
कांबले कहती हैं 'सवेरे की चाय.रोटी के बाद मेरी नानी अन्य औरतों के साथ जलावन लाकर बेचती तो
बारीश में घास लाकर बेचा करती। रात को ही कुल्हाडी की धार तेज कर ली जाती।
कुल्हाडी और रस्सी को एक कोने में रख दिया जाता। सुबह एक.दूसरे को आवाज देकर सभी
औरतें लकड़ी लाने निकल पड़ती। मोहल्ले में पहुँचने तक औरतें पसीने से तरबतर हो
जाती। गर्दन ऐंठ जाती और हलक सूख जाता। रास्ते में जहाँ कहीं भी थोड़ी.सी छाँव
दिखाई देतीए वहाँ सिर का बोझ उतार दम.भर के लिए सुस्ता लिया करतीं। घर लौटकर आती
तो बच्चें टूटे टिन के डिब्बे में पानी लाकर देते। दो-तीन डिब्बे पानी पीने पर
उन्हें थोड़ी राहत महसूस होती।'
डॉ.अंबेडकर ने प्रारंभ से ही स्त्री शिक्षा और
स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत की थी। वे स्त्री सम्मान और नारी अस्मिता के सशक्त
पक्षधर थे। स्त्रियों की सही दिशा में उन्नति और प्रगति हो यह उनका मुख्य
उद्देश्य था। स्त्रियों के प्रति डॉ.अंबेडकर के ये विचारए इनके आदर्श महात्मा
बुद्ध फूले कबीर आदि से उत्पन्न हुए। विद्यार्थी जीवन में अमरिका प्रवास के दौरान
बाबा साहब अपने सहकारी जाधव पोपईकर को पत्र लिखा था। माँ -बाप बच्चे को जन्म देते हैं. कर्म नहीं ,यह गलत है। बच्चे
को उसके मन को माँ-बाप ही एक आकार देते
हैं। लड़कों के साथ लड़कियों को भी शिक्षा दी जाए तो अपनी प्रगति जोरदार होगी।
इसीलिए आपको नजदीकी रिश्तेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।'
किसी गरीब और अनपढ़ चमार या भंगी के घर पैदा होने वाले आदमी की नियति अपने
खयाल से क्या होगी गरीब है इसलिए पढ़.लिख नहीं सकता। तथाकथित ऊँची जाति में पैदा
होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले उसके संगी -साथी उससे नफरत करते हैं और
अछूत मानकर अलग.थलग रखते हैं। उसका अज्ञान उसकी गरीबी और उसके साथ किया जाने वाला
बरताव समाज के प्रति उसके ह्रदय को कठोर बना देता है। अपने पारंपरिक व्यवसायों को
छोड़कर दलित युवक नये.नये व्यवसायों में प्रवेश कर रहे हैं। उद्योग.व्यवसाय
वस्तुओं का उत्पादन मुद्रण तथा अन्य छोटे बड़े व्यवसायों में वह उतर रहा है।
सवर्णों से धीरे.धीरे इन व्यवसायों में पूरी जिद के साथ स्पर्धा कर रहा है। इस
प्रकार बाबासाहेब के सपनों के अनुसार जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में वह पूरी ताकत
के साथ खड़ा है।
दलितों के भीतर अपनी अस्मिता के प्रति अहसास की एक
चिनगारी डॉ.बाबा साहेब अम्बेडकर ने पैदा की है। यह चिनगारी धीरे-धीरे आग का रूप
धारण कर रही हैं। दलित समुदाय पर अत्याचार होते थे। इसलिए नहीं होते थे क्योंकि
वह गुलामी काए पशु का जीवन जी रहे थे। वे अन्याय और अत्याचर को अन्याय.अत्याचार
नहीं मानते थे। वे अपने को पशु से अधिक कुछ नहीं मानते थे। उनकी संवेदन क्षमता ही
नष्ट की जा चुकी थी। बाबासाहेब के विचारों के कारण उन्हें उनकी संवेदनशीलता वापस
मिल गई।
डॉ.बाबा साहेब अंबेडकर ने मानवाधिकारों से वंचित
दलितों को बुनियादी अधिकारों के लिए दलित मुक्ति आंदोलन का सूत्रपात किया था, जिसके अंतर्गत दलितों का जलस्त्रोतों पर अधिकारए मंदिरों में प्रवेश जैसे मुलभूत
अधिकारों की मांग की थी। जन्म और कर्म सिद्धांत का भय पैदा करके सदियों तक दलितों
के मन में निम्न जाति को कुंठाग्रस्त बनाए रखकर प्रस्थापित वर्ग अपनी स्वार्थ
सिद्धि में कामयाब हो गया था। बाबा साहेब ने सन् १९२७ से १९३० तक लगातार दलितों
के बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष किया। हजारों की संख्या में दलित
स्त्री-पुरूषों ने इस आंदोलन में हिस्सा लेकर अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष
किया। बेबीताई कांबले की आत्मकथा 'जिण आमुचं' में डॉ. अंबेडकर से प्रभावित होकर दलित समाज ने शिक्षा ग्रहण की। बेबी कांबले लिखती हैं 'जब से मैंने होश संभाला यानी उम्र के सात-आठ साल से
अंबेडकरी बाडे में हमारी सच्ची जिंदगी की शुरूआत हुई। बहिष्कृत समाचार पत्र
बाबासाहेब चलाते थे। पढ़े.लिखे नेता जब अंबेडकर आंदोलन की पत्रिका पढ़ने की शुरूआत
करते तब दोनों समूहों में ऐसी शांति छायी रहती की चींटी रेंगने तक की आवाज सुनाई
देती।'
१२ अक्तूबर १९२९ में पुणे के पार्वती मंदिर में दलित
स्त्रियों के प्रवेश हेतु आंदोलन किया जिनमें अनेक महिलाओं ने भाग लिया। इससे यह
स्पष्ट होता है कि डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों से दलित समुदाय प्रभावित था।
वर्तमान समय में स्त्रियों को पुरूषों के समान जो शैक्षणिक आर्थिक सामाजिक और
समस्त अधिकार प्राप्त हैं. इसका श्रेय हिंदू कोड बिल को जाता है। स्त्रियों को
पढ़ाने-लिखाने का रीति-रीवाज उस समय नहीं था। पढ़ने.लिखने का रीवाज केवल लड़को कोए
वह भी दलितोत्तर जातियों को ही था। दलितों में लड़का हो या लड़की पढ़ाने की रूचि
नहीं थी। लड़कियों को तो केवल पालपोसकर उनका विवाह करने तथा ससुराल में पति की
सेवा और जाति का काम करना ही कर्तव्य समझा जाता था। बेबी कांबले ने अच्छी तरह समझ
लिया था कि जातिभेद छुआछूत मनुवादी शोषण से मुक्ति पाना है तो सबकुछ भूलकर अपमान
उपेक्षा प्रताड़ना उलाहना सहते हुए शिक्षा ग्रहण करनी ही होगी।
महाराष्ट्र में उन्नीसवीं शती में सर्वसाधारण आम
स्त्री अबला मात्र थी। घर की चार दीवारों के बीच उस पर नाना अन्याय-अत्याचार किए
जाते थे। स्त्री को पढ़ने.लिखने का अधिकार नहीं था। बहुतांश मराठी स्त्री की यही
दुर्दशा देखकर महात्मा ज्योतिबा फूले, महर्षि कर्वे रानडे गोखले आदि महर्षियों ने
स्त्री के उत्थान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। पंडिता रमाबाई इस श्रेय मात्र
में एक तेजस्वी सितारा रही है। इस तेजस्विनी महिला ने दलित स्त्री और विधवा
स्त्रियों के भाल पर साक्षरता का चाँद उगाया।
जब दलित समुदाय की लड़कियाँ पाठशाला में जाती थीं, वहाँ ज्यादातर लड़कियाँ सवर्ण समाज की रहती थीं। वह दलित समुदाय की लड़कियों के
साथ छुआछूत से रहती थी। उन सवर्ण लड़कियों के जीवन में हम पहली बार उनसे छुआछूत
करने के लिए गए हैं, ऐसा उनको लगता था। इसके कारण भी ज्यादातर दलित समुदाय की
लड़कियाँ पाठशाला में नहीं जाती थी। बेबी कांबले लिखती हैं कि 'सब लड़कियाँ प्राइमरी
पाठशाला में पढ़ती थी। कुछ ब्राह्मण
लड़कियों को छोड़कर अन्य सभी जातियों की थी। गुजराती मराठी अन्य जातियों की कुल
मिलाकर हम दस ग्यारह लड़कियाँ थी। पर सभी एक.दो करके सभी कक्षाओं में बिखरी हुई
थी। जिसके कारण हर एक कक्षा हरिजनों से अशुद्ध होती।'
सभी लड़कियाँ बड़े ठाठ से बेंच पर बैठती परंतु उनको
कुत्ते के पिल्ले की तरह कोने में बिठा दिया जाता था। दलित समुदाय की लड़कियों को
पाठशाला जाते समय अच्छे कपड़े भी नहीं थे। पाठशाला के शिक्षक भी दलित लड़कियों के
साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। बेबी कांबले आगे लिखती हैं कि 'हमारे पास से
गुजरते वक्त वे मुँह से शी,शी करती तथा दोनों हातों से अपने कपडे समेटती हुए हमें
घृणा की नजर से देखती थी। टीचर ने हमें दरवाजे के पास कोने में बैठने की जगह दी
थी। वह कोना स्कूल छूटने तक हम नहीं छोड़ सकते थे। चूँकि बोर्ड के पीछे की जगह पर
हम लड़कियाँ बैठती थीए बोर्ड पर लिखा हुआ हमें दिखाई नहीं देता था।'
छुआछूत के कारण भी दलित लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती
थी। स्कूल छूटने के बाद लड़कियों का समूह जब पानी पीने के लिए नल पर जाता तब
सवर्ण लड़कियों का समूह थोड़ी दूर हटकर खड़ा हो जाता तौर गुस्से से उनको घूरने
लगती। कक्षा में जाते समय दलित लड़कियाँ ड़र जाती थीं। स्कूल खत्म होने के बाद
सवर्ण समाज की लड़कियां गालियाँ देती थी। इसके कारण भी लड़कियों को स्कूल जाने के
लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न होती थी। छुआछूत के कारण दलित लड़कियों के ऊपर अत्याचर किए
जाते थें। टीचर से लेकर स्कूल की सवर्ण
लड़कियों तक वह सब दलित लड़कियों का हर वक्त अपमान करती थी। इस कारण भी ज्यादातर
लड़कियाँ स्कूल नहीं जाती थी। स्कूल छूटने के बाद सवर्ण लड़कियों द्वारा घेरे जाने के बारे में बेबीताई कांबले लिखती हैं. 'इन लड़कियों का ग्रुप
हमें घेर लेता और हमारे ऊपर मिट्ठी फेंकता और कहती अरे वो अंबेडकर जरा पढ़ा क्या
गया है। इन लोगों को बहुत घमंड़ हो गया
है। मरा हुआ जानवर खाकर बड़े बन रहे हैं, वो डोम अंबेड़कर।'
इस प्रकार दलित स्त्री को स्कूल की पढ़ाई किन.किन
समस्याओं से होते हुए लेनी पड़ी इसका सही वर्णन बेबी कांबले की 'जिण आमुचंष' (जीवन हमारा) आत्मकथा में
प्राप्त होता है। यह केवल बेबी कांबले के जीवन में ही घटीत नहीं होता तो यह भारतीय
समाज के हर दलित स्त्रियों के जीवन में इस तरह की घटनाओं की कडियाँ हम देख सकते
हैं। अशिक्षा के कारण अंधविश्वास जातिगत भेदभाव के कारण सदियों तक समाज के हाशिए
पर रखे गए दलित समुदाय के शोषण अपमान अवहेलना घृणा और तिरस्कार से उभरे आक्रोश की
रचनात्मक अभिव्यक्ति है। वास्तव में यह शोषणए उत्पीड़न और वेदना को झेलते आ रहे
हैं। मूक वर्ग का समाज.व्यवस्था से विद्रोह है। दलित समुदाय में अशिक्षा के कारण
अनेक अंधविश्वास कोए उन्होंने अपनाया हैं। ब्राह्मणवाद के चंगुल में फंसी दलित
समुदाय का जीवन ऊपर नहीं आ पाया है। दलित स्त्रियों की खरीद.फरोक्त व शारीरिक शोषण
की घटनाएँ हर शहर व गाँव में रोज दिखाई देती हैं। ये घटनाएँ दोहरी मार है दलित
स्त्रियों पर जहां उन्हें रोज अपने पति व परिवार से पिटाई के साथ.साथ समाज की
अंधविश्वासी प्रवृत्ति से भी प्रताड़ित होना पड़ता है।
अशिक्षा के कारण दलित समुदाय अंधविश्वासों से किस
तरह ग्रसित हुआ है. इसका वर्णन बेबीताई कांबले की आत्मकथा 'हमारा जीवन' देता है। खास बात यह है
कि दलित समुदाय या डोम समाज में घर का सबसे बड़ा बेटा माँ-बाप द्वारा छोड़ा हुआ
होता है; (भगवान के नाम पर) उस लड़के को पोतराज के नाम से जाना जाता है। इस तरह से एक-दूसरे से बात करते समय अशिक्षा के
कारण दलित समुदाय अंधविश्वास से ग्रसित था। घर का बड़ा बेटा पोतराज बन जाता है।
वहाँ चावड़ी पर भी बड़े-बूढ़े
औरतें-बच्चें जमा हो जाते हैं। पोतराज को आरती गाते देख सब लोग विस्मय से
भर उठते हैं। बड़े.बूढ़े भी पोतराज की तरफ प्रशंसा भरी नजर डाल कहते 'अरे दगडू तूने तो सचमुच
अपने माँ.बाप का नाम रोशन कर दिया।'
यह सब
सुनकर पोतराज खुशी और गर्व से भर जाता। फिर वह नाचते और झूमते हुए लोगों के घर.घर
जाकर भीख माँगने लगता 'लक्ष्मी आई माँ का मदान वाडा। भिक्षा दे दो पोतराज को कोई
भी भिक्षा देने से मना नहीं करता है।'
इस
सबके पीछे का सच क्या है? यह आस्था क्या किसी पाखंड को ओढ़े खड़ी दिखाई देती हैं।
ऐसी बातें सवर्णों के समाज ने कभी दलित समुदाय को नहीं बताई। इनको अशिक्षा के कारण
कभी समझने ही नहीं दिया गया कि क्या सच है और क्या झूठ। दलित समाज की पीढ़ियाँ की
पीढ़ियाँ इसी तरह नष्ट हो गई। सवर्ण स्त्री और दलित स्त्री आत्मकथाएं एक साथ कई
वर्चस्वशाली अस्मिताओं पर कड़े सवाल करती है और शोषण करनेवाली व्यवस्था की जटिलताओ
को उभारती है. इन अत्मकथाओ को व्यक्तिगत ब्यौरों से अधिक देखा गया है इनकी
व्याख्या व्यक्तिगत जीवन के साक्ष्य व
वृतांत के रूप में की गई है, जिसमें मानसिक आघात, पीड़ा, प्रतिरोध, गरीबी ,तिरस्कार व अपमान,घृणा और क्रूरता को सहन
करनेवाली अनेक रोजमर्रा में घटित होनेवाली घटनाओं का वर्णन हैं। इस सबके बावजूत इन
आत्मकथाओं का अंतिम लक्ष्य अवसाद नहीं है इसमें विरोध और सामाजिक परिवर्तन की
आकांक्षा है इस संघर्ष से उपजी उर्जा से वे अपनी चेतना का पुनःनिर्माण भी करती है
.
स्त्री जीवन की अनेक समस्याएँ एवं पितृसतात्मक
व्यवस्था में स्त्री के बहुआयामी शोषण की अभिव्यंजना इन आत्मकथाओं में हुई हैं
स्त्री अशिक्षा,विधवा समस्या आदि अनेक समस्याएँ समाज में व्याप्त थीं पहली बार दोनों स्त्री
रचनाकारों ने स्त्री विषयक व्यापक सामाजिक समस्याओं के मूल कारणों को खोजने का
साहस किया। लेकिन संभवतः दोनों लेखिकाएं
सच बोलने के खतरे से वाकिफ़ थीं। साथ ही
अभिव्यक्ति के लिए उत्सुक भी , पाठक इन आत्मकथाओं को पढ़ते हुए अभिव्यक्ति अवसाद व पीड़ा की
बेचैनी से गुजरता हैं और उसे यह आभास हो जाता है कि यह व्यक्तिगत पीड़ा का आख्यान न
होकर ऐतिहासिक साक्ष्य है अत्मकथा भोगे
हुए सच और जीवन के अनुभओं का दस्तावेजीकरण है। स्त्री आत्मकथाकार जहाँ अपने जीवन
के कटु सत्यों को उजागर कर रही है। वहीँ उस परिवेश को भी दिखा रही हैं। जिसमें
उन्होंने अपना जीवन जीया हैं। आत्मकथा
लिखने का मतलब है आग का दरिया डूब कर पार करने की अंधी जिद्द है। आत्मकथा अपने को
तीखी निर्गम निसंग दृष्टि से देखने की कठिन साधना है।
संदर्भ
1 सरला :एक विधवा की आत्मजीवनी. प्रज्ञा पाठकएप्रण्सं 2008 परमेश्वरी प्रकाशन दिल्ली
२ जीवन हमारा बेबी काम्बले ;अनु ललिता अस्थाना 1995 किताबघर प्रकाशन दिल्ली
3 समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन सं.रंजीनी तिलक रंजनी
अनुरागी 2011स्वराज प्रकाशन दिल्ली
4 अम्बेडकरवादी स्त्री.चिंतन. सं.तेजसिंह 2011एस्वराज प्रकाशन,दिल्ली
मुदनर दत्ता सर्जेराव,पी.एच.डी,हिंदी,हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद,मो 09491231540
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