स्वानुभूति बनाम
सहानुभूति के आइने में साहित्य
राख ही जानती है
जलने की पीड़ा
अमरेन्द्र कुमार आर्य
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
हिन्दी में दलित
साहित्य की अवधारणा तेजी से उभरती हुई एक धारा है, जो पूरे हिन्दी साहित्य के पाठ और समझ को नए
सिरे से देखने और समझाने के लिए मजबूर करने का दावा कर रहा है। इसके अन्तर्वस्तु,
स्वरूप एवं रचनाकारों को
लेकर में एक बहस चल रही है कि दलित साहित्य के अन्तगर्त केवल दलितों के द्वारा
रचित साहित्य को रखा जाना चाहिए अथवा उस साहित्य को भी जो गैरदलितों द्वारा दलितों
के जीवन पर लिखे गए हों। एक ओर दलित साहित्यकार जैसे डाॅ0 धर्मवीर, मोहन दास नैिमशराय, जय प्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी आदि मानते हैं कि
वास्तविक दलित साहित्य वही है, जो दलितों द्वारा लिखा गया हो। वे स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का सवाल उठाते
हैं। डाॅ0 धमर्वीर कहते हंै
कि साहित्य की वह परिभाषा एकदम खतरनाक है जिसमें इस बात की गुंजाइश रखी जाती है कि
गैर दलित भी दलित साहित्य की रचना कर सकता है। उदारवादी हिन्दू लेखक के साहित्य का
मूल्यांकन हिन्दू साहित्य के नाते किया जाना चाहिए, चाहे वह दलित के नाम पर ही लिखा गया हो। विश्लेषण
में उसे दलित के पक्ष में लिखा गया हिन्दू साहित्य कहा जा सकता है, लेकिन दलित साहित्य नहीं। वहीं ओमप्रकाष
वाल्मीकि लिखते हैं के गैरदलितों के जीवन
में दलितों का प्रवेश सिर्फ पिछले दरवाजे के बाहर तक है, दलितों के जीवन में गैरदलितों का प्रवेश नहीं
के बराबर है। इसलिए जब कोई गैरदलित दलितों पर लिखता है तो उसमें कल्पना अधिक होती
है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ‘नाच्यौं बहुत गोपाल’ है जहां लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसने दलितों के जीवन को सिर्फ
खिड़की से देखा है। प्रेमचन्द का ‘सूरदास’, रंगभूमि या
गिरिराज किशोर के ‘परिशिष्ट’
का नायक या ‘धरती धन न अपना’ के नायक संभावनाओं और संघर्षों की उम्मीदों के
बीच पलायन कर जाते है , जो यह सिद्ध करता है कि यदि किसी घटना या स्थिति में बदलाव अथवा क्रान्ति की
संभावना बन रही है, तो उससे पूर्व ही
ये लेखक पाला बदल लेते हैं। जबकि दलित लेखक इन स्थितियों का सामना करते हुए इस
निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि दलित ही दलित की पीड़ा को समझ सकता है, वही उसकी पीड़ा का प्रामाणिक प्रवक्ता भी है।
पंकज बिष्ट इसे
खारिज करते कहते हैं कि भोगा हुआ यर्थात नई विचारधारा नही है। पहले भी इस तरह का
साहित्य रचा गया है। अच्छा साहित्य जो कही भी लिखा गया है वह हमारे लिए मान्य है,
हम उस में अपना दूर्ख,
दर्द ढुढते है।’ फ्रांसीसी लेखक बांजा, जो सामंती व्यवस्था में रहता है लेकिन जब लिखता
है तो सामंती व्यव्स्था के खिलाफ ही लिखता है। अगर इस तरह से साहित्य रचा गया तो
पायलट ही जहाज के बारे में लिख सकता है, रसोईआ ही पकावान के
बारे में लिख सकता है, बैलगाड़ी चालक ही बैलगाड़ी के बारे में लिख सकता है। इस तरह साहित्य की रचना
नही होती। तुलसीराम के अनुसार ‘आत्मकथा’ को छोड़कर कोई भी
लेखक, गैरदलित अन्य
साहित्यिक विधाओं में दलित जीवन का चित्रंण कर सकता है और उसे दलित साहित्य ही माना
जाना चाहिए। प्रामाणिक दलित साहित्य का
लेखन दलित द्वारा ही संभव मानते वाले डाॅ. बेचैन लिखतेे हैं कि दलित साहित्य वर्ण
जाति के भेदभाव की विषमतामूलक समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश और विद्रोह के रूप
में आता है। यह साहित्य ब्राह्मण भी लिख सकता है। बुद्ध से प्रेरित अश्वघोष और
बुद्ध एवं मार्क्स से प्रेरित राहुल इस कोटि में आ सकते हैं। हिन्दुओं के समाज व
संस्थाओं से बहिष्कार की पीड़ा इन्होंने नहीं भोगी थी इसलिए इनका दलित साहित्य
वैसा प्रामाणिक नहीं होगा जैसा कि एक भुक्तभोगी का होगा। लेकिन ब्राह्मणवाद के
समर्थक न होने के कारण से सामाजिक लोकतंत्र के अनुकूल ठहरते है । अतः ऐसे गैरदलित
विचारक दलित साहित्यकारों के मित्र हो सकते हैं। यहां डाॅ0 बैचेन गैरदलितों के लेखन को दलित साहित्य में
शामिल करने से नहीं हिचकते, बशर्ते वह लेखन ब्राह्मणवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था एवं संस्कारों के विरुद्ध
हो। शिवकुमार मिश्र लिखते है कि शासक वर्ग की विचारधारा ही किसी युग की प्रधान
विचारधारा होती है। उदार मानसिकता और उदात्त तथा प्रशस्त संवेदना के बड़े-बड़े
लेखक तक जाने अनजाने उसे ग्रहण करते और उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। दलितों के अधिकारों के पक्षधर तक दलितों के
जीवन पर करुणा प्रदर्शित करते हुए उन्हीं धर्मशास्त्रों, विचारों तथा व्यवस्थाओं से दूर तक व्यक्त कर
चुके है। बावजूद इसके मुद्दे पर विमर्श की गुंजाइश बनी हुई है। यह सवाल उठाते हुए
कि रचना की पहचान उसके अन्तर्वस्तु के आधार पर हो अथवा उसके रचने वाले कौन? बेहतर हो रचना का स्वरूप और चरित्र उसकी अन्तर्वस्तु के आधार पर पहचाना जाए।
करुणा, दया, सहानुभूति जैसे भाव दलित जीवन के प्रति त्याज्य
और अस्वीकार्य तब होने चाहिए जब उनकी पे्ररक मानसिकता उच्च वर्णीय दंभ, ऊंची हैसियत के बोध अथवा अभिजात संस्कारों से
बद्ध हो। यदि वह यथार्थ के बोध, उसकी प्रामाणिक प्रस्तुति, आलंबन के प्रति रचनाकार की संवेदनात्मक एकात्मकता, निश्छल अंतःकरण की स्वानुभूति, सह-अनुभूति से प्रेरित हो तो ऐसी करुणा की तो
हिमायत होनी चाहिए। दुखी और यातनागग्रस्त के प्रति समाज में करुणा का लोप हो जाए तो
समाज रहेगा और टिकेगा कैसे? फिर यहां प्रश्न केवल करुणा, दया आरै सहानुभूति का नहीं है। ऐसे साहित्य में शोषक और यातना देने वाली
व्यवस्था के खिलाफ रोष और भत्सर्ना भी है और पीड़ित लोगों का संघर्ष भी, साथ ही सामाजिक यथार्थ के अनुरूप ऐसी रचनाओं
में दलितों की पक्षधरता भी। ऐसी स्थिति में इन रचनाओं को केवल इस आधार पर दलित
साहित्य अथवा लेखन की परिधि से बाहर रखना कि उनके रचनाकार दलित नहीं है, इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। क्योंकि फिर
इसी तर्क पर यह कहा जाएगा कि किसान जीवन पर प्रामाणिकता के साथ किसान, मजदूरों पर केवल मजदूर, जनजातियों पर केवल जनजाति और नारी जीवन पर केवल
नारी ही लिख सकती हैं। यह सही है कि स्वानुभूत यथार्थ अथवा आपबीती का सचमुच कोई
विकल्प नहीं हो सकता। किन्तु देखे, सुने अथवा संवेदना के स्तर पर आत्मसात् किये गये यथार्थ की भी अपनी एक
विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता होती है। इसका साक्ष्य हमें बाल्जाक, टाॅल्सटाॅय तथा प्रेमचंद एवं अन्य लेखकों में
मिलता है। ‘सूत्रधार’
के लेखक संजीव बताते है कि जब कोई साहित्यकार किसी साहित्य की रचना करता हैं, तो वह समय, परिस्थिति और किरदारों में डूब जाता है,
उसे अपने जाति, वर्ग और धर्म के बारे में आभास नहीं होता,
वह केवल वह होता है जो वह
कर रहा होता है। प्रेमचन्द ने ग्रामीण जीवन के यथार्थ के प्रामाणिक और मर्मस्पर्शी
चित्र दिए हैं। दलित जनसंख्या में साक्षारता अभी भी चिंतपरक हैं, इसलिए अपनी संवेदना और अपने जीवन संघर्ष को
अभिव्यक्त कर पाने में अभी उतना सक्षम नहीं हैं। ऐसे में कोई गैरदलित व्यक्ति जो
दलित जीवन से साक्षात्कार कर रहा हो और अपनी पूरी संवेदना के साथ उनके जीवन संघर्ष
को प्रस्तुत कर रहा हो, तो ऐसे लेखन को बाहर रखना न्याय नहीं होगा, क्योंकि फिर ऐसे कई मुद्दे ‘रिकार्ड’ पर आने से रह जाएंगे, जैसा कि दलितों के साथ अब तक होता आया है।
अतएव सवाल यथार्थ की प्रामाणिक, वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति का है जिससे रचना विश्वस्त बनती है, मनोगत रूप से यथार्थ को अपनी आकांक्षा के
अनुरूप कांट-छांट कर प्रस्तुत करने का नहीं। दलितों से इतर लेखकों ने दलित जीवन पर
जो कुछ भी लिखा है, किसी खास रचना को
लेकर मतभेद या मतान्तर हो सकता है, किन्तु कुल मिलाकर ये रचनाएं दलित जीवन की पक्षधर रचनाएं हैं।
दलित साहित्यकार
आज दलित साहित्य को सिर्फ दलितों द्वारा लिखे साहित्य तक सीमित रखना चाहते हैं तो
उसके पिछे उनका कोई ठोस कारण नहीं दिखाई देता हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित
साहित्य की आवाज एक आंदोलन के रूप में पहली बार गैरदलित लेखक राजेन्द्र यादव के
माध्यम से ही उठाई गई, आज भी इसके लिए चल रहे संघर्ष में उन्हीं का सबसे ज्यादा हाथ है, चाहे दलित साहित्य की अवधारणा पर बात करने से
हो या दलित समुदाय के साहित्यकारों को मुख्यधारा में शामिल कर दुनिया के सामने
अपने पत्रिका ‘हंस’ के माध्यम से प्रस्तुत करने से। दलित साहित्य
को जो लोग अपनी अस्मिता की प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर साहित्यिक आंदोलन का नाम दे
रहे है वह इस हाशिए पर पड़े रहे समुदाय अस्मितामूलक ‘रिकार्ड’ को सार्वजनिक होने में अवरोधक बन रहे है। वीर
भारत लिखते है कि परंपरा का इतिहास भी एक चीज होती है, जिससे आदमी जुड़ना चाहता है। डाॅ0 अम्बेडकर खुद को ज्योतिबा फुले की परंपरा से
जोड़ते थे हालांकि फुले दलित नहीं थे, शूद्र वर्ण यानी माली जाति से थे। अम्बेडकर अपनी परंपरा को
और भी पीछे गौतम बुद्ध तक ले जाते थे। डाॅ0 अम्बेडकर बड़े आदमी थे, समर्थ थे। दूसरे बड़ों के साथ जुड़कर उन्हें
अपना व्यक्तित्व खोने का डर नहीं था।
हर आंदोलन खुद को
प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी परंपरा और इतिहास खोजता है। इतिहास जितना पीछे तक
जाता है, वह खुद को उतना
ही गौरवपूर्ण और समृद्ध महसूस करता है। आज के दलित साहित्य की पंरपरा अम्बेडकर से
पीछे नहीं जाती। जो उन्हें कमजोर बनाती है। आज की परिस्थितियां मध्यकाल अथवा
प्राचीन काल से काफी बदल गई हैं। जो शक्तियां मध्यकाल में जिस रूप में कार्य कर
रही थीं, अब ठीक वैसा संभव
नहीं है। विज्ञान, मीडिया, शिक्षा, लोकतंत्रा की विचारधारा संविधान और राजनैतिक,
सत्ता समीकरणों में
परिवतर्न ने चीजों को ठीक वैसा रहने नहीं दिया है जो कि पूर्ववर्ती काल में थीं। आधुनिक काल की वैज्ञानिक उपलब्ध्यिों ने समाज को एक नया आयाम दे दिया है। एक तो
कबीर आदि संत कवियों की तमाम घुमक्कड़ता और अपनी वाणियों के प्रचार-प्रसार के
बावजूद, उनके विचारों
की पहुच जनसामान्य तक उस रूप में नहीं
संभव थी, जितनी सूचना
प्रौद्योगिकी के विकास, मीडिया, टेलीविजन,
पुस्तकों और
पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आज समाज के अधिकांश
लोगों तक संभव है। दूसरे, शिक्षा और लोकतंत्रा ने भी लोगों को जागृत करने का अभूतपूर्व कार्य किया है।
कबीर आदि के समय में अवर्ण जातियों में शिक्षा का प्रसार लगभग नहीं था। इने-गिने
लोग ही ज्ञानशालाओं की चैखटों को लांघ पाए थे। कबीर तो स्वयं कहते हैं ‘मसि कागद छुओ नहिं कलम गह्यो नहिं हाथ।’
रामचन्द्र शुक्ल के
अनुसार निर्गुण परम्परा में सुंदरदास ही एक ऐसे व्यक्ति हुए, जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी। जब इस आंदोलन
के उन्नायकों को ही शिक्षा नहीं मिल पाई थी तो जनसामान्य का क्या कहना।
ज्ञान-शिक्षा के अधिकार से तो वे वंचित ही थे। आज भी देश की औसत साक्षरता के
मुकाबले दलितों में साक्षरता का प्रतिशत काफी कम है। लेकिन फिर भी मध्यकाल के
मुकाबले स्थिति बहुत बेहतर है। संविधान, आरक्षण एवं लोकतंत्र की विचारधारा ने एक नयी चेतना पैदा की
है जिसने दलित समुदाय को जागृत, सजग एवं सचेत किया है और आज उनमें वह विवेक आ चुका है कि चीजों को भलीभांति
समझ सकें। आज वे दूध का दूध और पानी का पानी करने में सक्षम बन रहेे हैं। आज दलित
लेखकों में अनेक योग्य समीक्षक उभरकर आ रहे हैं। सत्ता समीकरणों में परिवतर्न ने
भी स्थितियों को बदला है। मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि असल में निर्गुण, सूफी और सगुण अथार्त् पूरा भक्ति आन्दोलन जिस
सामंती समाज के विरुद्ध खड़ा हुआ था, वह उससे अधिक शक्तिशाली साबित हुई। यहां श्री पाण्डेय ‘सामंती’ शब्द का उपयोग करते है । वे वर्णवादी व्यवस्था
को सामंतवाद के रूप देखते है। वर्तमान साहित्यिक माहौल में सामंतवाद नहीं चल सकता।
लेकिन आज सत्ता समीकरण बदल चुके हैं। दलितों में जबरदस्त राजनैतिक उभार आया है।
इसका ही फल है कि कल तक दलितों को ‘अछूत’ समझने वाले,
कथित भारतीय संस्कृति में उपलब्ध भागवत और रामायण जैसे साहित्यों को मानने और पसंद करने वालो को ही अपने लिए
अनूकुल मानते थे, वे आज अपने साथ
रखने के लिए बेचैन हैं और कुछ हद तक रखने में सफल भी है। दलित राष्ट्रपति से लेकर
दलित मुख्यमंत्री, राज्यपाल,
सांसदों एवं उच्च
अधिकारियों की मौजूदगी यह दिखाती है कि आज दलित लेखन एवं चेतना का समाहार उस रूप
में संभव नहीं है जैसा पूर्ववर्ती कालों में हुआ। लेकिन अगर दलित साहित्य को शिखर की बुलंदियों पर ले जाना है तो गैर दलितों की रचनाओं को भी दलित साहित्य में शामिल
किया जाना एक उचित कदम होगा। लेकिन सवर्णों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। यद्यपि
आज भी भगाणा, मिर्चपुर,
मसौढ़ी, रोहतक और परबत्ता जैसे अनगिनत अत्याचार और शोषण
की घटनाएं घटती हैं लेकिन उनका प्रतिरोध और प्रतिकार दोनों ही किया जा रहा है।
सन्दर्भ:
1. डाॅ0 धर्मवीर - दलित साहित्य, 1999.
2. ओमप्रकाश वाल्मीकि - कल के लिए, दिसम्बर 1998.
3. श्योराज सिंह बेचैन - दलित साहित्य की अवधरणा
और प्रेमचंद; सं0- सदानन्द शाही.
4. वीर भारत तलवार - दलित साहित्य की अवधरणा,
वर्तमान साहित्य मई-जून,
1938.
5. मैनेजर पाण्डेय - दलित साहित्य, विशेष फीचर, हम दलित, सितम्बर, 1996.
6. ओमप्रकाश वाल्मीकि - दलित साहित्य का
सौन्दर्यशास्त्र, राधकृष्ण माला,
2001.
7. रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास,
नागरी प्रचारिणी सभा,
वाराणसी, तेईसवां संस्करण.
8. मैनेजर पाण्डेय - भक्ति आंदोलन और सूरदास का
काव्य, वाणी प्रकाशन,
1991.
9. वीर भारत तलवार-दलित साहित्य की अवधरणा,
वर्तमान साहित्य, मई - जून 1998.
(अमरेन्द्र कुमार
आर्य, माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में अतिथि प्राध्यापक है। इनसे 9584557055 और 9472535127 सम्पर्क किया जा सकता है।)
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