संजीव के उपन्यासों में अंधविश्वास
डॉ.रमाकान्त
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
‘‘प्राचीन भारतीय धार्मिक मूल्यों से आशय उन
विचारधाराओं से था जो मनुष्य के कर्म और व्यवहार को नैतिक बनाते हैं। .........
धर्म का प्राचीन रूप लुप्त हो जाने से उसका स्थान अंधविश्वास ने लिया है। ‘अन्धविश्वास’ से अभिप्राय ऐसे सिद्धान्त
अथवा प्रथाएं हैं, जिन पर सावधानीपूर्वक चिंतन करने पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता तथा उचित
नहीं बताया जा सकता।’’1
हर व्यक्ति थोड़ा बहुत अन्धविश्वासी तो जरूर होता है और अन्धविश्वास को अपने
दिल के किसी कोने में समेटे रखता है। जब किसी से पूछा जाता है कि क्या वह
अन्धविश्वासी है, तो वह साफ झूठ बोल देता है कि वह अन्धविश्वासी नहीं है। गले में ताबीज,
माथे पर तिलक,
बाजू पर धागा,
ऊँगलियों में
तरह-तरह के रत्न, भस्म-विभूति, किन्हीं विशेष दिनों में विशेष देवी-देवता की पूजा, अनुष्ठान, व्रत, ओझा-पंडित और फकीरों की शरण में
जाना। ये सब अन्धविश्वास में डूबे हुए समाज की निशानी है। कई-कई बार तो क्रूर
तांत्रिक अपने ईष्ट को खुश करने के लिए पशु-पक्षियों और यहाँ तक कि आदमी की भी बलि
दे देते हैं। ऐसा कर्म वे अन्धविश्वास में अन्धे होकर ही करते हैं। अन्धविश्वास एक
भेड़ चाल है। जहांँ भीड़ चली होती है वहीं देखा-देखी और भी चल देते हैं।
आधुनिक युग में शिक्षा व विज्ञान के अत्याधिक प्रभाव के बावजूद देश में
धर्मान्धता की जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं। शिक्षित-अशिक्षित, ज्ञानी-अज्ञानी सभी इसके शिकार हैं। इस वैज्ञानिक युग में लोग
धार्मिक पाखण्ड और अन्धविश्वास रूपी शिकंजे में जकड़े हुए हैं। धर्म और परम्परा ने
जहाँ भारतीय समाज को खण्डित होने से बचाया, वहीं अन्धविश्वास, पाखण्ड, धार्मिक कर्मकाण्डों को
बढ़ावा देकर समाज में कई विकृतियों को भी जन्म दिया। धर्मान्धता की जड़े हमारे देश
में इतनी गहरी जमीं हैं कि उन्हें उखाड़ना बहुत कठिन कार्य है। अन्धविश्वास और
धर्मान्धता का शिकार ज्यादातर औरतें होती हैं। वे अन्धविश्वास के कारण साधु-सन्तों
के चमत्कारों द्वारा ठगी जाती हैं। सामाजिक जीवन में धार्मिक पाखण्ड और
अन्धविश्वास ने समाज विरोधी तत्वों को बढ़ावा दिया है। इसके कारण समाज में एक नया
वर्ग पैदा हो गया है जो नित नए देवताओं और धार्मिक विश्वासों का भय देकर साधारण
जनता का शोषण कर रहा है।
धर्म के नाम पर जिन क्रियाओं को सामाजिक, सामूहिक या फिर एकान्त में किया
जाता है उन्हें धार्मिक कर्मकाण्ड कहते हैं। जीवन को सुस्ंकृत बनाने के लिए जो
सामाजिक विधान किये जाते हैं उन्हें कर्मकाण्ड कहा जाता है। हर धर्म मानवता और
प्रेम की शिक्षा देता है। धर्म का प्रभाव हर समाज के सभी व्यक्तियों पर होता है।
धर्म के प्रभाव से मनुष्य के कई अनुचित विकार दूर होते हैं। लेकिन जब धर्म की आड़
में आकर विशेष रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, परम्पराओं को बिना किसी तर्क के अपनाते हैं या अपनाने को
विवश होते हैं, तो उसे धार्मिक अन्धविश्वास कहते हैं।
हर वर्ग में चाहे निम्नवर्ग हो या उच्च वर्ग हर वर्ग मंें अलग-अलग तरह के
धार्मिक-अनुष्ठान किये जाते हैं। कहीं भूत-प्रेत, शकुन-अपशकुन से बचने के लिए
देवी-देवताओं के नाम पर पूजा पाठ करते हैं, तो कभी बलि के नाम पर निरीह
जीव-जन्तुओं की बलि चढ़ाते हैं, व्रत रखते हैं, तो कभी धार्मिक स्थलों पर जाकर मनौतियाँ माँगते हैं।
ये अनुष्ठान (धार्मिक कर्मकाण्ड) कभी व्यक्ति अपनी इच्छा से तो कभी अनिच्छा से
करता है।
‘सूत्रधार’ में उच्च जाति के लोग जाति प्रथा, भेद-भाव और छूआ-छूत की
कुप्रथा में विश्वास रखते हैं। उपन्यास का मुख्यपात्र भिखारी ठाकुर उच्च जाति की
संकुचित मानसिकता का शिकार होता है। एक बार वह अपने पिता दलसिंगार ठाकुर के साथ ‘एकौना’ यज्ञ में सेवा करने के लिए जाता है। ये लोग पुण्य कमाने
की आस्था के साथ यज्ञ में सेवा करने जाते
हैं। इस यज्ञ में काशी, पटना, अयोध्या और देश के दूसरे दूर-दूर के स्थानों से एक से बढ़कर
एक ज्ञानी संत और पंडित पुण्य प्राप्त करने के चक्कर में यहाँ आते हैं। यज्ञ में
हर किसी को उसकी जाति के हिसाब (आधार) से यज्ञ में काम दिया जाता है। भिखारी के
पिता यज्ञशाला के पुरोहितों के कपड़े धो रहे थे। भिखारी के पास कोई काम नहीं था।
इसलिए वह उत्सुकतावश यज्ञशाला में क्या हो रहा है देखने चला जाता है। वहाँ
यज्ञशाला का पुरोहित उसके गौर वर्ण को देखकर उसे पंडित समझकर यज्ञशाला को रंगीन
अक्षतसे चौक पूरा करने का काम सौंप देता है। एक अन्य पुरोहित भिखारी ठाकुर को
पहचान कर उस यज्ञशाला के पंडित को कहता है, ‘‘आपको ब्राह्मण नहीं भेटाया जो नाई
के लड़के से जग्गशाला भरस्ट करवा रहे हो?’’2
उक्त कथन से ब्राह्मणवादी संस्कृति और छूआ-छूत की भावना स्पष्ट होती है।
छूआ-छूत का मुख्य कारण वर्ण-व्यवस्था और धार्मिक अन्धविश्वास है। पुरोहित ने उसी
के सामने गंगाजल छिड़ककर यज्ञशाला को शुद्ध कर दिया। उपन्यासकार के शब्दों में,
‘‘उसके सामने ही
गंगाजल का छिड़काव कर मंत्र से शुद्ध करने के बाद फिर काम शुरू किया गया। भिखारी
धीरे-धीरे वहाँ से बाहर चला गया। उसकी समझ में नहीं आया कि एकाएक वह खारिज कैसे कर
दिया गया। गंगाजल नाई या कंहार ढोकर ले आये थे, लकड़ी लोहार फाड़ रहा था। दूध-दही
अहीर के घर से आया होगा.......... दोना-पत्तल नट और डोम दे गए होंगे। आम के पल्लव
एक मल्लाह का लड़का तोड कर गिरा रहा था....... अक्षत बनिया की दुकान से आया होगा,
कपड़े और दूसरी
चीजों को भी ब्राह्मणों ने ही नहीं बनाया होगा। मगर ये सारे लोग अब इन्हें छू भी
नहीं सकते।’’3
इसी उपन्यास में नाई जाति का दलसिंगार ठाकुर अपना नाई जाति में पैदा होने
के पीछे अपना पिछले जन्म का पाप कर्म ही मानता है। नाई जैसी छोटी जाति का समाज में
उच्च जाति के लोग तुच्छ और नीच समझते हैं। बड़ी जाति के लोग छोटी जाति के लोगों के
साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते, उनके साथ जानवरों सा व्यवहार किया करते हैं। दलसिंगार ठाकुर
नाई जाति के कामधन्धों और उच्च जाति के लोगों की प्रताड़ना से तंग आकर सोचता है- ‘‘पिछले जन्म में जरूर कोई
ऐसा बड़ा पाप किया होगा कि इस जन्म में नाई के घर पैदा हुए। और ये जो बड़ जात में
जनमें हैं, उन्होंने कोई बड़े पुन्न का काम किया होगा............. बड़ जात में जनम लेकर
फिर से वही, पाप करने लगे हैं, इसका क्या होगा, अगले जनम में?’’4
इस प्रकार पता चलता है कि जातिवाद और छुआछूत के पीछे एक ही कारण रहा है,
वह है
अन्धविश्वास। अन्धविश्वास और तन्त्र-मन्त्र की कल्पनीय शक्तियों के कारण संजीव के
उपन्यासों के कई पात्र इनमें विश्वास करते हैं। ‘पांव तले की दूब’ उपन्यास में एक आदिवासी
युवक कालीचरण किस्कू बाघ के नाखून, हाड और मंतर शक्ति से असाध्य को साध्य करने में विश्वास
रखता है। सुदीप्त उसे ‘ज्वायन्ट पेटीशन’ लिखने को कहता है तो किस्कू उसे कहता है, -‘‘कोई जरूरत नहीं साहब
पिटिशन-आन्दोलन का। आप फिकर मत करो। हम उसको मन्तर से ठीक करेगा। जानगुरु हमको
अइसा-अइसा सिखला गया है कि........।’’5 और कपड़े की थैली जिसे वह हर समय अपने पास रखता था,
उसमें से एक-एक चीज
निकालकर दिखाने लगा जिसमें बाघ के नाखून और हड्डी शामिल थी।
इसी उपन्यास में ‘राष्ट्रीय ताप विद्युत संस्थान’ के प्रबंधक सिन्हा साहब के बगीचे
में काले गुलाब के दो पौधे चोरी हो जाते हैं। पुलिस वाले पौधों को ढूँढने के लिए
गाँव के गरीब आदिवासी लोगों को पकड़ लेते हैं और उनसे पूछताछ करते हैं। लेकिन
कालीचरण किस्कू कहता है कि मैं मंतर शक्ति से चोर को पकड़ सकता हूँ। कथानायक के
शब्दों में- ‘‘एक शराबी-सा युवक अपना थैला लेकर अलग ही मजमा जमा रहा था। शायद यही था.....
कालीचरण किस्कू। वह तीर बेचने वाले लड़के से अब उलझ रहा था, ‘तुम लोग हटो फरके, हम पकड़ता है असली चोर।’
वह जाने क्या-क्या
बुदबुदाते हुए कभी एक ओर हड्डी घुमाता, कभी दूसरी ओर। औरतें और बच्चे, अब तनाव भूलकर हँस रहे
थे।’’6
‘‘किसनगढ़ के अहेरी’’ उपन्यास का पात्र मटरु एक गरीब
और दीन-हीन आदमी है। जिसके पास करने के लिए कोई काम नहीं, दो वक्त की रोटी का मोहताज,
सिर ढकने के लिए
पक्की छत नहीं, लेकिन उस दीन-हीन व्यक्ति को यह विश्वास है कि गाँव का भाग्य विधाता वही है।
गाँव में जो भी शकुन और अपशकुन, लोगों की आपस में लड़ाई तथा जो भी होनी-अनहोनी होती है वे सब
उसके टोटकों का ही चमत्कार है। उपन्यासकार ने उसके मनोभाव को इस तरह चित्रित किया
है- ‘‘उन्हें
विश्वास है कि गाँव के भाग्य नियंता वे ही हैं वे- यानी उसके शकुन और टोटके! साही
काँटे खरभान के घर की नींव में गाड़कर उसकी मरती हुई संततियों में डूबते वंश को
बचाया तो मुर्दा की हड्डी नींव में गाड़कर कितनों को र्निवेश किया। साही के काँटो
दो घरों में खोंसकर उनमें झगड़ा लगवाया, नहा कर पसारे गए चुनरी के लूगा से देह पुंछवा कर गली
के प्रताव से रुपई का सेंहुवा ठीक करवाया।..... पता नही कितने-कितने साधन हैं उनके
पास रोग-शोक की मुक्ति के।’’7
आदिवासी समाज में अनेक कुप्रथाएँ और अन्धविश्वास व्याप्त हैं। अगर गाँव में
कभी कोई व्यक्ति बीमार हो जाता हो, किसी का पशु मर जाए या फिर बच्चा, बूढ़ा आदमी मर जाए या फिर कोई
अनहोनी हो जाए तो यह समझा जाता है कि यह सब किसी मनहूस व्यक्ति के कारण होता है।
तब गाँव के लोग ओझा से पूछते हैं। फिर गाँव का ओझा किसी-न-किसी औरत को अपनी रंजिश
के चलते या फिर किसी से रिश्वत लेकर डायन घोषित कर देता है। गाँव के मूड़, अज्ञानी और अनपढ़ लोग ओझा
की बातों पर विश्वास कर लेते हैं। तब ये लोग उस औरत को पत्थर मार-मार कर मार देते
हैं। ‘धार’
उपन्यास में
पूंजीपति महेन्द्र बाबू आदिवासी लोगों के गाँव में तेजाब का कारखाना लगाता है।
मैना की माँ उस कारखाने का विरोध करती है। उसे लगता है कि तेजाब कारखाना लगने से
गाँव के हवा, पानी, जल दूषित हो जाएंगे। तब महेन्द्र बाबू गाँव के ओझा को रिश्वत देकर उसे डायन
घोषित करा देता है। गाँव के लोग ओझा की बातों में आकर उसे पत्थर मार-मार कर गाँव
से भगा देते हैं। मैना अपने नए पति मंगर को बताती है, ‘‘जब पएले-पएले तेजाब का फैटरी बना
न, तो
म्हरा माँ से बाप का झगड़ा हुआ इस बात को लेकर माँ अलग हो गया बाप से। तब महेन्दर
बाबू जनगुरु (ओझा) को दौ-सौ रुपैया दिया।....... ओझा........ बोला मैना का माँ
डायन है, उसका
चलते ई-ये सब होता। हम सब छोटा था।......... गाँव का सब घेर लिया उसको, बोला तू डायन है। निकाल
दौ सौ रुपया दो ठो बकरा। माँ घबरा के भागा। सब ऐसे खदेड़ लिया जैसे वो मानुख जात
नईं पागल कुतिया हो। उसको जब मारा तो वो खेत में गिर पड़ा। भौत बिनती किया, हम डायन नहीं है,
इतना पैसा कआँ से
देगा। लेकिन कोई माना नईं। ओझा बोला, ‘काल तक पैसा दे दो, नईं तो गाँव छोड़ दो।’ और माँ तब से जो गया कि
आज तक कोई उसको नई देख सका।’’8
इसी उपन्यास में मैना बड़ी होकर
महेन्दर बाबू के तेजाब के कारखाने का विरोध करती है। तब महेन्दर बाबू, गाँव के ओझा को रिश्वत
देकर मैना को डायन घोषित करा देता है। मैना भागने की बजाए ओझा को गरदन से पकड़कर
कहती है, ‘‘खा जाहिर थान का कसम! खा माराँ बुरु का कसम............ कि तू घूस नहीं खाता
हैै, सच
बोल रआ है। अरे ओकरा में तो तारे चेहरा लौक रहा है तो तू हो गया डायन? तोरा घर में हम भेड़ मार
के फेंक दे तो तू हो गया होशियार .........?’9’
‘पाँव तले की दूब’ उपन्यास में मेझिया गाँव के
आदिवासी लोग एक बूढ़ी औरत को पत्थर मार-मारकर मार देेते हैं। कथानायक के शब्दों में
‘‘हम
घण्टों आन्दोलन के मुद्दों पर विचार करते, लेकिन इसके पहले कि कोई रणनीति तय करते, एक मनहूस खबर मिली कि
मेझियावालों ने अपने ही गाँव की एक बाँझ औरत को डायन करार देकर पीट-पीटकर बेरहमी
से मार डाला था।’’10
संजीव जी |
कई अन्धविश्वासी लोग अपनी मनोकामना पूरी होने के लिए मंदिरों में निरीह
पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाते हैं। संजीव के उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता’ में ‘सहोदरा माई के थान’
पर मेले में लोग
पूजा करने के लिए आते हैं। वहां कई लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार मंदिर में
भेंट चढ़ाते हैं तो कई अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाते हैं।
उपन्यासकार के शब्दों में, ‘‘एक ओर बलि दी जा रही थी, दूसरी ओर ऐतिहासिक कुएँ पर
कचमचाती भीड़। मंदिर में दर्शनार्थी टूट रहे थे।.......... मलारी खँसी ले आई थी बलि
के लिए, जिसे
घसीटतेहुए उसका लँगड़ा श्वसुर भीड़ में धक्के खा रहा था। बिसराम-बहू की उत्ती औकात
कहाँ? बीन-बटोरकर
कैसे-कैसे तो पाँच रुपये में उसने एक कबूतर खरीदा था, जिसकी बलि दे चुकी थी।’’11
उपन्यास ‘सावधान! नीचे आग है’ में भी संजीव ने आदिवासी क्षेत्र में बलि प्रथा को दर्शाया
है। ऊधम सिंह और आशीष, अतनू दा के साथ चंदनपुर गाँव के कपालिनी देवी मंदिर में
माथा टेकने जाते हैं। कथानायक के शब्दों में मंदिर का दृश्य, ‘‘सारा कुछ भीगा-भीगा
था...... ढेर के झरे पत्तों से लेकर मंदिर की पत्थर की चहारदिवारी, फर्श और पुजारी तक।
पत्थर की गुफा में दिया जल रहा था, देवी के सामने।.......घंटा बजाकर बलि की वेदी को प्रणाम
करने के बाद............ उन्होंने देखा, चहारदिवारी के पार दोनों कुत्ते वेदी से टपका हुआ
रक्त चाट रहे थे। अजीब जुगुप्सा से भर आया मन।’’12
‘जंगल जहाँ शुरू होता’ उपन्यास में भी बलि प्रथा का
चित्रण मिलता है। पांड़ेपुर गाँव के नीची जाति के लोग अपना उत्सव ‘बराह पूजा’ मनाते हैं। लोग इस उत्सव
में सुअर के बच्चे की बलि चढ़ाते हैं। उपन्यासकार ने पांड़ेपुर की ‘बराह पूजा’ को इस प्रकार चित्रित
किया है, ‘‘पांडेपुर की मरी धार! ........... जहाँ मरे ढोर-डाँगरों को फेंक दिया जाता है,
दसियो गीध
शव-साधना में जुटे रहतेे हैं; आज कोई अनजान आदमी देखे तो चौंक जाए- अरे बाप, इत्ते सारे गीध? नहीं! गीध नहीं आदमी- कौमीन
(अंत्यज) भी, परमीन (अन्य जाति के लोग) भी.......... घेरे के अन्दर पासवान लोग और बाकी लोग
घेरे के बाहर- परमीन! किचबिचाती उथलाती भीड़ उस दिशा में ताक रही है, जिधर से भगत जी को आना
है।.......... भगतजी इशारा करते हैं। गोद में उठाकर लाया जाता है सूअर के छोने को।
भीड़ में तनिक अस्थिरता आती है। छौने को द्विशुल पर रखा जाता है।..... बलैत को उठा
हुआ दाब धुप में बिजली -सा कौंधता है-‘खट्ट!’ एक दबी चीत्कार! सर अलग, धड़ अलग। फैलती-सिकुड़ती थरथराहट
और छटपटाहट!....... भगत जी झूमते हुए झुकते हैं। उन पर पीली चादर तान देते हैं
लोग। भगतजी उठते हैं तो उनके मुुँह में रक्त लगा हुआ है।’’13 इन कथनों से सिद्ध होता है कि
लोग बलि प्रथा में विश्वास रखते हुए निरीह पशुओं को मौत के घाट उतार देते हैं।
आज विज्ञान के युग में भी लोग अन्धविश्वास और शकुन-अपशकुन में विश्वास रखते
हैं। ‘सूत्रधार’
उपन्यास में
भिखारी ठाकुर अपने नाटकों में मेहरारू (औरत) बनकर नाचने का काम करता है। लोग उसकी
पत्नी को कहते हैं कि औरत की तरह कपड़े पहनकर नाचने वाले धीरे-धीरे औरत बन जाते
हैं। भिखारी की पत्नी इस बात पर चिन्ता में रहती है कि कहीं उसका पति औरत न बन
जाए। भिखारी की पत्नी मनतुरना देवी उसे कहती है, ‘‘सुनो जी........ लोग कहते हैं
नचनियां धीरे-धीरे मेहरारू बन जाता है।’’14
‘किसनगढ़ के अहेरी’ उपन्यास में भी लोग अंधविश्वास
में फंसे नजर आते हैं। किसनगढ़ गाँव के लोग
ऐसा मानते हैं कि यदि कहीं काम को जाते समय चैतूबाबा के मुँह के दर्शन हो जाए तो
काम नहीं बनेगा या फिर कोई अनहोनी हो जाएगी। किसनगढ़ के लोग एक दिन शिकार करने जा
रहे होते हैं तो रास्ते में चैतूबाबा मिल जाते हैं। इस पर राजा मुसहर कहते हैं,
‘‘आज साही नहीं
मिलेगी या आज कोई अनरथ होकर रहेगा।’’15 इसी तरह मटरू की टाँग का टूटना, फौजदार सिंह का कुर्ता
भूलना, इनरपती
सिंह की नांव का उलटना, सबकी जड़ उनके दर्शनदोष में निहित थी। श्रादकर्म के पुरोहित
के दर्शन का मतलब ही है मौत।
संजीव के उपन्यासों में आदिवासी लोग अंधविश्वासों के वशीभूत होकर
अन्धश्रद्धाओं में विश्वास रखते हैं। ‘धार’ उपन्यास में संथाल आदिवासी लोगों में आदमी के भ्रष्ट होने
के बाद उसका श्राद्ध करने की परम्परा रही है। अगर कोई व्यक्ति गलत आचरण करे तो घर
के लोग उसे जीते ही मृत समझकर उसका श्राद्ध कर देेते हैं। उपन्यास की नायिका मैना
जो कि एक आदिवासी औरत है, अपने पति को छोड़कर किसी दूसरे आदमी के साथ रहना शुरू कर
देती है, आदिवासी
परम्परा के अनुसार उसका पहला पति फोकल और मैना का पिता पेंटर उसका जीते जी श्राद्ध
कर देेते हैं। उपन्यासकार ने इस कर्मकाण्ड को इस प्रकार वाणी दी है, ‘‘चबूतरे पर सौंतालों की
परम्परा के अनुसार कुलटा मैना का श्राद्ध हो रहा था।....... चबूतरे के पास मैना की
एक कल्पित समाधि (कब्र) बना कर हाथ जोड़कर खड़े हो गये पिता और ‘विधुर’ पति फोकल। सौंताली भाषा
में उन्होंने कहा, ‘‘आज तुम हमारी इस दुनिया को छोेड़कर देवताओं के लोक में जा रही हो। हमार
प्रार्थना है कि देवता तुझे सुखी रखें।’’16
इसी
उपन्यास में जब मैना का दूसरा पति मंगर उसे छोड़कर चला जाता है तो मैना भी उसका
संताल परम्परा के अनुसार उसके जीवित रहते ही उसका श्राद्ध कर देती है। उपन्यासकार
ने मंगर के श्राद्ध करने के मैना के ढंग को इस प्रकार चित्रित किया है, ‘‘कुल बीस गाँवों में मंगर
के श्राद्ध-भोज का न्योता बँटा। बीस गाँव के लोग बाँसगड़ा आये- स्त्री, पुरुष, बूढ़े, बच्चे सब! एक अजब भोज था
जिसमें सभी आने वालों को लायी सामग्री को एक ही जगह सँधा गया। भोज के पहले मैना ने
अपनी सूनी माँग, सूनी कलाई और सफेद साड़ी में बिरादरी को हाथ जोड़कर अरज किया, ‘‘अब तो हमको बार-बार ई
बताना नई पड़ेगा कि हमारा मरद का का हुआ। हाँ बाबा लोग, माई लोग, भैया लोग, बहिनी लोग, हमरा मरद मर गया,
सोना का नदी में
डूब के मर गया हमर। सब मरद! और भी जिसको मरना हो, जा सकता है।’’17
निम्न और आदिवासी लोग तो गरीबी, अज्ञानता, अनपढ़ता के कारण अन्धविश्वास में फंसे होते हैं,
ये तो समझा जा
सकता है, लेकिन
उच्चवर्ग के लोग तो पढ़े-लिखे होते हैं, उनमें ऐसे काम करने की वृत्ति के बारे में क्या कहेंगे। इस तथाकथित उच्च वर्ग
में धार्मिक अन्धविश्वास और कर्मकाण्ड करने की वृत्ति दूसरे वर्गों के लोगों से
कहीं ज्यादा पाई जाती है। उन्हें भला किस बात की चिन्ता और किसका डर जो यह सब करने
को विवश करता है।
संजीव के उपन्यास ‘पांव तले की दूब’ में राष्ट्रीय विद्युत संस्थान डोकरी’ के प्रबंधक सिन्हा साहब
अपने बेटे के मुण्डन संस्कार की पार्टी करते हैं। संस्थान के सभी कर्मचारियों और
अधिकारियों को इस मुण्डन-छेदन पार्टी में बुलाया जाता है। कथानायक के पार्टी के
बारे में पूछने पर सुदीप्त उसे कहता है, ‘‘मुण्डन-छेदन पर पार्टी! ........... ये साले साइन्स
और तकनॉलोजी की उच्च शिक्षा प्राप्त आधुनिक होने का दम्भ पाले हुए लोग हैं और करवा
रहे हैं मुण्डन छेदन! यूँ नो, ये जितने गलत संस्कार हैं न- जातिवाद, पुरोहिती, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास, दहेज-सब सालों में समाया
हुआ है और मॉडर्न बम्बइया कल्चर का कॉकटेल भी।’’18
संजीव के ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में जंगल सरकार अर्थात् डाकू लोग आत्मशुद्धि के लिए
‘लखरॉव’
का त्यौहार मनाते
हैं। वे उस दिन ‘मदनपुर माई’ के थान पर पूजा करते हैं और व्रत रखते हैं। उनका मानना है कि ‘लखरॉव’ के दिन पूजा करने और
व्रत रखने से आदमी पिछले बुरे कर्मों से पाप-मुक्त हो जाते हैं। लखरॉव पूजा का
चित्रण उपन्यासकार ने इस प्रकार किया है, ‘‘मदनपुर माई का थान। अष्टयाम
कीर्तन की आज आठवीं रात है, और कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी होने के नाते आज लखरॉव की
पूर्णाहुति भी। अकसर वीरान रहने वाले जंगल में आज पूरी गहमागहमी मची है। बाग से
नाले तक, नदी
से जंगल तक आदमी ही आदमी। थान....... से जरा परे हटकर लकड़ी के धधकते चूल्हों पर
कड़ाह चढ़े हैं। पूरियाँ तली जा रही हैं।...... अपने-अपने बेलपत्रों की पोटली लेकर
लोग वेदी पर आ गए हैं। साथ आए हैं उनके सहायक। एक लाख बार ‘ऊँ नमः शिवाय’ के साथ बेलपत्र अर्पण
करना है। कोई मजाक है क्या। पंडित भी तो पाँच-पाँच हैं....... ठीक सात बजे ‘ऊँ नमः शिवाय’ की रटन के साथ अनुष्ठान
शुरू होता है।...... सारा का सारा वेत्र बन शिव की अराधना में लगा हैै......... एक
लाख बार ‘ऊँ
नमः शिवाय’ बोलने के चलते पूजार्थियों में से प्रायः सबकी हालत पस्ती थी....।’’19
जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में उच्च जाति के सुन्न पांडे की पत्नी को शादी के
काफी वर्षों तक बच्चा नहीं होता। वे लोग हर मंदिर और माता के थान में मनौतियां
माँगते हैं कि उनके घर बच्चा हो जाए। लेकिन उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती।
थक-हारकर वे लोग नीची जाति के लोगों के देवता से मनौती माँगते हैं। उपन्साकर के
शब्दों में, ‘‘सहोदरा, जिउतिया थान, त्रिवेणी, काली मंदिर कहाँ-कहाँ नहीं मनौतियांँ मानीं उन्होंने, मगर कोई फल नहीं मिला। बाभनों के
देवता में अब सत्य कहाँ रहा? सुनते हैं, दुसाधों का देवता बहुत जागृत है। एक मनौती उनसे भी माँगकर
देख लें। सूअर का छौना ही न लगेगा! है तो कठिन, मगर पैसे दे देंगे, इंतजाम हो जाएगा। किसी
भी तरह हारी लड़ाई जीतना चाहते हैं सुन्नर पांडे।’’20
‘सावधान! नीचे आग है’ उपन्यास में लगे अपनी मनोकामना
पूर्ति के लिए कपालिनी देवी में मंदिर में माथा टेकते हैं और मंदिर से सटे पीपल के
पेड़ में धागे बाँधते हैं। उपन्यासकार ने कपालिनी देवी के मंदिर में लोगों की आस्था
को इस प्रकार प्रकट किया है, ‘कपालिनी देवी के मंदिर में सटे पीपल के पेड़ में अभिशप्त
अहिल्याओं की तरह बंधे-लटके हज़ारों ढेले। मनोकामनाओं के बींज कितने लोग उन्हें
बाँधकर भूल जाते एकबारगी। हवा के तीखे झकोरों में वे आपस में टकराकर
छर्र-छर्र-छर्र-छर्र बजते। हर बार ही दो-एक काफी पुराने धागे टूट जाते और कपालकुंडला उदास हो जाती- ‘जाने कि बेचारों पर माँ
कुपित हो गयी।’’21
इसी उपन्यास में सोमारू नाम का एक चंदनपुर का कोयला खदान का मजदूर भी अपनी
मनोकामना पूर्ति के लिए ‘छठ परव’ में पूजा करने जाता है। सोमारू की इकलौती बेटी जन्म से
गूँगी है। उसे उम्मीद है कि उसकी बेटी की आवाज वापिस आ जाएगी। सोमारू की भक्ति
भावना उपन्यासकार ने इस प्रकार व्यक्त की है, ‘‘बिहार के सबसे बड़े परब का रंग ही
अलग, ढंग
ही अलग। अपराह्न की दुलारती आभा, मानभूमि की लाल-पीली नम मिट्टी पर जहाँ-जहाँ कोयले और कंकड़
की कालिमा, उसके ऊपर फले धानों के बोझ से झुक-झुकी मह-मह महकती धानी हरियाली और इस महक पर
सैंकड़ों उड़ती रंग-बिरंग तितलियों की तरह फहराती साड़ियाँ। मगर वह तो दिखावे की बात
है, भक्ति-भावना
और समर्पण जहाँ संपुंजित हो गये हों, उसी का नाम सोमारू। इस विसम कीचड़-कंकड़, कांटे-कुस की धरती पर
सोमारू चन्द कदम चलकर साष्टाँग करते हुए लेट जाते, फिर उठते, चन्द कदम चलकर फिर वही साष्टाँग!
‘दण्ड-प्रणाम’
करते हुए चिबुक
पेट, जाँघेें
और घुटने लहू-लुहान हो रहे हैं....... सोमारू के कानों में हजार-हजार आवाज़ें उठ
रही हैं मगर वह सिर्फ एक आवाज के लिए तरस रहा है- बेटी की आवाज- जो गूंगी है।.....
घाट चाहे सौ योजन हो, सोमारू दंड-प्रणाम करता हुआ वहाँ तक जायेगा। देखेगा, कैसे नहीं पसीजती है छठ मैया,
कैसे नहीं पिघलते
सुरूज देव......।’’22
'जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में उच्च वर्ग के
मन्त्री दुबे जी भगवान से अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रार्थना करते हैं।
उपन्यासकार ने उनके पूजा-पाठ के बारे में इस प्रकार अपने विचार व्यक्त किए हैं,
‘‘पाँच बजे सुबह
एलार्म बजता है, घन...... न...न...न....! उठ पड़ते हैं बिस्तर पर। आँख मूँदकर पहले हाथ जोड़कर
प्रार्थना करते हैं, ‘हे प्रभो, आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों से दूर हमको कीजिए।’ बाकी गायत्री मंत्र या
पूजा-पाठ नहाने-धोने के बाद। सगुन के लिए यह प्रार्थना बचपन से ही आजमाते आए हैं।
सो ट्रेन हो या प्लेन, पहली प्रार्थना यही होती है।’23 इन कथनों से सिद्ध होता है कि
अमीर हो चाहे गरीब, डाकू हो या फिर नेता, दलित हो चाहे स्वर्ण सब अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए देवताओं
और भगवान से मनौतियांँ माँगते हैं।
संजीव के उपन्यासों में कई पात्र जादू-टोने और झाड़-फूँक में विश्वास रखते
हैं। ‘जंगल
जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में मास्टर मुरली पांडे डाकुओं से गाँव की सुरक्षा के लिए ‘ग्राम सुरक्षा बल’
गठित करने के लिए
घर से किसी भी परिवार के सदस्य को बताए बिना चले जाते हैं। वे कई-कई दिन घर से
गायब रहते हैं। उनकी पत्नी सोचती है कि उनका बार-बार घर से गायब रहना भूत-प्रेतों
के साये के कारण होता है। इसलिए वह उन्हें ठीक करने के लिए जादू-टोने, झाड़-फूँक का सहारा लेती
है। उपन्यासकार के शब्दों में, ‘‘सुधीर की माँ ने सोखाइन से झाड़-फूँक, टोना-टोटका कराया, रासो गुरो, मदनपुर माई के थान,
सहोदर देवी,
सोमेश्वर देव और
जाने कहाँ-कहाँ मनौतियाँ मान लीं कि उनका दिमाग ठीक हो जाए। मगर उन्हें क्या हुआ
है, यह
रहस्य बना ही रह गया।’’24
इसी उपन्यास में बिसराम की बड़ी बेटी को साँप डस लेता है। वे लोग उसे साँप
का जहर उतारने वाले (विषहरिया) के पास ले जाते हैं। वह आदमी उस लड़की का झाड़-फूँक
और मन्त्र से जहर उतारने का उपक्रम करता है। डी.एस.पी. कुमार लड़की की नब्ज देखकर
कहता है कि यह तो मर गई है। बिसराम यह सुनकर जोर-जोर से रोना शुरू कर देता है।
काली, लड़की
का चाचा उसका हाथ पकड़कर रोता है। एक आदमी उनको ढाँढ़स बंधाता है, ‘‘ऐ बिसराम ऐ कलिया!....
हिम्मत हार गइल-आ! अरे मंतर से मुअल आदमी भी जिंदा हो सकत है। राम-राम-कर-आ।’’25 लड़की मरी पड़ी थी। उस पर
मंत्र पढ़ते हुए झूम रहे थे ओझा। उन्हें अभी भी विश्वास था कि वे उसे बचा लेंगे।
कुमार सोचता है कि काश बच्ची पहले ही अस्पताल में ले जाई गई होती।
‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में मास्टर मुरली पांडे
धार्मिक, अन्धविश्वास
और धार्मिक कर्मकाण्ड पर अपनी भड़ास इस प्रकार निकालते हैं- ‘‘व्हेन एनी स्टैगनैंट
सोशल यूनिट, देह इज कास्ट..... जब कोई अचल सामाजिक इकाई अर्थात जाति खुद को असहाय पाती है
तो विकल होकर शक्ति के अन्य स्रोतों की ओर भागती है या कृत्रिम शक्ति स्रोत बनाती
है, गौरवमय
इतिहास से खुद को जोड़ना, अपने बनाए सर्वशक्तिमान देवता की शरण में जाना आदि-आदि।
यहाँ तक कि सत्ता पुरुष, राजनीति, प्रशासन में अगर अपनी जाति के लोग हुए तो वहाँ से जाति का
कोई धनी-मनी हुआ तो वहाँ से जाति का, कोई डाकू या दबंग गुंडा या सन्नामी आदमी कहीं हुआ तो
वहाँ से, चाहे
कुछ हासिल हो या न हो, ये इमोशनल सपोर्ट पाते हैं।’’26
भारत में हर वर्ग के लोगों के अंदर अन्धविश्वास बहुत गहराई तक घर करके बैठा
है। गरीब हो या अमरी, गाँव हो या शहर या आदिवासी, चपड़ासी से लेकर उच्चाधिकारी तक, सिपाही से लेकर कमांडर तक,
मजदूर से लेकर
प्रधानमन्त्री तक, राजा से लेकर रंक तक हर कोई कहीं न कहीं थोड़ा बहुत अन्धविश्वासी जरूर होता है।
कुछ लोग तो समाज के सामने ही इन अन्धविश्वासों में अपनी आस्था प्रकट कर देते हैं
तो कुछ समाज के सामने तो विश्वास नहीं करते, लेकिन जब अपनी उन्नति, जाति, परिवार के सदस्यों को
लाभ-हानि की बात आती है, तब इन अन्धविश्वासों में विश्वास प्रकट करते हैं।
संदर्भ:-
1. विधु शर्माः ‘‘आठवें दशक की कहानियों में चित्रित बदलते सामाजिक
प्रतिमान’’, पंजाब वि0वि0
द्वारा स्वीकृत शोध प्रबंध-1997, पृ0 222
2. संजीव: ‘‘सूत्रधार’’ (उपन्यास), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्र0सं0 2004, पृ 22
3. वही, पृ0 22
4. वही, पृ0 157
5. संजीव: ‘‘पांव तले की दूब’’ (उपन्यास) वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, प्र0सं0 2005, पृ0 38
6. वही, पृ0 60
7. संजीव: ‘‘किशनगढ़ के अहेरी’’ (उपन्यास), मीनाक्षी पुस्तक मंदिर, दिल्ली प्र0सं0 1981, पृ0 40
8. संजीव: ‘‘धार’’ (उपन्यास), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्र0सं0 1990, पृ 40
9. वही, पृ0 123
10. संजीव: ‘‘पांव तले की दूब’’ (उपन्यास) वाग्देवी प्रकाशन, पृ0 28, 29
11. संजीव: ‘‘जंगल जहाँ शुरू होता है’’ (उपन्यास), राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ0 15
12. संजीव: ‘‘सावधान! नीचे आग है’’ (उपन्यास), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र0सं01986, पृ0 21
13. संजीव: ‘‘जंगल जहाँ शुरू होता है’’ (उपन्यास), 184-186
14. संजीव: ‘‘सूत्रधार’’(उपन्यास), पृ 985
15. संजीव: ‘किशनगढ़ के अहेरी’’, पृ0 45
16. संजीव: ‘‘धार’’, पृ 55
17. वही, पृ0 136
18. संजीव ‘‘पांव तले की दूब’’, पृ0 49-50
19. संजीव ‘‘जंगल जहाँ शुरू होता है’’, पृ0 148-149, 151
20. वही, पृ0 184
21. संजीव ‘‘सावधान! नीचे आग है, पृ0 37
22. वही, पृ0-143
23. संजीव ‘‘जंगल जहाँ शुरू होता है’’, पृ0 37
24. वही, पृ0 71-72
25. वही, पृ0 21
26. वही, पृ0 187
डॉ. रमाकान्त,प्रवक्ता हिन्दी (अतिथि)
श्रीमती अरुणा आसफ अली राजकीय महाविद्यालय, कालका, हरियाणा,
ब्वॉयज हास्टल -5, ब्लॉक -2 रूम नं0 27, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ , सेक्टर-14, पिनकोड-160014
मोबाइल - 9646375961
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