अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2,अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक(सित.-नव. 2015)
साक्षात्कार:आदिवासी चिन्तक रमणिका गुप्ता जी से बृजेश यादव की बातचीत
जी धन्यवाद.
आदिवासी साहित्य की पृष्ठभूमि पर थोड़ा विस्तार से
बताएं
आदिवासी साहित्य का जो वाचिक साहित्य है उसमें लगभग
पाँच हज़ार वर्षों का साहित्य सुरक्षित है.ऐसा इसलिए हुआ कि हमारी ब्राह्मणी
व्यवस्था जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं ने द्विज जातियों को छोड़कर और किसी को
लिखने-पढ़ने, बोलने और सुनने का अधिकार ही नहीं दिया था. आदिवासी आर्यों से हारकर जंगलो में
चले गए जहाँ अपनी जीवन शैली, भाषा, संस्कृति आदि को संभाल कर रखा था. अंग्रेजों के समय में
वंचित तबकों को पढ़ने का जब अधिकार मिला तो जो वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओँ में
सुरक्षित था वह पूर्वोत्तर में रोमन लिपि में तथा अन्य जगहों पर भिन्न-भिन्न
स्थानीय लिपियों में लिखा जाने लगा. आदिवासियों ने बहुत बाद में साहित्य को
लिपिबद्ध करना शुरू किया है- लगभग १५० वर्ष पूर्व. सन १९४०–१९५० ई. के आसपास झारखण्ड,
उड़ीसा, बंगाल, में इन्होने अपनी लिपियाँ बनाईं. मेरी जानकारी में जो लिपियाँ
बनी हैं आदिवासी भाषाओँ की उनमें सबसे पहले संथालों ने संथाली भाषा के लिए ‘ओलचिकी’(ol chiki) नाम से बनाई गयी
है.उरांव जनजाति ने अपनी कुडुख भाषा के
लिए जो लिपि बनाई है उसे ‘तोलोंगसिकी’ कहते हैं. तथा,हो भाषा-भाषियों ने उड़ीसा में अलग तथा झारखण्ड में
अलग लिपि बनाई है. एक लिपि ‘वारांगकशिति’ नाम से भी बनी है.मेरी जानकारी में अभी तक मुंडारी
आदिवासी भाषा की लिपि ‘ओमिनीग्लोट’ नाम से बनी है. झारखण्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाने वाली पांच आदिवासी भाषाएँ हैं जिनमें
कुडुख, मुंडारी,
संथाली,हो,और खड़िया शामिल हैं. तो,
जिन लोगों ने
वाचिक साहित्य के बाद लिखना भी शुरू किया वो भी कोई पूर्वोत्तर में. चूँकि
पहले मिजोरम में, उन्होंने अंग्रेजों के रहते ही
अपनी भाषा मिजो में शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति ले थी लेकिन लिपि रोमन ही रही. लिपि भले रोमन रही हो
भाषा उनकी अपनी थी. और भी कई राज्यों में मसलन त्रिपुरा के लोग कोकबोड़ो में पढ़ते हैं,
मेघालय में खासी
भाषा में पढ़ते हैं, असम में असमी भाषा में पढ़ते हैं तथा
बोड़ो भाषा में भी पढ़ते रहे. ये सब राज्य स्तर तक चल रहा था. केन्द्रीय स्तर तक अभी हाल ही में संथाली और बोड़ो मंजूर हुई.
मणिपुर में चूँकि ज्यादा हिन्दू संस्कृति , मैत्रेयी है वह वैष्णव हैं, वह आदिवासी नहीं हैं तथा पैतेयी
संस्कृति आदिवासी है. पैतेयी आदिवासियों की एक
प्रजाति है.ये लोग रोमन में पढ़ते हैं.बोडो ने अभी देवनागरी लिपि को स्वीकार
किया तथा संथाली ओलचिकी में भी लिखी जाती है पर ज्यादातर जो जहाँ है झारखण्ड,
बिहार में वह
देवनागरी में लिखता है. बंगाल में वह
बांग्ला लिखता है.
आदिवासियों ने अब समकालीन साहित्य भी रचना शुरू कर
दिया है. पहले लोक-कथाओं को लिपिबद्ध करने की शुरुआत की गयी, अपनी विरासत को १९०८ में
लिपिबद्ध करना झारखण्ड में शुरू किया. फिर अपनी रचनाएँ भी ५०–६० साल पहले लिखना शुरू
किया. यानी समकालीन साहित्य की शुरुआत भी तो ५०–६० साल पहले हुई. १५० वर्ष पहले
ही तो वह लेखन में आयें हैं और शिक्षित होना शुरू हुए हैं. कहीं १५० वर्ष है कहीं
८५ वर्ष है कहीं ८० वर्ष हुए हैं. इससे पहले उनके लेखन का कोई इतिहास नहीं मिलता
है.हमारे यहाँ कृष्णचंद तुड्डू ने नाटक लिखा, कहानियाँ लिखीं,हरिओम नोल ने लिखा,
वेश, निर्मला पुतुल को तो हमहीं खोज लाये, अनुजलुगुन, बंगाल में श्यामचरण हैं,
बेसरा हैं बहुत
लोग हैं.
एक जून सन २००२ को पहली बार रमणिका फाउन्डेसन की तरफ
से अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासी साहित्य सम्मलेन बुलाया जिसमें महाश्वेता देवी
समेत नौ राज्यों के साहित्यकारों ने हिस्सा लिया.झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आँध्रप्रदेश और कर्नाटक से लोग आये. २ जून २००२ को हमने अखिल भारतीय
आदिवासी साहित्य मंच की स्थापना की. तभी हमसे रामदयाल मुंडा जी जुड़े. हमने आदिवासी
साहित्य की अवधारणा को लेकर पूरी विवेचना की तथा एक पुस्तिका प्रकाशित की. इसके
बाद हमने घूमंतू जनजातियों का सम्मलेन बुलाया जिसमें विश्वनाथप्रताप सिंह भी आये थे.
घूमंतू जनजातियाँ आदिवासियों से थोड़ा भिन्न होती हैं. ये जातियां आदिवासियों की
तरह वोटर नहीं हैं. इनको एक जगह कोई रुकने नहीं देता. भाषा केवल एक बंजारा जो
दक्षिण में लाम्बारी कहलाता है, ही ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनी बोली को संभल कर रखा है. यह
बोर बोली बोलते हैं. हर आदिवासी द्विभाषी होता है. अपनी बोली के आलावा वह जहाँ भी
विस्थापित होकर जाता है उसे वहां की
स्थानीय भाषा सिखानी होती है–लोगों से जुड़ने के लिए.
आदिवासी साहित्य आदिवासियों द्वारा लिखा गया जिसमें
आदिवासी संस्कृति, दर्शन, अपनी जीवन शैली, प्रकृति और उनकी समस्याओं का वर्णन हो उसे हम आदिवासी साहित्य कह सकतें हैं.
इसका मतलब यह नहीं कि कोई आदिवासी हनुमान चालीसा लिखे तो वह आदिवासी साहित्य
कहलायेगा. क्योंकि उनकी संस्कृतियों में धर्म नहीं है. भाग्य नहीं है, भगवान् नहीं है, पुनर्जन्म जैसा कुछ नहीं
है.वे असतित्ववादी हैं. वहां निजी संपत्ति की कोई अवधारणा नहीं है.
आदिवासियों में मातृसत्ता प्रधान है या पितृसत्ता?
देखिये अलग–अलग राज्यों में अलग–अलग है. मेघालय के आदिवासियों
में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था है. पूर्वोत्तर के सारे राज्यों में माँ की
संपत्ति छोटी बेटी को दी जाती है और बाप की संपत्ति कहीं छोटे बेटे को कहीं बड़े
बेटे को. अगर आर्थिक स्थिति की वजह से लड़का-लड़की में पढ़ाने का निर्णय लेना हो तो
वह लड़कियों को पढ़ना पसंद करते हैं. वहां चन्द्रमा को शक्ति मानते हैं. उनके यहाँ
शक्ति स्त्री में है यहाँ मैं उनके मिथकों में नहीं जाउंगी. किसी भी आदिवासी
द्वारा लिखा गया साहित्य जो उनकी समस्या, दर्शन, भूगोल, प्रक्रति, अनुष्ठान, सामूहिक जीवन शैली, संस्कृति आदि पर हो, किसी भी लिपि, किसी भी भाषा में हो उसे
हम आदिवासी साहित्य मानते हैं. यहीं बात दलित साहित्य के बारे में भी लागू होती
है. आदिवासियों पर अगर कोई लिखता है तो उसका स्वागत है और वह सहानुभूति परक
साहित्य की कोटि में आएगा. मैं उनके बीच रही जीवन बिताया फिर भी यह कहना कि मैं
उनके बारे में सबकुछ जानती हूँ सही नहीं
है. मैंने वही लिखा जो मैंने अनुभव किया या जितना जान पाई. चूंकि मैं आदिवासी समाज
से नहीं हूँ इस लिया मेरा साहित्य आदिवासी साहित्य तो है लेकिन सहानुभूति परक. आज
कल एक परम्परा चल गयी है कि लोग बिना कहीं कुछ किये दो–चार किताबें पढ़ कर आदिवासी ,दलित, स्त्री पर लिखकर अपने
विद्वान होने की मुहर लगाये जाने की गुहार दरबदर करते फिरतें हैं. इस तरह की
प्रवृत्ति आजकल बहुत बढ़ गयी है. इस तरह के लोगों से बहुत सतर्क रहने की जरुरत है नहीं तो ये लोग अपनी सतही सोच–समझ से ऐसे जगह पहुंचा देंगे
जो अपने उद्देश्य से
बहुत दूर होगा. लोग दलितों और
आदिवासियों पर लिखें उनका स्वागत है लेकिन उनपर अपना विचार न थोपें. होता ये है कि
जो लोग आदिवासी या दलितों पर लिखने बैठते हैं वह जिस विचारधारा के होते हैं उसको
थोपने लगते हैं .
आदिवासियों के साथ विकास के नामपर जो हो रहा है और
उनका अस्तित्व विस्थापन जैसे खतरे से गुजर
रहा है इसको आप कैसे देखतीहैं ?
विकास के नाम पर आदिवासियों का विनाश हो रहा है.
विकास तो नहीं हो रहा लेकिन हाँ
आदिवासियों की कीमत पर कथित विकास हो रहा है. आदिवासी के लिए यह विकास नहीं
है. आदिवासी विकास चाहता है, वह विकास विरोधी नहीं है, वह कहता है कि उसके साथ मैं भी
विकसित होऊँ . आदिवासियों की कीमत पर किया गया विकास उनके किस काम के? जब तक जंगल, नदी–पहाड़ आदि न हो तो उनके जीवन का क्या अस्तित्व है. उनको जंगल
दीजिये, लकड़ी
दीजिये, जमीन
दीजिये, जल
दीजिये लेकिन यहाँ तो उनसे यह सब छिनने की साजिश हो रही है और विकास-विकास
चिल्लाया जा रहा है! अरे भाई किसका विकास! आप तो न उनकी भाषा में उनको शिक्षित कर
रहे हो, न
उनकी कला का सम्मान कर रहे हो, न उनको उनकी मजदूरी सही से दे रहे हो और विकास–विकास का राग अलाप रहे
हो! उनका जीवन पूरी तरह से जंगल पर आधारित है. उनको घर बनाने के लिए छावन चाहिए,
सिचाई के लिए लाठा
चाहिए, जलावन
के लिए लकड़ी चाहिए जो जंगल देता है. रोजगार पूरा उसका जंगल पर आधारित है और आप जंगल नष्ट कर रहे हैं,
जंगल में उनका
प्रवेश बंद कर रहे हैं, जंगल के अधिकार उनको नहीं दे रहे ,वन क़ानून तो बना दिया लेकिन लागू
तो नहीं हो रहा. उसके पास पट्टे ही नहीं हैं किसी जमीन के आप सत्यापन करने जाते
हैं तो कहाँ से पट्टा देखायेगा जमीन का!
कई महाजनों ने उनकी जमीन हथिया ली. १९०८
में जो जमीन का सत्यापन हुआ था झारखण्ड का उसके बाद फिर नहीं हुआ. बाहर के लोगों
ने खूब जमीनें हथियाई हैं वहां. इस प्रकार जल–जंगल–जमीन और बोली ही उनकी पहचान है .
दिल्ली का राष्ट्रपति भवन ही लक्खी बंजारे की जमीन
पर बना है. इस प्रकार विकास के नाम पर तो आदिवासियों का विनाश ही हो रहा है.
आदिवासियों का ये कहना है कि हम विकसित होना चाहते हैं लेकिन हमारे मूल्य पर नहीं
हमको साथ लेकर करो. हम विकास की बात करते हैं और उनको विस्थापन के लिए मजबूर होना
पड़ता है. लगभग तीन लाख आदिवासी तो हमारे कोयलारी से हुए हैं. मैं विस्थापन के
खिलाफ हूँ मैंने सर्वोच्च न्यायालय में मुक़दमा दायर किया था १९८० में, किसानों के साथ मिलकर
बड़ा आन्दोलन किया था दो महीने जेल में रहे हमने कहा हम जमानत नहीं लेंगे आखिरकार
सरकार को झुकना पड़ा और बिना किसी शर्त के हमें छोड़ दिया गया. हमारी मांग थी कि
पहले पुनर्वास हो, जमीन के बदले जमीन मिले, तीन एकड़ की सीमा ख़तम हो और उजड़ने के बदले में चूल्हे प्रति
नौकरी मिले. जो करोड़ो लोग विस्थापित हुए थे उसमें अस्सी प्रतिशत आदिवासी थे. उस
समय हो रहे पलायन के खिलाफ जब मैंने आन्दोलन चलाया और राज्यों से मांग की कि उनके
रोजगार की व्यवस्था राज्यों में ही की जाय. कोई लड़की दिल्ली या ऐसे महानगरों में
किसी के घर में काम करने क्यों जाय.आप लोग तो जानते ही हैं क्या होता है घर में
काम करने वाली लड़कियों के साथ यहाँ, आदिवासी रिक्शा खीचने क्यों जाय, अफीम खा कर आदिवासी
पंजाब में १२–१२ घंटे खेतों में काम क्यों करे? मैंने पता
लगाया बीस हज़ार लड़कियों में से दिल्ली में सात हज़ार हैं घर मजदूर बनकर.
आदिवासियों को शिक्षित करने और कथित मुख्यधारा से
जोड़ने के पीछे की जो राजनीति है उसको आप
किस तरह देखती हैं?
ईसाईयों ने भले उन्हें अपने धर्म में शामिल करके
शिक्षा दिया लेकिन हमारे हिन्दू–मनुवादियों ने तो उनका तिरस्कार ही तब किया था. आज भले वो
वहीं काम कर रहें हों जो तब ईसाई कर रहे थे लेकिन पढ़ने और अधिकार देने का श्रेय तो
पहले पहल ईसाईयों को ही जाता है. लेकिन आज पढ़ा–लिखा आदिवासी मिजोरम का हो या
किसी क्षेत्र का वो बोलता है कि तुम बाइबल, मनुस्मृति, वेद–पुराण, कुरआन लेकर आये और हमें
अपनी संस्कृति से नफ़रत करना सिखाया परन्तु अब ऐसा नहीं होगा. धर्मांतरण बहुत ही
ख़राब चीज़ है.धर्मांतरण का मतलब है आदिवासियों के अस्तित्व को मिटाना. धर्मांतरण से
उसका अस्तित्व खतरे में है. ईसाईयों ने तो आदिवासियों से माफ़ी भी मांगी मुंबई में
जहाँ वर्ल्ड सोशल मीटिंग में उनका एक पादरी आया था. उसने स्वीकार किया कि अंग्रेजों
ने आदिवासियों के साथ ज्यादती की है.
आदिवासियों का धर्मान्तरण कर हम उनके मूल्यों को नष्ट कर रहे हैं.
आदिवासी समाज को मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाय?
आप किस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं! वो जिसमें हम
अपने भाइयों से ही मैला ढोवाते हैं! या फिर वो जिसमें स्त्री के लिए कोई जगह नहीं
है! या फिर वो जिसमें बलात्कार और स्त्री के प्रति हिंसा को जायज ठहराया जाता है
या फिर उस संस्कृति की बात कर रहें हैं जो भेदभाव पर आधारित है! अगर आपका मुख्य
धारा का मतलब इससे है तो वो आपसे इस मामले में बहुत समृद्ध हैं तो वह आपसे क्यों
जुड़ेगें! उनके यहाँ बलात्कार नहीं है, सामाजिक भेदभाव नहीं है, उसके यहाँ बाल विवाह नहीं है.
स्त्री को समान अधिकार प्राप्त है तो वह आपसे किस लिए जुड़ेगा. अगर आपका मतलब
सामाजिक, राजनैतिक
और शिक्षा से है तो आप उनको शिक्षित करिए कक्षा १० तक उनकी भाषा में फिर हिंदी में
या अंग्रेजी में या फ्रेंच में या किसी अन्य भाषा में. बाकी वो सब कर लेगें. उनको
आर्थिक रूप से सम्पन्न कीजिये. उनकी भाषा में रोजगार पैदा कीजिये. उनको नौकरी
दीजिये.
थोड़ा आदिवासी संस्कृति के बारे बताइये
मैं तो किसी पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करती न
भाग्य को मानती न भगवान् को नहीं तो मैं भगवान् से कहती कि मुझे अगला जन्म आदिवासी
परिवार में दे. दरसल हम जितना सभ्य होते गये हैं उतना ही बर्बर होते गये हैं. हम
भले चाँद पर पहुँच गये, एटम बंम बना लिए हो ये सब विनाश के लिए कर रहें हैं. मानवता
नहीं बची है. हमारा समाज जहाँ व्यक्तिवादी है वहीं आदिवासियों का समाज सामूहिक
जीवन शैली में विश्वास करता है. आदिवासी समाज में बराबरी है, भाईचारा है, आज़ादी है. वहां शादी–तलाक और पुनर्विवाह का
प्रचलन हमारे समाज से बहुत पहले से है. वहां कोई बच्चा अवैध नहीं होता. झारखंड की
आदिवासी संस्कृति में कुछ खामियां भी हैं जैसे–यहाँ औरत घर नहीं छा सकती,
हल नहीं जोत सकती.
इसके पीछे एक तरह का अंधविश्वास यह कि औरत के ऐसा करने पर अकाल पड़ सकता है. जबकि
मिजोरम में ऐसा नहीं है.उनका कोई मंदिर नहीं होता. प्रकृति और उनके पुरखे(जहां वे
दफनाये जाते हैं) ही उनके आस्था का स्थल होते हैं. शाल के वृक्ष को विशेष महत्व
प्राप्त है. उनके यहाँ धर्म नाम की जड़ता जैसा कुछ नहीं है. उनके यहाँ भगवान् की
जगह पुरखे होते हैं. उनके यहाँ नाम बहुत सिमित हैं. दादा का नाम पोते को और दादी
का नाम पोती को दिया जाता है–वैसे आजकल लोग नाम रखने लगे हैं. उनके यहाँ आजा (नाना) और
नाता(नाती) का रिश्ता सबसे बड़ा और प्रेम का होता है. वह प्रकृति को क्षति पहुचाने
से पहले उनकी पूजा कर उनसे माफ़ी मांगते हैं.
आदिवासी क्षेत्रों में फैली हिंसा (नक्सल–माओवादी) और उसके पीछे
की राजनीति को आप कैसे देखती हैं.
रमणिका जी |
देखिये उनके पास विकल्प नहीं छोड़ा हमने. अगर विकल्प
हो तो आदिवासी लौट आयेंगे. आदिवासी एक तो बोलता नहीं और इधर हमने उनके मन में हीन
भावना भर दी कि तुम जंगली कह कर और उनकी भाषा को, जीवन को, संस्कृति को हमने नकार दिया.हम
उनके मूल्यों को बिना जाने नकार दिए हैं. अब जब वह बोलता नहीं, हमने उसे जब बोलने का
अवसर नहीं दिया तो उसका हाथ तीर पर जहाँ जाता था पहले, अब बन्दूक पर जाने लगा है.
सरकारें अपने हित के लिए और अपने कार्पोरेट घरानों के हित के लिए जान बूझकर उनको
नक्सली और देशद्रोही करार देती है ताकि उनपर अपना दमन चक्र तेज कर सके और वहां
मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का खुलेआम औने–पौने दामों में बेच सके. जो सरकार की दमनकारी
नीतियों के पक्ष में नहीं है वह नक्सल करार कर दिया जाता है. पुलिस को अपनी
उपयोगिता साबित करनी है और पुरस्कार लेने है तो वह नक्सल बना देता है. जंगल का
पेड़ ट्रक का ट्रक काटकर दिल्ली
पहुंचता है, जंगल के तस्कर गैर आदिवासी हैं, तो इनको कुछ नहीं होता जबकि आदिवासी एक ठूंठ काट कर
लाता है तो उसको सजा हो जाती है. कोई जमानत कराने वाला नहीं, कौन सुनेगा उनकी बात?
नक्सल में भी कई
ऊंची जाति के लोग अपना हित साध रहे हैं और पिस्ता है आदिवासी. आदिवासी संस्कृति
में हिंसा नहीं है हिंसक हमारी व्यवस्था बना रहीहै. मैं एक उदहारण देती हूँ-रमण
सिंह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हैं रायपुर साहित्य सम्मेलन में मैं गयी थी,उन्होंने बहुत डिंग
हांकते हुए बोला कि हमारे यहाँ ३३ प्रतिशत आदिवासी हैं. मैंने उठकर उनसे पूछा कि
आप तो सही कह रहें हैं लेकिन इस साहित्य सम्मेलन में एक भी आदिवासी लेखक नहीं है
तो आपने उनकी कलम को तो तीर बनाने नहीं दिया उसका तीर बन्दूक बन गया! आप उसे कलम
देते पढ़ाते तो आपने तो ये किया नहीं इस लिए उधर चला गया वह. क्या करेगा
वो? आंबेडकर
ने बराबरी–भाईचारा और आज़ादी का नारा दिया लेकिन आदिवासी तो इस मूल्य को जीता है. लेकिन
हमने उनसे सिखा नहीं.
आपका अनुभव जैसा रहा है उस आधार पर आपसे एक प्रश्न
पूछा जा सकता है कि इस विकास की अंधी दौड़
में आदिवासियों का भविष्य आनेवाले समय में किस किस तरह का होगा?
जिस तरह की विकास योजनाएं चल रही हैं उसको ध्यान में
रखते हुए मैं कहूं तो जो अस्मिता का खतरा था वह अब अस्तित्व के खतरे की तरफ बढ़ रहा
है. हमारी संस्कृति–धर्म, से उसकी अस्मिता खतरे में थी इस कथित विकास से उसका अस्तित्व खतरे में है.
धर्मान्तरण और घरवापसी से उनके अस्तित्व को खतरा है. हर रोज उनकी भाषा विलुप्त हो
रही है. वीरहोर जनजाति में पूरे झारखंड में सिर्फ एक लड़का आपको एम. ए. पास मिलेगा.
नौकरियों में और जगहों पर उनको सिर्फ तीन प्रतिशत आरक्षण मिला है,बाकि का क्या होगा?
हमलोग कहते हैं
उनको उनकी मातृभाषा में पढ़ाइये लिपि चाहे जो रखिये. उनकी विरासत तो इतनी अच्छी है,
मेरे समेत बहुत
सारे लोग जो कोशिश कर रहे हैं. मने कई राज्यों के मिथकों को छापा है. उनको छापना
चाहिए,उनके
जो प्रतिमान हैं उनको आगे लाना चाहिए. मेरा तो ये मानना है कि उनकी जीवन शैली,
उनकी कथा शैली को गैर आदिवासी इलाकों में भी पढ़ाया
जाना चाहिए-देखो तुम्हारे ये भी भाई बन्धु हैं. तब इससे संवाद कायम होगा. अभी तो
जंगली उनको हम बनाये हुए हैं. अभी जो टी. वी. पर जो कार्यक्रम आता है अतुल्य भारत
उसको मैं अनजान भारत कहती हूँ. चूंकि असम
के बाद हम लोग ज्यादातर के लोगों और राज्यों को नहीं जानते .नागालैंड के आदमी को
बोलेंगे लोग की चीनी है, जापानी है, हम पहचानते तक नहीं. उनको अपनी संस्कृति में जीने दीजिये,
अपनी भाषा बोलने
दीजिये नहीं तो वो अपने ही देश में पराये हो जायेंगे.
आपका बहुत–बहुत धन्यवाद.
(बृजेश कुमार यादव,शोधार्थी,जे.एन.यूं.,दिल्ली.ई-मेल:bkyjnu@gmail.com,संपर्क सूत्र:09968396448)
(रमणिका गुप्ता जी,प्रख्यात आदिवासी चिन्तक और लेखिका,दिल्ली.ई-मेल:ramnika01@gmail.com,संपर्क सूत्र-09312039505,011-46577704)
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