आदिवासी अस्मिता और बंदूक से निकलते सवाल
डॉ. सुनील कुमार यादव
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
हिंदुस्तान में लगभग 8 करोड़ आदिवासी रहते हैं जो कुल जनसंख्या का 7 प्रतिशत है। यह देश का
सबसे अभागा और उपेक्षित समुदाय है। प्रो. वीर भारत तलवार कहते हैं कि ‘ जिसे आप आदिवासी विमर्श
कह रहे हैं। हिन्दी साहित्य और हिन्दी
समाज में जो बहस चल रही है, यह देश बहुत बड़ा है और आदिवासी पूरे देश में फैले हुए हैं।
एक नहीं कई तरह के आदिवासी। उनकी अपनी-अपनी भाषा है, अपना समाज है। .....हिन्दी
साहित्य में अगर कोई विमर्श चला है या अंग्रेजी में, पत्रकारिता में चल रहा है,
तो उसको हम अपने
अर्थ में, अपने संदर्भ में आदिवासी विमर्श भले कह लें, पर आदिवासी समाज के अंदर वह
विमर्श कितना है?...आदिवासियों की मुक्ति के लिए आदिवासी ही मुख्य रूप से लड़ेंगे और उनके जगे बिना
उनके उठे बिना आदिवासी की मुक्ति संभव नहीं है, हाँ इस लड़ाई में हम सबकी
महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है होनी भी चाहिए।’
राम शरण जोशी आदिवासी मुक्ति के संदर्भ में ‘प्रोसपेरा सिंड्रोम के अंत’
की बात कहते हैं।
वे एक तरफ जल, जंगल, जमीन के सवाल को उठाते हैं तो दूसरी तरफ भारतीय स्टेट के दमनकारी चरित्र को
उजागर करते हुए लिखते हैं कि ‘जल, जंगल, जमीन को लेकर नागरिक तथा राज्य आमने-सामने खड़े दिखाई दे रहे
हैं । देश के सुदूर भीतरी आदिवासी अंचलों और कतिपय ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में
टकराव की स्थितियाँ बनी हुई है। राजसत्ता के साथ सीमांत लोगों की मुठभेड़ें भी जारी
है और शांतिपूर्ण आंदोलन भी चल रहे हैं।’ अपने लेख में वे सवाल उठाते हैं कि ‘आखिर इस तनाव, संघर्ष, भूख के कारण क्या हैं?
क्यों इन अंचलों
में राज्य-बल (सेना, अर्द्ध सैन्य बल, पुलिस आदि) का जाल फैलता जा रहा है? क्यों ‘जल, जंगल, जमीन’ की भूख की तृप्ति और संघर्षो- आंदोलनों के दमन के मामले में
भारतीय राजसत्ता का जन-विरोधी चरित्र उजागर हो रहा है ?’ ये ऐसे सवाल हैं जिनको झुठलाकर न
तो आदिवासी विमर्श अपने सही निहितार्थ को ग्रहण कर सकता है और न ही हम आदिवासियों
की समस्याओं को सही ढंग से समझ सकते हैं । रामशरण जोशी अपने लेख में आदिवासियों
की समस्याओं की पड़ताल करते हुए इन
समस्याओं को समझने तथा निराकरण के लिए जिन बीस बिन्दुओं को रखते हैं उसमें सबसे
महत्वपूर्ण यह है कि ‘जब तक राजसत्ता प्रोसपेरो बनी रहेगी केलिबानों का संघर्ष इसी प्रकार जारी
रहेगा । इसलिए अब एक ही विकल्प बचा है और वह है प्रोसपेरा सिंड्रोम का निर्णायक
अंत।’
‘दस्तक देता आदिवासी विमर्श’
नामक अपने लेख में
रमेशचंद मीणा दलित विमर्श से आदिवासी विमर्श के घालमेल को खतरनाक बताते हैं तथा
उसके स्पष्ट विभाजन की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं कि ‘जो लोग दलित और आदिवासी को एक ही
विमर्श का हिस्सा मानकर चलते हैं उनको जान लेना जरूरी है कि दोनों में तात्विक और
रूपगत भेद रहा है ।..... दलित साहित्य में वर्णव्यवस्था के दंश, छूआ-छूत और अपमान को
चित्रित वर्णित किया जाता है, जबकि आदिवासी साहित्य में वर्णव्यवस्था और उससे उपजी समस्या
के इतर जंगल, विस्थापन और बाहरी लोगों कि घुसपैठ मुख्य विषय रहे हैं ...दलित रचनाकर अंबेडकर
से प्रेरित,संवेदित और संचालित रहे हैं। वैसे दोनों ही अंबेडकर पर एकमत रहे हैं पर लगातार
दलित मंचों से आदिवासी आवाज को दबता देखकर आदिवासी अपनी अस्मिता के बतौर बिरसा
मुंडा को सामने लाने लगे हैं।’ इस अलगाव के पीछे आदिवासी और दलितों कि समस्याओं का अलग-अलग
होना ही है । ‘मोटे रूप में दलितों की समस्या जितनी सामाजिक है उतनी आर्थिक और भौगोलिक नहीं
है । इस अर्थ में आदिवासी की अपनी समस्याएँ हैं । इनके संकटों के रूप अलग-अलग रहे
हैं। इसलिए उनसे लड़ने के हथियार भी अलग तरह के ही होंगे और संघर्ष के लिए अलग तरह
कि नीतियाँ बनानी होंगी।’ दलित-आदिवासी अंतरसंबंध की बहस को आगे बढाते हुए बजरंग
बिहारी तिवारी लिखते हैं कि ‘ दोनों विमर्श अपने शुरुवाती मकसद या मंतव्य में अस्मितावादी
हैं । पहचान की लड़ाई , आत्मसम्मान की लड़ाई , शेष समाज से अपने को भिन्न
मानने-मनाने की कोशिश इसकी चिंता के केंद्र में है .....दोनों प्रतिरोधी आंदोलन भी
हैं। यह प्रतिरोधी तेवर उन्हें अस्मितावादी संकीर्णता से मुक्त करने कि क्षमता रखता
है ....रमेश चंद मीणा जैसे विचारकों का यह कहना सही नहीं है कि दलित विमर्श की धूम
में आदिवासीयों की आवाज ठीक से सुनी नहीं जा सकी है।’ बजरंग बिहारी तिवारी दलित और आदिवासी विमर्शकारों के लिए जिस साझा
मंच कि बात करते हैं डॉ. रामचन्द्र ने उसे विस्तार दिया है, वे लिखते हैं कि ‘आदिवासी विमर्श अपनी
स्वायत्ता को बरकरार रखते हुए फुले-अंबेडकरवादी विचारधारा के साथ मिलकर आंदोलन की
धार को तेज कर सकता है। उसके सहयोग में करोड़ो आवाजें और कदम एक साथ मिलकर आंदोलन
की धार को और तेज करने में सक्षम है ।’
आदिवासी इतिहास और भूगोल के संदर्भ में केदार प्रसाद मीणा ने संथाल ‘हूल’ आदिवासी विद्रोह के
प्रतिरोधी तेवर तथा दस्ताने जंग के लहू से रंगे आदिवासियों के विराट एवं गौरवपूर्ण
इतिहास को हमारे सामने रखा है । वे लिखते हैं कि ‘ अगर तथ्यों, हालातों और परिवेश का
ईमानदारी से मूल्यांकन किया जाय तो संथाल ‘हूल’ गरीब जनता का अपने शोषण के खिलाफ किया गया एक व्यापक
जनांदोलन था। इसमें बहुत बड़ी क्रांति के बीज निहित थे । ...संथालों ने कोई डेढ़ सौ
साल पहले दुश्मनों को पहचानकर उनके खिलाफ अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक ऐसी अपार
संभावनाओं वाली जंग की शुरुवात की थी जिसमें जाति धर्म उंच-नीच जैसी किसी
सांप्रदायिक सोच के लिए जगह नहीं थी । इसका नेतृत्व जनता के बीच से आया था और लड़ाई
भी जनता के बीच से ही हुई थी । संथाल ‘हूल’ से पहले और न ही बाद में इतने बड़े स्तर पर कोई संघर्ष किया
जा सका है।’ आदिवासियों को मुख्यधारा से बाहर मानते हुए भारतीय इतिहास से बेदखल किया जाना
इतिहासलेखन के औपनिवेशिक दृष्टि का ही नतीजा है। उत्तर औपनिवेशिक अध्ययनों के
द्वारा जिस तरह सबाल्टर्न इतिहास लेखन की जरूरत महसूस हुई है, वह निश्चित ही
आदिवासियों के गौरव पूर्ण इतिहास को रेखांकित करने में उपयोगी होगी। बिहार के ‘गोंड’ आदिवासियों के पलायन के
परिप्रेक्ष्य में मनोज कुमार ने गोंड जनजाति के आरक्षण प्रमाण पत्रों में अन्य
जतियों के फर्जी सेंधमारी से लेकर उनके विस्थापन तक के सवाल को वखूबी उठाया है ।
मध्य प्रदेश गोंड आदिवासियों का मूल स्थान रहा है यहाँ से गोंड जनजाति अपने
सांस्कृतिक पहचान के साथ उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देश के अन्य भागों में फैली, जिसका पुश्तैनी धंधा ‘चूल्हा झोंकना’ रहा है। लंबे कब्र नुमा
चूल्हों को झोंककर दूसरे का ‘अन्न भूनना’ इनकी जीवन यात्रा का प्रस्थान बिंदु है। बाजारीकरण के दबाव
के चलते इनका यह पेशा आज लगभग समाप्त हो गया है। जंगलों से बेदखल ये आदिवासी बंधुआ
मजदूर बनने पर विवश हैं। गोंड जनजाति अपने परंपरागत विवाह प्रथाओं तथा परंपराओं से
कटकर ब्राहमणवाद तथा हिंदू धर्म के अंधविश्वासों के चपेट में आ गयी है।
इस किताब के ‘आदिवासी महिला संवाद’ खंड के अंतर्गत रमेशचंद मीणा आदिवासी जीवन से जुड़ी कहानियों
के बहाने आदिवासी स्त्री अस्मिता की पड़ताल करते हैं। देश के अन्य समुदायों की तुलना में आदिवासी महिला
की स्थिति एकदम भिन्न किस्म की है । वह दलित स्त्री की तरह दोहरे शोषण का शिकार तो
है पर यह दोहरा शोषण उसके आदिवासी होने या स्त्री होने के कारण ही नहीं है बल्कि
पितृसत्ता का वह खूनी पंजा उसे हमेशा दबोचने को
तैयार रहता है जो आदिवासियों के बीच आउट साईडर की तरह माने जाते हैं। पेट
पालने के लालच में बंधुआ मजदूर बनकर महानगरों की तरफ पलायन करने वाली आदिवासी
महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है । आदिवासी महिलाओं के इन मुद्दो को विस्तार से
सुधीर अपने लेख ‘आदिवासी महिला की स्थिति और उनका पलायन’ में उठाते हैं। गाँव की गलियों,
जंगलों की
पगडंडियों पर नजर दौड़ा लीजिए आदिवासी महिला काम में गूँथी नजर आएंगी । सबसे ज्यादा
श्रम करने वाली इन महिलाओं के सामने अपनी
अस्मिता की लड़ाई आज सबसे बड़ी चुनौती है।
विकास के नाम पर विस्थापन की मार झेल रहे आदिवासियों के लिए सरकार के पास
कोई समुचित योजना नहीं है । भूमि अधिग्रहण के द्वारा आदिवासियों को उनके जमीन से
बेदखल किया जा रहा है । मूलतः विस्थापन एक ऐसी
समस्या है जो व्यक्ति को उसकी सांस्कृतिक पहचान से तो काट ही देती है रोजी
और रोटी का सवाल भी पैदा करती है। आदिवासी
पीढ़ियों से, जहां बसे हैं ऐसे क्षेत्र से उनके सामाजिक, आर्थिक रिश्ते-नातों का टूटना,
वस्तुतः किसी भी
समाज के लिए एक हादसे से कम नहीं होता है । देश के हर क्षेत्र में विकास के नाम पर
आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। वीरेंद्र जैन के उपन्यास ‘डूब’ के बहाने इस विस्थापन की
समस्या को संजय कुमार लक्की ने अपने लेख ‘विकास बनाम विस्थापन कि त्रासदी’ में समझने की कोशिश की
है । आज आदिवासियों का जंगल, जमीन पर अधिकार तो दूर उनके जंगल प्रवेश तक पर रोक है।
कारखानों का विकास हो या बड़े-बड़े बांधों का इनके चलते वहाँ के स्थाई निवासी यानि
आदिवासी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं । आदिवासी बसाहटों, जो प्रायः देश के खनिज और जंगलों
से भरे समृद्ध क्षेत्र ही होते हैं, में बाहरी लोगों के घुसपैठ बढ़ने के साथ उनकी बेरोजगारी,
भुखमरी, और गरीबी बढ़ी है,
जिससे असंतोष पनपा
है। आदिवासियों को पुलिस जमीदार, सूदखोर और ठेकेदार लूटते रहे हैं । प्रशासन, पुलिस एवं न्यायालय से
न्याय में देरी होने या न मिलने पर और निर्दोष को बिना वजह पुलिस द्वारा प्रताड़ित
किए जाने से भी असंतोष पनपता है । आदिवासियों और वंचित जमातों में पनप रहे असंतोष
का परिणाम ही ‘नक्सलवाद’ है। रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि ‘आदिवासी का अस्तित्व और समृद्धि, जंगल और जमीन से नालबद्ध
है। मेरा दृढ़ मत है कि बंदूक का विकल्प हम उनके पास लेकर जाएँ तो वे जरूर
लौटेंगें।’ लेकिन समस्या यह है कि सरकार इनकी समस्याओं को जानते हुए भी समझना नहीं चाहती
और न ही अभी तक बंदूक कि विकल्प ही खोज पाई है। हरिराम मीणा अपने लेख ‘आदिवासी और नक्सलवाद’
में नक्सलवाद के
इतिहास पर बात करते हुए, भारतीय स्टेट के फंसीवादी चरित्र और नक्सल समस्या के मूल
कारणो का विस्तार से चर्चा करते हैं। सन् 1967 में आदिवासियों तथा दमित वर्ग
की आवाज को बुलंद करते हुए ‘आमार बाड़ी, तोमार बाड़ी, नक्सलवाड़ी, नक्सलवाड़ी ’ के नारे के साथ चारु मजूमदार और कानू सन्याल के नेतृत्व में
जिस आंदोलन की शुरुवात हुई, वह आंदोलन अपने तमाम भटकावों से गुजरता हुआ यहाँ तक पहुंचा
है । सन् 2002 से नक्सलवाद उग्र और हिंसक रूप धारण करने लगा है ।
अनिल चमड़िया सवाल करते हैं कि ‘आदिवासियों के सामने विकल्प क्या
है? सरकार
ने आदिवासी अधिकार से जुड़े प्रतिरोधी आंदोलनों को दबाने के लिए आदिवासियों पर
बेतरह गोलियां चलायी। मुठभेड़ के नाम पर हत्याएँ की। ...पहले बंदूक की गोली अपने
अधिकारों के लिए संघर्षशील, ग्रामीणों पर चला करती थी। अब वही बंदूक की नाली पुलिस की
तरफ तनकर खड़ी हो गई है। एल. एल. योगी अपने लेख में नक्सलवाद की समस्या के संदर्भ
में निम्न निष्कर्ष पर पहुँचते हैं- ‘नक्सलवादी हिंसा के जनक
वे सारे राजनेता, प्रशासन, पुलिस अधिकारी, भूपति सूदखोर, दिकू, अदालतें हैं जिंहोने प्रगतिशील क़ानूनों और लोक कल्याणकारी प्रावधानों का सटीक
क्रियान्वयन नहीं होने दिया। समर्थ लोगों के हित में ज़मीनों की फर्जी बंदोबस्ती
कराई गयी। दुर्बल आदिवासियों की ज़मीनें येन-केन प्रकारेण हड़पी गयी।...गरीबी को
नहीं गरीबों को खत्म किया जा रहा है।’
संजय कुमार सुमन का लेख आदिवासी संस्कृति- दशा और दिशा इसलिए महत्वपूर्ण है
कि उन्होने इसमें विस्तार से आदिवासी संस्कृति की मूल पहचान की सिनाख्त की है। प्रकृति
पूजा, मेला,
उत्सव, हाट-बाजार के साथ समूहिक रीति- रिवाजों का ईजाद आदिवासी
संस्कृति से ही संभव हो पाया है।
...खान-पान मांसाहारी या शाकाहारी भोजन जैसे- मांस-मछली, कंद-मूल, फूल, फल, बीज, पत्तियाँ आदि ही क्यों न हों
आदिवासियों ने अपनी आवश्यकतानुसार इनको उपभोग करना सीखा। जिसे बदलते हुए परिवेश
में विभिन्न रूपों में आज भी उपयोग किया जा रहा है। आदिवासियों की अपनी विशिष्ट
कलाएं रही हैं, चाहे वह गीत-नृत्य कला हो या चित्र कला आदिवासी समुदायों में इनकी समृद्ध
परंपरा रही है । राजस्थान के गोवर्धन लाल जोशी का ‘भील’ दर्शन अत्यधिक चर्चित हुआ,
उनके द्वारा
विकसित की गई ‘बाबा’ शैली को राजस्थान में खूब लोकप्रियता मिली।
मणि भारतीय ने अपने लेख में
गोवर्धन लाल जोशी के इस ‘बाबा’ शैली की विशेषता को विस्तार से रेखांकित किया है।
आदिवासी साहित्य की बात करें तो आदिवासी विमर्श अपने धमक के साथ दलित या
स्त्री विमर्श की तरह मजबूत उपस्थिती दर्ज करा रहा है । आदिवासी साहित्य को
प्रोत्साहन देने में जिन पत्रिकाओं ने
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वे निम्न हैं - ‘युद्घरत आम आदमी’, ‘अरावली उद्घोष’,
‘झारखंडी भाषा
साहित्य, संस्कृति
अखड़ा’ ‘आदिवासी
सत्ता’ आदि।
कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक निकाल कर आदिवासी विमर्श को नई उचाई
दी है - ‘समकालीन
जनमत’ (2003), ‘दस्तक’ (2004), ‘कथाक्रम’(2012), ‘इस्पातिका’ (2012) आदि। हिंदी उपन्यास
की परंपरा को देखे तो ‘गगन घटा घहरानि’(मनमोहन पाठक), जहां बांस फूलते हैं(श्री प्रकाश मिश्र), ‘पाँव तले दूब’, ‘जंगल जहां शुरू होता है’(संजीव), ग्लोबल गाँव का
देवता(रणेन्द्र), ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’(महुआ माझी), ‘धूणे तपे तीर’ (हरिराम मीणा) इत्यादि उपन्यासों
में आदिवासी साहित्य विमर्श के मुद्दे आकार ले रहे हैं। हिंदी की आदिवासी कविता के
संदर्भ में बात करें तो आदिवासी कवियों की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है,इधर जिन दो नामों ने
हिंदी कविता के सवर्णवादी वर्चस्व को चुनौती देते हुए अपनी पहचान बनाई है उसमें
निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन प्रमुख हैं । पलाश की लालिमा तथा महुए की महुआई गंध
में लिपटी अनुज की कविता हमें उस प्रदेश में ले चलती है जहां यात्राएं स्थगित नहीं
हैं, दमन
के खिलाफ एक अघोषित उलगुलान चल रहा है, इसी दमन और प्रतिकार के बीच से प्रतिरोध का हथियार
चुनती उनकी कविता हमारे समय की जरूरी कविता है। आदिवासी साहित्यकारों ने अपने सृजन
कर्म से आदिवासी अस्मिता के सवाल को मजबूती से उठाया है। रमेश चंद मीणा द्वारा संपादित यह पुस्तक इसी
दिशा में एक सरहनीय प्रयास है ।
डॉ. सुनील कुमार यादव,ग्राम- करकापुर,
पोस्ट- अलावलपुर
जिला- गाज़ीपुर,
उत्तरप्रदेश-२३३३०५,मो.९४५३४६४०७३
आदिवासी विमर्श
(सं.) डॉ. रमेशचंद मीणा , राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी , मूल्य-110 रुपए, संस्करण 2013
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