अपने समय-समाज से संवाद करते शिवमूर्ति के उपन्यास
धनंजय
कुमार साव
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
आज के उत्तरवादी और अंतवादी समय में साहित्य के अंत
की घोषणा हो चुकी है | इसके बावजूद भी साहित्य की भूमिका अपरिहार्य रूप से बनी हुई
है, क्योंकि
साहित्य मनुष्य की मनुष्यता की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है | कहना न होगा कि जिस
प्रकार एक संवेदनशील व्यक्ति-मन की मनुष्यता अपने समय-समाज के स्वर से बाखबर रहने में दिखाई देती है ठीक उसी
प्रकार एक सृजनधर्मी रचनाकार की मनुष्यता अपने समय-समाज के सार्थक आख्यान रचने में
प्रकट होती है |
जैसा कि विदित है कि हमारे समय-समाज का समकाल इसकी
जटिलता को द्योतित करता है | ऐसे समय में, साहित्य की वे विधाएँ जो सहज ही अपने जटिल होते
समय-समाज के आरोह-अवरोह को पकड़ पाने में अग्रणी नजर आती हैं, उनमे कथा साहित्य प्रमुख
है | दरअसल
कथा- साहित्य में जीवन को समग्रता में पकड़ने एवं उसका संश्लिष्ट रूपायन करने की
अदभुत क्षमता निहित है | संभवतः इसी कारण कवि निराला को यह कहना पड़ा कि ‘ गद्य जीवन संग्राम की
भाषा है’|
उल्लेखनीय है कि उपन्यास कथा-साहित्य की एक प्रमुख
विधा है | इस विधा की खूबी यह है कि इसमें व्यक्ति अपनी सामाजिक- ऐतिहासिक भूमिका में उपस्थित होता है | इसलिए इसमें समय-समाज के
विभिन्न स्वरों और उसकी संश्लिष्टता की पहचान संभव होती है | कहने की जरूरत नहीं है
कि आज समकालीन हिन्दी उपन्यास ने अपनी संरचना के भीतर जिस विशिष्टता को आत्मसात
किया है, वह
है अपने चतुर्दिक समय-समाज से संवाद स्थापित करने की कला | यही नहीं, समकालीन हिन्दी उपन्यास ने अपनी
संरचना के अंतर्गत स्वरों और दृष्टियों की अनेकता को शामिल करते हुए साहित्य और
समाज के समक्ष अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ की है | आज समकालीन उपन्यास की तमाम
प्रवृतियों को पुष्ट करने तथा उसे अग्रसर करने का जिन उपन्यासकारों ने सार्थक
प्रयास किया है, उनमें शिवमूर्ति प्रमुख हैं |
शिवमूर्ति की प्राथमिक पहचान एक कहानीकार की है |
‘केशर कस्तूरी’,
‘कसाईबाड़ा’,
‘तिरिया चरित्तर’,
‘भरतनाट्यम’
तथा ‘सिरी उपमाजोग’ जैसी कहानियाँ जिनमें
पुनः कथा-रस की वापसी के साथ समय-समाज के ज्वलंत मुद्दों को दर्शाने का कार्य हुआ
है, वे
शिवमूर्ति को हमारे समय के एक प्रमुख कहानीकार की पहचान प्रदान करती हैं | पर इन कहानियों के
अतिरिक्त भी उनका एक महत्वपूर्ण परिचय, समकालीन समर्थ उपन्यासकार का है | उन्होंने अपने उपन्यासों
में समय और समाज के संश्लिष्ट स्वरों को उसकी ऐतिहासिक अविच्छिनता में उकेरते हुए
समकालीन हिन्दी उपन्यास को नई संभावनाओं से युक्त करने का महत कार्य किया है |
शिवमूर्ति का मानना
है कि एक रचनाकार को अपने समय-समाज से संपृक्त रहना बेहद जरूरी है| ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित
उनकी एक टिप्पणी पर ध्यान दिया जाय तो उनके उक्त विचार के साथ-साथ उनकी कथात्मक
रचना –प्रक्रिया से भी
अवगत हुआ जा सकता है - वे लिखते हैं –“ लेखक भी खर-पतवार की तरह मिट्टी की ही उपज होता है,
जिस परिवेश में वह
पैदा होता है, जिसमें वह पलता- बढ़ता है, वहीं से वह अपनी प्राथमिकताएँ तय करता है |”1 यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि
एक महत्वपूर्ण रचनाकार अपनी रचना में समय-समाज की संवेदनशीलता को ही व्यंजित करता
है, क्योंकि
इससे विरत रहकर साहित्य की सार्थकता सिद्ध नहीं की जा सकती है |
शिवमूर्ति ने अब तक कुल तीन उपन्यासों का सृजन किया
है | ‘त्रिशूल’(1995),
‘तर्पण’(2004)
और ‘आखिरी छलांग’(2008)
| यहाँ इस लेख में
उनके उपन्यास ‘त्रिशूल’ की संक्षिप्त चर्चा करते हुए विस्तार में उनके ‘तर्पण’ उपन्यास को समझने का प्रयास किया
जा सकता है | ‘त्रिशूल’ उनका पहला उपन्यास है, जिसमें हमारे समकाल की एक प्रमुख चिंता को स्वर दिया गया है
| इस
उपन्यास में सांप्रदायिकता और जातिवाद की आड़ में घृणित राजनीति करने वाली मानसिकता
को बेपर्द करने की गंभीर कोशिश हुई है |
शिवमूर्ति जी |
कहना न होगा कि सांप्रदायिकता का जहर मनुष्य के
मानवीय पक्ष को दबा कर उसके अंदर की घृणा को
जागृत करने का कार्य करता है | यही घृणा मनुष्य- मनुष्य के बीच व्यवधान उपस्थित कर
हमारे समकाल को किस प्रकार विषाक्त करता है, इसकी गहरी पड़ताल करता है
शिवमूर्ति का यह ‘त्रिशूल’ उपन्यास | आलोच्य उपन्यास के प्रारम्भ में ही हमारे समय-समाज का वर्तमान संकट तथा उससे
जन्म लेने वाली दुश्चिंतायें उजागर हो
जाती हैं | प्रस्तुत उपन्यास की निम्न पंक्तियाँ इस संदर्भ में अवलोकनीय हैं –“ कहाँ से शुरू करूँ महमूद
की कहानी ? वहाँ से जब पुलिस उसे घर से घसीट कर ले जा रही थी ... चौराहे पर लाठियों से
पीट रही थी और मुहल्ले से कोई आदमी बचाने के लिए नहीं आ रहा था | या ...जब इसी चौराहे पर
वे लोग उसकी छाती पर त्रिशूल अड़ाकर मजबूर
कर रहे थे, “बोल साले जै सिरी राम ... |”2 इन पंक्तियों में स्पष्ट देखा जा सकता है कि अपनी राजनीतिक
महत्वाकांक्षा को साधने की साजिश में, राष्ट्रवाद की आड़ लेकर धर्म - संप्रदाय के बहाने
व्यक्ति का ध्रुवीकरण कर कुछ लोग किस प्रकार समाज में वैमनस्य घोल देते हैं |
यहाँ यह समझने में दिक्कत नहीं होती है की त्रिशूल
महमूद की छाती पर नहीं, बल्कि हमारी सदियों की साझी संस्कृति और सौहार्द पर वार
करता है | ध्यान से पढ़ा जाय तो उपन्यास की उक्त पंक्तियाँ हमारे समय-समाज के मुख्य संकट
से हमारा परिचय कराती हैं | चाहे वह लोकतान्त्रिक मूल्यों के क्षरण होने का संकट हो या
समाज के बीच एक व्यक्ति के सिर्फ अपनी पहचान के कारण अकेले पड़ जाने का, या धर्म-संप्रदाय के नाम पर व्यक्ति को लामबंद करने का संकट हो
या फिर सांप्रदायिक उन्माद से समूची मानवीयता को रौंद देने का; उसे जड़वत बना देने का |
आलोच्य उपन्यास
में कथाकार स्पष्ट शब्दों में यह कहता है कि महमूद के रूप में गरीब साधारण मेहनतकश
वर्ग के लिए एक ही धर्म है, वह है अपने अस्तित्व को ज़िंदा रखे रहने का धर्म | इसी कारण महमूद मस्जिद
गिरने की घटना के बाद चाहे शास्त्री जी के घर कुर्सियाँ लगाने का कार्यकर्म हो या
मिठाई बाँटने का, बड़ी तल्लीनता से उसे अंजाम देता है | उस वक़्त वो, न हिन्दू
होता है और ना मुसलमान, वह केवल एक अदना-सा मेहनतकश इंसान होता है –“ महमूद को भेजिये |
मेरा सिर दर्द से
फटा जा रहा है |” “उसे तो शास्त्री जी ने लड्डू बाँटने के काम में लगा दिया है | मुहल्ले के जिन घरों के
लोग उनके यहाँ नहीं पहुँच सके ऐसे लोगों के घर लड्डू पहुँचाने गया है “3
किन्तु यही महमूद सिर्फ नमाज़ पढ़ने तथा अपने दर्जी
मित्र ( मुसलमान दोस्त) से बात करने के कारण ‘घर का भेदिया’, दुश्मन और एक काफ़िर बन
जाता है –“ पुजारी बोला, ‘वह पक्का नमाज़ी है | उसकी दोस्ती मुसलमान गुंडों और लफंगों से है | वह उनका ‘भेदिया’ है | मुहल्ले का भेद देता है |”4 उपन्यासकार आलोच्य उपन्यास में स्पष्ट संकेत करता है कि
गरीब मेहनतकश जैसे महमूद, जब एक संप्रदाय की कट्टरता-“ अरे, आप चार-पाँच बार मुसलमान-मुसलमान
कहें फिर अपना मुँह सूंघें | कितना बदबू करने लगता है | उबकाई आने लगती है,”5 अविश्वास, -“ हमारे पुरखों ने बड़े अनुभव के
बाद ही लिखा है – “ कुकुर पानी पिये सुडुक के / तबौ न माने बात तुरूक के’’6, संत्रास - “ तीसरे दिन ही एक चिट्ठी भी मिली है’- महमूद के अब्बा ने लिखा है महमूद
के नाम | लिखा
है कि दंगे में इक्का और घर जला दिया गया | ... पच्चीसों घर हिंदुओं के बीच दो
घर मुसलमान | जान का खतरा पैदा हो गया है,”7 – को देखता-झेलता है, तब यह उसके लिए स्वाभाविक हो
जाता है कि ‘क्रिया के बदले प्रतिक्रिया’ वाली मानसिकता का पोषण करने वाली कट्टरपंथी सोच की ओर वह
मुड़ जाय | उसमें शामिल हो जाय | प्रस्तुत उपन्यास की अंतिम पंक्तियों के सहारे, आतंकित महमूद की स्थिति
के माध्यम से उपन्यासकार हमें हमारे समय-समाज के उक्त संकट की ओर ध्यान दिलाना
चाहता है –“ तब किस घर गया होगा महमूद ? कहीं नियति को यही तो मंजूर नहीं कि वह किसी-न किसी ‘काला पहाड़’ की शागिर्दी करे ?”8 स्पष्ट है कि यहाँ काला
पहाड़ मुस्लिम सांप्रदायिक कट्टरता का प्रतीक है | इस प्रकार देखा जाय तो शिवमूर्ति
का उपन्यासकार इस आलोच्य उपन्यास में हमारे समय- समाज के संकट – जातिवाद, सांप्रदायिकतावाद और
क्षुद्रगत राजनीति – का ही आख्यान रचता है |
शिवमूर्ति जी
‘तर्पण’ शिवमूर्ति का दूसरा उपन्यास है | जिसमें नब्बे के दशक के
उपरांत की ग्रामीण जीवन-स्थितियों के सहारे हमारे समय-समाज के ज्वलंत सच को
रेखांकित किया गया है | आलोच्य उपन्यास में सदियों से पोषित हिन्दू समाज की
वर्णाश्रम- व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता के विरोधी स्वरों के तानों-बानों से पूरा
औपन्यासिक ढाँचा खड़ा किया गया है | यहाँ बड़ी संजीदगी से इस बात को रखा गया है कि कानून द्वारा
पोषित ‘हरिजन
एक्ट’ केवल
दलित अस्मिता को ही संबल प्रदान नहीं करता, बल्कि यह नए सिरे से ग्रामीण
जीवन- समाज में स्वर्ण-दलित की गोलबंदी को तीव्र करता है | गाँव के ब्राह्मण युवक चंदर
द्वारा दलित युवती रजपत्ती के बलात्कार की कोशिश पूरे ग्रामीण जन- जीवन को एक नए
मोड़ पर ला खड़ा करती है | स्वर्ण द्वारा दलित स्त्री के बलात्कार की घटना जहाँ एक तरफ
सदियों पुरानी ग्रामीण समाज- व्यवस्था की तस्वीर रखती है, वहीं रजपत्ती के बलात्कार का
विरोध करती ग्रामीण दलित स्त्रियों की छवि
ग्रामीण जीवन के बदले समाज- शास्त्र को हमारे सम्मुख पेश करती है –
“मिस्त्री बहू हाथ
में खुरपा लिए दौड़ती हुई सबसे आगे पहुँची और चंदर को देखकर बिना बताए सारा माजरा
समझ गई | ललकारने
लगी- “ पकड़-पकड़
! भागने न पावै | ‘पोतवा’ पकड़ के ऐंठ दे | हमेशा- हमेशा का ‘गरह’ कट
जाय |”9
आलोच्य उपन्यास की सम्पूर्ण कथा रजपत्ती के साथ होने
वाली बलात्कार की कोशिश रूपी प्रकरण के सहारे आगे बढ़ती है | यही प्रकरण गाँव के दलित समुदाय
को आपस में एक जनसंवाद करने की ओर धकेलता है | इस जनसंवाद से कई बातें निकलकर आती हैं, जो ग्रामीण समय- समाज के
विभिन्न पहलुओं को दर्शाती हैं | इस जनसंवाद में गाँव का दलित – पियारे( रजपत्ती का पिता),
उसकी स्त्री(
रजपत्ती की माँ ), गाँव की चंद स्त्रियाँ एवं पुरानी पीढ़ी( दलपत बाबा) आदि बलात्कार की कोशिश को
बलात्कार होने की घटना के रूप में थाने में रिपोर्ट दर्ज़ करवाने के पक्ष में नहीं
होते हैं | पियारे की आदर्शवादी सोच झूठ की नींव पर किसी लड़ाई को लड़ना नहीं चाहती है |
यही नहीं, पियारे की अपने परिवार
की सामाजिक- आर्थिक क्षति एवं स्वयं के अकाज होकर श्रम से विरत हो जाने की
दुश्चिंता, उसे थाने जाने से रोकती है | इसका यही स्पष्ट संकेत होता है कि गरीब दलित जन- समुदाय के
लिए ‘रोज
कमाओ- रोज खाओ’ का प्रश्न उनकी ज़िंदगी का बुनियादी प्रश्न है, और समस्या भी |
पियारे की पत्नी( रजपत्ती कि माँ) रजपत्ती को लेकर
गाँव व उसके ससुराल में होने वाली बदनामी की चिंता से बात को थाने तक नहीं ले जाना
चाहती है | जिसका साफ अर्थ यह इंगित करना है कि स्त्री-पुरुष के संदर्भ में स्त्री ही सदा
दोषारोपित होती है | स्त्री की बदनामी का भय परिवार को ज्यादा सताता है | जबकि गाँव की कुछ स्त्रियाँ थाने
के पुलिस के उस ‘पुरुष’ से डरती हैं, जो स्त्री को केवल देह-मात्र समझकर भोगने की अंधी कामना लिए हुए रहता है | उपन्यास में इसका साफ अर्थ,
यह दर्शाना है कि
ग्रामीण समाज आज भी पितृसत्तात्मक सोच- संस्कार से मुक्त नहीं हो पाया है |
इसी तरह गाँव की
पुरानी पीढ़ी कोर्ट- कचहरी आदि जाने को अपनी ही इज्ज़त और पैसे - समय की बर्बादी
समझती है | आलोच्य उपन्यास में इसका साफ संकेत यह कहना है कि देश में लोकतन्त्र कि
स्थापना के वर्षों बाद भी गरीब ग्रामीण आमजन को अपने लोकतन्त्र और उसकी
न्याय-प्रक्रिया पर विश्वास नही हो पाया है | इस तरह देखा जाय तो दलित समुदाय
का यह जनसंवाद ग्रामीण समाज के विभिन्न पहलुओं को बड़ी बारीकी से हमारे सम्मुख पेश
करता है |
उल्लेखनीय
है कि उपन्यास के इसी जनसंवाद प्रकरण में भाई जी ( गाँव के दलित जीवन समुदाय में राजनीतिक चेतना
जागृत करने वाला व्यक्ति) बलात्कार की
वारदात की झूठी रिपोर्ट लिखाने को लेकर कई तर्क देता है | सबसे पहले, वह लोगों को यह समझाने
की कोशिश करता है कि चंदर द्वारा रजपत्ती के बलात्कार की कोशिश दलित स्त्रियों को
भोग- मात्र समझने वाली सवर्णवादी सामंती सोच है, जिसे ध्वस्त करने हेतु बलात्कार
की घटना को एक रणनीति के तहत इस्तेमाल करने की जरूरत है | जिससे भावी जीवन के शोषण,
अन्याय और अपमान
पर अंकुश लगाया जा सके | इसी कारण भाई जी का यह मत होता है कि इस लड़ाई में साध्य को
महत्वपूर्ण समझने की जरूरत है, भले ही साधन झूठ या अतिरंजना से ग्रस्त हो जाय!
भाई जी अपने दलित समुदाय को यह समझाता है कि सदियों
से चली आ रही समाज-व्यवस्था में सवर्ण भी झूठ के सहारे अपने को श्रेष्ठ और दलित को
नीच बताते आये हैं –“ सिर्फ एक झूठ बोलकर कि वे ब्रह्मा के मुँह से पैदा हुए हैं और हम पैर से,
वे हजार साल से
हमसे अपना पैर पुजवाते आ रहे हैं |”10 अतः आज जरूरत यह है कि सवर्ण को उसके ही हथियार –
झूठ - से परास्त
किया जाय –“ अब एक झूठ बोलने को दाँव आया है तो हमारे गले में क्यों अटक रहा है ?”11 भाई जी अपने समुदाय के
बीच यह स्वर संवाहित करने का अथक प्रयास करता है कि तात्कालिक घटना ( रजपत्ती -
चंदर का प्रसंग) में भले ही रेप( बलात्कार) न हुआ हो, पर इसके पहले उन तमाम दलित
स्त्रियों, जैसे सूरसती( पियारे की बड़ी बेटी), विक्रम की बुआ आदि के साथ जो अतीत में बलात्कार हुएँ
हैं, उनके लिये यह झूठी रिपोर्ट और
उससे जुड़ी लड़ाई जरूरी है, उन्हें न्याय प्रदान करने के वास्ते | अतः यहाँ झूठ कुछ भी
नहीं है | कहने का अभिप्राय यह है कि भाई जी झूठ को अर्द्धसत्य नहीं, बल्कि सम्पूर्ण और
अकाट्य सत्य बताने की जरूरत समझाता है, जिससे दलित अस्मिता का सवाल अपनी सार्थकता अर्जित कर
सके |
भाई जी के आग्रह पर पूरा दलित समुदाय बलात्कार की इस
झूठी रिपोर्ट के दम पर ‘हरिजन एक्ट’ का सहारा लेते हुए सदियों से ग्रामीण समाज - व्यवस्था में
व्याप्त पितृसत्तात्मक संस्कार और मूल्यों का विखंडन करने हेतु आगे बढ़ता है |
किन्तु, आगे जो बाधाएँ उपस्थित
होती हैं, उसका संज्ञान थाने में बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने के प्रसंग में ज्ञात होता
है | उपन्यासकार
थाने के प्रसंग के जरिये हमें हमारे समय -समाज के कई ज्वलंत प्रश्नों से साक्षात
कराता है | आलोच्य उपन्यास में थाने की सुदूर स्थिति एवं उसकी जीर्णावस्था ग्रामीण जीवन
की वास्तविक विकास-स्थिति को रेखांकित करती है | गाँव के थाने के मुंशी, सिपाही तथा थानेदार का
चरित्र एवं वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार की आचार -संहिता दलित समुदाय के बढ़े हौसलों को
पस्त करने वाली होती है |
थाने में बंद कैदी के साथ मुंशीजी का अमानवीय
व्यवहार – पैसे ऐठने की खातिर कैदी को भोजन और मल-मूत्र त्यागने के अधिकारों से वंचित
करना, कैदी
की औरत के साथ अश्लील व्यवहार करना आदि – थाने के सिपाही की बात -बात पर थाना आए लोगों से
पैसे की मांग करना और थानेदार द्वारा डरा - धमकाकर बात को दबा देने का प्रयास करना
दलितों के बढ़े कदम को शिथिल करने का कार्य करता है | इसी प्रकरण में उपन्यासकार एक
महत्वपूर्ण पहलू से हमारा परिचय कराता है, वह यह है कि अन्याय, अपमान और शोषण से पीड़ित व्यक्ति
या वर्ग, जब लोकतन्त्र और उसकी न्याय
-प्रक्रिया से क्षुब्ध होता है, तब उसके भीतर चरम आक्रोश जन्म लेता है, जो उसे अराजक बनाते हुए
उग्रवाद या नकसलवाद की ओर धकेल देता है | आलोच्य उपन्यास में दलित, शिक्षित पीढ़ी के एक युवक विक्रम
के अंतर्द्वंद्व के माध्यम से उपन्यासकार हमारे समय - समाज के उक्त संकट की ओर ही
इशारा करता है - “ उसने( विक्रम) अखबार में पढ़ा है कि पलामू या रोहतास ज़िले में ऐसे संगठन बन गए
हैं, जो
इलाके के सरहंग अन्यायियों को सजा देने के लिए खुद जन - अदालतें लगाते हैं |
मौके पर ही
अन्यायी को सजा देते हैं | ऐसे संगठन उसके इलाके में क्यों नहीं हैं ? वह ऐसे संगठन के लोगों
से मिलना चाहता है |12
उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास में दलित समुदाय अपनी
लड़ाई में पहले -पहल थाने के असहयोगवादी रुख से मायूस होता है | पर भाई जी के प्रबोधन के
पश्चात आगे की प्रक्रिया हेतु तैयार हो जाता है | भाई जी अपने राजनीतिक संबंध का
लाभ लेते हुए बलात्कार की वारदात की रिपोर्ट दर्ज़ करवाने में सफल होता है |
जबकि इधर धरमू
पंडित( चंदर का पिता) अपने पैसे और अपनी पहुँच का सहारा लेता हुआ अपनी सवर्ण
जातियों को लामबंद कर अपनी लड़ाई लड़ना चाहता है | धरमू पंडित का पलटन सिंह के
दरवाजे पर कहा गया यह कथन इस संदर्भ में अवलोकनीय है –“ जाने - अनजाने कोई चूक हुई हो तो
उसे भूल जाइए, लंबरदार | सनातन से क्षत्रिय दुष्टों, पापियों, असुरों और राक्षसों से ब्राह्मण की रक्षा करते आए हैं |
सी. ओ. साहब से
कहकर मामला रफा-दफा करवाइए |”13 देखने के बात यह है कि जो धरमू पंडित दलित मजदूरों की
मजूरी बढ़ाने के आंदोलन में अपनी सवर्ण जातियों के पक्ष को ठुकराते हुए सिर्फ अपना
हित देखा था और बढ़ी हुई मजदूरी की पहल कर जिसे अपनी चालाकी समझा था, वही आज उसे एक अनजाने
में हुई एक भूल कहता है | स्पष्ट है कि धरमू की यह मौकापरस्ती उसके वास्तविक चरित्र
को हमारे सम्मुख रखती है | आलोच्य उपन्यास में यह स्पष्ट देखने को मिलता है कि धरमू
पंडित धूर्तत्ता के अपने स्वाभाविक आचरण के सहारे ही सदियों की पुरानी परंपरा और
सामंती वर्णाश्रम की श्रेष्ठता की दुहाई देता हुआ गाँव की सवर्ण जातियों को अपने
पाले में कर लेता है |
स्पष्ट है कि उपन्यास के उक्त प्रसंग के माध्यम से
उपन्यासकार यह साफ दिखलाना चाहा है कि तमाम विकास - बदलाव के नारों - हुंकारों के
बावजूद ‘जाति’
ग्रामीण जीवन में
एक महत्वपूर्ण ‘फैक्टर’ है | कोई
भी प्रक्रिया हो, चाहे वह समाज में अपना वर्चस्व साधने की हो या न्याय लोकतन्त्र को अपने पक्ष
में करने की, या फिर राजनीतिक जीत हासिल करने की, सभी के लिए ‘जाति’ समीकरण को साधना पहला और सबसे अधिक ज़रूरी काम है |
इसे साधे बिना
किला फतेह करने की कल्पना करना बेमानी है | इसी कारण आलोच्य उपन्यास में यह
देखने को मिलता है कि जब पियारे थाने पहुँचता है तो पहले वह यह जान लेना चाहता है
कि थानेदार की जाति क्या है –“ कौन विरादर है ?”14 यही नहीं, धरमू पंडित अपने बेटे
चंदर को जेल से रिहा कराने हेतु सी. ओ. की जाति मालूम कर सारे समीकरण दुरूस्त करने
की ओर प्रवृत्त होता है | कहने की जरूरत नहीं है कि इसी ‘जाति’ कार्ड के चलते चंदर
-रजपत्ती का प्रकरण देखते-देखते एक वृहद
जंग का रूप ले लेता है | जहाँ स्वार्थी धरमू पंडित सम्मानीय धरमदत्त के रूप में गाँव
का पुरोहित बन जाता है और दलितों द्वारा चंदर की सामंती प्रवृत्ति का प्रतिकार
कार्य शूद्रों( असुरों) द्वारा ब्राह्मणों ( ऋषियों ) को उत्पीड़ित करने वाला कर्म
( यज्ञ-भंग ) बन जाता है |
आलोच्य उपन्यास में उपन्यासकार यह साफ दर्शाता है कि
जाति समीकरण को साधने के कारण ही चंदर जेल से रिहा होता है | जिसे उपन्यास में धरमू
पंडित द्वारा ठाकुर के अहसान को स्वीकार करने तथा गाँव की सभी सवर्ण जातियों को
पुनः संगठित करने के प्रसंग में स्पष्ट देखने को मिलता है –“ ठाकुरों की सिफ़ारिश काम
आई, इसे
धरमू मुँह खोलकर स्वीकार करते हैं| ठाकुरों का एक अहसान बाभनों पर लद गया – सो सब लोग जान लें |”15 कहने का तात्पर्य यह है
कि चंदर का प्रकरण सवर्ण जातियों को एक सूत्र में बांधता है तथा गाँव में उनके
वर्चस्व को पुनः स्थापित करता है |
यही वजह है कि जेल
से छूटने के बाद चंदर के तमाम क्रियाकलाप ऐसे होते हैं, जो गाँव में सवर्ण – सामंती संस्कार के परचम
लहराने वाले प्रतीत होते हैं | जिससे पूरे गाँव का परिवेश अशांत हो जाता है |
रजपत्ती तथा उसका परिवार अपनी बेटी की इज्जत को लेकर
संत्रास में रहता है तो समूची दलित जाति सामूहिक नरसंहार एव सामूहिक बलात्कार की
घटना के अंदेशे में खौफपूर्वक जीती है –“चमरौटी के लोग सनाका खा जाते हैं | अपनी - अपनी झोपड़ी छोड़कर
भागने को तैयार | बहुत बार सुना गया है – बौखलाए ठाकुरों बाभनों ने हरिजन बस्ती फूँक दी | सामूहिक नरसंहार |
सामूहिक बलात्कार |
क़तल की रात ना हो
जाय आज की रात |”16 यही नहीं, चंदर और मुन्ना- भाई जी की आपसी मुठभेड़ में चंदर की नाक काटे जाने का प्रकरण
तो समूचे गाँव को ज्वलनशील मोड़ पर पहुँचा देता हैं | जहाँ एक तरफ आसपास के तमाम
गाँवों को जोड़कर सवर्ण जातियों की एक महापंचायत होती है और चमारों ( दलितों ) को
सबक सिखाने वाला संकल्प लिया जाता है तो वहीं दूसरी तरफ, दलित समुदाय का एक अंश सशस्त्र
संघर्ष करने की ओर प्रवृत्त हो जाता है – “ विक्रम नौजवानों को तैयार कर रहा
है | उसने
दो दिन के अंदर दूसरे गाँव से दो कट्टेबाज और एक बम बनाने वाले उस्ताद का इंतज़ाम कर
लिया है | टोले के नौजवानों को टोले की इज्ज़त का वास्ता दिया गया है |”17 स्पष्ट है कि
उपन्यासकार इस प्रसंग के जरिये ग्रामीण जीवन के सवर्ण –दलित जातियों की अपनी - अपनी
सेना तथा उससे उत्पन्न संत्रासपूर्ण जीवन –स्थितियों को रेखांकित करता हुआ एक तरह से अपने समय –
समाज का ही आख्यान
रचता है |
आलोच्य उपन्यास के अंत में पियारे का आगे आकर चंदर
की नाक काटे जाने का कार्य अपने नाम कर पुलिस के आगे समर्पण करना गंभीर इशारे करता
है | इसका
साफ संकेत यह होता है कि दलित समुदाय अपनी अगली पीढ़ी को उस तेवर के साथ देखना
चाहता है, जहाँ वह ज़ुल्म अन्याय को चुपचाप सहन न करे, बल्कि उसका जोरदार प्रतीकार कर
सके | पियारे
अपनी पूर्व पीढ़ियों के द्वारा अन्याय –
अत्याचार को सहन
करने वाली मानसिकता का तर्पण करने हेतु आगे बढ़ता
है | देखा जाय तो पियारे एक तरह से पूरे दलित समुदाय में तन कर खड़े होने का अहसास
भरता है, क्योंकि
तन कर खड़े होने में ही अपने लिए कोई जगह
बनती है, एक
नई पहचान मिलती है | तर्पण उपन्यास का पियारे इसी अहसास से भर उठता है –“ जेल की जाली से मुँह सटकर फागुन
की ठंडी पूरवा को फेफड़े में भरता है पियारे और आँखें मूँद लेता है | उसे लगता है जैसे पूरखों
का ‘तर्पण’
करने के लिए ‘गया जगन्नाथ जी’ जा रहा है |”18 स्पष्ट है कि आलोच्य
उपन्यास दलित अस्मिता उसके संघर्ष तथा उसकी मुक्ति - कामना को ही ग्रामीण जीवन –
स्थितियों के
व्यापक कैनवास पर उकेरता है |
समग्रतः कहा जाय तो
शिवमूर्ति का प्रत्येक उपन्यास अपने समय – समाज से संवाद करता हुआ अपने
समकाल को रचता है | तथा अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ करता है | शिवमूर्ति का कथाकार अपने
औपन्यासिक ढांचे में हमारे समय – समाज के परस्पर अंतर्विरोधी स्वरों को उसकी संश्लिष्टता में
रखते हुए हमे हमारे समय – समाज के करीब लाता है | चाहे वह ‘त्रिशूल’ उपन्यास हो या ‘तर्पण’ | दोनों अपने समय –
समाज के संकटों –
जातिवाद, धार्मिक कट्टरतावाद,
संप्रदायवाद,
वर्चस्ववाद आदि का
प्रत्याखान करता हुआ हमें यह सोचने को विवश करता है कि हमारा समाज किस ओर जा रहा
है | यही
इन उपन्यासों की सार्थकता भी है |
संदर्भ
1.हंस, अगस्त, 2006,
2. शिवमूर्ति, ‘त्रिशूल’, राजकमल प्रकाशन प्रा.
लि., नई
दिल्ली, प्र.
सं. 2004, पृ. 11
3.यथोपरि, पृ. 17
4. यथोपरि, पृ. 31
5. यथोपरि, पृ. 32
6. यथोपरि, पृ. 32
7. यथोपरि, पृ. 103
8. यथोपरि, पृ. 104
9. शिवमूर्ति, ‘तर्पण’ राजकमल प्रकाशन प्रा.
लि. नई दिल्ली, प्र. सं. 2004, पृ. 11
10. यथोपरि, पृ. 25
11. यथोपरि, पृ. 25
12. यथोपरि, पृ. 42
13. यथोपरि, पृ. 74
14. यथोपरि, पृ. 31
15. यथोपरि, पृ. 96
16. यथोपरि, पृ. 95
17. यथोपरि, पृ. 110
धनंजय कुमार साव, अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, कालियागंज कॉलेज
कलियागंज, उत्तर दिनाजपुर,पिन.
755129
पश्चिम बंगाल, मो. 09474439158, ईमेल: shawdhananjay10@gmail.com
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