स्वाधीनता की आस में
पंचम राग अलापते प्रतिरोध के स्वर
(समकालीन दलित कविता पर एक परिचयात्मक
विवेचन)
डॉ विमलेश शर्मा
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
वर्तमान साहित्यिक
परिवेश की अगर बात की जाए तो वर्तमान में दलित और उनकी समस्याओं पर अनेक
महत्वपूर्ण काम किए जा रहे हैं। इस लेखन के निहितार्थ पर प्रकाश डालते हुए शरण
कुमार लिंबाले कहते हैं, “दलित साहित्य अपना केन्द्र बिन्दु मनुष्य को मानता है।दलित वेदना, दलित साहित्य की
जन्मदात्री है। वास्तव में यह बहिष्कृत समाज की वेदना है।”1 दलित लेखन का प्रारम्भ आत्मकथात्मक लेखन से हुआ जो कि भोगे हुए यथार्थ
पर आधारित है। इन आत्मकथाओं में लेखक अपने इर्द-गिर्द के परिवेश को जीते हुए अपने
पूरे समाज का और अपने वर्ग की समस्याओं का सिंहावलोकन करते हैं। विपरीत
परिस्थितियों में जीते हुए भोगा हुआ यथार्थ, गरीबी का दंश, तिरस्कार आदि की वेदना को अनेक दलित
लेखक/लेखिकाओं ने अपने आत्मकथा लेखन से उद्दघाटित किया है। मैं भंगी हूँ (भगवानदास),
अपने-अपने पिंजरे (मोहनदास नैमिषराय),जूठन(ओमप्रकाश वाल्मीकि), मेरा सफर मेरी
मंजिल (डी.आर.जाटव) हिन्दी की प्रारम्भिक दलित आत्मकथाएँ हैं।
हिन्दी साहित्य का
आधुनिक युग दलित साहित्य के लिए एक जागृति युग साबित हुआ। यों तो दलित साहित्य की
सुढृढ़ दार्शनिक और वैचारिक पृष्ठभूमि है अतः बुद्ध इतिहास से ही दलित साहित्य का
प्रारम्भ माना जाता है। सिद्ध और नाथों की परम्परा में यह विचारधारा ही आगे बढ़ती
है और संत साहित्य में पल्लवित पुष्पित होती है। वर्तमान में हिन्दी साहित्य के
प्रगतिवाद सा जुझारूपन इस साहित्य में मिलता है। साहित्य का अर्थ सामाजिक परिवर्तन
है तो सच्चाई यह है कि हिन्दी साहित्य में इस साहित्यितक विचारधारा का वास्तविक
आरंभ कबीर और रैदास के काव्य से ही होता है। कबीर और रैदास वे पहले कवि हैं
जिन्होनें हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम प्रगतिवाद की स्थापना की थी। वास्तव में
संत साहित्य ही दलित चेतना के सच्चे संवाहक है। आधुनिक युग में यह साहित्य अंबेडकर
और अनेक समाज सुधारकों से प्रभावित हुआ। आज हम इस साहित्य के सर्जनात्मक पक्ष में
जो बढ़ोतरी देखते हैं वह शायद उस कारवां के चल पडने का अंजाम है जो बरसों से थमा था, रूका था और यही कारण है कि आज इतिहास के
पन्नों में दलित चेहरे हँसते हुए जगमगाते हैं। इस का एक महत्वपूर्ण कारक शिक्षा
है। “शिक्षित का मतलब
केवल शिक्षा प्राप्ति से ही नहीं है, पढ़ना-लिखना ही नहीं है वरन् स्व अस्मिता को
पहचानना भी है।”2 शिक्षित होने का मतलब है कि हम इतिहास को जानें,मित्र - शत्रु का
पहचानें व अशिक्षितों को जागृत करें। इधर के साहित्य की बात की जाए तो दलित लेखन
वर्तमान में प्रचुर मात्रा में हो रहा है और लगभग सभी विधाओं में अनेक हस्ताक्षर
अपनी लेखनी चला रहे है। आत्मकथा से प्रारम्भ हुआ यह लेखन अब कविता, कहानी, यात्रावृत्त, संस्मरण, नाटक जैसी अनेक विधाओं में अपनी आवाज को
अभिव्यक्ति प्रदान कर रहा है। गम्भीर लेखन की जो आवश्यकता है कि उसे समाज के साथ
संवाद करना आना चाहिए वह भी आज इस लेखन में दिखाई पड़ता है। आज भोक्ता और
अनुभूतकर्ता दोनों ही कलमों से यह साहित्य लिखा जा रहा है। इन सभी विधाओं की
रचनाओं में दलित जीवन का यथार्थ है। इस साहित्य की भाषा में साफगोई और सरलता है।
इसमें प्रकट किए तथ्यों में प्रमाणिकता और अनुभव की सच्चाई है। यद्यपि यहाँ
सहानुभूति और स्वानुभूति की लड़ाई है। परन्तु किसी भी साहित्य की सीमाओं में बांधना
उचित नहीं। साहित्य साहित्य होता है जिसके सृजन का अधिकार सभी को है। हाँ ! निष्ठा ,संवेदना और प्रतिबद्धता आवश्यक है। केवल
ऊपरी सहानुभूति से चेतना की धारा में शामिल नहीं हुआ जा सकता है। गैर-दलित लेखन
में यदि दलितों के प्रति सच्ची सहानुभूति, संवेदना और उनकी मुक्ति की चिन्ता और चेतना है तो ऐसे
साहित्य को दलित साहित्य मानने में कोई हर्ज नहीं है। स्पष्ट है अगर कोई रचनाकार डि कास्ट होकर जाति और वर्ग
से ऊपर उठकर उसके विषयक साहित्य लिखेगा तभी वह दलित साहित्य होगा, अन्यथा नहीं।
दलित चेतना की कवयित्री रमणिका गुप्ता ने दलित
साहित्य की रचना, विचार, इतिहास एवं दिशा के संबंध में कहा है-“ दलित चेतना की सबसे पहली शर्त है, उसका विरोध
का स्वर, पीड़ा की छ़टपटाहट, आक्रोश का तेवर और उसके साथ ही कहीं परिवर्तन के लिए
उगता हुआ एक संकल्प। दलित लेखन को धारदार बनाने के लिए अपने समाज के प्रेरणास्रोत
से जुड़े रहकर,उनके बीच जाकर अपने साहित्य को खड़ा करना होगा।”3
आजादी मिले एक अरसां
बीत गया। मगर आज इसकी अल्पसंख्यक, अधिसंख्यक जनता आज भी मानसिक गुलामी, असमानता और सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियों की
कसावट आज भी पूर्व सी ही तीव्र हैः
‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पर रखकर हाथ
कहिए देश क्या आजाद है
कोठियों से मुलक के
मेआर को मत आंकिये
असली हिन्दुस्तान तो
फुटपाथ पर आबाद है।’ 4(अदम र्गोडवी)
आज 21 वीं सदी में भी अनेक नजरें ऐसी हैं जो
सहमी-सहमी सी है जिसके पैरों में समाज द्वारा अनेक जंजीरें डाली हुई हैं। यह वो
जनता है जो अब जागी है परन्तु जागते ही देख रही है कि मुख्यधारा से यह कितनी-कितनी
अलग है वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर गर्व करें। इसी कारण शायद किसी सहृदय को यह
कहने पर मजबूर होना पड़ा कि-
“सहमी-सहमी हर नजर,हर पांव में जंजीरे है।
ये मेरे आज़ाद
हिन्दुस्तान की तस्वीर है। ”5
अगर हिन्दी कविता और
दलित चेतना को जोड़कर देखा जाए तो हिन्दी काव्याकाश के अनेक लब्धप्रतिष्ठित कवियों
जिनमें रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, रविन्द्र भ्रमर, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, धूमिल प्रमुख हैं, ने दलित जीवन की पीड़ाओं को अपनी कविता में व्यक्त किया है। “प्रगतिशील विचारधारा
के प्रभाव में दलित जीवन की पीड़ाओं को वर्ग समाज द्वारा किए जा रहे शोषण के साथ में
चित्रित किया गया व दलित वर्ग को शोषित वर्ग के रूप मंs देखा गया। इस चित्रण में आर्थिक षोशण पर
ध्यान अधिक केन्द्रित रहा व दलित के आत्म सम्मान को कम उभारा गया।”6 बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी में
अनेक कवियों ने डॉ. अम्बेडकर की विचाराधारा से प्रभावित होकर दलित जीवन को
अभिव्यक्ति दी। इन कविताओं में इस वर्ग की अनेक समस्याओं, यंत्रणाओं, जीवन संघर्ष को मार्मिक रूप से उकेरा गया
है। इस चेतना को लेकर लिखी गई काव्य संकलनों में सदियों का संताप और बस! बहुत हो चुका
(ओमप्रकाश वालमीकि), दर्द के दस्तावेज (डॉ. एन.सिंह),सुनो ब्राह्मण ( (मलखान सिंह),यह तुम भी जानो(सुशीला टाकमौरे), व्यवस्था के विषधर (कुसुम वियोगी), आक्रोश (सी.बी.भारती), दिषाम् अन्तः (दलित कविताएँ), डॉ. इन्द्र
बहादुर सिंह,
अनुज
लुगुन,
रमणिका
गुप्ता आदि प्रमुख है। रमणिका गुप्ता की कविताएँ दलित चेतना की अनेक स्तरों पर
जगाने के प्रयत्न में रत दिखाई देती है। इन कविताओं में कहीं विस्थापन का दर्द है, कहीं स्त्री वेदना की अभिव्यक्ति तो कहीं
युद्धरत प्रकृति के दर्शन। पातियाँ प्रेम की,भीड़ स्तर में चलने लगी है, आदिम से आदमी तक, प्रकृति युद्धरत है, भला मैं कैसे भरती आदि रमणिका जी के
दलित एवं आदिवासी विमर्ष को लेकर लिखे गए महत्वपूर्ण काव्य संकलन है। इन काव्य संकलनों
में महिलाओं विशेषकर दलित महिलाओं ने अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवायी है।
महिला लेखिकाओं ने दलित महिला लेखन को एक चुनौती के रूप् में स्वीकार किया है।
कहीं पर ये लेखिकाएँ अपने हिस्से के एकांत को ढूँढती है तो कहीं सर्दियों में
सुबह-सुबह उच्च वर्ग के बच्चों को सुविधापूर्ण जीवन बिताते हुए तो कहीं दलित
बच्चों के काँपते हाथों को देखती है। निर्मला पुतुल ने अपनी कविताओं में इस वर्ग
की वेदना को मुखर शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। अपने पहले ही कविता संग्रह ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ से प्रसिद्धि के शिखर
पर पहुँच कर संथाली कवयित्री के रूप् में स्थापित निर्मला पुतुल एक आदिवासी महिला
आंदोलन की नेता है। इस आंदोलन से जुड़ाव एवं परिस्थितियों को करीब से देखने के ही
कारण उनकी कविताएँ दलित वर्ग का वास्तविक बयान प्रतीत होती है। दलित महिला को अपनी
अस्मिता के संघर्ष का उलगुलान करने वाली ये कविताएँ पुरूष वर्ग को प्रश्निल
मानसिकता से देखती है। अपने अस्तित्व को लेकर वे सजग हो रही है, वे पुरूष वर्ग से प्रश्न कर रही हैं- “क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए/एक तकिया/कि कहीं से थका माँदा आया/ और सिर टिका दिया ” 7 अपनी कविताओं में लेखिका दलित अस्मिता को
खोजने का हर संभव प्रयास करती हुई नजर आती है। हम आज आजाद देश में हैं परन्तु अब
भी कभी भगाणा तो कभी डांगावास जैसी घटनाएँ घट रही है। इन सभी घटनाओं को देखकर
तेलगु दलित कवि एन्दुलुरी की कविता याद आती हैं जिसमें वे कहते हैं कि- “इस देश में/ इस देह के
साथ जीना मुश्किल है। इन चांडाल देहों के लिए। एक चांडाल देश चाहिए। दलित लेखन ना केवल यथा स्थिति का सटीक
उद्घाटन करता है वरन् व्यवस्था के खिलाफ लड़ना भी जानता है। आदिवासी विस्थापन का
दर्द अनुज लुगुन अपनी कविताओं में मार्मिक ढंग से उकेरते है। आदिवासी समाज अपने
मूल निवास से लगातार विस्थापित किया जा रहा है वह हमेशा उजड़कर फिर-फिर बसने का दंश
झेल रहा है। विस्थापन किए जाने पर उनके पास सिर्फ एक मार्ग शेष बचता है और वह है
लड़ना। क्योंकि अब और पीछे हटने के लिए कोई जंगल और जमीन शेष नहीं है और संकट उनके
अस्तित्व का है अनुज अपनी एक कविता में तीतर और असकल पक्षी के माध्यम से इसी दर्द
को उकेरते हैं-
‘है तीतर /आधे जंगल
में आग लगी है
हम आधे भाग में दाना
चुगने जायेंगे
है असकल! आधे पहाड़
में आग लगी है
हम आधे में चरने
जायेंगे।’
विस्थापन और
व्यवस्था के दंश को उकेरते अनुज सभी वंचित तबकों से युद्धरत रहने की अपील भी करते
हैं वे माँग करते है डटे रहने कि क्योंकि युद्धरत रहकर ही स्व अस्तित्व को बचाया
जा सकता हैं। इसी संदेश को वे अपनी कविता
‘हमारी अर्थी कभी शाही
हो नहीं सकती ’में अभिव्यक्त करते हैं-
‘ओ मेरी युद्धरत
दोस्त!
तुम कभी हारना मत
हम लड़ते हुए मारे
जाएंगे
उन जंगली पगडंडियों
में
उन चौराहों में, उन घाटों में’
जहाँ जीवन सबसे अधिक
संभव है।
(‘कवितांश-हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती,अनुज लुगुन)
निश्चय ही प्रतिरोध
के ये स्वर ऊर्जस्वित है,
इन शब्दों
में एक आग है,प्रतिरोध है, एक गुस्सा है न्याय पालिका और व्यवस्थापालिका के विरूद्ध जो
इन सभी कविताओं में उजागर हुई हैं। व्यापक मानवीय सरोकारों को अपने लेखन में जगह
देती रजनी अनुरागी ‘सर्दियों की सुबह’ चौराहे पर जिंदगी, औरत, और एकलव्य का बयान जैसी कविताओं में इसी प्रतिरोध को दर्ज
करती दिखाई पड़ती हैं। दलित स्त्री सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है। वह हर यातना को
झेलती हुई पत्थर बन जाती है। और समाज
अनवरत यातना दे देकर उस पत्थर को दर्द के घाव देकर निरन्तर तराशता रहता है। वे
लिखती हैं- ‘सीवन करती है वह तमाम उधडनों की/ और खुद ही
उधड-उधड़ जाती है। हाड़तोड़ बेगार करती है वह तमाम उम्र। और हमेशा खाली हाथ रहती है (औरत कविता) ”8 रजनी की ही कविता ‘एकलव्य का बयान’ में पीड़ा और भी अधिक मुखर हो जाती है। यह
वर्ग जिसे हम दलित और वंचित वर्ग कहते है वह हमेशा से शताब्दियों से मौन रहकर अपना
सिर झुकाता रहा है। यह वर्ग हर उस मान्यता और आदेश का अक्षरषः पालन करता रहा है जो
उच्च वर्ग उसे सौंपता है अब इस वर्ग में क्षोभ है कि अपने स्वाभिमान को पूर्ण रूप्
से विगलित करने पर भी यह कभी उस मुख्यधारा के अहम को तुश्ट नहीं कर पाया एकलव्य के
माध्यम से यह वर्ग प्रस्तुत कविता में मुख्यधारा से संवाद करता है और कहता है- ‘हमेशा ही काटे जाते
रहे अँगूठे/ मैं ठूँठा बनकर जीने को मजबूर। अपनी अस्मिता की लड़ाई हारता रहा/ तुम
हाथ फैलाकर माँगते हो। और भूल जाता हूँ कि मेरी आने वाली नस्लें।भुगतेंगी
ख़ामियाज़ा।’ ”9(एकलव्य का बयान-कविता)(रजनी तिलक)
मेरली के पुन्नूस, औरजीना मेरी लाकाडोंग, किरण देवी भारती सरीखी अनेक लेखिकाएँ इस
वर्ग की नीम चुप्पी को अपनी आवाज दे रही हैं। दलित स्त्री समाज और परिवार दोनों ही
स्तरों पर उपेक्षित है। यह उपेक्षा उनके जीवन में एक ठंडापन लाती है। यांत्रिक
जीवन शैली,
संवेदनाओं
की रिक्तता और घोर तिरस्कार उनमें जीवन के प्रति मोहभंग उत्पन्न करता है। वे यों
तो किसी की भी नहीं है और दूसरे परिप्रेक्ष्य में वे सबकी हैं। वे बलत्कृत होती
हैं, हत्या का शिकार होती
है और अपनी ही इस दयनीय स्थिति पर जार-जार रोती है। वर्तमान में अनेक रचनाकार
उन्हीं दलित स्त्रियों की संवेदनाओं को एक मंच प्रदान करता है जो पितृसत्तात्मक
व्यवस्था और समाज के द्वारा हाशिए पर धकेल दिए गए हैं।
अगर इस साहित्य के शिल्प की बात की जाए जिसमें
प्रतिरोध अधिक मुखर है तो यह तमाम रचनाओं से यह स्पष्ट है कि यहाँ शिल्प जागरूकता
का न तो कोई महत्व है ना ही ये तमाम वर्ग इसे आवश्यक नहीं मानते हैं। अगर बात दलित
साहित्य की की जाए तो यह साहित्य वस्तु प्रधान हों। शैली व शिल्प महत्वहीन तो नहीं
हैं ,पर यदि वे
अभिव्यक्ति में बाधक बनें तो अस्वीकार भी कर दिए जा सकते है। दलित साहित्य में
भोगे हुए सत्य यानि प्रामाणिक सत्य,विश्वसनीय यथार्थ लिखने का विशेष आग्रह है। यह साहित्य
इंसानियत,
परम्परागत,सामाजिक मूल्य ,भेदभाव, छुआछूत, घृणा, नारी, शोषण, बंधुआ जीवन. धार्मिक कठमुल्लापन और उन सभी धारणाओं के
विरूद्ध है जो एक इंसान से दूसरे इंसान के बीच एक सीमा रेखा खींचता है। “जो इंसानियत प्रेमी
हैं,
उनकी यह प्रशंसा करता है,जो दलितोत्थान में जुड़े हैं, उनको यह फूल चढ़ाता
है। जो मानवीय अधिकारों के लिए जूझ रहे हैं, उनका सम्मान करता है
और जो दासता और शोषण से मुक्ति दिलाते हैं उनकी आराधना करता है। ”10 आजकल प्रतिरोध के साहित्य को अलग-अलग
धाराओं में बाँटा जा रहा है। मैं यहाँ कहना चाहूँगी कि साहित्य तो अथाह सागर है
फिर अलग-अलग विचारधाराओं का संगम यहाँ होता है तो भला हम उसकी एक बूँद पहचान अलग
कैसे कर सकते हैं। साहित्य की कोई जाति नहीं होती। हाँ साहित्य की धारा विशेष को
कभी स्त्रीवादी साहित्य,
कभी
दलित साहित्य तो कभी आदिवासी साहित्य के नाम से पुकारा जाता है क्योंकि इनमें एक
वर्ग विशेष की समस्याओं को गहनता से उभारा गया है। यह विभाजन अगर समस्याओं के
समाधान की ओर ले जाता है तो उचित है परन्तु साहित्य, साहित्यकार और रचनाओं को अलग-अलग धड़ों में
बाँटता है तो इसका भी प्रतिरोध कहीं न कहीं दर्ज होना चाहिए। प्रतिरोध का साहित्य, हाशिए का साहित्य, आक्रोश का साहित्य आज अपनी विकासात्मक राह
पर है। यह सही ढंग से प्रचारित और प्रसारित है। इन क्षेत्रों में अत्याधिक शोध किए
जा रहे है ताकि हाशिए की सभी अस्मिताओं को अपनी वास्तविक पहचान मिले। यह साहित्य
समृद्ध भी हो रहा है और अपने लेखन से आशान्वित करता है कि यह तमाम वर्गो की
समस्याओं के निराकरण में उपयोगी एवं सार्थक सिद्ध होगा।
संदर्भ-
1. दलित साहित्य की
अवधारणाः कंवल भारती,बोधिसत्व प्रकाशन ,रामपुर (उ.प्र.)पृ. 43, प्र.सं - जनवरी 2006
2. दलित अपना प्राचीन
इतिहास जाने और अपनी असलियत पहचानें- डॉ. सोहनलाल सुमनाक्षर, हिमायती, नवम्बर. 1999 प्रथम अंक- 3
3. दलित साहित्य का
समाजशास्त्र- हरिनारायण ठाकुर, प्रकाषक- भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, पृ. 70
4. अदम गोंडवी की गजल
की पंक्तियाँ
5 वही
6 दलित साहित्य का
मूल्याकंन; प्रो चमनलाल, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली-6, पृ.66
7 समकालीन भारतीय दलित
महिला लेखन,
कविता-निर्मला
पुतुल,
संपादक-
रजनी तिलक,
रजनी
अनुरागी, स्वराज प्रकाशन, नई
दिल्ली, पृ. 23
8 वही- - कविता-औरत (लेखिका-रजनी अनुरागी ) पृ 38
9 वही - पृ 39
10. दलित साहित्य
ब्राहमणवाद के खिलाफ खुला विद्रोह- डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, पृ.45 दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली-11001
डॉ. विमलेश शर्मा,कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी)
राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर राजस्थान,ई-मेल:vimlesh27 @gmail.com
राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर राजस्थान,ई-मेल:vimlesh27
सादर चरण स्पर्श मैडम जी🙏
जवाब देंहटाएंमैडम जी आपने बहुत ही कम शब्दों में बहुत ही शानदार लेख लिखा है। जिससे यह स्पष्ट है कि आप बहुत ही अच्छी लेखिका है ।
आपने सभी बातें बहुत ही अच्छी लिखीं हैं
जिसमे सबसे अच्छी लाइन मुझे यह लगीं की शिक्षित का मतलब केवल शिक्षा प्राप्ति से ही नहीं है वरन् स्व अस्मिता को पहचानना भी है
शायद तब उन लोगों को यह बात समझ में आ जाए जो कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर लड़ते झगड़ते रहते हैं कि इंसान से अच्छी कोई जाती नहीं है और इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है
जय संविधान
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