अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
नया सूर्य
उन्होंने मुझसे माँगा देश
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
मैने दे दिया।
फिर उन्होने मुझसे माँगा गाँव, सरहद
मैने दे दिया।
फिर उन्होंने मुझसे माँगा मेरा घर
वो भी मैंने दे दिया।
सब कुछ बाँटना शुरु किया।
क्योंकि मैं था कर्ण के जाति का।
जंगलो में घुमने लगा
मैं अंधेरा लेकर।
सब कुछ हार कर बैठा।
मेरे दान को नहीं थी कोई कीमत।
पंछी पिंजरें में अटक जाए
इसलिए डालते है रोटी का टूकडा।
पिंजरा तैयार किया गया मेरे इर्दगिर्द, चारों तरफ....
मुझे रखा अंधेरे में
पूरा सूर्य निगल लिया कपटियों ने।
उसी समय
रास्ते से चलता आया एक बाबा।
सुट-बुट वाला।
और कहा, “तुझे चाहिए ना नाम?
गाँव? सरहद? फिर जागते रहना
!
यहाँ मैं तेरे लिए
लाया नया सूर्य !
ये ले उसका आलोक, प्रकाश
यह सूर्य जला देगा अज्ञान का अंधकार !”
फिर मैने ली
उस नये सूर्य की शपथ
उसका आलोक, प्रकाश, किरण दौड़ दौड़ कर
बस्ती-बस्ती में गल्ली-मोहल्लों में, घर-घर में
बाँटने लगा वो सूर्य
क्योंकि वो सूर्य था
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर नाम का !
चिनगारी निर्मित करनेवाला......
और उस चिनगारी की ज्योति से
फिर अंधेरा जलने लगा
अंधेरा जलने लगा !
तेरा ही सामर्थ्य !
पर्वत को ढाँकनेवाले आसमाँ को
फाड़ने का सामर्थ्य
तूने ही दिया है.....
आसमाँ में चिनगारी डालनेवाला
धुमकेतू...
प्रखर सुर्य की तेजस आँखे
तूने ही दी है ...
हमारे हर एक कदम में
ज्वालामुखी की चिनगारी...तुने ही दी है !
हमारे श्वास और निश्वास में आत्मविश्वास के
स्वाभिमान का बीज
तूने ही तो बोया है...
हमारे ध्यान मन में
नीली सपनों का आसमाँ
आँखे भर देकर चला गया...
अनंत चिनगारियों की
उल्का..जुबान पर दिया
और चला गया... दूर...
... तभी मैने तय किया बाबा !
तेरा अंगारा हो जांऊ ! तेरा आलोक हो जाऊं !
तेरे विचारों की नीली स्याही रोशनाई हो जाऊं !
संविधान के आंतरिक
हर एक धारा का रक्षक बन जाऊं !
मराठी मूल के कवि विजयकुमार गवई
(अनुवाद – सोनटक्के साईनाथ
चंद्रप्रकाश,शोधार्थी,अंग्रजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद,
संपर्क सूत्र:09550258826)
बहुत सुंदर और अभिव्यक्ति पूर्ण कविताएँ है। विजयकुमार जी को सलाम। आपका भी शुक्रिया इतनी अच्छी कविताएंँ पढ़वाने के लिए।
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