दलित आदिवासीः एक
संघर्षमय जीवन
शालिनी अस्थाना
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
आदिवासी विश्व के हर क्षेत्रों में ही निवास करते हैं किन्तु भारत में इनकी
संख्या अधिक है। हमारे वेदों व अन्य ग्रंथों में भी इनका उल्लेख किसी न किसी रूप
में मिलता है जैस-भील, किरात, किन्नर, निषाद आदि। आमतौर पर इन आदिवासियों केा असभ्य माना जाता है
किन्तु सच तो यह है कि हमने ही उन्हें एक अलग और अपाहिज अंग मानकर उसकी उपेक्षा की
है। इसी कारण प्रारंभ से ही इनका जीवन संघर्षमय रहा हर किसी ने इनका फायदा ही
उठाया। विदेशी आदिवासियों ने रेलवे लाइन बिछाते समय इनके वनों को काट दिया जो उनका
जीवन थे। साहूकार भी इनकी जमीन पर हमेशा से कब्जा करते रहे जबकि भूमि इनकी आजीविका
का सबसे महत्वपूर्ण साधन रहा क्योंकि ये लोग पूर्ण रूप से प्रकृति पर ही निर्भर
है। स्थानीय जनजातियों में उस समय एक गीत बहुत प्रचलित था-
‘‘वे (बाहरी लोग) जब हमारे देशमें आये थे
तो इतने पतले थे जैसे सुई का नाका और
हमारा खून चूस इतना मोटे हो गये जैसे हल का मुट्ठा''
यह लाइने उनके रोशका प्रतीक हैं जिन्हें वे अपने शब्दों में बयान करते हैं कि
उन्हें किस तरह इतना व्यथित कर दिया कि वे शब्दों में फूट पड़ा। कृषि के आज आधुनिक
साधन उपलब्ध होने के बावजूद भी ये परंपरागत तरीको को ही प्राथमिकता देते हैं
क्योंकि एक तो यह अशिक्षित है इसलिये उनकी महत्ता को नहीं समझते दूसरे ये लोग
बाहरी संपर्क से दूर इतना ही पसंद करते हैं। इसका कारण यह भी है कि जब भी कुछ आदिवासियों ने आगे बढ़ने का प्रयास किया तो अन्य
समाज के लोगों ने उनकी अवहेलना की।
आदिवासियों के बारे
में कहा जाता है कि जंगल ही उनका जीवन है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी पर आज जंगलों को काटकर वहां उद्योग
स्थापित किये जा रहे हैं जिन्हें हमारे देशके
आर्थिक विकास का एक प्रमुख आधार माना जाता है पर क्या यह सच में हमारे
देशका विकास है कदापि नहीं हमारे ही किसी एक अंग की इतनी अवहेलना कर और उसे अपने
घर से ही बेघर कर हम अपने को विकास की ओर नहीं ले जा सकते। उनकी आवश्यकताओं व
सुविधाओं का ध्यान रखना हमारी जिम्मेदारी है। हम एक तरफ तो ‘‘वसुधेव कुटुम्बकम’’
की बात करते है
दूसरी ओर इनके प्रति हमारा रवैया एक हाषियें पर रखे हुए शब्दों के समान है जिनका
कोई महत्व नहीं होता। अतः हमें सर्वप्रथम अपनी व समाज की सोच को इन्हें अपनाने के
लिए तैयार करना होगा। तभी सच्चे अर्थो में हमारा देशविकास की सही श्रेणी में शामिल
होगा।
यहाँ
एक बात ओर स्पष्ट करना आवश्यक है कि कई कमियाँ के बावजूद भी कुछ बातों में वे हम
से बेहतर हैं। उनकी संस्कृति का अध्ययन किया जाये तो उनके समाज में स्त्रियों को
विवाह संबंधी जो अधिकार प्राप्त है वे आज
तक हमारे शिक्षित समाज में नहीं मिलते। कुछ बहुत अधिक उच्च वर्ग के लोग
इसके अपवाद हो सकते है मगर आज भी हमारे साधारण वर्ग के लोगों में और हमारे ग्रामीण
क्षेत्रों में भी लड़की को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं है और इसी प्रकार
विवाह उपरांत उसे यह रिश्ता निभाने को मजबूर होना पड़ता है। चाहे या न चाहे पर उसे
समाज आदि के डर से रहना ही पड़ता है मगर आदिवासियाँ में कन्या अपना वर स्वयं चुन
सकती है यहां तक कि वर की परीक्षा लेने के पष्चात् भी वह विवाह के लिए मना कर सकती
है। इसी प्रकार उनका प्रकृति प्रेम, जड़ी बूटियों के बारे में गहन जानकारी, हाथ से बनायी गई कई
प्रकार की वस्तुये आदि कई बातें हैं जो हमें उनसे सीखने की जरूरत है। जवाहर लाल नेहरू ने भी इनके बारे में
कहा था- ‘‘मैं निश्चय रूप से यह नहीं कह सकता कि किनकी जीवन शैली बेहतर है, उनकी अथवा अपनी परंतु
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कुछ बातों में वे हमसे बेहतर हैं। उनकी संस्कृति
से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।’’
किन्तु यह सत्य है कि
उनकी स्थिति काफी दयनीय है हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकार ने इन दआदिवासियों के
लिये कोई प्रयास नहीं किये। यहां तक कि हमारे तो संविधान में भी इन दलित
आदिवासियों के लिये अनेक धारायें हैं जिनमें इन्हे सभी तरह की स्वतंत्रता का
अधिकार दिया गया है जैसे अनुच्छेद 15 में प्रजाति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 17 अस्पृष्यता का पूर्णतः उन्मूलन किया गया.
अनुच्छेद 19 (2) सभी सार्वजनिक स्थलों पर जाने का अधिकार तथा और भी अधिकारों को संविधान में
दिया गया है। इसके अतिरिक्त इन आदिवासियों के लिए कई योजनायें व कार्यक्रम भी
सरकार द्वारा चलाये गये जिनके लिये अलग से संगठन भी बने किन्तु इन सबका
कार्यान्वयन ठीक प्रकार से नहीं हो सका जिसके कारण इन सब योजनाओं के बावजूद भी
इनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया और यदि हुआ भी तो नाम मात्र के लिये। यहां तक
कि इन्हीं के विकास के नाम पर सरकार द्वारा उद्योग, सिंचाई, खनिज तथा अन्य परियोजनाओं के लिए
भी इन आदिवासियों की उपजाऊ भूमि का उपयोग कर नाम मात्र का मुआवजा दिया गया। मगर इन
योजनाओं का भी कोई लाभ नहीं मिला।
आखिर ऐसा क्यों है
क्या हमने इसका उत्तर जानने का प्रयास किया कि इन आदिवासियों के लिए इतनी योजनाओं
के बावजूद भी ये अभी भी वही जीवन जी रहे हैं। असल में जो योजनायें बनाई गईं वो
आदिवासियों की आवश्यकता व उनकी सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गईं।
कोई भी योजना बनाने के पूर्व उनका
परीक्षण कर उसके लाभ व दोष जानकर ही
आदिवासियों पर लागू करना चाहिये। सरकार
द्वारा सिर्फ इन आदिवासियों के लिए नियम,
कानून, योजनायें बना देने ही
समस्या का हल नहीं होगा बल्कि इनकी जानकारी उन्हें होना भी अति आवष्यक है इस ओर
कुछ प्रयास भी किये जा सकते हैः-
1. आदिवासियों के लिए बनाये गये
कानूनों की जानकारी देने के लिये वहां कार्यकर्ताओं को भेजा जोय जो उन्हें इन
कानूनों के बारे में अच्छी तरह समझा सका क्यों कि वे लोग शिक्षित नहीं है कि
इन्हें समझ सकें।
2. आदिवासी अभी न तो इतने षिक्षित
है और नहीं विकसित हुए है कि वे मशीनरी संबंधित हर कार्य कर सके अतः इनके द्वारा
जो कार्य किए जा सकते है उन कौशलों में इन्हें प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये जिससे
उन्हें रोजगार उपलब्ध हो सके।
3. आदिवासियों को साहूकारों से ऋण मुक्ति
दिलाने के लिए बताया जाए कि वह बैंकों की सुविधा का किस तरह से लाभ ले सकते हैं और
उनके शोषण से बच सकते हैं।
4. समितियों व संगठनों द्वारा उनके
लिए किये जाने वाले कार्यों की जानकारी देना।
5. सबसे आवश्यकता है उन्हें शिक्षा
के महत्व को समझाना क्योंकि आज भी उनके लिए सरकार द्वारा स्कूल तो खोले गये है मगर वहां आने वाले बच्चों की
संख्या नाम मात्र ही है अतः उन्हें शिक्षा के प्रति जागरूक किया जाना चाहिये।
6. आदिवासियों के लिए प्रौढ़ शिक्षा
की व्यवस्था उचित स्तर पर की जाये जिसमें उनके अधिकार, स्वास्थ्य आदि संबंधी जानकारियां
दी जायें। वे लोग अब भी कई अंधविश्वासों को मानते है इस कारण भी वे शोषित हो रहे
है अतः चलचित्र आदि के माध्यम से ऐसे प्रयास किये जो ताकि वे अन्धविश्वास की धारणा
से अलग हो सकें।
7. अनेक क्षेत्रों में संचार साधनों
का अभी अभाव है अतः वहां संचार साधनों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
अतः उपर्युक्त कार्यों को ईमानदारी से लागू करने की आवश्यकता है। यह इतना आसान
भी नहीं है क्योंकि लागू करने और अपनाने में काफी अंतर है अतः प्रयास ऐसे होने
चाहिये कि वे इसे अपनायें और यह कार्य एक ही दिन में नहीं किया जा सकता बल्कि
धीरे-धीरे इन्हें अपनाने के लिए उन्हें मानसिक रूप रूप से तैयार कना होगा। क्योंकि
आज इतनी योजनाओं के बावजूद भी वो इसे स्वीकार नहीं कर पाये हैं। ये लोग जड़ी
बूटियों की जानकारी में दक्ष होते है और जरूरत पड़ने पर उन्हें बेचकर नाम मात्र की
धनराषि लेकर ही संतोष कर लेते हैं। अंधविश्वास तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। यदि
कोई ज्यादा बीमार हुआ तो उस बीमार व्यक्ति पर भूत प्रेत का साया मानकर ओझा से
झड़वाते है और यदि उनके क्षेत्र में किसी बीमारी का प्रकोप हुआ तो किसी महिला को
डायन मानकर उसे मार तक देते है। उनके इस बर्ताव से तो लगता है कि वे अपने जीवन को
इसी तरह से जीने के आदि हो चुके है और इन सबसे ऊपर उठना ही नहीं चाहते। मगर इन
आदिवासियों को आगे बढ़ाना और सही रास्ता दिखाना हमारी जिम्मेदारी है जैसे कि बच्चे
को चलना सिखाने के बाद वह स्वतः ही दौड़ने लगता है उसी प्रकार इन दलित आदिवासियों
को जो अभी भी अपनी सीमाओं में बंधे हैं हमें बाहर निकालना होगा। यह कार्य आसान तो
नहीं है मगर प्रयास तो करने ही होंगे।
आजकल आदिवासियों के
लिए उद्योगों द्वारा रोजगार देने के विचार से आदिवासी क्षेत्रों में उद्योग
खुलवाने के प्रयास किए गए हैं। शिक्षा के स्तर का भी विकास करने के लिये स्कूल आदि
खुलवाये गयें है। इन दलित आदिवासियॉ को रोजगार देने के प्रयास भी किये गये है जैसे
कृषि विकास कार्यक्रम, लघु व कुटीर उद्योगों को बढ़ावा तथा उनके कृषि के प्रति
झुकाव को देखते हुये कृषि के विकास के लिये आर्थिक सहायता देने का भी प्रावधान है।
जिससे वे अपना जीवन यापन एक आम समाज के लोंगों की तरह कर सके और उन्हें किसी के भी
हाथ की कठपुतली न बनना पड़े। अभी हाल ही में 15 अगस्त को हमारे प्रधानमंत्री ने
भी दलित आदिवासियॉ को बैंक द्वारा र्स्टाट अप लोन देने की घोषणा भी की है।
यह भी एक सत्य है कि
आज आदिवासियों के रहने के क्षेत्रों के कम
हो जाने के कारण इनका बाहरी लोगों से संपर्क हुआ है जिसके कारण कुछ तो बदलाव आया
है। इसका एक प्रमुख उदाहरण भोपाल में आयोजित ‘दलित आदिवासी भूमि अधिकार रैली’
है जिसमें आदिवासियों
ने स्पष्ट कर दिया कि यदि सरकार ने इन दलित आदिवासियों को दिसम्बर 2017 तक 5-5 एकड़ भूमि नहीं दी तो भूमिहीन लोग सरकार के खिलाफ वोट
डालेंगे अतः यह आंदोलन उनके अंदर की पीड़ा
को बयां करता है। इसी प्रकार आज कुछ आदिवासियों ने षिक्षा व रोजगार की तरफ कदम बढ़ाकर
एक सभ्य समाज में कदम रखने की शुरूआत कर दी है और उच्च पद तक भी पहुंचे है मगर वह
भी कुछ गिने चुने लोग ही हैं पर यह भी एक अच्छी शुरूआत मानी जा सकती है। यदि
इन्हीं लोगों को अपने आदिवासी समाज को विकसित करने का बीड़ा दे दिया जाये तो वह
शायद उन बातों को जल्दी आत्मसात कर पायें जो हम उन्हें आज तक बरसों से नहीं समझा
सके। निष्चित ही जब वह अपने ही समाज के लोगों को एक सभ्य जीवन जीते देखेंगे तो उन
पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ेगा और वह भी इसके लिए अग्रसर होंगे। अतः यह कुछ पढ़े लिखे
आदिवासी उनके लिए अग्रज बनकर उनके प्रेरणा स्त्रोंत बन सकते हैं।
हमें यह बात स्वीकारनी
ही होगी कि जिस दिन इन आदिवासियों के लिए बनाई
योजनाएँ व कार्यक्रम सही मायने में कार्यान्वित होने लगेंगे और जिस दिन वे
हमारे समक्ष आके हर क्षेत्र में हमारा कंधे से कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो
जायेंगे सम्भवतः हमें भी उनसे कुछ न कुछ सीखने को अवष्य मिलेगा जो शायद हमारी
कल्पना से परे हो।
संदर्भ सूचीः-
ऽ नदीम हसनैन - जनजातीय भारत (चतुर्थ संस्करण)
ऽ रूपचंद्र वर्मा - भारतीय जनजातियां
शालिनी अस्थाना, 301, विमल लोक
अपार्टमेन्ट,ठाटीपुर, शकुन्तलापुरी, ग्वालियर
(म.प्र.)
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