शिक्षा-व्यवस्था और आदिवासी
सौरभ कुमार
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
आदिवासी समाज जिनकी सभ्यता-संस्कृति उदात्त है,
जिनका ज्ञान,
जीवन-शैली ही आगे
की पीढ़ी को बचा सकती है। प्रकृति के प्रति उनकी असीम श्रद्धा और अक्षय ज्ञान की
ओर दुनिया को लौटना होगा, तभी आगे की पीढ़ी दुनिया देख सकती है। जिंदगी के प्रति उनके
जैसी सरल, सीधी सोच अपनानी होगी, तभी इस पेचीदी दुनिया से निजात पाया जा सकता है। प्रकृति के
समान उनकी जिंदगी निःस्वार्थ है, जिससे हमें सीख लेनी होगी, तभी बारूद के ढेर पर बैठी यह
दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध से बच सकती है। उनके भोलेपन से हमें सीख लेनी होगी,
तभी हम सुंदर
भविष्य की कामना कर सकते हैं.लेकिन उनसे सीखने के बजाए उनके भोलेपन के साथ खिलवाड़
होता आया है। राजनीति के गठजोड़ से उन्हें छला जाता रहा है। सुनियोजित तरीके से
उन्हें एक परिधि में सीमित कर दिया गया। ‘बेचु तिवारी’ और ‘गगन बिहारी साहू’ जैसे चरित्र उन्हें
बाहरी दुनिया से बेखबर रखने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं ताकि आसानी से उनका शोषण
किया जा सके। उनके जल, जंगल, जमीन को हड़पा जा सके।
सामंती और
पूँजीवादी शक्तियों से लड़ने का हथियार शिक्षा है। यह सामाजिक और आर्थिक विकास की
रीढ़ है। आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए उनके जीवन में शिक्षा की
ज्योत जलानी है। ग्लोबल गाँव के देवता के ‘मास्टर साहब’ और पठार पर कोहरा के ‘संजीव’ शिक्षा के दीपक को जलाए
हुए हैं। लेकिन ‘गगन बिहारी साहू’, ‘बेचु तिवारी’ और ‘बाबा शिवसागर’ जैसी शक्तियाँ इन्हें मिटाने पर तुली हुई हैं।
आजादी के 64-65 वर्षों में सरकार ने
सभी के लिए शिक्षा की कई योजनाएँ शुरू की हैं। शिक्षा-नीतियों में फेरबदल किए जा
रहे हैं, लेकिन
आदिवासी समुदायों को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। इनकी बलि देकर आधुनिक सुविधाओं
से लैस बड़े-बड़े विद्यालय खोले गए हैं, लेकिन इन विद्यालयों की नीतियाँ इनके विरूद्ध हैं।
रणेन्द्र कृत उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता का ‘रूमझुम’ भारतीय शिक्षा व्यवस्था में
आदिवासियों की चिंता के बारे में कहता है – “असुरों के सौ से ज्यादा घरों को
उजाड़ कर बना था यह स्कूल। अभी भी आस-पास असुर आबादी है। ज्यादा दूर नहीं, बीस-बाइस किलोमीटर के
दायरे में लगभग सारी की सारी असुर, बिरिजिया, कोरवा, आबादी बसती है। पिछले तीस वर्षों का रजिस्टर उठाकर देख
लीजिए, जो
एक भी आदिम जाति परिवार के बच्चे ने इस स्कूल में पढ़ाई की हो। मैंने खुद कितनी
कोशिश की थी। पिछले दो-तीन वर्षों से कैजुअल शिक्षक के रूप में काम करने की इच्छा
है। लेकिन वहाँ भी दाल नहीं गलती। आखिर हमारी छाया से भी क्यों चिढ़ते हैं ये लोग ?
माड़-भात खिलाकर,
अधपढ़, अनपढ़ शिक्षकों के भरोसे,
फुसलावन स्कूल के
हमारे बच्चे, ज्यादा से ज्यादा स्किल्ड लेबर, प्यून, क्लर्क बनेंगे और क्या? यही हमारी औकात है? हमारी ही छाती पर ताजमहल
जैसा स्कूल खड़ा कर हमारी हैसियत समझाना चाहते हैं लोग।”
(रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता,
पृष्ठ सं. - 19)
उपर्युक्त पंक्तियों में उल्लिखित ‘फुसलावन स्कूल’ भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में वैसे
स्कूल हैं जहाँ सिर्फ औपचारिकताएँ पूरी की जाती हैं। इन स्कूलों की योजनाएँ कागजों
पर पूरी होती हैं। असल में बहुत कम। यूनीसेफ, आई.एल.ओ., यू.एन.एफ.पी.ए और यूनेस्को जैसी
संस्थाएँ जो करोड़ों रूपए आदिवासी शिक्षा पर झोंक रही हैं, वह वस्तुतः शिक्षा के विकास के
बजाए कुछ लोगों के व्यक्तिगत विकास पर खर्च हो रहे हैं। राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय
संस्थाओं के द्वारा भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को जनजातियों के शैक्षिक स्तर को
सुधारने हेतु दिया गया अनुदान अवैध कमाई का सरकारी आयोजन बन गया है। अजीब विडंबना
है, जिस
नींव पर देश का भविष्य टिका है, वहाँ सबसे अधिक भ्रष्टाचार है, राजनीति है। रिश्वत के बल पर
लगातार एक ही विद्यालय में पदस्थापित शिक्षक शिक्षा की दुर्गति के बड़े कारण हैं।
ये पठन-पाठन के बजाए एक खास किस्म की लॉबी तैयार कर राजनीति में व्यस्त हो जाते
हैं। इनकी प्राथमिकताओं में होते हैं, अपने खेत, खलिहान, मवेशी, बगीचे आदि।
आर्थिक
रूप से कमजोर परिवार के बच्चों के लिए आर.टी.ई के सेक्शन 12 के तहत् निजी विद्यालयों में
पच्चीस प्रतिशत सीट आरक्षित किया गया है। इस विषय पर हुए शोध में सामने आया है कि
कई अस्पष्टताओं के कारण यह नीति कारगर नहीं हो पा रही है। मसलन निजी विद्यालयों को
इन बच्चों के लिए सरकार के द्वारा सिर्फ शिक्षा-शुल्क प्रदान किया जाता है,
बच्चों को
मुहैय्या की गई शिक्षा-सामग्री, इनकी व्यवस्था और दस्तावेजीकरण में होने वाले खर्च हेतु कोई
प्रावधान नहीं है। सरकार के द्वारा यह नीति तो लागू कर दी गई पर लोगों में इसकी
मुकम्मल जानकारी के अभाव में कई असंगतियाँ देखने को मिल रही हैं। जैसे – कई अभिभावक मानते हैं कि
बिना शुल्क लिये निजी विद्यालय मेरे बच्चों को वहाँ के शिक्षक क्यों पढायेंगे और
अगर पढ़ाते भी हैं तो स्तरानुकूल नहीं पढ़ायेंगे। कई अभिभावक बच्चों के पढ़ाई के संदर्भ
में इस लिहाज से निजी विद्यालयों से शिकायत नहीं करते हैं कि ये तो हमारे बच्चों
को मुफ्त में पढ़ा रहे हैं, इनसे इस बारे में शिकायत कैसे करें। कुछ अभिभावक इन बच्चों
के लिए आग्रह करके शिक्षा-शुल्क देते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि शिक्षा- शुल्क
के अभाव में ये हमारे बच्चों को मुकम्मल शिक्षा प्रदान नहीं करेंगे तो कई ऐसे
मामले सामने आये हैं कि कुछ विद्यालय इन बच्चों के लिए सरकार के द्वारा प्रदान
किये जाने वाले अदायगी (reimbursement) का दावा करते हैं साथ में अभिभावक से इनके
शिक्षा-शुल्क भी लेते हैं। जाहिर है कि नीति की स्पष्टता में कमी और जनमानस में
इसकी जानकारी हेतु किये जा रहे प्रयासों में कमी के कारण यह कारगर नहीं हो पा रही
है। स्पष्ट है कि आदिवासी समुदाय जिनकी औपचारिक शिक्षा अपेक्षाकृत कम है वहाँ यह
नीति कितनी कारगर हो पा रही होगी।
भारतीय
शिक्षा-व्यवस्था में आदिवासी क्षेत्रों के विद्यालयों का उतना ही महत्व है,
जितना महत्व
अंग्रेजों के समय में निर्जन द्वीपों का था। जिस शिक्षक को सबक सिखानी हो, जो निहायत ईमानदार है,
रिश्वत के खिलाफ
है, उन्हें
काले पानी की सजा के तौर पर आदिवासी क्षेत्रों के स्कूलों में भेज दिया जाता है।
ग्लोबल गाँव के देवता के आदिवासी समुदाय के पात्र ‘रूमझुम’ को अपने क्षेत्र के विद्यालयों
में कैजुअल शिक्षक के रूप में काम करने की चाहत है। तमाम योग्यताओं के बावजूद उसकी
नियुक्ति नहीं हो पा रही है। विभिन्न योजनाओं के तहत हो रहे कैजुअल शिक्षक की
नियुक्ति हेतु योग्यताओं में ज्ञान, प्रतिभा, मेधा के बदले पैरवी, भ्रष्टाचार, जोड़-तोड़ और गुंडई है।
भारतीय
शिक्षा-व्यवस्था में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए सरकार गैर सरकारी संस्थानों
को भी प्रोत्साहित और नियंत्रित करती है। ये संस्थान निजी होते हैं। आदिवासी
इलाकों में बड़े पैमाने पर निजी संस्थान कार्यरत हैं। लेकिन सर्वे में पाया गया है
कि ये विद्यार्थी-हित से ज्यादा निजी हित से संचालित होते हैं। प्रशासन के साथ
साँठ-गाँठ की वजह से मानकता पर खरे उतरे बिना इन्हें मान्यता दे दी गई है। इन
विद्यालयों में विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार की कई शिकायतें सामने आई हैं। ये
पूर्णतः सरकार की देख-रेख से बाहर हैं। ये निजी संस्थायें विद्यार्थियों को
स्वर्णिम कल की अपेक्षा अंधेरे कुएँ में धकेल रही हैं।
दरअसल
आदिवासियों को शुरू से ही छला गया। औपनिवेशिक भारत से लेकर आज तक ईसाई मिशनरियाँ
इनके लिए विद्यालय अपने प्रचार-प्रसार के लिए खोल रही हैं। आज केंद्र एवं राज
सरकारें विद्यालय के नाम पर लॉलीपॉप थमा रहे हैं। इनकी समस्याओं के हल हेतु
मुकम्मल कोशिश नहीं की जा रही है। इन विद्यालयों में आदिवासी विद्यार्थी खुद को
अनजान शहर में अजनबी चौराहों पर खड़े महसूस करते हैं। जिन भाषाओं में उन्हें
शिक्षा दी जाती है, वे उससे बिल्कुल अनजान होते हैं। भाषा की दीवार भेदकर वे विषयवस्तु तक पहुँच
ही नहीं पाते। संकट व्यावहारिक धरातल पर भी है। आदिवासी भाषाओं की लिपि नहीं है।
उनकी बोलियाँ समृद्ध हैं, जिससे आम व्यक्ति को कोई सरोकार नहीं है। पहले उनकी भाषाओं
की लिपियों को स्थिर करने की जरूरत है। पढ़ाई की माध्यम किसी एक भाषा को बनाया जाए
और अन्य भाषाओं को वरीयता क्रम में स्थान मिले। इन क्षेत्रों में वैसे अध्यापकों
की नियुक्ति हो जो कम से कम तीन भाषाएँ (हिंदी, अंग्रेजी, और उस क्षेत्र की आदिवासी भाषा)
जानते हों। कई चैनल ऐसे चलाए जाएँ जो मूल प्रसारण आदिवासी भाषा में करते हों पर
उनके सब-टाइटिल हिंदी और इंग्लिश में दिखाएँ जाएँ, जिससे उस वर्ग के साक्षर लोगों
में शब्द-कोश की वृद्धि हो और तमाम बातें समझ सकें जिसे वे महज़ आदिवासी होने के
कारण नहीं समझ पाते हैं।
एक स्तर
पर देखा जाए तो शुरू से इनके साथ दोहरा व्यवहार किया गया है जिसका साक्ष्य कई
पुस्तकें हैं। पुराणों के कई अंशों में इन्हें दैत्य या दानव के रूप में चित्रित
किया गया है। रामायण इनकी अवमानना की गाथा है तो महाभारत इन्हें ठगने का वृत्तांत
है। ऐसे तथ्य आदिवासियों के मन में बाकी सबके प्रति संदेह और उनके भीतर हीनता-बोध
उत्पन्न करते हैं। वर्तमान समय में विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों में इनके योगदान को
रेखांकित करने की आवश्यकता है, जिससे इनमें हीनता-बोध के बरक्स गौरव का भाव जाग सके।
विभिन्न पाठ्यपुस्तकों में प्रायः भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के नायकों के योगदानों
को शामिल किया जाता है, परंतु आदिवासी समुदाय से आने वाले नायकों के योगदानों को
पाठ्यपुस्तकों में अपेक्षाकृत कम शामिल किया गया है। सन् 1832 ई. में सिंहराय और
बीनराय मानकी के महाजनी संस्कृति के विरूद्ध विद्रोह, सन् 1855 ई. में सिद्धू-कानू का विद्रोह,
सन् 1900 ई. में बिरसा मुंड़ा का
उलगुलान, सन्
1914 ई.
में टाना भगत का विद्रोह आदि सामंती व्यवस्था के विरूद्ध प्रगतिशील समाज के
निर्माण में ऐतिहासिक महत्व रखते हैं जिसकी उपेक्षा की जा रही है। यहाँ तक कि
आदिवासी स्त्रियों की वीर गाथाओं को भी भुलाया गया है। उदाहरणस्वरूप, उराँव समाज की सिनगी दाई
और कैली दाई के द्वारा वीरतापूर्वक दुश्मनों से लोहा लेने के इतिहास की भी उपेक्षा
की गई है।
आदिवासी
क्षेत्रों में किसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इन क्षेत्रों
में इसके बाद की पढ़ाई की व्यवस्था लगभग नदारद है। जो बच्चे किसी तरह प्राथमिक
शिक्षा पूरी कर लेते हैं, आगे की पढ़ाई हेतु इन क्षेत्रों में विद्यालय, महाविद्यालय की व्यवस्था
नहीं होने के कारण इन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ती है। आर्थिक रूप से थोड़े सबल
घर के कुछेक बच्चे आगे की पढ़ाई करने बाहर जाते भी हैं लेकिन अधिकांशतः लड़कियों
को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। इन क्षेत्रों में तेजी से विद्यालय, महाविद्यालय की स्थापना
की आवश्यकता है।
आदिवासी
क्षेत्रों के अधिकांश विद्यालयों, महाविद्यालयों का पाठ्यक्रम व्यवसाय आधारित नहीं है। उच्चा
कक्षाओं तक अध्ययन कर लेने के बावजूद ये पाठ्यक्रम नौकरी पाने में अधिक सहायक नहीं
हो पाते हैं। इससे अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने की अपेक्षा उन्हें
खेती अथवा मजदूरी के कार्यों में लगाना अधिक पसंद करते हैं। इन स्कूलों के
पाठ्यक्रमों को समकालीन बनाने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम में सैद्धांतिकी और
व्यावहारिकता, दोनों को समान महत्व दिया जाए।
सुनील
गोयल और संगीता गोयल एक बड़ी समस्या की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि तमाम्
बाधाओं को पार करते हुए जो युवक किसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं,
वे अपनी संस्कृति
का तिरस्कार करने लगते हैं। फलस्वरूप उनके समूह को उन्हीं के समुदाय के उच्च
शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की सेवाओं का लाभ नहीं मिल पाता है।
आज
उदात्त आदिवासी संस्कृति को भारत की अन्य संस्कृतियों के साथ जोड़ने की जरूरत है
ताकि उनकी अस्मिता पुष्ट हो। मिले सुर मेरा तुम्हारा जैसे गीतों में भारत की हर भाषा को देश के बंधुत्व
के लिए इस्तेमाल किया गया है। इस तरह के गीतों में आदिवासी भाषा भी हो, तभी भारत की मुकम्मल
तस्वीर उभरेगी और आदिवासियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा। उनकी संस्कृतियाँ, परिवेश, संस्कार से कटे होने के
कारण विद्यालयों में चलाई जाने वाली पाठ्यपुस्तकों का परिवेश आदिवासी जीवन से
बिल्कुल भिन्न होता है। फलतः आदिवासी विद्यार्थी इन पाठ्यपुस्तकों से सामंजस्य
नहीं बिठा पाते। वीर भारत तलवार सुझाव देते हैं कि ऐसी पाठ्य-पुस्तकों की
परिकल्पना की जाए जो आदिवासियों के समाज की स्वाभाविक उपज हो और उसे उसके
स्वाभाविक विकास की ओर ले जाता हो।
भारत
की प्राथमिक शिक्षा-व्यवस्था और यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों में भी यह नजारा आम है
कि अधिकांश शिक्षक अध्यापन के दौरान पारस्परिक वैचारिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया
नहीं अपनाते हैं। कक्षा-कक्ष में आदिवासी विद्यार्थियों का प्रभावित होने का यह एक
बड़ा कारण है। भिन्न परिवेश, संप्रेषण की भिन्न भाषा के कारण होने वाली उलझनों और
जिज्ञासाओं के समाधान नहीं होने की स्थिति में आदिवासी पृष्ठभूमि के अधिकांश
विद्यार्थी कुंठित होते जाते हैं। इससे निजात पाने के लिए शिक्षा-प्रणाली चर्चा पर
आधारित हो। प्रश्न करने और बात करने की छूट हो जिससे विद्यार्थियों को उलझन कम से
कम हो और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो सके।
प्राकृतिक
गतिविधियों (मौसम परिवर्तन, आपदा प्रबंधन आदि) के प्रति इनकी समझ गजब की है। सभ्यता के
विकास में इनका योगदान महत्वपूर्ण है। इन्होंने परंपरा से दुर्लभ शल्य-चिकित्सा,
जड़ी-बूटियों का
अक्षय भंडार अर्जित किया है। इनकी सृजानात्मकता, कल्पनाशीलता गजब की है। आधुनिक
आविष्कारों के दौर में इनकी इस अनुपम विरासत की अवहेलना हो रही है और वे आधुनिक
वैज्ञानिक खोजों से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। शिक्षा-व्यवस्था ऐसी हो कि वह
उन्हें आधुनिक सभ्यता और वैज्ञानिक धारणाओं, पद्धतियों से भी परिचित कराए,
साथ ही उनकी अपनी
मौलिकता और सृजनात्मक कल्पनाशीलता को भी प्रेरित करे।
भारतीय
समाज के संपूर्ण विकास के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों स्तरों पर प्रयास करने की
आवश्यकता है। व्यक्तिगत स्तर पर पंडित रघुनाथ मुर्मू की तरह संथाली भाषा के विकास
के लिए स्वतंत्र लिपि विकसित करने जैसे प्रयास अनिवार्य हैं वहीं सामाजिक स्तर पर
हमें उन असामाजिक तत्वों से लड़ना होगा जो वर्षों पहले बिहार सरकार के द्वारा
(जिसमें झारखंड भी शामिल था) बनाए गए आदिवासियों को मातृभाषा में शिक्षा देने के
कानून को लागू करने में अड़ंगा लगाते रहे हैं।
सहायक पुस्तकें –
1.
सुनील
गोयल, संगीता गोयल – भारत में सामाजिक परिवर्तन, RBSHA पब्लिशर्स,
जयपुर.
2.
वीर
भारत तलवार – झारखंड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2008.
3.
रमणिका
गुप्ता (सं.) – आदिवासी – विकास के विस्थापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008.
4.
रमणिका
गुप्ता (सं.) – आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008.
5.
राकेश
कुमार सिंह – पठार पर कोहरा (उपन्यास), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2003.
6.
रणेन्द्र
– ग्लोबल गाँव के देवता (उपन्यास), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2009.
7. आर.टी.ई के सेक्शन – 12 के तहत् आर्थिक रूप से
कमजोर परिवार के बच्चों के लिए निजी विद्यालयों में आरक्षित सीट की वस्तुस्थिति पर
लघु शोध – विनय रजावत.
सौरभ कुमार,शोधार्थी-अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
कार्यरत-संदर्भ व्यक्ति (हिन्दी), अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, सिरोही संपर्क सूत्र –
7726852234.
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