वास्तविकता
की परतें उड़ेधती “आहत देश”
मुजतबा मन्नान
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
अभी कुछ दिनों पहले जनसत्ता में
आदिवासियों पर अपूर्वानंद का लेख, ‘अप्रासंगिक: आदिवासी संघर्ष का जख्मी चेहरा’ छपा था. जो आदिवासी लड़की कवासी
हिड्मे के बारे में था. रोंगटे खड़े कर देने वाली हिड्मे की कहानी कुछ इस प्रकार थी.
हिड़मे एक साधारण आदिवासी लड़की थी, पंद्रह बरस की और अपनी उम्र की लड़कियों की तरह
मेला देखने गई थी,
जब पुलिस ने उसे उठा लिया. फिर वह
लंबी कहानी शुरू हुई,
जिसे अत्याचार, यातना, अमानुषिकता जैसे शब्द पूरी तरह व्याख्यायित नहीं कर पाते. वह एक के बाद
दूसरे थाने ले जाई जाती रही, उसकी
पिटाई होती रही,
उसे पुलिसवालों के घर नौकरानी का काम
करना पड़ा,
उसके साथ बलात्कार किया गया. और फिर
वह जेल में डाल दी गई.
पुलिस ने अदालत को बताया कि वह खतरनाक माओवादी है, जिसका हाथ माओवादी हमलों में रहा था. भारतीय
अदालत ने भारतीय पुलिस की बात मान ली, एक बार उसने मानवीय ढंग से आंखें उठा कर हिड़मे को देखना जरूरी न समझा, यह न देखा कि वह तो अभी बच्ची है.
अखबारों में माओवादियों से जुड़ी
घटनाओं की खबरें प्रकाशित होती रहती है. जैसे- माओवादियों के हमले में सेना के जवान
शहीद हुए, सेना के ऑपरेशन में माओवादी मारे गए, माओवादियों ने जवानों को बंधक बनाया इत्यादि. खबरों को पढ़कर मन में सवाल
उठता है, कौन है ये माओवादी? और ये
अपने ही देश की सरकार से क्यूँ लड़ रहे है?
‘माओवादी प्रतिबंधित भारतीय
कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) या सीपीआई (माओवादी) के सदस्य है उसी भारतीय
कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के कई वंशजों में से एक, जिसने 1969 के नक्सली उभार का नेतृत्व किया था’ साधारण
शब्दों में कहें तो विकास के नाम पर हड़पी जा रही आदिवासियों की ज़मीन और जंगल को
बचाने की लड़ाई माओवादी लड़ रहे है. लंबे से समय से सरकार आदिवासियों के अधिकारों का
हनन करती आ रही है. अपने अधिकारों को पाने के लिए जब आदिवासियों ने हथियार उठा लिए
तो अब सरकार को माओवादी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा नज़र आ रहे है.
जब भारत देश आज़ाद नही हुआ था और
उड़ीसा, झारखंड, बिहार नाम के प्रदेश नहीं थे तब से ये घना जंगल और पहाड़ियाँ आदिवासियों का
बसेरा रही है. ‘ये पहाड़ियाँ और जंगल आदिवासियों की व आदिवासी
इनकी निगहबानी करते थे और इन्हे जीवित देवता मानकर पूजते थे’
आज इन जंगलों और पहाड़ियों को बेचा जा रहा है क्योंकि इन पहाड़ियों और जंगलों में बॉक्साइट
और खनिज है. आज यहीं बॉक्साइट और खनिज जो इन पहाड़ियों और जंगलों से निकलते है
हिंसा की मुख्य वजह बना हुआ है. आंकड़ों के मुताबिक ‘एक टन
एल्यूमिनियम पैदा करने के लिए लगभग 6 टन बॉक्साइट की ज़रूरत होती है, हज़ार टन से ज्यादा पानी और बिजली की विराट मात्रा और उस मात्रा में पानी
का भंडारण करने और बिजली मुहैया कराने के लिए बड़े बांधों की ज़रूरत होती है, जो हम जानते है कि प्रलयंकर विनाश के चक्र अपने साथ लाते है’ आज भारत सरकार की मदद से चल रही कंपनियाँ खनन के नाम पर आदिवासियों के
जंगलों और पहाड़ियों को नष्ट कर रही है. दूसरी और बॉक्साइट आदि की शोधन प्रक्रिया
में जहरीले अवशेष निकलते है जो मुख्यतौर पर कैंसर जैसी बीमारियाँ पैदा करते है. बेशर्मी
की हद तो देखिये इस क्षेत्र में खनन कार्यों में लगी ये कंपनियाँ अपने शोधन कार्यो
से कैंसर जैसी बीमारियों पैदा कर रही है. दूसरी और सी.एस.आर के नाम पर कैंसर का
इलाज़ करने के लिए इंस्टीट्यूट खोल कर समाजसेवा का डिंढोरा पीट रही है.
जब भी कभी माओवादियों की बात
होती है तो हमारे कुछ नेतागण और समाज का एक तबका यह मानता है कि किसी न किसी को तो
विकास कि कीमत चुकानी ही होगी. कुछ तो यहाँ तक बोलते है ‘यह तो होना ही है किसी भी विकसित देश की तरफ देखो यूरोप, अमेरिका, औस्ट्रेलिया सभी का एक ‘अतीत है’ यकीनन है तो फिर भला “हमारा” भी क्यों न हो?’
उनकी नज़र में आदिवासियों को
उनकी ज़मीनों से हटाकर सड़क के इर्द-गिर्द झुग्गी-झोपड़ियों में बसाना देश का विकास है.
जहां पर वो पुलिस की निगरानी में रहे और पुलिस उनके हर कदम पर नज़र रख सके. आज देश
के विकास के चक्कर में सालों से हिंसा और उपेक्षा के शिकार रहे आदिवासियों ने
हथियार उठा लिए है क्योंकि उन्हे लगता है कि अगर वो चुप रहे तो ये सरकार विकास के
नाम पर उनकी ज़मीन हड़प लेगी और उन्हे सड़कों पर जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. ‘आदिवासियों को यकीन है कि उन्हें अपने घरों और अपनी ज़मीन को बचाने का हक़
है तभी उन्होनें आज हथियार उठा लिए है’
विडम्बना
तो देखिए 26/11 जैसे आतंकवादी हमलों व चीन द्वारा निरंतर घुसपेठ के बाद भी सरकार
उनसे बातचीत करने को तैयार हो जाती है. लेकिन अपने ही देश के एक उपेक्षित वर्ग से
मुंह फेर लेती है. ‘सरकार को कोई फर्क नही पड़ता है कि
संविधान कि 5वीं सूची में आदिवासी सरंक्षण का प्रावधान है और उनकी भूमि अधिग्रहण
पर पाबंदी लगाई गई है’ देश के पूर्व प्रधानमंत्री माओवादियों
को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते है और ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ जैसे ऑपरेशन चलाकर उनका सफाया
करने की कोशिश करते है.
‘भारतीय संविधान जो भारतीय लोकतन्त्र
की आधारशिला है संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया. यह जन-जातियों और वनवासियों
के लिए एक दुखद भरा दिन था. सरकार नें संविधान में उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन
किया और राज्यों को जन-जतियों की आवास भूमि का संरक्षक बना दिया’
आज बहुत से ऐसे उदाहरण मौजूद है
जो सरकार की दमन करने वाली नीतियों को परिलिक्षित करते है. कुछ शक्तिशाली लोगों द्वारा
सरकार की मदद से ‘सल्वा जुड़ुम’ नाम से अभियान चलाया गया. जिसका एकमात्र
उद्देश्य जमीनी कारवाई के द्वारा आदिवासियों को उनके गांवों से हटाकर सड़कों के
किनारे बने शिविरों में ले जाना था जहां वे पुलिस कि निगरानी में रहें और उनको
नियंत्रित किया जा सके. ‘सैनिक शब्दावली में इसे
रणनीतिक ग्रामीकरण कहते है. जिसका ईज़ाद सर हेरल्ड ब्रिगस ने 1950 में किया था
हेरल्ड की यह नीति भारत में बहुत लोकप्रिय हुई’ भारत में
इसके उदाहरण नागालैंड, मिज़ोरम,
तेलंगाना आदि के रूप में देखे जा सकते है.
सल्वा जुड़ुम ने माओवादियों के
नाम पर आदिवासियों पर अनेक दमनकारी करवाइयाँ की. निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाई, पूरे गाँव के गांवो को आग लगाकर जलाया. सल्वा जुड़ुम में आदिवासी गांवो के
कारोबारियों व साहूकारों को शामिल किया गया था. जिसकी स्थापना महेंद्र कर्मा नाम
के व्यक्ति ने की थी जो बाद में काँग्रेस पार्टी में शामिल हो गया था. वर्ष 2013 में महेंद्र
कर्मा को माओवादियों ने एक हमले में मौत के घाट उतार दिया था। कारोबारियों और
साहूकारों के हित को मद्देनजर रखते हुये सल्वा जुड़ुम ने सरकार की मदद से अनेकों
माओवादियों की हत्या की.
दूसरी और पुलिस आए दिन माओवाद
के नाम पर अनेकों हत्याएं करती आ रही है. पुलिस की कारवाई का उदाहरण देते हुये अपने
गाँव के अर्ध-सैनिक बल में शामिल रिंकी बताती है कि ‘गाँव को जलाने के बाद उन्होने दो लड़कियों को पकड़ लिया और उन्होने उनके साथ
सामूहिक बलात्कार किया’ ‘लेकिन जब सब
खत्म हुआ तो वहाँ पर घास नही बची थी” पुलिस आती रहती है “जब भी उन्हे औरतों की
ज़रूरत होती है, या मुर्गियों की’
रिंकी की तरह माओवादी सेना में
शामिल हर इंसान की अपनी एक दर्दनाक कहानी है. जो पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों
और सरकार की नीतियों को दर्शाती है. किसी के गाँव घेरकर जला दिया गया, किसी के माँ-बाप को उनके सामने गोली से उड़ा दिया गया, किसी की आँखों के सामने उनकी बहन का बलात्कार किया गया इत्यादि. कोई भी
मीडिया संस्थान इस प्रकार की घटनाओं को दिखाने की ज़ुर्रत नहीं करता है क्योंकि
मीडिया की ज़बान बंद करने के लिए विज्ञापन के नाम पर कंपनियों द्वारा मोटा पैसा
उनके मुंह में डाल दिया जाता है.
माओवादियों ने आंदोलन के बाद जो
भी जमीने हासिल की, उनको सभी में बराबर बांटा गया.
किसी के साथ किसी भी प्रकार का कोई पक्षपात नहीं किया गया. जिसकी वजह से गरीब तबका
उनके साथ जुड़ता चला गया. आज उसी का परिणाम है सरकार द्वारा कि गई दमन वाली
कारवाइयों की वजह से आज ज़्यादातर आदिवासियों ने हथियार लिए है और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे
है.
माओवादियों की अपनी एक अलग कानून
व्यवस्था है जिसमें सभी को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार होता है और उनकी इस
व्यवस्था को ‘ज़न-अदालत’ के नाम से जाना जाता है.
उनका हर फैसला ज़न-अदालत में लिया जाता है। हर छोटे से छोटे मसले को सभी की राय से
सुलझाया जाता है. सरकार को उनकी ये जन-अदालते खौफनाक लगती है. दूसरी और ‘तुरत-फुरत न्याय के सबसे बुरे रूप (मुठभेड़ों) का क्या होगा. जो भारत सरकार
के पुलिस वालों और सैनिकों का बहादुरी के पदक, नकद पुरुस्कार
और समय से पहले तरक्की मुहैया कराती है? जितने ज्यादा वे
भागते है उतने ज्यादा वो पुरुस्कृत होते है. वे दिलेर कहलाते है’
आधी सदी पहले, मारे जाने से ठीक पहले चे-गुवेरा ने लिखा था, ‘जब उत्पीडंकारी शक्तियाँ उन क़ानूनों के खिलाफ अपने को सत्ता में बनाए रखती
है जिन्हे उन्होने खुद स्थापित किया होता है। तो यह मान लिया जाना चाहिए कि शांति
भंग हो चुकी है’ भारत सरकार ने
भी ऐसा ही किया. आदिवासियों के संरक्षण के नाम पर संविधान में उनके लिए कानून पास
कर दिया. लेकिन सरकार द्वारा स्थापित ये कानून बस नाम का रह गया है. हालात यह है
कानून को ताक पर रखते हुये कोई भी कंपनी राजनीतिक घराने की मदद से किसी भी भूमि को
हासिल कर अपना संयंत्र लगा लेती है और फिर पर्यावरण के नियमों को ताक पर रखकर मुनाफे
के लिए जंगल को बर्बाद किया जाता है. फिर वही लोग पर्यावरण बचाने के लिए आयोजित
होने वाले बड़े-बड़े सम्मेलनों में पर्यावरण पर चिंता ज़ाहिर करते है.
भारत को आज़ादी मिलने से पहले, ‘ठीक इसी तरह ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी पर चढ़ाये जाने
से पहले पंजाब के गवर्नर को भेजी गई अपनी आखिरी अर्ज़ी में महान क्रांतिकारी भगत
सिंह ने कहा था “हमें घोषित करने दीजिए कि युद्ध बाकायदा छिड़ा हुआ है और तब तक
छिड़ा रहेगा जब तक मुट्ठी भर परजीवी मेहनतकश जनता और उसके प्राकृतिक संसाधनों का
शोषण करते रहेंगे. वे चाहे पूरी तरह अंग्रेज़ पूंजीवादी हो या मिले जुले अंग्रेज़
हिंदुस्तानी या फिर पूरी तरह हिंदुस्तानी ही क्यों न हो’ स्वतन्त्रता सेनानी शहीद भगत सिंह के ये कथन आज सत्य साबित हो रहे है. आज
मुट्ठी भर पूंजीवादी लोगों के द्वारा मेहनतकश जनता और उसके प्राकृतिक संसाधनों (जंगल
व पहाड़ों) का विकास के नाम पर शोषण किया जा रहा है.
माओवादियों को लेकर आमतौर पर संवेधानिक
बाते बोली जाती रही है. बहुत से नेतागण और कुछ जागरूक पत्रकार लोग बार-बार संविधान
का हवाला देते है. उनकी बातों से लगता है जैसे संविधान के पालन का ठेका सिर्फ
माओवादियों ने ही उठा रखा है, ये लोग संविधान को सर्वोच्च
मानते है और उनका मत है कि एक दिन माओवादियों के आगे भी संविधान की जीत होगी. ठीक
इसी प्रकार “संविधान की जीत” वाले मत पर वर्गोज नाम के
पत्रकार ने माओवादियों को लेकर संविधान का हवाला देते हुये एक लेख लिखा. उनके लेख
के जवाब में कॉमरेड आज़ाद (माओवादी) लिखते है. ‘हिंदुस्तान के
किस हिस्से में संविधान की जीत हो रही है, मिस्टर वर्गोज? दंतेवाड़ा में, बीजापुर,
कांकेर नारायणपुर, राजनदगाँव में?
झारखंड में, उड़ीसा में? लालगढ़, जलमहल में? कश्मीर की घाटी में? मणिपुर में? हजारों सिखों के मारे जाने के बाद 25
लंबे वर्षों तक आपका संविधान कहा छुपा हुआ था?’
संविधान की जीत का अंदाज़ा आप इस
प्रकार लगा सकते है. आज कुछ सत्ताधारी लोग मर्डर करके भी पैसे और पावर के बल पर
अपने घरों में बेठे है. दूसरी और हजारों गरीब इंसान छोटे-छोटे जुर्म में जैल की
सलाखों के पीछे सज़ा काट रहे है.
सरकार और माओवादियों के बीच चली
आ रही इस लड़ाई में अब तक हजारों लोगों की जान जा चुकी है और हजारों लोग इसकी वजह से
सड़कों पर अपना जीवन व्यतीत कर रहे है. आदिवासियों को आज़ादी मिलने के 60 साल बाद भी
शिक्षा, स्वास्थ्य और कानूनी सेवाएँ तक मयस्सर नहीं है। ‘दशकों से इनका बर्बर शोषण होता आ रहा है. छोटे-मौते कारोबारी और सूदखोर
इनको छलते है. पुलिस और वन विभाग के कर्मचारी इनकी औरतों से बलात्कार करना अपना
अधिकार समझते है’ हालात यह है लंबे अर्से से चली आ रही
भुखमरी के कारण आदिवासी अफ्रीका के रेगिस्तान के निचले इलाकों में रह रहे लोगो से
भी बुरा जीवन जी रहे है. आदिवासियों के पास जीवन-यापन के लिए ज़रूरी छोटी-छोटी चीजे
भी उपलब्ध नहीं है. जहां भी वो सामान खरीदने जाते है उनकी निगरानी की जाती है। और हर
किसी को ज्यादा सामान खरीदने की पाबंदी है साथ ही बच्चों की पढ़ाई के लिए बनाए गए
स्कूलों में पुलिस डेरा जमाकर पड़ी रहती है.
जैसा कि हिंसा किसी भी चीज़ का
हल नही है. हिंसा की बेहद गंभीर स्थिति होती है. ‘लेकिन माओवादियों को क्या सुझाव दे कि वे क्या करें?
अदालत जायें? दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना दे? जुलूस निकाले? क्रमिक अनशन पर बेठे? किस पार्टी के लिए मतदान करें? किस लोकतान्त्रिक
संस्था से वे गुजारिश करें? नर्मदा पर बड़े बांध के खिलाफ
बरसों-बरसों संघर्ष करने के दौरान कौन सा दरवाजा था जो नर्मदा बचाओ आंदोलन वालों
ने नहीं खटखटाया था?
सब जगह से हताश होकर जब
माओवादियों ने अपने अधिकारों को पाने के लिए सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए तो
हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री बयान देते है कि ‘माओवादी
देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है’ यह हालात तब
है जब सरकार ने लोगों की जमीने हड़पकर उनको जंगलों में रहने पर मजबूर कर दिया और उन
पर निगरानी रखने के लिए आधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेना लगा रखी है जो निहत्थे
लोगों पर गोली चलाने को अपना कानूनी अधिकार समझती है.
हम चाहे तो इस स्थिति को और
गंभीर होने से रोक सकते है. जब हमारे पास गांधीवादी विचारधारा है. लेकिन उसके लिए
हमे बंदूक का रास्ता छोड़कर, बातचीत का रास्ता अपनाना पड़ेगा.
बातचीत के जरिये दुनिया के अनेक गंभीर मसलों को सुलझाया गया है. चाहे वो बर्लिन की
दीवार हो या भारत-पाकिस्तान का ताशकंद समझौता . लेकिन ‘ऐसा
करने के लिए हमें अपने शासकों से पूछना होगा: क्या तुम पानी को नदियों में रहने दे
सकते हो? पेड़ों को वनों में? क्या तुम
बॉकसाइट को पहाड़ में रहने दे सकते हो? अगर वे कहते है नहीं, तो उन्हें अपने युद्धों के शिकार लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना बन्द कर
देना चाहिए.’
मुजतबा मन्नान,जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से स्नातकोत्तर है.
ई-मेल:mujtbaindia@gmail।com,मो-9891022472
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