आदिवासी स्त्री-अस्मिता एवं अस्तित्व के सवाल और निर्मला पुतुल
आरले श्रीकांत लक्ष्मणराव
चित्रांकन-मुकेश बिजोले |
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व आदिवासी समाज में सभी कार्य
स्त्री और पुरूष समान रूप से करते थे, संपत्ति का अधिकार समान होता था। वह उनके
आगमन के पश्चात् संपत्ति के अधिकार से स्त्रियों को वंचित रखने तथा पुरूष वर्चस्व
की दृष्टि से उन्हें हल चलाने, घर का छप्पर छाने या तीर-धनुष चलाने जैसे कामों से
वर्जित कर दिया गया। आदिवासी स्त्री एक ओर वर्तमान बाज़ारवाद के कारण मुख्यधारा के
समाज से शोषित है तो दूसरी ओर स्त्री होने के कारण अपने ही समाज में शोषित है। इस
दोहरे शोषण के दर्द में भी वह अपनी अस्मिता और अस्तित्व को नहीं भूलना चाहती है।
निर्मला पुतुल डंके की चोट पर नगाड़े की तरह शब्दों को बजाते हुए इस अन्याय का
विरोध करती है। वह अपने समाज की स्त्रियों के साथ हो रहे अन्याय को बखुबी जानती
है। वह लिखती हैं कि – “जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर
/ जब तुमने चलाया था हल / ... / पता है बस्ती की नाक बचाने ख़ातिर / तब बैल बनाकर हल
में जोता था / जालिमों ने तुम्हें /
खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा / ... / भरी पंचायत में सरेआम / नाच न दी जाओ नंगी ‘पकूल मराण्डी’ की तरह / बस
रहने दो”[1]
अपने ही समाज द्वारा इस
प्रकार के व्यवहार को सुनकर किसी के भी रोंगटे खड़े होना स्वाभाविक है। “पुतुल की लड़ाई तथाकथित ‘सभ्य’ समाज के विरूद्ध
ही नहीं बल्कि अपने समुदाय में पनप रहे महाढोंगियों के विरूद्ध भी है।”[2] अपने ही समाज में उसे एक भोग की वस्तु भर समझा जाता है। वह पुरूष के
चंगुल में कैसे फँसी? रमणिका गुप्ता के शब्दों में – “मनुष्य के मौलिक जीन्स से भी अधिक मनुष्य की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक
स्थितियों और परिवेश पर ही मनुष्य का विकास आधारित है। स्त्री पर भी यही लागू होता
है। बावजूद इसके, एक साझी व्याख्या तो स्त्री की समझ में आ ही गई है कि पुरूष ने
उसके मन को गुलाम बनाने से पहले उसे परिवार, ब्याह, संतान और समाज की लक्ष्मण
रेखाओं के बाड़े में कैद करके उसके शरीर को गुलाम बनाया और उसे सभी अधिकारों से
वंचित किया। पुरूष को जब जरूरत हो प्यार, अलिंगन व चुंबन के हथियार का इस्तेमाल कर
या उसके रूप का बखान कर उसे गौरवान्वित किया – सर्वोत्तम करार दिया, लेकिन उसके सब
अधिकार छीन लिए ताकि वह उसी के प्रति समर्पित रहे।”[3] आज वह शारीरिक दर्द के साथ-साथ मानसिक दर्द झेलने के लिए भी विवश है।
पितृसत्तात्मक समाज में उसे जीवनभर पुरूष पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में उसके
साथ रिश्तों के रूप में खिलवाड़ किया जाता है। वह एक ही साथ स्थापित और निर्वासित
होती रहती है। स्त्री की इस दर्दनाक पीड़ा को निर्मला पुतुल अभिव्यक्त करती हैं – “तन के भूगोल से परे / एक
स्त्री के / मन की गाँठ खोलकर / कभी
पढ़ा है तुमने / उसके भीतर का खौलता इतिहास / अगर नहीं / तो फिर जानते क्या हो तुम / रसोई और बिस्तर के गणित से परे / एक स्त्री के बारे में....।”[4] पुरूष ने स्त्री के तन के अंदर झाँककर देखने की तक कभी
कोशिश नहीं की है। ऐसे में निर्मला पुतुल जानना चाहती है कि पुरूषों के लिए हम
स्त्रियां आखिर हैं क्या? कभी पुरूषों के कदम से कदम मिलाकर चलने वाली आदिवासी
स्त्री अब उसके लिए घर के उपयोगी वस्तुओं के बराबर मात्र रह गयी है। वह पूँछती है-
“क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...? / एक तकिया / कि कहीं से थका-मांदा आया और सर टिका दिया / ... / या ख़ामोशी-भरी दीवार / कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी / ... / क्यूँ? कहो, क्या हूँ मैं
तुम्हारे लिए?”[5] आदिवासी स्त्री विवाह के लिए अपनी इच्छा से वर चुनती थी, स्वछंद प्रेम
करती थी। पर आज उसके वह सभी अधिकार छीन लिए गए हैं। आज उसे अपने बाबा से गुहार
लगाना पड़ रहा है कि- “बाबा! मुझे उतनी
दूर मत ब्याहना /... / मत ब्याहना उस
देश में / जहाँ आदमी से ज्यादा / ईश्वर
बसते हों / जंगल नदी पहाड़ नहीं हो जहाँ / वहाँ मत कर आना मेरा लगन”[6] उसके इस गुहार में इतनी वेदना है कि उससे किसी भी सहृदय मनुष्य का हृदय
पिघल जाना स्वाभाविक है।
वह अपनी संस्कृति को बनाए रखना चाहती है। उसे वही जंगल,
नदी, पहाड़ अच्छे लगते हैं जो अपने बाबा के घर में हैं। वह अंदर ही अंदर सहमी हुई
है कि जहाँ उसे ब्याहा जाएगा क्या वहाँ यह
सबकुछ मिल पाएगा? क्या उसे प्यार करने वाला पति मिल पाएगा? आज वह जानने लगी है उसके खिलाफ होने वाले षड्यंत्र को। चाहे वह आंतरिक हो
या बाहरी। “वह इस छदम् को पहचान गई है। आज वह घर, परिवार,
पुरूष का सुरक्षात्मक छाता, रिश्तों की भावनात्मक बेड़ियां – सभी को नकार अपनी
अस्मिता के निर्माण के लिए जूझने लगी है।”[7] निर्मला जी बाहरी पुरूषों द्वारा होने वाले स्त्री-शोषण को पहचानकर अपने
समाज के लोगों से उसका विरोध करने के लिए कहती हैं- “मैंने देखा था चुड़का सोरेन! / तुम्हारे पिता को अक्सर हंड़िया पीकर /
पिछवाड़े बँसबिट्टी के पास ओघडाए हुए / कठुवाई
अँगुलियों से दोना-पत्तल-चटाई बुन / बाज़ार ले जाकर बेचते
हुए तुम्हारी माँ को भी / हज़ार-हज़ार कामुक आँखों और सिपाहियों के पंजे झेलती / ... / किसी बाज के चंगुल में चिड़ियों की तरह /
फड़फड़ाते हुए एक बार देखा था उसे / ... /
देखों तुम्हारे ही आँगन में बैठ / तुम्हारे
हाथों बना हंड़िया तुम्हे पिला-पिलाकर / कोई कर रहा है
तुम्हारी बहनों से ठिठोली / बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार
उठकर रसोई में जाते / उस आदमी की मंशा पहचानो चुड़का सोरेन”[8]
यहाँ निर्मला जी चुड़का सोरेन के माध्यम से संपूर्ण आदिवासी
समाज को सजग करना चाहती है। उन्हें अपने अस्तित्व और अस्मिता की याद दिलाती है।
इन्हीं बाहरी लोगों की घुसपैठ की वज़ह से हो रहे दैहिक शोषण के दर्द को उघारते हुए
पुरूषों को ललकारती हुई ‘अगर तुम मेरी जगह होते’ कविता में
लिखती हैं – “बताओं न कैसे लगता? / जब
पीठ थपथपाते हाथ / अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा /
फोटो खींचते, कैमरा के फोकस / होंठो की
पपड़ियों से बेखबर / केंद्रित होते छाती के उभारों पर”[9] आदिवासी समाज के विकास के नाम पर गैर-आदिवासी समाज उनका शोषण करता रहा
है। निर्मला जी इससे वाकिफ़ है। वे चुड़का सोरेन से कहती है – “उस दिलवार सिंह को मिलकर ढूँढों चुड़का सोरेन / जो
तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को / पढ़ाने-लिखाने का सपना
दिखाकर दिल्ली ले भागा / और आनन्द-भोगियों
के हाथ बेच दिया”[10]
हम देख सकते हैं कि किस प्रकार गैर-आदिवासी समाज धीरे-धीरे
शिरकत कर पहले आदिवासी समाज को उजाड़ने का और अब उनके स्त्रियों के देह के साथ
खिलवाड़ करने का काम कर रहा है। आज आदिवासियों के जंगल उजड़ गए। उनका विस्थापन
शहरों के किनारे झोपड़ पट्टियों में हुआ। वहां भी आदिवासी स्त्री अपने ही पुरूष का
मार सहकर परिवार का पालन-पोषण करने के लिए तत्पर है। रोजगार के लिए वह दिल्ली जैसे
शहरो में जाती है तो काम के नाम पर तन को गिरवी रखने की बात की जाती है। निर्मला
जी स्त्रियों के इस दैहिक शोषण का विरोध करती हैं। अपने समाज की माया को दिल्ली
में ढूँढ़ती हुई ‘तुम कहाँ हो माया’ शीर्षक कविता में लिखती हैं – “दिल्ली के किस कोने में हो तुम? / मयूर विहार, पंजाबी बाग या शहादरा में?
/ कनाट प्लेस की किसी दुकान में / सेल्सगर्ल
हो या / किसी हर्बल कंपनी में पैकर? /
कहाँ हो तुम माया? कहाँ हो? / कहीं हो
भी सही सलामत या / दिल्ली निगल गयी तुम्हें?”[11] ऐसे में आदिवासी समाज तथा स्त्रियां जाए तो कहां जाए। आदिवासी स्त्री
स्वयं को पुरूष-दृष्टि से देखने के लिए मजबूर है। घर, संतान, प्रेम आदि उसके लिए
मात्र एक स्वप्न से अधिक कुछ नहीं रहे हैं। उसका यथार्थ जीवन इतना कटु है कि उससे उसका
सपने का जीवन भी अमूर्त हो जाता है। वह अपनी अस्मिता की तलाश को कल्पना में ही
ढूँढती रह जाती है। निर्मला जी इस चाह रूपी अस्मिता की तलाश को ‘अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री’ कविता में अभिव्यक्ति देती हैं- “अपनी कल्पना में हर रोज / एक ही समय में स्वयं को /
हर बेचैन स्त्री तलाशती है / घर, प्रेम, जाति से अलग / अपनी एक ऐसी ज़मीन / जो
सिर्फ़ उसकी अपनी हो / एक उन्मुक्त आकाश / जो
शब्द से परे हो / एक हाथ / जो हाथ नहीं
/ उसके होने का आभास हो!”[12]
पुरूष समाज को अखड़ता है स्त्रियों का स्त्री दृष्टि से
चीज़ों को देखना, उनका उँची आवाज में बोलना, बड़बड़ाना। स्त्रियों का मर्यादा में
रहना, मीठा बोलना, सहनशील होना ही उन्हें पसंद है। नहीं तो उन्हें डर है कि वह
हमारे खिलाफ़ विद्रोह कर हमारे एकछत्र अधिकार को छीन लेंगी। उँची आवाज़ में बोलना
तो दूर की बात है, सीमोन द बोउवार कहती हैं- ‘स्त्री
का बड़बड़ाना भी उसका विरोध दर्ज करना है।’ स्त्री जान गयी है कि हमारे स्वतंत्र होकर
जीने से तथा पुरूषों के समान मिलकर कार्य करने से पुरूषों को आपत्ति है। और अब
पुरूष दृष्टि के अनुसार चलना भी संभव नहीं है। निर्मला जी ‘तुम्हें आपत्ति है’ कविता में पुरूष दृष्टि का विरोध करती हैं-
“पर यह कैसे संभव है कि / हम तुम्हारे
बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ / ढल जाएँ मनमाफ़िक तुम्हारे
साँचे में / … / मैंने तो चाहा था साथ चलना / मिल बैठकर साथ तुम्हारे / गढ़ना चाहती थी बस्ती का
नया मानचित्र / मुझे याद है - जब मैं
तल्लीन होती किसी / योजना का प्रारूप बनाने में / या फिर तैयार करने में बस्ती का नक्शा / तुम्हारे
भीतर बैठा आदमी / मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता।
/ अब तुम्हीं बताओ ! / ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग-साथ बैठकर
हँसू-बोलूँ / कैसे मिल-जुलकर / कुछ
करने के बारे में सोचूँ? / … / कैसे धीरे से रखूँ वह बात /
जो धीरे रखने की मांग नहीं करती! / क्यू माँ
के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं?”[13]
निर्मला पुतुल की कविताएं सवालों की बौछार करती हुई अन्याय
के विरूद्ध ललकारती हुई कविताएं है। वह हर पाठक के मस्तिष्क पर प्रश्नचिह्न खड़ा
करती हैं, सोचने के लिए विवश कर देती हैं। इन कविताओं से स्वानुभूति के दर्द की
गंध आती है। वह अपने शब्दों को ऐसे फेंकती हैं कि पाठक समाज रूपी नगाड़े पर गिरकर
गूँजने लगते हैं। उनकी कविताओं में स्त्रियों की व्यथा-कथा कहने वाली कविताओं की
लंबी लिस्ट हैं। जो आदिवासी समाज की स्त्रियों को अन्याय और शोषण के विरूद्ध आवाज
उठाने के लिए प्रेरित करती हैं। आज स्त्री जग गयी है। आदिवासी समाज की भी आँखे खूल
गयी है। अब वह बोलने से व आवाज उठाने से कतई नहीं कतराती हैं। जरूरत है तो सिर्फ
शासन और समाज के सक्रिय सहयोग की। नहीं तो उसे एक बार फिर से ‘सिनगी दई’ बनते देर नहीं लगेगी।
संदर्भ
[1]
Kavitakosh.org (कुछ मत कहो सजोनी किस्कू! (कविता), नगाड़े की तरह बजते
शब्द – निर्मला पुतुल)
2
निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी जीवन (आदिवासी
साहित्य : विविध आयाम) - संतोष
तुकाराम टेलकीकर, पृ. 64
3 संपादकीय, खरी खरी बात –
युद्धरत आम आदमी, संपादक – रमणिका गुप्ता, पूर्णांक-108, विशेषांक, 2011
(स्त्री-मुक्ति आंदोलन पर केन्द्रित कविता विशेषांक, भाग-1)
4 Kavitakosh.org
(क्या तुम जानते हो (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
5 Kavitakosh.org
(क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
6 Kavitakosh.org (उतनी दूर मत ब्याहना बाबा (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
7 संपादकीय, खरी खरी बात –
युद्धरत आम आदमी, संपादक – रमणिका गुप्ता, पूर्णांक-108, विशेषांक, 2011
(स्त्री-मुक्ति आंदोलन पर केन्द्रित कविता विशेषांक, भाग-1)
8 Kavitakosh.org
(चुड़का सोरेन से (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
9 Kavitakosh.org
(अगर तुम मेरी जगह होते (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
10 Kavitakosh.org
(चुड़का सोरेन से (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
11 तुम कहाँ हो
माया (कविता), अपने घर की तलाश में – निर्मला पुतुल, पृष्ठ 31
12 Kavitakosh.org
(अपनी ज़मीन तलाशती बेचैन स्त्री (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द –
निर्मला पुतुल)
13 Kavitakosh.org
(तुम्हें आपत्ति है (कविता), नगाड़े की तरह बजते शब्द – निर्मला पुतुल)
आरले श्रीकांत लक्ष्मणराव,
शोधार्थी (हिंदी विभाग),
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (EFLU), तारनाका, हैदराबाद- 500007.
ई-मेल- shrikantarale@gmail.com, मो. नं.- +91-9573565596
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