चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
अपनी माटी विशेष:भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श
सम्पादन:पुखराज जांगिड़ और प्रमोद मीणा , चित्रांकन:डिम्पल चंडात
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खण्ड:ख
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खण्ड:ख
हिन्दीतर सिनेमा में हाशिए की अस्मिताएँ
उन्मेषा कोंवर व अनुशब्द : असमिया सिनेमा में दलित दस्तक
कांबळे जयपाल : फैंड्री’: दलित सिनेमा की नयी दिशा
गणशेटवार साईनाथ नागनाथ : तेलूगु सिनेमा में आदिवासी चित्रण
चिलवंत प्रकाश गोरोबा :मराठी सिनेमा में दलित-आदिवासी
जी. राजु:तेलुगु सिनेमा में दलित मुद्दे
डी. द्रौपदी : दक्षिण भारतीय सिनेमा में दलित यथार्थ
दया अरुणा : तेलुगु सिनेमा में दलित-आदिवासी
एन. ललिता : तमिल सिनेमा में दलित-विमर्श
प्रमीला के. पी. : मलयाली सिनेमा : पददलितों की कलात्मक (अ)प्रस्तुति
बलजीत कौर ‘अमहर्ष’:‘कोर्ट’ : भारतीय न्यायिक प्रक्रिया और सांस्कृतिक प्रतिरोध
भूषण पुआला : उड़िया फिल्म ‘जीअंता भूत’ में डोंगरिया कोंध आदिवासी
मधुमथि पी. : मुख्यधारा के तमिल सिनेमा में अनचिह्नित दलित अस्मिता (अनुवाद – प्रमोद मीणा)
सतीश पावडे :‘फैंड्री’ : प्रेम बनाम विमर्श
सिराजुल हक : बाँग्ला फिल्म ‘समाज केन बदलिया दाओ’ में निम्नवर्ग
सी. जय शंकर बाबु : तमिल फिल्म ‘कुम्की’ में चित्रित आदिवासी जीवन
सोनकांबळे पिराजी मनोहर : मराठी प्रेमकहानियों में दलित विमर्श
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सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्वों से परिपूर्ण हर ईमानदार और गंभीर रचना की तरह सिनेमा भी अपने देशकाल का हस्ताक्षर होता है। अपने युग-संदर्भों का आईना होता है। वह भी पूर्णतया समसामयिक सामाजिक जीवन का ही प्रतिफलन है। दृश्य और श्रव्य का यह युग्म जनमानस में साहित्य की अपेक्षा कहीं ज्यादा स्वीकृत,प्रचलित और प्रभावी है। देश की वाणिज्यिक प्रगति में भी इसका अतुलनीय योगदान है। भारतीय साहित्य और सिनेमा के क्षेत्र में दलित-आदिवासी विमर्श से अब शायद ही कोई अनभिज्ञ हो। आज के इन ज्वलंत मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में सिनेमा जैसी लोक प्रचलित विधा पर विचार-विमर्श का यह राष्ट्रीय आयोजन निश्चित रूप से सराहना के योग्य है।
‘फैंड्री’ का मतलब सुअर होता है। इस सिनेमा के माध्यम से निर्देशक नागराज मंजुले जातिवादी हिंदू समाजव्यवस्था के मुँह पर तमाचा मारते हैं। ‘फैंड्री’ में निर्देशक ने कहानी के प्रवाह को मजबूती से नियंत्रित किया है। पूरी कहानी में कहीं भी जातिवाद पर कोई भाषण नहीं है। गरीबी का रोना रोते पात्र नहीं है, संवाद घिसे-पिटे भी नहीं है। निर्देशक ने सभी कलाकरों पर भरपूर नियंत्रण रखा है। कलाकार पात्रों का सामान्य जीवन जीते हैं। वे ऐसी मराठी भाषा का इस्तेमाल करते है जो आम मराठी सिनेमा में बोली नहीं जाती।
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असमिया सिनेमा में दलित दस्तक
उन्मेषा कोंवर व अनुशब्द
असमिया सिनेमा का इतिहास आज से लगभग अस्सी (80) वर्ष पुराना है। सन् 1935 में असम राज्य के देशभक्त क्रांतिकारी कवि, नाटककार, चलचित्र निर्माता रुपकोंवर ज्योतिप्रसाद अगरवाला ने पहली बार सवाक् असमिया चलचित्र ‘जयमती’ का निर्माण किया । यह ऐतिहासिक घटना पर आधारित फिल्म थी। यह एक ऐसा समय था जब सिनेमा में नायिका का अभिनय करनेवाली ‘आईदेउ संदिकै’ को आजीवन घर-परिवार और समाज से निर्वासन का दंश झेलना पड़ा था। तब से लेकर आज तक असमिया सिनेमा उद्योग विभिन्न उत्थान-पतनों से गुजरते हुए वर्तमान समय में एक जीवंत और सशक्त मुकाम पर पहुंचा है।
असमिया सिनेमा के उन्नयन के इस क्रम में अनेक गंभीर और कलात्मक फिल्मों का निर्माण हुआ जिनका विषय काफी वैविध्यपूर्ण रहा।अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों के ही ट्रेंड में चलनेवाले असमिया सिनेमा का विषय-चयन भी प्रायः समाज और जनजीवन की विभिन्न समस्याएँ ही होता है। हालाँकि कुछ फिल्म निर्माताओं ने लीक से हटकर सामाजिक शोषण तथा समाज के निम्नवर्गीय जीवन को बहुत ही शिद्दत से पर्दे पर उकेरा है और जनजागरण पैदा करने की कोशिश की है। इसी परिप्रेक्ष्य में हमने संगोष्ठी-पत्र हेतु तीन मशहूर असमिया फिल्मों- ‘हालधिया सराए बाउधान खाय’(1980), ‘जेतुका पातर दरे’(2011), और ‘बाँकर पुतेक’(2012) का चयन किया है जिनमें समाज में दलितों की समस्या को पूरी सजीवता, गंभीरता एवं कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन फिल्मों में अलग-अलग समय और सामाजिक परिवेश का चित्रण किया गया है। अतः इनमें शोषण का स्वरूप और दलितों का जीवन भी अलग-अलग रूपों में सामने आया है । भिन्न पृष्ठभूमि की इन फिल्मों ने दलित-समस्याओं को पूर्वोत्तर भारत की चौहद्दी से बाहर निकालकर वृहत्तर भारतीय जनसमुदाय से रू-ब-रू कराया।
(संपर्क : सुश्री उन्मेषा कोंवर व डॉ. अनुशब्द, तेजपुर (असम), ईमेल - anushabda@gmail.com)
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‘फैंड्री’:दलित सिनेमा की नयी दिशा
कांबळे जयपाल
आज सिनेमा मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम है। शिक्षित शहरी वर्ग से लेकर ग्रामीण वर्ग, कामगार से लेकर मालिक तक सभी लोग इसे पसंद करते है। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण प्रभावी भूमिका निभा पाने में सक्षम है। कल्पना और यथार्थ को पर्दे पर पाकर लोग मुग्ध होते है, और वास्तविकता से मनोरंजन की तरफ धावित होते है। ऐसे ही मनोरंजन के माध्यम से यथार्थ का चित्रण ‘फैंड्री’ नामक मराठी सिनेमा में बीते साल चर्चा का विषय रहा है।
इस सिनेमा में किसी बड़े कलाकार को नहीं लिया गया है। न कोई कलाकार का मेक-अप किया गया है, ना किसी सेट का भी प्रबंध किया गया है अत: दृश्य यथार्थ की जमीन से उठते नजर आते हैं। निर्देशक ने जानबूझकर फिल्म की शूटिंग गर्मी के मौसम में की ताकि बारिश के बाद आने वाली हरियाली गाँव की असल तस्वीर को छिपा न दे। हिंदी सिनेमा में ऐसी कम ही फिल्में आई हैं जिनमें गाँव के दृश्यों को यथार्थ के इतना निकट रखा गया हो। सिनेमा का क्लाईमैक्स बहुत ही गैर-पंरपरागत क्लाईमैक्स है जिसमें लोग अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग संभावनाएँ सोच सकते हैं।
(संपर्क - कांबळे जयपाल रामचंद्र, हैदराबाद,ईमेल. jaipalkamble@gmail.com )
तेलूगु सिनेमा में आदिवासी चित्रण
गणशेटवार साईनाथ नागनाथ
साहित्य विश्व की प्राचीनतम कला है तो सिनेमा नवीनतम। साहित्य समाज का दर्पण है तो सिनेमा भी समाज का दर्पण का कार्य करता है। मानव-मन को सुख, दुख, क्रोध, करूणा, भय, विभ्रम, विलास आदि की मार्मिक अनुभूति होती है तो सहसा ही वह इन अनुभूतियों से प्रेरित होकर मनोभावों को प्रकट करता है। वह जब भावसम्पृक्त होकर मस्त झूमने लगता है तो उस दशा में उसके बहिनिर्गत छलकते हुये भाव प्रदर्शित हो जाते हैं। उन्हीं प्रकटित भावों का स्वरूप सिनेमा में देखने को मिलता है, जिससे दर्शक भी रोमांचित हो जाते हैं। इस रूप में हम पाते है कि सिनेमा के माध्यम से हमारे भावों का अनावरत प्रवाह सम्भव है। सिनेमा आज के समाज में जनसंचार का एक बहुत ही प्रभावशाली माध्यम है ।
प्रारम्भ के सिने निर्देशकों में सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध निर्देशकों में वी. शान्ताराम, दादा साहेब फालके आदि को गिना जाता है। भारत में सिनेमा हिंदी के अतिरिक्त विविध क्षेत्रिय भाषाओं में भी बनाया जाता है, जैसे मराठी, गुजराती, मलयालम, तमिल, भोजपुरी, बंगाली और तेलगू आदि । तेलगू सिनेमा का भारतीय सिनेमा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । जिस समय इंपीरियल फिल्म कंपनी ने आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में हिन्दी की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई, उसी समय तेलगु में एच. एम.रेड्डी की फिल्म ‘भक्त प्रल्हाद’ आयी। तेलगु फिल्म संसार ने हिन्दी फिल्मों के समान मनोरंजन के साथ-साथ समाज की बुराइयों पर भी प्रकाश डाला है। इस संसार ने समाज के ज्वलंत मुद्दों पर सवाल उठाये है, जैसे- भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्त्रीशोषण, राजनैतिक समस्यायें आदि । इसके साथ ही आदिवासी समस्याओं पर भी फिल्में बनायी गई हैं।
आदिवासी जीवन पर बनने वाली प्रमुख फिल्में हैं, जैसे -‘फोरेस्टर ऑफिसर आलुरी सीताराम’, ‘आडवी बिडल्लू’, ‘आडवी चुंका’, ‘येरासैनम’ और ‘वोसेरावूलअम्मा’ आदि। प्रस्तुत पर्चे पर में मुख्यत: तीन तेलगु फिल्मों को लिया जाना है - ‘आडवी बिडल्लू’, ‘आडवी चुंका’ और ‘येरासैनम’। इन फिल्मों में आदिवासी जीवन का यथार्थ दर्शन, उनकी संस्कृति और जमींनदारों एवं साहूकारों द्वारा उनका शोषण, गैर आदिवासी लोगों का अत्याचार, पुलिस-प्रशासन द्वारा अन्याय, सरकार द्वारा उनके प्रकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने का प्रयास, आदिवासी स्त्रियों का शोषण आदि के साथ उन कारणों पर प्रकाश डाला जाना है जिनके चलते अन्याय का विरोध करने हेतू आदिवासी लोग बंदूक उठाने का विवश होते हैं और एक निर्दोष इंसान होने पर भी नक्सली होकर क्यों मरते हैं। इसके साथ-साथ इन फिल्मों के माध्यम से उनकी स्वायत्त संस्कृति को भी विश्लेषित करने का प्रयास रहेगा। आज के भूमडंलीकरण के युग के दौर में सरकार पैसों के लालच में आकर विकास के नाम पर विदेशी कंपनीयों को आदिवासीयों के जल’जंगल’जमीन को बेच रही है। और इस आदिवासी विरोधी सरकारी बिकवाली का विरोध करने वाले जागरूक आदिवासीयों को नक्सली घोषित करके मारा जा रहा है। गैर आदिवासियों के द्वारा आदिवासी स्त्री को प्रेम में फंसाकर दहेज के रूप इनकी जमीन लूटना और आदिवासी के नाम पर चुनाव लड़कर आदिवासियों का हम मारना अलग समस्या है।
(संपर्क - गणशेटवार साईनाथ नागनाथ, पुदुच्चेरी, ईमेल - saikumarganshetwar@gmail.com )
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मराठी सिनेमा में दलित-आदिवासी
चिलवंत प्रकाश गोरोबा
आधुनिक संचार माध्यमों में दृश्य-श्रव्य माध्यमों के रूप में फिल्म, टेलीविजन, न्यूज़ चैनल, इंटरनेट, मोबाइल फोन आदि की गणना की जाती है। इनमें ध्वनि के साथ-साथ दृश्यों या चित्रों का भी समावेश होता है। इनको देखते सुनते हुए हमारी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय रहती हैं, इसलिए इन माध्यमों से पहुंचाया गया संदेश हम आसानी से ग्रहण करते हैं। लेकिन इन माध्यमों में और खास कर इस भूमंडलीकरन के दौर में दलितों एवं आदिवासियों की भागीदारी कितनी है, यह भी देखना जरूरी है। जब हम मराठी दलित सिनेमा के इतिहास में जाते हैं तब हमें पड़ताल करनी होगी कि अब तक दलितों एवं आदिवासियों पर जितनी मराठी फिल्में बनी हैं, उसमें किसने और किस तरह से भूमिकाएं निभाई हैं?
दरअसल भारत में सवर्ण मानस में दलितों और आदिवासियों के प्रति घृणा है और उस घृणा ने अब ऐसा रूप धारण कर लिया है कि दलित और आदिवासी जो भी कार्य करते हैं, वह घृणा से युक्त है। शायद इसीलिए यह सवाल बहुत जरूरी हो गया है कि आज तक मराठी सिनेमा में दलित एवं आदिवासियों पर जो सिनेमा बना है, उसमें दलित एवं आदिवासी नदारद क्यों हैं? जबकि महाराष्ट्र क्या पूरे भारत में दलितों एवं आदिवासियों ने सबसे पहले नाटक एवं लोकसाहित्य में शिरकत की, तब आज मराठी सिनेमा से दलित एवं आदिवासी गायब क्यों हैं?
दरअसल शुरुआत से ही मराठी सिनेमा पर उच्च वर्ग का या उच्च जाति का प्रभुत्व रहा है और तब से इन सिनेमा में उच्च जातियों के नायकों का ही प्रभुत्व रहा है। जैसे समकालीन मराठी सिनेमा, जैसे - ‘मुक्ता’, ‘कोकनस्त’, ‘जैत रे जैत’, ‘गाभरिचा पाउस’, ‘७२ मैल’, ‘कोर्ट’, ‘तुझा धर्म कोंचा’ आदि फिल्मों में को देखा जाये जो दलितों और आदिवासियों से सम्बन्धित हैं, लेकिन इस सबके लगभग सभी पात्र उच्चजातियों से आते हैं। मराठी में अब तक केवल नागराज मंजुले निर्देशित ‘फ्रैंड्री’ को छोड़कर अन्य सभी फिल्मों में उच्चजातियों का वर्चस्व रहा है।
जिस तरह से मराठी एवं हिंदी साहित्य की दलित एवं आदिवासी आत्मकथाओं के पढ़कर दलितों एवं आदिवासियों को अपनी आपबीती सरीखा लगता है, उसी तरह मराठी सिनेमा (जो दलित एवं आदिवासी से संबंधित हो) को देखकर आपबीता नहीं लगता तो उसका मूल कारण यही है कि इन फिल्मों में स्वयं दलित-आदिवासी पात्रों या उनके वास्तविक अनुभवों का शामिल न हो ना है।इस स्थिति में परिवर्तन तभी सम्भव होगा जह मराठी ही क्या भारत के सभी राज्यों की भाषाओं में दलित एवं आदिवासी लेखकों एवं निर्देशकों की संख्ये बढेगी। इसी से उस समाज का यथार्थ रूप सामने आएगा।
(संपर्क- चिलवंत प्रकाश गोरोबा, हैदराबाद, ईमेल- prakash.chilwant@gmail.com )
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तेलुगु सिनेमा में दलित मुद्दे
जी. राजु
जब बात भारतीय भाषाओं के सिनेमा में दलित-आदिवासी चित्रण की हो रही हो, तो हमें हिंदी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के संदर्भ में भी बात करनी चाहिए। तेलुगु सिनेमा का इतिहास बहुत पुराना है। इसके आरंभकर्ता रघुपति वेंकय्या नायुडु को तेलुगु सिनेमा का पिता माना जाता हैं। अपने प्रयासों से उन्होंने तेलुगु की पहली मूक फिल्म ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ बनाकर उसे जगह-जगह प्रदर्शित किया। यही प्रयास पहली टॉकी फिल्म ‘भक्त प्रहलाद’ (एच.एम. रेड्डी) बनने तक चला। उसके बाद तेलुगु फिल्म बॉलीवुड की तर्ज पर ‘टालीवुड’ के नाम से सुपरिचित हो गया।
तेलुगु सिनेमा का आरंभिक काल भी मनोरंजनपरक था, लेकिन बाद में प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्तियों के प्रयास के कारण कुछ आमूलचूल परिवर्तन हुए थे। उसी का नतीजा था कि सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित फिल्में बनने लगी थी। 1939 से तेलुगु सिनेमा में सामाजिक समस्याओं का चित्रण होने लगा, जिनमें मूल रूप से उस समय की मूलभूत समस्या के रूप में अस्पृश्यता थी। 1939 में ‘मालापिल्ला’ (महार की लड़की) के नाम से फिल्म बनी, जिसमें दलित बस्ती में रहने वाले दलितों की दुर्दशा और उनके साथ किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार को दर्शाया गया। इस फिल्म की कहानी में अंबेडकर के अंतरजातीय विवाह का रूप दिखाया गया है, जिसके द्वारा जाति का उन्मूलन किया जा सकता है। यह फिल्म उस समय के अनुसार एक बहुत बड़ा साहस कहा जा सकता है। इसके बाद दलितों को केंद्र में रखकर फिल्में बनने लगी थी लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बहुत कम।
आगे चलकर शेष भारतीय सिनेमा के समान ही तेलुगु सिनेमा का स्वरूप बदलता गया और वह समय और श्रोताओं के मांग के अनुकूल अपने आपको ढालने लगा। इसीकारण यह सिनेमा अधिकतर प्रेम और बदले की भावना वाली फिल्मों को बढ़ावा देता गया। किंतु फिर भी समय-समय पर दलित विषयक जितनी भी फिल्में आई, उनमें कथित सवर्ण समाज के सामने सवाल खड़े किये गये। समाज का जो नजरिया दलितों के लिए रहा है, तेलुगु सिनेमा उसीको प्रश्नांकित करते हुए समाज को सोचने पर मजबूर भी करता रहा। इस दृष्टिकोण से तेलुगु सिनेमा बहुत हद तक सफल हो पाया। आज समाज में ‘ऑनर किल्लिंग’ एक विषैली नागिन की तरह अपने फन फैला चुकी है। जिसका नतीजा हम रोज अखबारों एवं टी.वी. समाचारों की सुर्खियों में देख रहे हैं। उसी मुद्दे को लेकर आज तेलुगु सिनेमा जागरूक होने का एहसास दिला रहा है। कम ही सही लेकिन वह प्रयास कर रहा है। 2013 में ‘राधा मोहन’ द्वारा निर्देशित ‘गौरवम्’ फिल्मइसी विषय को सशक्त ढंग से उठाती है। फिल्म के द्वारा निर्देशक कथित उच्चज समाज पर करारा व्यंग्य और चोट करता है, बहुत सारे सवाल भी उठाता है।
(संपर्क - डॉ. जी. राजु, हैदराबाद, ईमेल- dr.raju.hcu@gmail.com )
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दक्षिण भारतीय सिनेमा में दलित यथार्थ
डी. द्रौपदी
प्रत्येक व्यवस्था का दोषमय होना उसकी स्थिति एवं प्रकृति है। ‘वर्ण’ व्यवस्था भी इसका अपवाद नहीं हो सकती थी। एक व्यक्ति किस प्रकार अपने चैतन्य की रक्षा इस सामूहिक जड़ता से कर सकता है, यह प्रश्न आदि कवि के युग में भी ज्वलंत था। आज के वर्ग व्यवस्था वाले समाज में भी जीवंत समस्या है। वाल्मीकि ने भी सामाजिक वर्ण व्यवस्था से ऊपर व्यक्ति के आध्यात्मिक स्वत्व एवं असंग कर्म को प्रतिष्ठापित किया है। सामाजिक वर्ण व्यवस्था और वैयक्तिक कर्म विधान में एकता की चेष्टा सदा से कवि, विचारक, दार्शनिक और सुधारक करते आये है। आज तो भारत में सबको बराबरी का दर्जा दिया जाता है। लेकिन पूर्ववर्ती काल में जैसे रामायण, महाभारत काल से दलित जाति के लोगों को कितने कष्ट दिये गये हैं, यह हम सभी जानते हैं। महाभारत में ‘कर्ण’ के दलित होने के कारण उसे ब्राह्मण गुरू से धनुर्विधार्जन की आज्ञा नहीं मिला।
बाबासाहब डॉ भामराव आम्बेडकर के जीवन पर केन्द्रित फिल्म ‘तीसरी आज़ादी’ बताती है कि एक महार जाति से सम्बद्ध होने के कारण अम्बेडकर को अपनी पढ़ाई के दिनों से लेकर पूरे जीवन भर किस प्रकार के कष्ट झेलने पड़े। उन्हें कक्षा में बेंच पर बैठने तक का अधिकार नहीं था। ज़मीन पर बैठना पड़ता था। सवर्णों के कुएँ का पानी पीने पर मार खानी पड़ती। अंबेडकर के मन में कमजोर वर्ग के प्रति सहानुभूति थी, इसका सीधा असर उनकी चेतना पर पड़ा। आजाद भारत के संविधान की रचना के दौरान उन्होंने जिस आजाद बारत की कल्पना की, उस समतामूलक समाज के निर्माण के स्वप्न के भीतर उनका अपना, हजारों-हजार उत्पीड़ितों को मनुष्य का हक दिलाने का अभूतपूर्ण संघर्ष झलकता है।
केरल में श्रीनारायण गुरु के दिनों में जातिवाद जोरों पर था। एक बार स्वामी विवेकानन्द केरल भ्रमण कर रहे थे। वहाँ की जातीयता देखकर उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने दुखी होकर स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जातीयता के कारण केरल का बुरा हाल है। तिरुवनन्तपुरम के पास ‘अरुविक्करा’ नामक एक सुन्दर स्थान है। वहाँ नारायणगुरु ने शिवजी का मंदिर बनाया। उस मंदिर में सभी जाति के लोग जाते थे। शिवजी की पूजा करते थे। उन्होंने यहीं से जाति रहित समाज की नींव डाली। केरल में जातीयता का अंत करने का श्रेय श्रीनारायण गुरु को जाता है। वे जानते थे कि दलितों एवं वंचितों के उद्धार का मार्ग शिक्षा और आजीविका से होकर ही जाता है। ‘युगपुरुष’ नामक फिल्म में श्री नारायण गुरु के बारे में बताया है।
मलयालम फिल्म ‘चिथरियावर’ (2004) में एक दलित लड़के को अपनी उन्नति के लिए कितने कष्ट भोगने पड़े, इसके लिए उसे कितनी मेहनत करनी पड़ी, यह सब दिखाया गया है। ‘अन रिपोर्टेड इंडिया’ नामक टी.वी. धारावाहिक में दलित लोगों के दुखों को दिखाया गया है। तमिल फिल्म ‘जेन्टिलमेन’ में नायक उच्चशिक्षित होने पर भी अपनी निम्नजाति के कारण समाज में संघर्ष करने को बाध्य है। इस तरह ये फिल्में दक्षिण भारत में विद्यमान दलित जातीय उत्पीड़न को विषय बनाती हैं।
(संपर्क - डी. द्रौपदी, पोल्लाच्च (तमिलनाडू), चलभाष - 9443653131)
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तेलुगु सिनेमा में दलित-आदिवासी
दया अरुणा
19वीं सदी में जब सिनेमा का अविष्कार हुआ तब इसे सिनेमैटोग्राफी न कहकर 'किनेमैटोग्राफ' कहा जाता था, इसलिए कहा जाता था क्योंकि सिनेमा का आधार गति है। ‘सिनेमैटोग्राफ’ से ‘सिनेमा’ बना। 20वीं शताब्दी की यह एक मात्र ऐसी विधा हैं जिसनेतेजी से 'सामाजिक संदेश' दुनिया भर में पहुँचाए हैं। फ्रांसीसी फिल्मकार आस्रुक का कहना है कि लिखे हुए शब्दों की तरह सिनेमा भी एक भाषा है जैसे लिखने और पढ़ने के लिए नये दृष्टिकोण की आवश्यकता है। भारतीय सिनेमा के विभिन्न भाषाभाषी सिनेमा की तरह तेगुलु सिनेमा के भी अनेक प्रकार हैं, जैसे - सामाजिक फिल्म, धार्मिक फिल्म, ऐतिहासिक फिल्म, राजनीतिक फिल्म आदि। तेलगू भाषा की फ़िल्में भारतीय सिनेमा का एक अहम हिस्सा है और वह तेलुगु भाषा और समाज के रिश्तों को, उसके सामाजिक प्रभाव के विविध आयामों को सामने ला रही हैं।
आम धारणा है कि तेलुगु के विकास में तेलुगु सिनेमा की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसा लगता है कि तेलुगु फिल्मों के ज़रिए तेलुगु भाषा देश के कोने-कोने और अब विदेशों में भी पहुँच रही है। वैसे गौर करें तो तेलुगु फिल्मों की पहुँच का विस्तार अवश्य हुआ है, मगर तेलुगु भाषा उसी अनुपात में दर्शकों तक नहीं पहुँची है। तेलुगु फिल्मों के तमाम दर्शक तेलुगु नहीं बोलने लगते वे कुछ शब्दों और मुहावरों से परिचित मात्र हो जाते हैं। तेलुगु उनके व्यवहार की भाषा नहीं बनती।सिनेमा अपनी सम्पूर्णता में जितना अधिक जनोन्मुखी माध्यम है, उतना कोई अन्य माध्यम नहीं है, कारण यह कि यह जनभावनाओं तक सीधे अपनी पैठ बना लेता है और मजे की बात यह कि अभिनयकर्त्ता दूर होकर भी दर्शक के बेहद करीब होते हैं, बशर्ते उनका अभिनय सहज और प्रभावशाली हो। दर्शक ऐसे पात्रों को अपने बीच पाता है और उनके द्वारा अभिनीत भावनाओं से एकाकार होकर तदनुरूप आचरण करने लगता है।
ध्यातव्य है कि तेलुगु सिनेमा में भी हिंदी सिनेमा की तरह ही दलित-आदिवासी से संबंधित फिल्में बहुत कम संख्या में देखने को मिलती हैं लेकिन माला पिल्ला (1938), मा भूमि (1978), सीतकोक चिलुका (1981), दासी (1988), मौना पोरटम (1989), एररा सैन्यम्म (1994), ओसे रमुलम्मा (1997), सम्मखा – सरखा (2000), मृगराजू (2001) जैसी फिल्मों में इनके पदचिह्न दिखाई देते हैं। ये वे फिल्में है जिसके माध्यम से दलितों की समस्याओं को उजागर करने का प्रयास हुआ है। तुलुगु समाज की सबसे कमजो नब्ज पर ऊँगली रखने वाली फिल्में उस समाज की आन्तरिक परतों को, उसकी जातिवादी मानसिकता को उजागर करती है।
(संपर्क - दया अरुणा,एम.फिल, हैदराबाद, ईमेल arunapraja@gmail.com )
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तमिल सिनेमा में दलित-विमर्श
एन.ललिता
साठ के दशक में तमिल फिल्म जगत कॉलिवुड में ऐसा एक दौर आया, जहां भावनाओं को हल्के रेशमी धागों में पिरोने की कोशिश की गई। रिश्तों की अहमियत, परिवार की घुटन, प्यार एवं मोहब्बत को लेकर फिल्में बनी। किंतु परवर्ती काल में मजदूरों व गरीबों की दयनीय स्थिति पर भी फिल्में बनने लगी। किंतु हिंदी सिनेमा की तरही ही तमिल सिनेमा भी दलितों की पीड़ा को नज़र अंदाज़ करती हुई दिखाई देती हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि लोगों की मन स्थिति ऐसी हो गई है कि धन खर्चकर मन को सुकून देना चाहते हैं, न कि मन को अशांत कर वापस लौटना चाहते हैं। हाँ फिर भी तमिल सिनेमा में कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जो दलितों और निम्न वर्ग की जिंदगी के कटु सत्य को बड़ी संजीदगी से फिल्म के रुपहले पर्दे पर दिखाने में पीछे नहीं रही हैं।
‘मेलाण्मै’ फिल्म में निम्न जाति का एक नवयुवक जिंदगी में तमाम संकटों से गुजरता हुआ ऊँचे ओहदे पर पहुँच जाता तो है, उच्च पदवी को हासिल कर लेता है, मगर लोगों के तानों से अपने को बचा नहीं पाता है। ‘ये तो दलित है, न जात का असर तो होगा ही न!’ ऐसे तीखे व्यंग्यों का सामना उसे करना पड़ता है। काँटों की सेज पर चलकर पाँव को रक्त में डुबो तो लेता है लेकिन हार नहीं मानता है। अन्त तक सच्चाई के लिए लड़ता रहता है। यह पूर्वाग्रह सवर्ण जातियों में रहा है कि दलित आरक्षण के द्वार से सरकारी सेवाओं में प्रवेश तो कर लेते हैं लेकिन काम तो उन्हें कुछ आता नहीं।
तंगर बच्चान द्वारा निर्देशित ‘पल्लिक्कूडम’ दिखाती है कि दलितों एवं निम्न वर्ग के बच्चों को किस तरह विद्यालय में अपमानित किया जाता था, किस तरह उन्हें अलग बिठाया जाता था एवं किस तरह उन्हें मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया जाता था और आज भी इस स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। ‘पेरियार’ फिल्म क्रांतिकारी पेरियार की जीवनी ही है। पेरियार ने समाज की जातिवादी मानसिकता को बदलने में एक अहम क्रांतिकारी भूमिका को निभाई थी जिसके कारण समाज में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। इन्होंने दलितों-अछूतों के उत्थान में अपना अमूल्य एवं महनीय योगदान दिया और यह फिल्म उनके इस योगदान को ही हमारे समक्ष पुन: लाने का प्रयास है।
‘अळगी’ फिल्ममें दलित जाति की महिला डॉक्टर बन जाती है लेकिन कोई भी उसके पास ईलाज के लिए नहीं जाता है। डॉक्टरी के पेशे में अपनी महारत के बावजूद उसे उच्च जातियों के रोगियों की रोगी मानसिकता का सामना करना पड़ता है और इस बीमार मानसिकता का भला इस चिकित्सिका के पास क्या इलाज हो सकता है! इसी तरह की एक अन्य फिल्म ‘मक्कल तिलगम’ में एम.जी. आर. ने किसानों, मछुवारों, मज़दूरों तथा निम्न जातियों के लोगों की दयनीय स्थिति एवं जमींनदारों द्वारा शोषण आदि को खुलकर प्रकट किया है। इन फिल्मों में तमिलभाषी समाज की जातिवादी मानसिकता के कई रूप सामने आते हैं, जिनसे वहाँ के दलितों को नित्य दो-चार होना पड़ता है।
(संपर्क - एन.ललिता, सूलूर-कोयम्बत्तूर (तमिलनाडू), ईमेल - lalithahindi@gmail.com )
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मलयाली सिनेमा : पददलितों की कलात्मक (अ)प्रस्तुति
प्रमीला के. पी.
विशेष तरह के अकादमिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनों तथा राजनीतिक धाराओं के निर्धारण के समकालीन समय के पहले भी दलित और आदिवासियों का अंकन फिल्मों में होता रहा था। यह सही है कि चकाचौंधभरे व्यवसाय और पूंजी नियंत्रित बनावटी निर्मिति होने के कारण फिल्मकला कई नकारात्मक बातों से हमेशा नियंत्रित रही, कई बार वह नकारात्मक बातों का मण्डप होती रही और जनता को ठगती रही। सार्वजनिक एवं समाजबद्ध होने के कारण उनपर सरकारी शर्त, माने सेंसरशिप भी लागू है। विचारणीय बात यह भी है कि लोकतांत्रिक समुदायबद्धता के लिए दिशानिर्देश देने से बढ़कर सरकार एवं संबद्ध लोग फिल्मों पर सीमित दृष्टिकोण ही डालते हैं, जो प्रतिरोध और विरोध करने योग्य है। फिल्म की कलात्मक महत्ता यह है कि वह कई कलाओं का सम्मेलन स्थान है, जिसमें दूसरी किसी एक कलात्मक विधा से बढ़कर समग्रता है। दृश्य एवं श्रव्य कलाओं के मिलन से दर्शक या प्रेक्षक को अपने साथ बहा ले जाने की स्वायत्तता फिल्म कला में है।
मलयाली सिनेमा की शुरूआत की पहली अवाक् फिल्म ‘विगतकुमारन-के सी डॉनिएल’ की अभिनेत्री पी के रोसी दलित कन्या थी। कलात्मक दखल के आरोप में उसकी झोंपडी जलाई गई और वह गुमनाम रह गई। पर यह जोड़ना होगा कि इस तरह से शुरू मलयालम फिल्मों की परंपरा पददलित जीवन और कलात्मक दखल का भी वहन करती है, हालांकि वह सदैव जरूरी ढंग में था, यह नहीं कहा जा सकता है। आरंभकाल से ही मलयाली फिल्मों में पददलित, उपेक्षित और आर्त आत्माओं की प्रस्तुति होती रही है जो केरल की विशेष सामाजार्थिक जीवन की समन्वयात्मक दिशा सूचित करती है। इतिहास यही बताता है कि अधुनातन समय तक उनकी यह कलागत पेशकश न्यूनाधिक बरकरार है। दलित व आदिवासी विमर्श और जातीय चेतना की अलग राजनीतिक धारा के रूपायन के पहले भी इनके जीवन की विविध झांकियाँ मलयाली फिल्मों में प्रस्तुत होती रही हैं।
वामपंथी रूझानों पर केन्द्रित केरल प्रदेशी जनमानसिकता के सृजन, वहन एवं परिपाक में यहाँ का नाटक, रंगमंच तथा फिल्मकला भी विचारनीय है। देशज या प्रान्तीय मानसिकता को फलीभूत करने में केरलीय फिल्मों का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसका स्वरूप धर्मनिरपेक्षता को, कम से कम दिखावट के लिए सम्मान देता है। साथ में सामुदायिक संसक्तियाँ, जाति-धर्म समन्वय, सार्वजनिक मानवीयता आदि तत्व मलयाली फिल्मों में अनुपेक्षणीय स्थान में मिलते हैं। साहित्यिक रचना यानि लिखी जानेवाली कहानियों को आँखों देखी बनाने का प्रयास पहले चरण से मलयाली फिल्मों में होता रहा। प्रमेय तथा अवतरण में आधुनिक मानवीयता की माँग वह हमेशा आगे रखती है। जाति-धर्म पर ही नहीं, सभी बातों पर प्रगतिशील रहने का सामाजिक दबाव उस पर दिखता है।
केरल प्रदेश की यह खासियत है कि यहाँ यहाँ पर छोटी बातें भी सार्वजनिक विमर्श का ध्यानाकर्षित कर लेती हैं। उन पर बहस, विरोधी प्रदर्शन व हड़तालें होती हैं। इस सामाजिक जागरूकता के बावजूद लोकमानसिकता के निर्माण, शोषण और अनुकूलन में काम करनेवाली फिल्मों की फेहरिश्त लंबी है। महाजनी परंपरा और सामंती मनोवृत्तियों के साथ पददलित जीवन और आकांक्षाओं का मिलन आरंभकालीन मलयाली फिल्मों में ही होने लगता है। वे यद्यपि वामपंथी रंगकला से प्रभावित तथा जीवन साहित्य, माने प्रगतिशील रचनाओं से प्रेरित रही थी किंतु यह बताना कठिन है कि इनका सम्मेलन सदैव शंकातीत और समन्वयात्मक है। पर रामु कर्याट्, पी भास्करन, के एस सेतुमाधवन जैसों की फिल्में साधारण तबके के जीवन को छूनेवाली थी, कई बार वे पददलित जीवन पर ही होती थीं।
(संपर्क – प्रो. प्रमीला के पी, कालाडी (केरल), ईमेल –prameelakp2011@gmail.com)
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‘कोर्ट’ : भारतीय न्यायिक प्रक्रिया और सांस्कृतिक प्रतिरोध
बलजीत कौर ‘अमहर्ष’
एक साथ (मूलतः मराठी) चार भाषाओं, यथा - मराठी, हिन्दी, गुजराती और अँग्रेज़ी में निर्मित चैतन्य तम्हाणे निर्देशित फिल्म ‘कोर्ट’ हमारे असल जननायकों के जीवन पर एक व्यंग्य है। ‘लोक’ पर ‘तन्त्र’ के हावी होने की प्रक्रिया पर आधारित यह फिल्म बताती है कि हमारी व्यवस्था को अब चिन्तनशील जनता की, विशेषकर कवियों, लेखकों सरीखे बुद्धिजीवियों की कोई जरूरत नहीं रह गयी है। एक सामाजिक कार्यकर्ता नारायण की मौत पर आधारित इस फिल्म में अनवरत एक अदालती कार्यवाही जारी है। निचली अदालतों में जारी वकीलों के उलटे-सीधे दाँव-पेंचों में पूरा शहर उलझा हुआ है। व्यवस्था किस तरह आम जनता के सपनों को तार-तार करती है, उसका कच्चा-चिट्ठा फिल्म में मौजूद है। फिल्म आजादी के छः दशकों बाद के भारतीय समाज की उस परिपक्व छवि को सामने लाती है, जिसमें आदर्श नाम का कोई विचार शेष नहीं बचा है। फिल्म व्यवस्था के प्रति आमजन के विश्वास को और व्यवस्था द्वारा सामूहिक रूप से उस विश्वास को खण्डित करती अमानवीय प्रक्रिया को दिखाती है। असल में जिस तरह से भारतीय न्यायिक व्यवस्था काम करती है, उसमें आमजन यह समझ ही नहीं पाता कि असल दोषी कौन है? नतीजनतन वह खुद ही को दोषी मानने लगता है।
हाशिए की अस्मिताओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत एक 65 वर्षीय बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता नारायण काम्बले अपने साथियों के साथ आमजन, विशेषकर हाशिए की अस्मिताओं के खिलाफ होने वाली अमानवीय घटनाओं (जैसे - बड़गाँव हत्याकांड) पर अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं। वे लोगों को ऐसे अन्यायपूर्ण कृत्यों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करते हैं। “सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है यह सूरत बदलनी चाहिए”-सरीखी दुश्यन्त कुमार की गज़लों की थीम पर आधारित उनके क्रान्तिकारी गीतों का आमजन के हृदय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वे सामूहिक रूप से एकजुट होकर व्यवस्था के खिलाफ अपना सामूहिक प्रतिरोध दर्ज करते हैं। इससे इन घटनाओं को अंजाम देने वाले असल गुनाहगार तितमिला उठते हैं और वे उनके दमन के लिए सरकारी तन्त्र का अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह फिल्म भारतीय जाति/वर्गीयव्यवस्था के आधार और अधिरचना के स्वरूप को परत-दर-परत उद्घाटित करती है।
वास्तविक जीवन में न्यायव्यवस्था किस तरह न्याय का गला घौंटने का काम करती है, फिल्म उसे दृश्य-दर-दृश्य रेखांकित करती है। हमारी व्यवस्था हाशिए की अस्मिताओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत कार्यकर्ताओं के साथ जिस तरह का व्यवहार करती है, उससे नयी पीढी का मनोबल प्रभावित होता है, उनकी हिम्मत जवाब देने लगती है। चूँकि आमजन नारायण काम्बले के गीतों से गहरे प्रभावित हैं, इसलिए पुलिस उन्हें किसी और अपराध के लिए नहीं बल्कि उन्हीं के गीतों के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के तहत हिरासत में ले लेती हैं। उन पर इल्जाम यह है कि उनके गीतों से प्रभावित हो शीतलादेवी झौपड़पट्टी के एक शख्स ने आत्महत्या कर ली है। सफाई कामगारों के जीवन को समेटती इस फिल्म में उनके अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने वाली किसी भी सामूहिक जलसे पर पुलिसिया हरकतों को बड़ी सूक्ष्मता से दिखाया गया है। फिल्म के एक दृश्य में काम्बले साहब मंच पर गीत गा रहे हैं और पुलिस उस जलसे में एकत्र लोगों को चिह्नने में जुटी है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो भ्रष्ट नौकरशाही द्वारा लोकतन्त्र का मखौल उड़ाते प्रतीत होते हैं, और जो आज आम भारतीय के जीवन का कड़वा सच बन गया है।
(सम्पर्क - बलजीत कौर ‘अमहर्ष’, दिल्ली, ईमेल- baljit70s@gmail.com)
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उड़िया फिल्म ‘जीअंता भूत’ में डोंगरिया कोंध आदिवासी
भूषण पुआला
सिनेमा या चलचित्र आज के परिप्रेक्ष्य में केवल मनोरंजन एवं व्यवसाय के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक गतिविधियों का हल ढूंढने का भी महत्त्वपूर्ण साधन है। सिनेमा जीवन है, जीवन ही सिनेमा। फिल्म जगत में आदिवासियों की अस्मिता को सामने लाने वाली फिल्में बहुत कम हैं। गैर आदिवासी द्वारा बनाई गई फिल्म में आदिवासियों की प्रकृत्ति अमूर्त प्रतीत होती है। भारतीय सिनेमा में आदिवासियों का यथार्थ चित्रण उजागर करने की कम ही कोशिशें की गई हैं। उड़िया भाषा में बनी फिल्म ‘जीअंता भूत’ (जिंदा भूत - the living ghost) इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इस फिल्म की वास्तविक कहानी ओडिशा के रायगडा एवं कालाहांडी जिले में स्थित नियमगिरि पहाड़ पर निवास करने वाले डोंगरिया कोंध आदिवासियों पर केंद्रित है।
फिल्म का मुख्य उद्देश्य यह है कि नियमगिरि पहाड़ में बॉक्साट एवं एलुमिनियम अधिक मात्रा में पाया जाता है। लिहाजा केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार की अनुमति से नियमगिरि पहाड़ पर एक गैर सरकारी बृहत कंपनी पास्को एलुमिनियम संयंत्र स्थापित करने की योजना बना रही थी लेकिन असफल रही। इस फिल्म का निर्देशन प्रशांत नंदा ने किया है। उन्होंने इस फिल्म के माध्यम से नियमगिरि अंचल में रहने वाले डोंगरिया कोंध आदिवासियों की समस्याओं पर प्रकाश डॉला है। ‘जीअंता भूत’ फिल्म के जरिए आदिवासियों की विविध समस्याओं को चित्रित करने की कोशिश की गई है जैसे औद्योगिकीकरण की समस्याएँ, सामाजिक समस्याएँ, आर्थिक समस्याएँ आदि।
फिल्म में अभिनेता बाँगुरू (मनोज मिश्र) और अभिनेत्री सिंगारी (रिमझिम) के विवाह को दिखाया है, जो आदिवासी समाज में होने वाले पंरपरागत अपहरण विवाह प्रथा के प्रचलन का ही उदाहरण है। फिल्म का नायक बांगुरू नायिका सिंगारि को नृत्य प्रदर्शन करते समय उठा कर ले जाता है। तत्पश्चात उनकी पंरपराओं के अनुसार नायक को वधूमूल्य चुकाना पड़ता है। वह मूल्य नायक की आर्थिक स्थिति से अधिक है, इसलिए नायक वधूमूल्य चुकाने में अक्षम है। इस मूल्य की पूर्ति के लिए वह गाँव के संदेश वाहक डोम के सहारे साहूकार से कर्ज लेता है। इस फिल्म के माध्यम से आदिवासी समाज की आर्थिक समस्या को उठाया गया है और अपनी इस आर्थिक बदहाली पर आदिवासियों में आक्रोश का भाव भी दिखाया गया है। जहाँ पर आदिवासी अन्याय के खिलाफ आवाज उठाता है वहाँ पर तथाकथित वर्चस्ववादी लोग झूठे मामले अदालत में दर्ज करवाते हैं और आदिवासियों को जेल की सलाखों के पीछे बंद करवा देते हैं।
‘जीअंता भूत’ फिल्म में आदिवासी स्त्रियों की अस्मिता एवं शोषण का मुद्दा भी है। इस फिल्म में आदिवासी नायिका सिंगारी अपने प्रेमी बांगुरू को जेल से मुक्ति दिलाने के लिए प्रयास करती है। सिंगारी कोर्ट में जाती है लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था में गैर आदिवासी या सत्तादारी लोग ही होते हैं। अतः आदिवासियों की पीड़ा को सुननेवाला, समझनेवाला कोई नहीं होता। सिंगारी को अपने प्रेमी की मुक्ती के लिए साहूकारों, वकील, पुलिस आधिकिरयों से शारीरिक शोषण का शिकार होना पड़ता है ताकि उसके प्रेमी को मुक्ति मिल सकें। आदिवासी समाज की नारी अनपढ़ होने के कारण आर्थिक, समाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में कमजोर है। भूमंडलीकरण के दौर में इस फिल्म से स्पष्ट है कि उड़िया सिनेमा ने डोंगरिया कोंध आदिवासियों की सच्चाइयों को और उनसे जुड़ी समस्याओं को व्यक्त करने कोशिश की है।
(संपर्क - भूषण पुआला, पुदुचेरी, ईमेल - bhusana.puala@gmail.com )
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मुख्यधारा के तमिल सिनेमा में अनचिह्नित दलित अस्मिता
मधुमथि पी.
(अनुवाद – प्रमोद मीणा)
दलितों के खिलाफ होने वाली उत्पीड़न की दर्ज घटनाओं की दृष्टि से तमिलनाडु पूरे देशभर में तृतीय स्थान पर आता है। बड़ी अजीब बात है कि व्यवसाय की दृष्टि से दक्षिण एशिया के बृहद्तम फिल्म उद्योग में परिगणित होने वाला तमिल सिनेमा दलित आवाज़ को लेकर या तो उदासीन है या विभिन्न कारणों से इस विषय को अपने हाथों में लेने से संकोच करता है। अधिकांश मामलों में किसी भी दलित विषय को फिल्म में उठाने के बहुत ही कम प्रयास प्रयास मिलते हैं। अगर प्रयास हुए भी हैं तो वहाँ दलित विषय के लिए सुदृढ़ पटकथा की अपेक्षा कमजोर कथा को ही आधार बनाया गया है। उदाहरणस्वरूप यहाँ की फिल्मों में कुछ दलित पात्र आये तो हैं लेकिन उनका इस्तेमाल कुछ रूढ़ चरित्रों को ही पुष्ट करने या कुछ नये रूढ़ चरित्र गढ़ने में किया गया है। हालांकि कुछ ऐसी तमिल फिल्में भी आई जो चेतनासम्पन्न दलितों को सामने रखती हैं, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया और आलोचकों द्वारा उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी गयी।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि मुख्यधारा का तमिल सिनेमा जब भी दलित पात्रों को प्रस्तुत करता है, प्राय: उनमें दलित राजनीति की चेतना या आक्रोश नहीं दिखाता। इस प्रकार तमिल सिनेमा का दलित प्रतिनिधान व्यापक तौर पर दलित यथार्थ को विरूपित करने का प्रयास करता है क्योंकि तमिल सिनेमा सचेतन रूप से व्यावहारिक धरातल पर दलितों की समस्याओं को केंद्र में लाने से बचता है। दूसरी ओर वहीं वह यह दिखाने का प्रयास भी करता है कि ये पात्र सामूहिक राजनीति के माध्यम से किसी बड़े सामाजिक बदलाव को लाने में अक्षम होते हैं।
आमतौर तमिल फिल्म निर्माता यह मानकर चलते हैं कि तमिलनाडु में दलित अस्मिता जैसी कोई चीज है ही नही! इसीलिए वे तमिलनाडु में दिनोंदिन उग्र हो रहे दलित संघर्ष और आंदोलन को कुचलने के लिए वे अपनी फिल्मों के माध्यम से ब्राह्मणवादी दुष्प्रचार करते हैं! एक तरफ नकार और दूसरी तरफ दुष्प्रचार। कहने को तो वे नागर गैरराजनीतिक दर्शकों के बिदकने से भय खाते हैं, लेकिन हकीकत तमिल समाज में व्याप्त जातिवादी मानसिकता है। बहुसंख्यक तमिल फिल्में यही बताती है कि सिनेमा वह नहीं दिखाता जो दर्शक चाहते हैं अपितु यह एक मानसिकता बदलने वाली कला भी है जो अपने दर्शकों को बताती है कि उन्हें क्या देखने की इच्छा पालनी चाहिए।
(संपर्क – डॉ. मधुमथि पी., वेल्लोर (तमिलनाडु), चलभाष – 9677078124)
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‘फैंड्री’ : प्रेम बनाम विमर्श
सतीश पावडे
प्रेमकहानी भारतीय फिल्मों की एक अनिवार्य इकाई होने के साथ सच्चाई भी होती है। इसलिए ‘दलित विमर्श’ पर बनी फिल्मों में ‘प्रेमकहानी’ अपना वजूद कायम रखने में सफल रही है। 1932 में पहली बार इस विषय पर बनी ‘चंडीदास’ से लेकर ‘अछूत कन्या’ (1936), ‘अछूत’ (1940), ‘सुजाता’ (1959), ‘फूल और पत्थर’ (1966) और ‘जाग उठा इंसान’ (1984) आदि फिल्मों के नाम इस संदर्भ में गिनाये जा सकते हैं। आरंभ में इस अंतर्जातीय प्रेम में नायक उच्चजाति का और नायिका निम्नजाति की हुआ करती थी, जैसे - ‘अछूत कन्या’ और ‘सुजाता’। आगे चलकर ‘फूल और पत्थर’ और ‘जाग उठा इंसान’ में यह रूढ़ी टूटी और इस रूढि का टूटना दलित-सवर्ण रिश्तों में एक आगे का कदम था, किंतु यह परम्परा बहुत दूर तक न जा सकी।
आगे चलकर हिंदी की प्रेम फिल्मों में जाति-धर्म के बजाए आगे चलकर अमीरी-गरीबी का फॉर्मूला खूब चला और इस फॉर्मूले ने हिंदी फिल्म उद्योग पर जैसे कब्जा कर लिया। जाति-धर्म संप्रदाय पर आधारित प्रेमकहानी पर सार्थक फिल्में बहुत कम बनी। क्षेत्रीय फिल्मों में भी इस पर उल्लेखनीय पहल नहीं दिखाई देती है। हाल ही में मराठी फिल्मकार नागनाथ मंजुले निर्देशित फिल्म ‘फैंड्री’ ने दलित सिनेमा को एक नया और देशज चेहरा प्रदान किया है। यह फिल्म न तो पारंपरिक ढंग की प्रेमकहानी है और न पारंपरिक ढंग की एकतरफा अपरिपक्व किशोर प्रेमकहानी।
‘फैंड्री’ नाम की की इस प्रेमकहानी के बहाने निर्देशक ने दलित किशोरवयी युवा के मन में छिपे कामभाव और आगे बढ़ने के स्वप्न का तनाव परदे पर उतारा है। प्रेमकहानी का एक नया यथार्थ यहाँ हमे देखने को मिलता है। जाति की विजय और जाति का वर्चस्व इंसानियत को कैसे लील लेता है, ‘फैंड्री’ स्वाभाविक ढंग से आपको यह सब बताती है। आधुनिक समाजव्यवस्था में व्याप्त ‘जातिव्यवस्था’ का घिनौना स्वरुप यहाँ देखने को मिलता है। असल में यह एक नये प्रकार की फिल्म है, जो बगैर आक्रोश, चीख और चिल्लाहट के बहुत कुछ कह जाती है। उसका यथार्थ मन में गहरी वेदना को जन्म देती है। एक छोटी सी अधूरी प्रेमकहानी के बहाने ‘फैंड्री’ आज का सच बड़े प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करती है। भारतीय फिल्मों के इतिहास में यह दलित विमर्श हेतु कई नयी संभावनाओं को सर्जनात्मक ढंग से सामने लाती है, साथ ही एक ‘नव यथार्थ’ को भूमंडलीकरण और उत्तरआधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करती है।
(संपर्क - डॉ. सतीश पावडे, वर्धा (महाराष्ट्र), ईमेल - satishpawade@yahoo.co.in)
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बाँग्ला फिल्म ‘समाज केन बदलिया दाओ’ में निम्नवर्ग
सिराजुल हक
बाँग्ला फिल्म ‘समाज को बदल दो’ दिखाती है कि दलित और निम्न वर्गीय लोगों का किस प्रकार और कैसे शोषण किया जाता है? कैसे उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है? निर्देशक ने उस गाँव या समाज को मुख्य केन्द्रबिन्दु माना है, जिसके पास रहने के लिए न आश्रयस्थल है, न खाने के लिए अन्न और न पहनने के लिए वस्त्र आदि। इस प्रकार फिल्म में एक ओर दलितवर्ग के लोग हैं जो किसी तरह अपनी रोजी-रोटी कमाकर कुछ खा-पीकर अपनी जिंदगी गुजारते हैं, लेकिन उसी समाज में दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जिनको सुविधावादी और सामंतवादी कहा जाता है और इन सामंतवादीवादी लोगों का काम ही दलितवर्ग का शोषण रहा है।
सामंतवादी वर्ग के पास घर, अन्न और वस्त्र होते हुए भी ये लोग निम्न-दलित वर्ग के लोगों के ऊपर जबरदस्ती चंदा या कर डाल देते हैं। जब वे चन्दा या कर नहीं दे पाते तब उस सामंतवादी उच्च वर्ग के लोग निम्न-दलित वर्ग के लोगों पर तरह-तरह अत्याचार करते हैं। ये सामंतवादी या उच्चवर्ग के लोग निम्न-दलित नारियों को भी नहीं छोड़ते। निम्न-दलित नारियों को उच्चवर्ग भोग की वस्तु समझता है। अपनी कठपुतली बनाना चाहता है। वे उनके साथ बलात्कार से लेकर बवपूर्वक नारी-निर्यातन का अमानवीय कार्य भी करते हैं।
लेकिन दिक्कत यह है कि दलित चेतना के अभाव में दलित समाज में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो अपने समाज को सामंतवादी या उच्चवर्ग के लोगों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर सके। फिर भी जब अत्याचार की पराकाष्टा हो जाती है तब शोषित समाज का एक नवयुवक पहल करके अपने लोगों के न्याय के लिए लड़ता है। फिल्म मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा की तर्ज पर ही अपनी कहानी बुनती है किंतु दलित के उत्पीड़न और संघर्ष को दिखाने के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(संपर्क – सिराजुल हक, पुदुच्चेरी- 605014, ईमेल - shirazulhoque354@gmail.com )
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तमिल फिल्म ‘कुम्की’ में चित्रित आदिवासी जीवन
सी. जय शंकर बाबु
21 दिसंबर, 2012 को प्रदर्शित तेलुगु तथा तमिल फिल्म ‘कुम्की’ (तेलुगु में ‘गजराजु’ के शीर्षक से पुनःनिर्मित)आदिवासी समाज के चित्रण का एक अद्यतन उदाहरण है। व्यापारिक दृष्टि से इस फिल्म की कथा भले ही प्रेम-प्रसंग पर आधारित हो, परोक्ष रूप से आदिवासी सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, परिवेश, अर्थ-तंत्र, पारिस्थितिक व अन्य समस्याओं के चित्रण की एक अनूठी पहल के रूप में नज़र आती है।
तमिल भाषा में ‘कुम्की’ शब्द का प्रयोग उन प्रशिक्षित हाथियों के लिए किया जाता है, जिन्हें मानव बस्तियों में घुसकर हडकंप मचानेवाली, खेतियों पर कब्जा करनेवाली जंगली हाथियों को पुनः जंगल में भगाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। इस फिल्म का नामकरण ‘कुम्की’ इस दृष्टि से सार्थक है कि इसमें आदिवासी बस्तियों में जंगली हाथी द्वारा अक्सर नरसंहार की समस्या से मुक्ति के लिए एक प्रशिक्षित लड़ाकू हाथी (कुम्की) को काम में लाया जाता है। इसी समस्या के बहाने इस फिल्म के माध्यम से आदिवासी समाज का जो चित्रण हुआ है, वह दर्शकों के समक्ष आदिवासी सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के अलावा उनके आर्थिक-तंत्र के लिए आधारभूत जल-ज़मीन-जंगल के साथ अविच्छिन्न संबंध को छिन्नभिन्न करने के शासक-वर्ग के प्रयास को नकारने आदि का चित्रण प्रस्तुत कर देता है।
आदिवासी समाज की आत्म-निर्भरता और जंगल से जुड़ी हुई अपनी आवासीय बस्तियाँ न छोड़ने का दृढ़ संकल्प, अपनी समस्याओं के लिए स्वयं समाधान निकालने की जिजिविषा आदि पहलुओं का चित्रण इस फिल्म की विशेषताएँ हैं जिसमें उनके सांस्कृतिक, आर्थिक आधारों का संज्ञान भी हमें मिल जाता है। इस फिल्म में चित्रित आदिवासी समाज के विभिन्न पहलुओं के माध्यम से आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक तंत्र के आधारों का तार्किक विश्लेषण किया गया है।
(संपर्क - डॉ. सी. जय शंकर बाबु, पुदुच्चेरी – 605 014, ईमेल – yugmanas@gmail.com )
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मराठी प्रेम कहानियों में दलित विमर्श
सोनकांबळे पिराजी मनोहर
मराठी में दलित और आदिवासी जीवन को कई फिल्में बनी हैं। घुमंतू आदिवासी समुदाय पर बनी ‘डोंगरची मैना’ फिल्म ‘माकडिचा माळ’ उपन्यास पर आधारित है। ‘वैजयंता’ उपन्यास पर इसी नाम से बनी फिल्म कोलाठी समाज की उन महिलाओं पर आधारित है जो अपनी कला का सार्वजनिक प्रदर्शन कर अपना जीवययापन करती है लेकिन पितृसत्तावादी समाजव्यवस्था उनके शोषण में भी पीछे नहीं रहती। फिल्म में इस समुदाय की दलित महिलाओं की कला और उनके उत्पीड़न को दिखाया गया है। आज के दौर में भी मराठी सिनेमा जगत में दलित और आदिवासी जीवन को लेकर फिल्में निरंतर बनाई जा रही हैं। इनमें देवदासी प्रथा पर आधारित फिल्म ‘जोगवा’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
नागराज मंजूले निर्देशित फिल्म ‘फैंड्री’ (2015) में एक दलित युवक और सवर्ण युवती की एकतरफा प्रेमकहानी को दिखाया गया है। साथ ही दिखाया गया है उस पूर्वग्रही समाजव्यवस्था को जो दलितों के साथ क्रूर बर्ताव करती है और उन्हें हर तरह से जलील करती रहती है। इस सबकी प्रतिक्रिया में एक दलित किशोर के मन में परिवर्तन की भावना किस तरह निर्मित होती है, इसे फिल्म में देखना सुखद अनुभव है। इसी तरह ‘टाईमपास’ फिल्म में भी एक नाकाम प्रेमकहानी को दिखाया गया गया है। इस फिल्म में लड़की के पिता लड़के को उसकी जाति और गरीबी के कारण नकार देते हैं। इसप्रकार की मराठी फिल्में जातीय विषमता पर टिकी भारतीय सामाजिक परिस्थितियों से हमें रूबरू कराती हैं।
इसी क्रम में सतिश मोतलिंग निर्देशित और सेजल शिंदे निर्मित मराठी फिल्म ‘प्रियतमा’ (2014) अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस प्रेमकहानी का आधार महाराष्ट्र के सतारा जिले में 1955 के आसपास घटित एक घटना मानी जाती है। फिल्म का नायक परशा (सिद्धार्थ जाधव) दलित समाज (पोतराज) से सम्बद्ध रखता है तो नायिका गौरी (गिरजा जोशी) गाँव के सवर्ण मुखिया की बेटी है। तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में समाज ने इनके प्रेम और विवाह को मान्यता नहीं दी थी तो इन दोनों ने अपने प्रेम का सम्मान कर एक-दूजे के हो जाने के बाद हँसते-हँसते जान दे दी। इस कहानी को कोई दंतकथा कहते हैं तो कोई इसे कोरा कल्पना-विलास मानते हैं। लैला-मजनू, हीर-रांझा और सोनी-नेहवाल की प्रेमकहानियों की तरह परशा और गौरी की प्रेमकहानी अपने समय की अमर प्रेमकहानी थी। लेकिन लोगों ने इसे एक पोतराज के जीवन की कहानी मान अनवरत नजरअंदाज किया। इस कहानी पर फिल्म निर्माण के बाद न केवल मराठी समाज बल्कि पूरे देश का ध्यान दलित पोतराज नायक और सवर्ण नायिका के प्रेम की ओर गया। ‘प्रियतमा’ एक विस्मृत कर दी गई दलित प्रेमकहानी को केंद्र में लाने का महत्ती कार्य करती है। ऐसा करते हुए यह फिल्म जातीय गैरबराबरी के प्रतिरोध की कहानी बयां करती है।
(संपर्क - सोनकांबळे पिराजी मनोहर, हैदराबाद, चलभाष – 9490683225)
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