(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
अपनी माटी विशेष:भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श
सम्पादन:पुखराज जांगिड़ और प्रमोद मीणा , चित्रांकन:डिम्पल चंडात
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‘देशज सिनेमा की तलाश...’ (सम्पादकीय)
(पुखराज जाँगिड़, प्रमोद मीणा)
सन् 2012-13 में हिंदी और
भारतीय सिनेमा ने अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे किये। भारतीय सिनेमा ने अपनी यह
यात्रा दादासाहब रामचन्द्र तोर्णे द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म ‘पुण्डलिक’ (18 मई
1912, कोरोनेशन
सिनेमैटोग्राफ, बम्बई) व दादासाहब धुण्डीराज
गोविन्द फालके द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (3 मई 1913, कोरोनेशन
सिनेमैटोग्राफ, बम्बई) के प्रदर्शन से आरंभ
हुई। इन फिल्मों के प्रदर्शन ने देश को वह राह दिखलाई जिस पर चलकर यहाँ विश्व के
सबसे बड़े फिल्म उद्योग की नींव पड़ी। इस शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में सिनेमा
के विभिन्न विषयों के संदर्भ में कुछ संगोष्ठियों और कार्यशालाओं का आयोजन भी
किया गया किंतु हिंदी सिनेमा के दलित-आदिवासी पहलू को उठाते हुए एक भी आयोजन हमारी निगाह
में नहीं आता। हिंदी सिनेमा के अकादमिक जगत और बड़े पर्दे पर छाये इस सन्नाटे को
तोड़ने के लिए हिंदी विभाग, पांडिचेरी
विश्वविद्यालय ने भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसन्धान परिषद् के सहयोग से 5 और 6 अक्टूबर, 2015 को ‘हिंदी सिनेमा : दलित आदिवासी विमर्श’ विषय पर दो दिवसीय
राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया, जिसने हिंदी और भारतीय सिनेमा के दलित-आदिवासी परिप्रेक्ष्य
की ओर अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की।
दलित और आदिवासी विमर्श समकालीन हिंदी और भारतीय
भाषाओं में दिनोंदिन अपनी जगह पुख्ता करता जा रहा है, लेकिन साहित्य में
दलित की उभरती आवाज़ के बाबजूद मुख्यधारा के बॉलीवुड सिनेमा में दलित आदिवासी
नायकों और नायिकाओं के चरित्र सिरे से नदारद मिलते हैं। न सिर्फ सिनेमाई पात्रों
के स्तर पर अपितु अभिनेताओं के संदर्भ में भी स्थिति की प्रतिकूलता स्पष्ट देखी
जा सकती है। जो कुछ इक्का-दुक्का दलित आदिवासी चरित्र हिंदी सिनेमा में आये
भी थे, तो
उनमें आपको दलित-आदिवासी
चेतना की ऊर्जस्विता नहीं मिलती। किंतु हाल के कुछ वर्षों में जैसे-जैसे दलित-पिछड़ी जातियों का
राजनीतिक सशक्तीकरण हुआ है, जैसे-जैसे वे पढ़ने-लिखने लगे हैं, वैसे-वैसे हिंदी समेत अन्य
भारतीय भाषाओं के सिनेमा में ब्राह्मणवादी उत्पीड़न और आंतरिक उपनिवेशवाद के
विरूद्ध प्रतिरोध की खुदबुदाहट सुनाई देने लगी है। दबे-सहमे कुचले दलित-आदिवासी अब उठने लगे
हैं, उनमें
आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कोपलें फूटने लगी हैं। हाँ, द्रविड़ भाषाओं के
सिनेमा और आदिवासी भाषाओं के सिनेमा की तुलना में आज भी हिंदी सिनेमा में उच्चजातीय
वर्चस्व साफ देखा जा सकता है। इस संदर्भ में हालिया प्रकाशित ‘द हिंदू’ का सर्वेक्षण ध्यातव्य
है। वास्तव में स्वाधीनता और लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी राज्य की पूरी
मशीनरी और ढाँचे पर कल की सामंती और आज की पूँजीवादी शक्तियों का कब्जा बदस्तूर
जारी है, इसलिए
कृषि भूमि, उद्योग, आर्थिक संसाधनों और
शक्त्िा के तमाम स्रोतों के साथ-साथ कला, शिक्षा और संस्कृति पर भी उच्चजातियों और उच्चवर्गों
का नियंत्रण चला आ रहा है। इस पूरे परिदृश्य को आप हिंदी सिनेमा पर लागू कर सकते
हैं, लेकिन
इसके लिए आपको सिनेमा के बाज़ार की भूमिका समझनी होगी जो उभरते हुए दलित-आदिवासी सिनेमा के
मार्ग में दीवार बनकर खड़ा है।
हिंदी सिनेमा में दलित और आदिवासी समाजों के
प्रतिबिंबन और यथार्थ से उसके अंतर्संबंध पर केंद्रित इस प्रयास में दलित और
आदिवासी विमर्शों की हिंदी सिनेमा के संदर्भ में पारस्परिक तुलना अपेक्षित है
ताकि कुछ विद्वानों द्वारा फैलाये जाते अनावश्यक भ्रमों और गलतफहमियों का निवारण
किया जा सके। इसीलिए इसमें सामाजिक-राष्ट्रीय स्तरों पर ज्ञानात्मक प्रदेय के लिए
निम्नांकित बिंदुओं पर गौर करना अपेक्षित है-भारतीय सिनेमा के
रूपहले पर्दे पर दलित-आदिवासी यथार्थ की अनुपस्थिति; तथाकथित उच्च और
दिकू जातियों द्वारा दलित-आदिवासियों का उत्पीड़न; गाँधीवादी दलित उत्थान
और जातीय राजनीति का चक्रव्यूह; आर्थिक विकास की राष्ट्रीय परियोजना में दम तोड़ते
संवैधानिक अधिकार; सर्वहारा
के रूप में दलित-आदिवासी; महानगरीय जीवन में
दलि; आंतरिक
और बाह्य साम्राज्यवाद में पिसते आदिवासी; दलित-आदिवासी स्त्री की त्रासदी; लघु कथा फिल्मों और
दस्तावेजी फिल्मों में दलित-आदिवासी यथार्थ; गैर हिंदी सिनेमा में दलित-आदिवासी; दलित-आदिवासी सिनेमाई
रूपांतरण की समस्याएँ और साम्य-वैषम्य।
प्रमोद मीणा ईमेल pramod.du.raj@gmail.com |
असल में जिस अर्थकेंद्रित भूमंडलीय युग में भारत
सरकार और स्वयं सिनेमा जगत सिनेमा को एक उद्योग मान चुका है, वहाँ सैद्धांतिक तौर
पर हिंदी सिनेमा से किसी प्रकार के मूल्यों की अपेक्षा करना अनुचित है, किंतु बाज़ार की
दृष्टि से देखा जायेतो हिंदी सिनेमा उद्योग उभरती हुई दलित पूँजी की उपेक्षा भी
नहीं कर सकता। अतः एक दलित हिंदी सिनेमा से क्या अपेक्षा करता है, इसे जानना सिनेमा के
बाज़ार के विकास हेतु नितांत जरूरी है। दूसरी ओर एक समतामूलक समाज बनाने का हमारे
संविधान निर्माताओं का स्वप्न यह अपेक्षा रखता है कि हिंदी सिनेमा जैसे बेहद
प्रभावशाली माध्यम को सामंती-जातीय कुसंस्कृति से मुक्त किया जाये। इस दृष्टि से
ऐसे अध्ययनों से हिंदी सिनेमा के दर्शकों का संस्कार होता है कि वे उन फिल्मों को
नकार दें जो आर्थिक-सामाजिक स्तरभेदों को स्वीकृति प्रदान करती हैं।
प्रायः हिंदी सिनेमा के निर्माता-निर्देशकों का सामंतवादी जातीयवर्चस्व को बढ़ावा
देने वाली फिल्मों के बचाव में यही कुतर्क होता है कि दर्शक ऐसी फिल्में देखना
चाहते हैं। अतः दर्शकों में फिल्म देखने का संस्कार जगाना आवश्यक है। अगर हम सब
कुछ बाज़ार के हाथों में छोड़ देंगे, तो समतामूलक लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न कभी पूरा
नहीं हो पायेगा। इसलिए भारतीय समाज के परस्पर संगुंथित वर्ग और वर्ण के अंतर्संबंधों
के परिप्रेक्ष्य में हिंदी सिनेमा का अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
पुखराज जाँगिड़ ईमेल–pukhraj.jnu@gmail.com |
प्रायः वर्ग और वर्ण को एक-दूसरे से जुदा-जुदा देखने की इकहरी
दृष्टि हमारे समाज के जातीय-चरित्र की धुंधली समझ ही दे पाती है, जिसके चलते हम अब तक
जातिभेद की समस्या का कोई मुक्कमल हल नहीं निकाल सके हैं। दूसरी ओर जहाँ तक हिंदी
सिनेमा की बात है, तो
वर्गीय विभाजन को ध्यान में रखकर काफी अध्ययन हुए हैं, लेकिन उनकी अपनी
सीमाएँ हैं, जैसे
-प्रबंधन
जगत हिंदी सिनेमा के विशाल बाज़ार के कारण इस ओर आकृष्ट है, स्त्रीवादियों के
यहाँ दलित चेतना के मापदंडों पर हिंदी सिनेमा को परखने के प्रयास नहीं मिलते। ऐसे
में दलित-आदिवासी
विमर्श के क्षेत्र में हिंदी सिनेमा जैसे अछूते पड़े माध्यम को समझने के लिए
आर्थिक उत्पादन तंत्र पर नियंत्रण और जातीय वैषम्य, दोनों को एक साथ लेकर चलने वाली समावेशी दृष्टि
जरूरी है। इसके साथ-साथ दलित पितृसत्ता के नकारात्मक चरित्र को भी
हिंदी समाज के पितृसत्तावादी खांचे के उपउत्पाद के रूप में रखकर देखने का प्रयास
होना चाहिए। इस छोटे से प्रयास में हमारी कोशिश यही रही है कि हम संक्षेप में इस
मुद्दे पर गम्भीरता से बात करें। अगर पाठकों को यह प्रयास पसन्द आता है तो हमारी
अगली योजना इसे वृहद रूप देने की है। अन्त में ‘अपनी माटी’ का आभार जिन्होंने आप तक पहुँच आसान बनाई। असल में
देशज सिनेमा की तलाश और उसके प्रचार-प्रसार में ऐसी लघुपत्रिकाओं की भूमिका अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
विशेष:अंक में प्रयुक्त कुछ फोटोग्राफ्स फिल्मकार बीजू टोप्पो और सिने जानकार भाई मिहिर पंड्या के क्लिक किए हुए हैं.उन्हें आभार देते हुए आप सभी लेखक साथियों का शुक्रिया।
विशेष:अंक में प्रयुक्त कुछ फोटोग्राफ्स फिल्मकार बीजू टोप्पो और सिने जानकार भाई मिहिर पंड्या के क्लिक किए हुए हैं.उन्हें आभार देते हुए आप सभी लेखक साथियों का शुक्रिया।
अब हमारी बारी है...देशज सिनेमा की तलाश शुरू हो चुकी है बन्धु। बहुत शुक्रिया अपनी बात रखने की जगह के लिए। सादर।
जवाब देंहटाएंआपके आलेख दलित विमर्श पर बहुत ही संक्षिप्त तथा सरकार्वित लगे वर्तमान समय में ऐसे ही आने वाले लोगों की भी आवश्यकता है यदि आपके दूसरे आलेख भी हो तो मुझे बताएं आपका दोस्त रामदयाल कुशवाहा
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