चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-20,(अक्टूबर,2015 )
अपनी माटी विशेष:भारतीय सिनेमा में दलित आदिवासी विमर्श
सम्पादन:पुखराज जांगिड़ और प्रमोद मीणा , चित्रांकन:डिम्पल चंडात
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कैमरे के बारे में तथ्यन यह है कि यह अपने संचालक के वर्ग और जाति विषयक पूर्वाग्रहों को बड़ी आसानी से सूचित कर जाता है। प्रत्येक फ्रेम और एंगल में एक दृष्टि रहती है कि कोई लोगों को तिरस्कार से देख रहा है या उन्हें महिमामंडित करने का प्रयास कर रहा है। उड़ीसा में खनन उद्योगों और सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी क्रूरता के खिलाफ जारी दलितों और आदिवासियों के संघर्ष में जैसे-जैसे कैमरे और अन्य मीडिया साधनों का इस्तेमाल हो रहा है, वैसे-वैसे ये नये संप्रेषण माध्यम उच्चजातीय प्रतिष्ठाओं को नीचे की ओर ठेल रहे हैं, उच्चवर्गीय दृष्टिकोण को सक्रिय रूप से चुनौतियाँ मिल रही हैं और इस वर्चस्ववादी नज़रिये को पलटा जा रहा है। आज जब मुख्यधारा के मीडियाकर्मी नियमगिरी और कलिंग नगर पहुँचते हैं तो वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं लोग स्वयं अपने सेलफोनों के कैमरों से मीडियाकर्मियों की गतिविधियों को फिल्माने लगे हैं।
ये इस फॉरमैट की वजह से ही संभव हुआ कि हमें बीजू टोप्पो के रूप में पहला आदिवासी फिल्मकार मिला। नब्बे के दशक में जिस तेजी से विकास के नाम पर राज्य ने जनविरोधी समझौते, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ किये उसी तेजी के साथ उनका प्रतिरोध भी हुआ। इन लड़ाइयों की कहानियों को मुख्यधारा के सिनेमा में जगह नहीं मिली। वहां अभी भी नयी कहानी का इंतज़ार, रीमेक की उबाऊ पुनरावृत्तियों, विदेशी प्लॉटों को देशी कथाओ में बदलने की जुगत का खेल चल रहा था और नया माध्यम सेटेलाईट टीवी बहुत जल्दी ही सनसनी और उच्चस्तरीय दलाली के संस्थान में तब्दील होता गया। जबकि इसके उलट भारतीय दस्तावेजी सिनेमा में नयी उपलब्ध टेक्नोलॉजी को अपनाकर जनसंघर्षों के साथ जीवंत दोस्ती की शुरुआत हो चुकी थी। फिल्म निर्माण के खर्च के बहुत कम हो जाने के कारण अब आनंद पटवर्धन लम्बी फिल्में बनाने लग गए और उनके अलावा चारों दिशाओं में नये-पुराने फिल्मकार अपने कामों से जनता की लड़ाई को बहुत जरुरी सहयोग दे रहे थे। अब सिनेमा डब्बे में कैद होने के लिए नहीं बल्कि बहुत कम लागत में अपनी असंख्य प्रतियों के साथ नये मोबाइल एलसीडी प्रोजेक्टरों के जरिये गाँव-गाँव अपनी अलख जगा रहा था।
जब कुड़ुख भाषा में ‘सोना गही पिंजरा’ (सोने का पिंजड़ा)बनाया तो मन में कई तरह के सवाल, मुझे बेचैन कर रहे थे। मुझे खुशी है कि आज इस काम में अकेला नहीं हूँ। कैमरे की अहमियत समझने वाले दो और नये दोस्तों के नाम इसमें जुड़ गये है। पहला रंजित उरांव और दूसरा निरंजन कुजूर, साथ ही कुछ और लोग इस क्षेत्र में आने की तैयारी कर रहे हैं। आज हम देख रहे हैं कि नये फिल्मकार अपने समुदाय की विभिन्न समस्याओं, मुद्दों को असरदार तरीके से उठा रहे हैं। क्योंकि उन्हें यह मालूम हो गया है कि - यही एक ऐसा माध्यम है जहाँ कोई भी अपनी बातों को अन्य किसी भी कला-माध्यम के मुकाबले, सबसे प्रभावशाली ढंग से कह पाने में सक्षम है। अतः युवा पीढ़ी कैमरे की इस ताकत को पहचान रही है और समाज के संघर्ष एवं जनसरोकारों के मुद्दे को लगातार जनता के समक्ष लाती जा रही है।
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खण्ड:क
फिल्मकारों की नजर में विमर्शपरक सिनेमा
बीजू टोप्पो : कैमरे की ताकत समझने की कहानी
संजय जोशी : तकनीक के नये दौर में सिनेमा देखने-दिखाने के नये तरीके और उनके मायने
सूर्य शंकर दास : नियमगिरी : मुद्दे को हड़पने की साजिश (अनुवाद – प्रमोद मीणा)
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‘नियमगिरी’ : मुद्दे को हड़पने की साजिश
सूर्य शंकर दास (अनुवाद– प्रमोद मीणा)
उड़ीसा में चल रहे आदिवासियों के नियमगिरी संघर्ष और इस प्रकार के अन्य आंदोलनों को फिल्माने के लिए आने वाले फिल्मकारों और छायाचित्रकारों के साथ विभिन्न मुठभेड़ों से मेरी यही धारणा और मजबूत हुई है कि पर्दे पर किसी आंदोलन के प्रतिनिधान और उसे हड़पने के बीच की विभाजक रेखा बहुत महीन होती है। उड़ीसा में बृहद् खनन परियोजनाओं के विरूद्ध संघर्षरत आदिवासियों और दलितों के आंदोलनों के फिल्मांकन के उद्देश्य से दस साल पहले अपने अंदर विद्यमान उच्च जातीय और मध्यवर्गीय संस्कारों के साथ वहाँ जाते हुए मैं वैयक्तिक स्तर पर असमंजस की स्थिति में था।
मैं इस प्रश्न से जूझ रहा था कि ऊँची जाति और ऊँचे दर्जे के दर्शकों के लिए फिल्म बनाने के पीछे मेरा लक्ष्य क्या है और मुझे यह स्वीकारना पड़ा था कि तब तक उपागमनात्मक स्तर पर मेरे साथ कहीं कुछ गलत अवश्य था। मुझे लगा कि यह उद्धारक होने की ग्रंथी, बुर्जुआ जाबांजी और घनघोर स्वार्थीपन का मादक मिश्रण जैसा था। जो एकमात्र रास्ता मुझे सूझा, वह था अपने द्वारा बनाये गये रूढ़ सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को तिलांजलि देकर एक फिल्मकार के रूप में अपनी भूमिका को पुन: परिभाषित किया जाये। अंतत: मैंने निश्चय किया कि मेरी भूमिका सिर्फ एक संदेशवाहक की होनी चाहिए, न कि महान आख्यानकार की। यह तय किया कि बेहतर होगा कि लोग स्वयं मेरे कैमरे की स्थिति से लेकर फिल्म की वस्तु तक निर्धारित करें।
स्पष्टत: वह समय आ चुका था जब दलित और आदिवासी मेरे जैसे लोगों पर निर्भर रहने की बजाय स्वयं सीधे सरल ढंग से अपनी फिल्में आप बनाने लगे थे। अत: अपनी फिल्में बनाने से ज्यादा मैंने स्वयं को नियमगिरी और कलिंग नगर के उन ऊर्जस्वी दलित और आदिवासी युवाओं की मदद करने पर केंद्रित रखा जो स्वयं अपनी फिल्में बना रहे थे। इस दौरान उड़ीसा के अशांत क्षेत्रों में यात्रा करने वाले असंख्य छायाचित्रकारों, लेखकों और फिल्मकारों के संपर्क से मुझे जो अनुभव हुए, उन्होंने आदिवासियों को लेकर पेशेवर मीडियाकर्मियों के रवैये को लेकर मेरे संदेह और भय को ही पुष्ट किया।
सूर्य शंकर दास मो- 9437500862 ईमेल- dash.suryashankar@gmail.com |
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तकनीक के नये दौर में सिनेमा देखने-दिखाने के नये तरीके और उनके मायने
संजय जोशी
अस्सी के दशक में आनंद पटवर्धन के अलावा पहले से काम कर रही फिल्मकार मीरा दीवान के अलावा फिल्म संस्थान पुणे और स्वयं प्रशिक्षित कुछ और भी युवा फिल्मकार दस्तावेजी फिल्मों के परिदृश्य को समृद्ध करने में जुटे थे। इनमे के पी. ससि, तपन बोस, सुहासिनी मुले, रीना मोहन, रंजन पालित, मंजीरा दत्ता, शशि आनंद, वसुधा जोशी और दीपा धनराज का काम उल्लेखनीय है। इस समूह के फिल्मकारों द्वारा बनाई गयी दो फिल्मों की चर्चा जरुरी है। पहली है 1987 में मंजीरा दत्ता की फिल्म बाबूलाल भुइयां की ‘कुर्बानी’ और दूसरी है वसुधा जोशी और रंजन पालित की फिल्म ‘वायसेस फ्राम बलियापाल’। पहली फिल्म धनबाद के कोयल खदानों में काम करने वाले अतिगरीब लोगों के बीच से एक श्रमिक बाबूलाल के अपने लोगों के स्वाभिमान के लिए शहीद हो जाने की कहानी और दूसरी ओड़ीशा के बलियापाल इलाके में मिसाइल रेंज स्थापित किये जाने के विरोध में शुरू हुए स्थानीय लोगों के अहिंसक आन्दोलन की कहानी कहती है। दोनों फिल्मों का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि एक तो ये आनंद पटवर्धन की परंपरा का विकास करती हैं दूसरे नब्बे के दशक में शुरू होने वाले जनप्रतिरोध के संघर्षों का संकेत भी देती हैं। दोनों ही फिल्में 16 mm के फॉरमैट में बनी थीं इसलिए महत्त्वपूर्ण फिल्म होने के बावजूद कुछेक फिल्मोत्सवों और विशेष प्रदर्शनों के अलावा ये ज्यादा बार दिखाई नहीं गईं। यहाँ यह जानकारी भी रोचक और चौंकाने वाली है कि इन फिल्मों का सर्वाधिक इस्तेमाल तभी हुआ जब ये डीवीडी पर बदलकर सर्वसुलभ हो गयीं और विभिन्न आंदोलनों और नये फिल्मोत्सवों का हिस्सा बनी।
नब्बे के दशक आते-आते शादी की चहल-पहल वी.एच.एस. कैमरों में तेजी से दर्ज होने लगी। शादी की चहल-पहल को दर्ज करने में रोजगार के अलावा इन कैमरों की उपलब्धता से सुदूर अंचलों में घट रही सामाजिक और राजनैतिक सरगर्मियों को दर्ज करने का भी अवसर अब नये सिनेकारों के पास था। ये अलग बात है कि वी.एच.एस. कैमरे से दर्ज की गयी तस्वीरों का सम्पादन एक बेहद थकाऊ प्रक्रिया थी, क्योंकि हमेशा कट लगाते हुए कुछ फ्रेम आगे-पीछे हो जाते। इस उपलब्धता का समझदारी से इस्तेमाल करते हुए स्थानीय जरूरतों से उपजे फिल्मकारों के समूह ‘अखड़ा’ की चर्चा यहाँ करना बहुत प्रासंगिक होगा। रांची के संस्कृतिकर्मियों के समूह ‘अखड़ा’ से जुड़े फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने अपना फ़िल्मी सफ़र 1996 में पहली फिल्म ‘शहीद जो अनजान रहे’ से किया फिर 2005 तक उन्होंने स्थानीय स्तर पर उपलब्ध वीएचएस और एसवीएचएस फॉरमैट पर ‘एक हादसा और भी’, ‘जहाँ चींटी लड़ी हाथी से’, ‘हमारे गाँव में हमारा राज’, ‘विकास बन्दूक की नाल से’ और ‘कोड़ा राजी’ जैसी महत्त्वपूर्ण फिल्में बनायी जिनमें से ‘विकास बन्दूक की नाल ने’ भविष्य के कई आन्दोलनों को दिशा और संबल प्रदान किया।
संजय जोशी
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के राष्ट्रीय संयोजक, मो-981157426 ईमेल- thegroup.jsm@gmail.com |
ये इस फॉरमैट की वजह से ही संभव हुआ कि हमें बीजू टोप्पो के रूप में पहला आदिवासी फिल्मकार मिला। नब्बे के दशक में जिस तेजी से विकास के नाम पर राज्य ने जनविरोधी समझौते, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ किये उसी तेजी के साथ उनका प्रतिरोध भी हुआ। इन लड़ाइयों की कहानियों को मुख्यधारा के सिनेमा में जगह नहीं मिली। वहां अभी भी नयी कहानी का इंतज़ार, रीमेक की उबाऊ पुनरावृत्तियों, विदेशी प्लॉटों को देशी कथाओ में बदलने की जुगत का खेल चल रहा था और नया माध्यम सेटेलाईट टीवी बहुत जल्दी ही सनसनी और उच्चस्तरीय दलाली के संस्थान में तब्दील होता गया। जबकि इसके उलट भारतीय दस्तावेजी सिनेमा में नयी उपलब्ध टेक्नोलॉजी को अपनाकर जनसंघर्षों के साथ जीवंत दोस्ती की शुरुआत हो चुकी थी। फिल्म निर्माण के खर्च के बहुत कम हो जाने के कारण अब आनंद पटवर्धन लम्बी फिल्में बनाने लग गए और उनके अलावा चारों दिशाओं में नये-पुराने फिल्मकार अपने कामों से जनता की लड़ाई को बहुत जरुरी सहयोग दे रहे थे। अब सिनेमा डब्बे में कैद होने के लिए नहीं बल्कि बहुत कम लागत में अपनी असंख्य प्रतियों के साथ नये मोबाइल एलसीडी प्रोजेक्टरों के जरिये गाँव-गाँव अपनी अलख जगा रहा था।
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कैमरे की ताकत समझने की कहानी
बीजू टोप्पो
सोचा नहीं था कि कभी फिल्मकार जैसा कुछ बन जाउंगा। तत्कालीन अविभाजित बिहार के सबसे पिछड़े जिले पलामू के सबसे दुर्गम स्थल महुआडांड़ के संत जोसेफ हाई स्कूल से पढ़ाई करते, ऐसा सोचना भी संभव नहीं था। मैट्रिक पास करने के बाद रांची संत जेवियर कॉलेज में दाखिला हो गया था और कॉमर्स की पढ़ाई करते कैमरा पकड़ने का सपना और भी कठिन था। तब कोई छोटा मोटा अफसर जैसा कुछ बनने की इच्छा दोस्तों को देखते बन जाती थी। लेकिन, इसके लिए कभी गंभीर नहीं रहा। पढ़ाई करनी थी, इसलिए पढ़ाई कर रहा था। हाँ, कॉलेज में ‘पलामू छात्र संघ’ की कुछ गतिविधियाँ चला करती थीं, उसमें जाता जरूर था। कई लोग थे जो वहाँ जाते थे। कुछ करना है, यह जज्बा जरूर था। प्रायः, पलामू के अधिकांश छात्रों की ऐसी ही कुछ सोच थी। लेकिन क्या करना है, कैसे करना यह स्पष्ट नहीं था।
तब श्रीप्रकाश उभरते हुए फिल्मकार थे। उन्होंने झारखंड आंदोलन पर डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनायी थी। वे नेतरहाट आंदोलन को शूट करना चाह रहे थे। उन्हें ऐसे साथी की तलाश थी जो उस इलाके से परिचित हो और भविष्य में कैमरा थामना भी चाहता हो। उन्होंने मुझसे बात की। कैमरा कैसे पकड़ा जाता है, यह मालूम भी नहीं था। लेकिन, श्रीप्रकाश जब शूट करते तो मैं तन्मयता से उनकी गतिविधियों को देखा करता था। इस तरह अंततः ‘किसकी रक्षा’ फिल्म बन गई। इस फिल्म ने आंदोलन को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। मैं इसका गवाह था। आज नेतरहाट आंदोलन को समझने के लिए यह फिल्म एक दस्तावेज की तरह है। अब मेरे मन में यह बात घर कर गई कि जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए कैमरा एक महत्त्वपूर्ण उपकरण हो सकता है। मन में नया विश्वास जगा। इस तरह कैमरे की इस ताकत ने मुझे आकर्षित किया। शायद, इसी कारण मैं आदिवासियों, दलितों या कमजोर लोगों का पक्ष लेने के लिए मानसिक रूप से और दृढ़ होता चला गया। इसी ने प्रेरित किया मैं ‘कोड़ा राजी’ बनाऊं।
बीजू टोप्पो प्रथम आदिवासी फिल्मकार मो-9470182560 ईमेल- bijutoppo0@gmail.com |
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फिल्मकार की नजर में बदलाव का सिनेमा - "आज हम देख रहे हैं कि नये फिल्मकार अपने समुदाय की विभिन्न समस्याओं, मुद्दों को असरदार तरीके से उठा रहे हैं। क्योंकि उन्हें यह मालूम हो गया है कि - यही एक ऐसा माध्यम है जहाँ कोई भी अपनी बातों को अन्य किसी भी कला-माध्यम के मुकाबले, सबसे प्रभावशाली ढंग से कह पाने में सक्षम है। अतः युवा पीढ़ी कैमरे की इस ताकत को पहचान रही है और समाज के संघर्ष एवं जनसरोकारों के मुद्दे को लगातार जनता के समक्ष लाती जा रही है।" (बीजू टोप्पो)
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