चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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सम्पादकीय:साहित्य
बनाम राजनीति/जितेन्द्र यादव
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
आजादी के बाद भारतीय मानस में सरकार
के प्रति उपजा असंतोष व नक्सलबाड़ी आन्दोलन को खुलकर वैचारिक समर्थन दिया. इंदिरा
गाँधी के आपातकाल के खिलाफ नागार्जुन जैसे कवियों ने खूब जमकर लिखा और जेल की हवा भी खाई. वहीं फणीश्वरनाथ रेणु सरीखे साहित्यकारों ने पुरस्कार तक लौटा दिया. तत्कालीन
नेहरु सरकार के समय मैथलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर जैसे राष्ट्र कवियों को
राज्यसभा की सदस्यता दी जाती है. मैं यह सारे तथ्य इसलिए गिना रहा हूँ कि राजनीति और
साहित्य के सम्बन्ध को इतना विकृत करके देखा जा रहा है मानों साहित्य और राजनीति
में चूहे बिल्ली का सम्बन्ध है. जैसे साहित्य कोई सुन्दरियों का नख–सिख वर्णन
मात्र करने वाली चीज़ है और इसका राजनीति में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए भले हमारे
राजनेता चाहे जैसा गुल खिलाए. इस तरह का विचार रखने वाले लोग शायद राजनीति को
बिलकुल घटिया मानकर चलते है या तो फिर साहित्य की ताकत को कमतर आंकते है. उनके मन
में राजनीति की धारणा एक गलत पहेली की तरह बनी हुई है. राजनीतिक विश्लेषक
योगेन्द्र यादव कहते है कि मैं एक प्रयोग हमेशा करता हूँ यदि आप किसी से भी
पूछेंगे राजनीति कैसी चीज़ है तो लोग कहेंगे बिलकुल बुरी चीज़ है. किन्तु जब पूछेंगे
लोकतंत्र कैसी चीज़ है तो लोग कहेंगे बहुत अच्छी चीज़ है. फिर उनका सवाल होता है कि
बिना राजनीति के एक अच्छे लोकतंत्र की कल्पना कैसे की जा सकती है? ऐसी ही कुछ
भ्रान्ति साहित्य और राजनीति को लेकर है.
राजनीति सिर्फ एक मात्र राजनीति
नहीं होती है बल्कि एक सत्ता और शासन भी होती है जिनके द्वारा लिए गए छोटे से छोटे
निर्णय भी नागरिक को प्रभावित करते है. उनके अविवेकपूर्ण निर्णय समाज में विनाश की इबारत
लिख सकते हैं. इसीलिए सत्ता के प्रतिरोध में साहित्यकार अपनी कलम की ताकत दिखाता
रहता है अथवा तत्कालीन समय की जरूरत हो तो वह रैली निकालना, विरोध प्रदर्शन ,पुरस्कार
वापसी जैसे तरीके भी अपनाता है. जिस प्रकार राजनीति एक शासन पद्धति है ठीक उसी
प्रकार साहित्य एक जीवन पद्धति है. जिस प्रकार राजनीति का उद्देश्य अच्छी शासन पद्धति द्वारा
खुशहाल जीवन देना होता है ठीक उसी प्रकार साहित्य की चिंता भी मनुष्य मात्र में
सुखमय जीवन की इच्छा व बेहतर समाज बनाने का प्रयास होती है. साहित्य और राजनीति
समाज में ही फलते–फूलते हैं. जब दोनों का उद्देश्य सामाजिक जीवन की बेहतरी ही है
तो फिर दोनों अलग–अलग कैसे हो सकते हैं. दरअसल महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे मन
में राजनीति शब्द की छवि बनती कैसी है? फिर उसी आधार पर राजनीति और साहित्य के
सम्बन्ध को निर्धारित किया जा सकता है.
साहित्य की राजनीति से कोई जन्मजात दुश्मनी नहीं बल्कि उनके जनहितकारी
मुद्दों को लेकर मत वैभिन्य होता है. इसलिए जो लोग सोचते है कि इन दोनों में दुराव की भावना
होनी चाहिए सदभाव की नहीं तो दरअसल उन्हें
साहित्य की भूमिका को लेकर भ्रान्ति है. साहित्य की भूमिका संकीर्णता में नहीं
अपितु व्यापकता में देखने के जरूरत है.
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साथियो,बीते अंकों के प्रति आपकी तरफ से लगातार सकारात्मक प्रक्रियाएं मिलती रही
है.अव्वल तो आप सभी का शुक्रिया.पत्रिका को प्रिंट रूप में प्रकाशित करने के आपके
सुझाव का हम मान रखते हैं मगर हमारे लिए यह अभी मुमकिन नहीं है.ई-प्रिंट के अपने
लाभ और मायने हैं.फिलहाल इस विस्तृत प्लेटफोर्म की ताकत का उपयोग कर हम हिंदी
साहित्य और हमारे समय के सवालों पर आपसे संवाद जारी रखे. जब भी संभव होगा हम
प्रिंट रूप में भी आपसे संवाद करेंगे ही.फिलहाल आप अपने इलाके के सृजनशील युवाओं
को इस पत्रिका के बारे में बताएं यही हमारा बड़ा सहयोग होगा.
अपनी माटी के इक्कीसवें अंक में हमने कोशिश की है कि युवाओं को प्रेरित करते हुए इस बार भी भिन्न-भिन्न मुद्दों पर उनसे कुछ सार्थक लिखवा सकें.आप अंक की रचनाएं पढ़ेंगे तो संभवतया पाएंगे कि इस काम में कुछ हद तक सफल हुए हैं.अव्वल तो इस अंक के चित्रकार जयपुर राजस्थान के साथी चित्रकार सुप्रिय शर्मा का शुक्रिया जिनके चित्रों को हम शामिल करते हुए अंक में एक आकर्षण पैदा कर पाए.अंक के बनने के क्रम में शोधार्थी सौरभ कुमार का लगातार सहयोग मिला है.अंक में पाठकों की रूचि के मद्देनज़र विविधता का पूरा ख़याल रखा गया है.अंक के लिए हमें प्राप्त बहुत सारी रचनाओं में से हम चयनित ही प्रकाशित कर पा रहे हैं.सम्पादन की अपनी सीमाएं हैं.जिनकी रचनाएं छाप नहीं सकें उनसे माफी.इस अंक में फणीश्वरनाथ रेणु, जायसी, अमरकांत, मैत्रयी पुष्पा, विनोद कुमार शुक्ल, ज्योतिबाराव फुले केन्द्रित आलेख और समीक्षाएं आपको रुचेगा ऐसा हमारा मानना है.अंक में ही शिक्षा और भाषा जैसे विषय के साथ ही हिंदी सिनेमा को भी केंद्र में रख कुछ रचनाएं शामिल की है.अंक का एक आकर्षण मैनेजर पाण्डेय और रमेश उपाध्याय से की गयी बातचीत भी है ही.
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अंत में अपनी माटी की तरफ से उन दिवंगत साथियों की याद जो बीते दिनों हमें छोड़ चल बसे.खासकर पंकज सिंह, कवि रमाशंकर विद्रोही, अभिनेता सईद जाफ़री, कथाकार महीप सिंह, कामरेड ए.बी.वर्धन, कथाकार रविन्द्र कालिया को हार्दिक श्रृद्धांजलि.
जितेन्द्र यादव
सह सम्पादक,अपनी माटी
जितेन्द्र यादव
सह सम्पादक,अपनी माटी
यह सत्य है कि राजनीति और साहित्य कां पुराना साथ रहा है परंतु पहले के साहित्यकार सिर्फ देशहित सेचते थे वर्तमान में अवॉर्ड लौटाने वाले सभी साहित्यकार देशभक्ति नहीं बल्कि किसी एक विशेष राजनीतिक पार्टी से प्रेरित हैं जो देश के हितार्थ न होकर किसी पार्टी के हितार्थ था ऐसे में यदि आम जनता का साहित्य और राजनीति को अलग रखने की सलाह देना भी गलत नही है|
जवाब देंहटाएंआपकी पत्रिका में प्रकाशन हेतु यदि मैं अपनी रचना भेजना चाहूँ तो किस प्रकार भेज सकती हूँ कृपया स्पष्ट करें
जवाब देंहटाएंआपकी पत्रिका में प्रकाशन हेतु यदि मैं अपनी रचना भेजना चाहूँ तो किस प्रकार भेज सकत हूँ कृपया स्पष्ट करें
जवाब देंहटाएंराजनीति साहित्य का एक अंग है, साहित्य राजनीति की दिशा तय करता है। कबीर, प्रेमचंद्र, केदारनाथ अग्रवाल इसके उदाहरण हैं। अतः चाटुकार या चारण लोग अपने को साहित्यकार होने की भूल न करें तो उन्हें भी उनकी भूल समझ में आ जाएगी।
जवाब देंहटाएंinfo@apnimaati.com पर अपनी रचना भेज सकते है .अथवा अधिक जानकारी के लिए अपनी माटी के मुख्य साईट पर देख सकते है .
जवाब देंहटाएं"जिस प्रकार राजनीति एक शासन पद्धति है ठीक उसी प्रकार साहित्य एक जीवन पद्धति है. जिस प्रकार राजनीति का उद्देश्य अच्छी शासन पद्धति द्वारा खुशहाल जीवन देना होता है ठीक उसी प्रकार साहित्य की चिंता भी मनुष्य मात्र में सुखमय जीवन की इच्छा व बेहतर समाज बनाने का प्रयास होती है." सूत्रवाक्य। शुभकामनाएँ भाई जितेन्द्र यादव।
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