चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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दोपहर का भोजन :
पुनर्पाठ/ रवि प्रकाश गोस्वामी
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
अमरकांत की कहानियों में जीवन के साधारण पल उसकी सादगी को बनाए रखते हैं।
सादगी के ये पल अभिव्यक्ति कला के शानदार नमूने बन जाते हैं, वहीं कहानी कहने के सारे
पुराने कौशलों को out of date की श्रेणी मे ला खड़ा करते हैं। अमरकांत का लगभग हर पात्र
जीवन जीने की उद्दाम उत्कटता को लिए होता है। किसी भी परिस्थिति में जीवन का पहिया
चलायमान रहे इसकी कोशिश उनके पात्र लगातार करते रहते हैं। इस कोशिश में समाज,
व्यवस्था और जीवन
की विद्रूपताएं बिना किसी लाग-लपेट के उजागर हो जाती हैं तो दूसरी ओर यथार्थ अपने
चरम और भयावह स्तर तक जा पहुंचता है। “उसके मुख पर मौत की छाया नाच रही थी और वह ज़िंदगी से
जोंक की तरह चिमटा हुआ था –लेकिन जोंक वह था या ज़िंदगी ?” यहाँ जिजीविषा जीवन को मृत्यु से
भी ज्यादा त्रासद बना देती है। प्रतीत होता है की ऐसी ज़िंदगी से मौत भली है फिर भी
जीवन के प्रति मोह का यह अध्याय बंद ही नही होता । अमरकांत की कहानियों में पात्र
अपने जीवन को हर परिस्थिति में एंजॉय करता है। उसका जीवन विधान लेखक नहीं तय करता
वरन ऐसा लगता है लेखक बस निरपेक्ष भाव से निरूपण पर ध्यान दे रहा है। “सच कहता हूँ ,रजुवा की मृत्यु का
समाचार सुनकर मेरे हृदय को अपूर्व शांति मिली, जैसे दिमाग पर पड़ा हुआ बहुत बड़ा
बोझ हट गया हो। परंतु लेखक की यह खुशी उस वक्त तिरोहित हो जाती है जब रजुवा कुछ
दिनों बाद मौत को धता बताते हुए उनके सामने आ खड़ा होता है। यह उस समाज की गाथा है
जहां विकल्पहीनता का मारा मजदूर हेलमेट तथा अन्य सुरक्षा उपकरणों के बगैर भी महज मोबाइल पर चल रहे लोकगीतों के सहारे गगनचुम्बी
इमारतों के निर्माण में अपनी जान की बाजी लगा कर काम करता है. यहाँ जिजीविषा इसी
विकल्पहीनता की मारी है. पात्रों की जीवन जीने कीयह मनमानी लेखक से उनकी मृत्यु का
फरमान जारी करने का हक छीन लेती है। “जोंक वह था या ज़िंदगी?” की भाँति ही एक प्रश्न यह भी उठ
खड़ा होता है कि क्या “मोहे तो मेरे कवित्त बनावत” की ही तर्ज पर अमरकान्त खुद अपने पात्रों की रचना हैं।
अमरकांत की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियों मे से एक है। कहानी
साधारण परिवेश में पनपती हुई शब्दों की बेवजह बाजीगरी से दूर अपनी सादगी मे ही एक
नए संसार का सृजन करती है। यह संसार हर उस निम्नमध्यवर्गीय परिवार का है जिसके एक
दिन के जीवन की कीमत कुछ लोगों को 20 रुपए से ज्यादा नहीं लगती| यहाँपूरी कहानी एक अभावग्रस्त
परिवार द्वारा दोपहर में भोजन के दौरान किए जाने वाले कार्य कलापों के इर्द –गिर्द घूमती है। यह पूरी कहानी
पात्रों की सूक्ष्म मनोदशा का पर्यवेक्षण तथा निरूपण है।
अमरकांत ने कहानी में वातावरण को जीवंत कर दिया है। दोपहर वो भी गर्मी की,
भिनभिनाती हुई
मक्खियाँ और मरघट की सी शांति। इनके सानिध्य में तो सामान्य घटनाएँ और
परिस्थितियाँ भी त्रासदपूर्ण बन जाएँ। सिद्धेश्वरी का जिक्र आते ही टिपिकल भारतीय
गृहिणी का चित्र आँखों के आगे तैर जाता है । सिद्धेश्वरी उन असंख्य महिलाओं का
प्रतिनिधित्व करती है जो घरेलू जीवन की चक्की में
पीसती रहती हैं, आधा जीवन घुटनों के बीच सिर रख सोचने में बीत जाता है,
वो ये भी भूल जाती
है की उन्हे भूख या प्यास भी लगती है। सिद्धेश्वेरी की भूख को लेखक बहुत ही चतुराई
से प्यास का नाम दे देता है चूंकि भूख के लगने और उसके शांत होने से ‘दोपहर का भोजन’ की परवर्ती घटनाएँ शिथिल
हो जातीं। खाली पेट की प्यास के कारण सिद्धेश्वरी को पानी कलेजे मे लग जाता है और
वह ‘हाय
राम’ के
साथ वहीं लेट जाती है।
सिद्धेश्वरी का मतवालेपन मे गटागट एक लोटा पानी पी जाना अपने बचपन का वह
मतवालपन याद दिला देता है जब प्रचंड गर्मी में भी बेहिसाब निरर्थक खेल के बाद
चटकते तालु के साथ हम मंदिर के हंडपंप पर एक हथेली से कल का मुँह बंद कर उसका सारा
पानी सोख जाने की मुद्रा धारण किए गटागट पानी पीकर भयानक पेट दर्द की शिकायत के
साथ मंदिर के चबूतरे पर कुछ देर लेट जाते थे। जब ये अनुभव था तब यह विज्ञान नहीं
पता था , आज
जब इससे परिचय हुआ तब अनुभव के नाम पर वही धुंधली स्मृतियाँ शेष हैं।
लेखक की नजर जहाँ भी
दौड़ती है वहाँ से अभाव और गरीबी टपकती दिखाई देती है। नंग-धड़ंग छः वर्षीय प्रमोद,
हाथ पैर सूखी
कंकड़ियों की तरह सूखे और बेजान तथा पेट हँडिया की तरह फूला हुआ। खुला मुँह और उसपर
अनगिनत उड़ती मक्खियाँ। सिद्धेश्वरी को उसे ढँकने के लिए मिलता भी है तो एक फटा हुआ
ब्लाउज़। दरअसल प्रमोद कुपोषण के कारण होने वाले सूखा रोग जिसे अंग्रेजी में ‘kwashiorkor’भी कहा जाता है, से ग्रस्त है। समाज में
रोग के ये लक्षण इतने आम हैं कि लोगों को पता भी नहीं चल पाता कि ये कोई रोग भी है।
ऐसे लक्षण वाले लोगों के लिए हमारे गाँव देहातों में एक कहावत गढ़ ली गयी है –“हांथ गोड़ सिरकी पेट
नदकोला” ।
सामान्य कथनों के धरातल से यहाँ यथार्थ रूपी कैक्टस उग आया है जो समवेदनाओं तथा
भावनाओं को लहूलुहान कर जाता है। कैसी विडंबना है की हमारे यहाँ लाखों टन अनाज
गोदाम में सड़ जाता है दूसरी तरफ हम विश्व का दूसरा सबसे कुपोषित देश बने बैठे हैं (बांग्लादेश के बाद). विश्व
बैंक के एक सर्वे के अनुसार भारत में 47% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. यूनिसेफ के अनुसार
विश्व का प्रत्येक तीसरा कुपोषित बच्चा भारत का है. हम विश्व के तीसरे सबसे गरीब
देश के वासी हैं. ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान पन्द्रहवां है. ऑक्सफ़ोर्ड
मानव एवं विकास पहल के द्वारा किये गए एक सर्वे के अनुसार भारत के महज 8 राज्यों में अफ्रीका के
26 सबसे गरीब देशों के बराबर के 410 मिलियन गरीब लोग वास
करते हैं. जब हमें शुद्ध पीने का पानी मयस्सर नहीं तो खाने की बात बेमानी होगी. इन
हालातों के आंकलन के लिए किसी हमें किसी सर्वे की नहीं सूक्ष्म संवेदना की दरकार
है और अमरकांत ने इसी का परिचय अपनी इस कहानी में दिया है.
अमरकांत ने कहानी में भोजन का खाका कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है । “कुल दो रोटियाँ ,
भर कटोरा पनियाई
दाल , और
चने की तली तरकारी”। हर पात्र की थाली में इतना ही खाना परोसा जाता है तथा बहुत प्यार से और लेने
के आग्रह को हर पात्र कड़ाई से या या स्नेहपूर्वक ठुकरा कर उठ जाता है। भर कटोरा
पनियाई दाल और चने की तरकारी का उल्लेख अभाव को गहराई तक जाकर उजागर करता है।
अमरकान्त बलिया के हैं। अधिकतर भोजपुरी क्षेत्रों में घर में बनने वाली दाल की
गुणवत्ता से उस घर की हैसियत का पता चल जाता है। ठीक उस कहावत की तरह जिसमें कहा
जाता है कि ‘अगर किसी की हैसियत का पता लगाना हो तो एक नजर उसके जूतों कि तरफ डाल लेनी
चाहिए। चने की तरकारी भी आपात स्थितियों में ही बना करती है। ऐसे में एक पूरा जीता-जागता परिवेश अपनी विकट
सच्चाईयों के साथ उठ खड़ा होता है। पूरी रसोई और उसके खाने को लेकर लेखक ने सामान्य
कड़ियों को पिरोते-पिरोते अभावग्रस्त रसोई और उससे जुड़े लोगों के व्यवहार और उससे
जुड़े मनोविज्ञान का एक पूरा encyclopedia सा तैयार कर दिया है। कोई भी कोना इससे अछूता नहीं
है। रामचंद्र का खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखना, एक टुकड़ा खाकर एक गिलास पानी पी
जाना, छोटे-छोटे
टुकड़े तोड़ कर उन्हे धीरे चबाना और अंतिम ग्रास को मुँह मे इस प्रकार डालना जैसे
रोटी का टुकड़ा न होकर पान का बीड़ा हो। रामचंद्र घर की पूरी स्थिति से अच्छी तरह
वाकिफ है अतः खाने को कुछ इस तरह खाता है जिससे खाना खाने (भरपेट) का एहसास जिंदा
रहे। खाने की कमी के अहसास को वह छोटे-छोटे द्वारा तथा देर तक खाकर पाट देना चाहता
है ताकि फिर भूख लगने पर वह खुद को समझा सके – अभी तो खाना खाया था, कितनी देर तक खाया था,
कितनी देर तक तो
खाता ही रह गया था फिर भूख कैसे लग गयी ? जैसे यही भाव उसे अपने माँ पर बिगड़ पड़ने पर मजबूर कर
देता है। “अधिक खिला कर बीमार डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचते हो।
बस अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?”
कुछ इसी तरह मोहन भी और
लेने के आग्रह को ठुकराने से पहले
रहस्यमयी नेत्रों से रसोई की तरफ देखता है फिर कहता है “नहीं” । सिद्धेश्वरी के जिद
करने पर “ मोहन ने गौर से माँ की ओर देखा फिर धीरे धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है – “नहीं रे, बस अव्वल तो अब भूख
नहीं। फिर रोटियाँ भी तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जाती। न मालूम कैसी लग रही
हैं। खैर अगर तू चाहती है तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है”
मोहन जानता है कि
दाल में नमक और पानी डालकर दाल तो बधाई जा सकती है परंतु रोटी को बढ़ाने का ऐसा
सस्ता सा कोई उपाय नहीं है।
चंद्रिका प्रसाद घर के
मुखिया हैं, फिर भी उनका रसोई में आना कुछ विशेष उल्लास नहीं जगा पाता है। खाना वही है । “मुंशीजी दाल लगे हाथ को
चाट रहे थे।” पनियाई दाल को पिया जरूर जा सकता है पर उसे चाटना आत्मसंतुष्टि का थोपा जाना
है। उनके लिए खाने के प्रति अरुचि एक बहाना है। “मुंशीजी एक रोटी खा चुकने के बाद
एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए।” इस परिवार में हर किसी
को अपनी बेकारी का एहसास है। तभी उन्हे खाने की मात्र और गुनवत्ता से कुछ विशेष
शिकायत नहीं है। उनके लिए खाना मिल जा रहा है वही बड़ी बात है –अच्छा क्या और बुरा क्या
।
इतनी कतर-व्योंत के बावजूद सिद्धेश्वरी का भोजन जहाँ सबके अंत में खाने वाली सामान्य
भारतीय गृहिणी का चित्रण है वहीं सारी रसोई का सच सस्पेंस फिल्मों के क्लाइमेक्स
की तरह सामने आ जाता है। सबसे मन ही मन डरने वाली, सबके नख़रों को उठाने वाली,
पूरे परिवार को एक
सूत्र में पिरोये रखने की कोशिश में लगी सिद्धेश्वरी के हिस्से में आधी रोटी वो भी
जली हुई तथा पीने के लिए खारे आँसुओं के अलावा और कुछ नहीं आ पाता।
जीवन की अनिश्चितता तथा उसके प्रति सजग दृष्टिकोण अमरकांत के पात्रों में
विद्यमान है। अमरकांत का शायद ही कोई पात्र असमय मृत्यु का शिकार होता है। यहाँ
जीवन जितना लंबा है यथार्थ की भावभूमि उतनी ही कठोर और पुख्ता होती जाती है। रजुआ
इसी की परिणति है। वहीं रामचंद्र आकर बेजान सा चौकी पर लेट जाता है। दस मिनट बीतने
के बाद भी जब जब रामचंद्र नहीं उठा तो सिद्धेश्वरी घबरा गई। “पास जाकर पुकारा–
बडकू-बडकू । लेकिन
उसके कुछ उत्तर न देने पर दर गयी और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया।”पाठक जानता है इतनी
अस्वाभाविक मौत यथार्थ का हिस्सा नहीं हो सकती फिर भी अमरकांत परिवेश और उससे जनित
सच को जिस स्वाभाविकता तथा सरलता से बुनते हैं उसका असर इतना गहरा होता है की पाठक
एक बार पात्र की कुशलता को लेकर व्यग्र तो हो ही जाता है। ‘डिप्टी कलक्टरी ’ कहानी में शकलदीप बाबू
की दशा भी कुछ पलों के लिए सिद्धेश्वरी सी हो जाती है। “शकलदीप बाबू एकदम से दर गए और
उन्होने काँपते हृदय से अपना कान नारायण के मुख के पास बिल्कुल नजदीक कर दिया।”
इसके बाद शकलदीप
बाबू ने अपनी पत्नी से गदगद स्वर में कहा “बबुआ सो रहे हैं।” हालांकि इस पड़ताल के बाद शकलदीप
बाबू का ‘बबुआ
जिंदा है’ कथन ज्यादा सटीक होता।
‘दोपहर का भोजन’ कहानी पात्रों के बीच संवादहीनता को
निरूपित करती है। जहाँ अभाव का बोलबाला है वहाँ परिवार के सदस्यों के बीच परस्पर
संवादहीनता ‘कोढ़ में खाज’ का काम करती है तथा वातावरण को और बोझिल करती है। इसके कारण यथार्थ एक नए आयाम
में प्रस्तुत होता है। हर पात्र अपनी अकर्मण्यता पर पर्दा डालने की नियत से संवाद
से बचना चाहता है अतः सिद्धेश्वरी सबसे एक दूसरे के बारे में झूठी तारीफ के द्वारा
ही सही इस परिवार को जोड़े रखने की असफल कोशिश करती है। वह बड़े भाई के सामने छोटे
भाई की बड़ाई करती है तो पिता के सामने बेटों की झूठी तारीफ। “सिद्धेश्वरी की समझ में
नहीं आ रहाथा कि क्या कहे ? वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी बातें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की
तरह बात करे।” परंतु चूंकि परिस्थिति पहले से काफी बदल चुकी है और इस बदली हुई परिस्थिति का
ब्यौरा अमरकान्त सबसे अंत में देते हैं । सिद्धेश्वरी के दिल में एक अंजाने डर ने
घर कर लिया है वह सबसे डरती है तथा इसके कारण communication gap बढ़ता ही जाता है। “बाहर की कोठरी मे मुंशी
जी औंधे मुँह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जैसे डेढ़ महीने पूर्व
मकान-किराया नियंत्रण विभाग से उनकी छँटनी नहीं हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश
में कहीं न जाना हो।”
और अंत में एक जिज्ञासा यह उठ खडी होती है कि कहानी का शीर्षक ‘दोपहर का भोजन’ ही क्यों? भोजन तो सुबह या शाम के
वक़्त का भी हो सकता था. क्या यह परिवेश की मांग है या कथानक की जरुरत? आज भी गांवों में सुबह
में नाश्ते का काम रस और चने-चबेने से ही चलता है. लोगों को काम पर भी जाना हो तो वे भरपूर खाना खा कर ही काम पर जाते
हैं. नाश्ते का प्रावधान लगभग नहीं के बराबर है. ऐसे में राजेश्वरी के अभावग्रस्त
परिवार को इस दिखावे की जरुरत क्या थी? हो सकता है मुंशी जी की छंटनी से पहले यही क्रम
अच्छे से निभ जाता हो और छंटनी के बाद भी परिवार भोजन के इस क्रम को तोड़ना नहीं
चाहता हो. जिस परिवेश की यह कहानी है वहाँ सुबह का नाश्ता और दोपहर में भोजन
स्टेट्स सिम्बल से कम नहीं समझा जाता. यहाँ तो यही लग रहा है कि रूखे-सूखे चने –
चबेने का खर्च भी
इस दोपहर के भोजन ने आसानी से बचा लिया है. दूसरी तरफ लोगों का भोजन के लिए आना और
जाना, चिलचिलाती
गर्मी की दोपहर तथा उससे उपजने वाले प्रभाव ने भी लेखक को दोपहर के भोजन पर ही
केन्द्रित रखा है. इस तरह कहानी के शीर्षक निर्धारण की पूरी प्रक्रिया तथा उससे
जुडी संवेदना के हर पहलु की तह तक जाकर ही इस कहानी और उसके मर्म को समझ सकने की
कोशिश की जा सकती है.
रवि प्रकाश गोस्वामी
मो-7382289346,कमरा नंबर 204, विंग-एल MHE-NRS
हैदराबाद विश्वविद्यालय,हैदराबाद- 500046
ई-मेल rvigoswami@gmail.com
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