चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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प्रतिरोध का कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना/ अभिषेक प्रताप सिंह
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
जिस समय शासन सत्ता के ‘भेड़िये’ और ‘तेंदुवे’ निरीह जनता को अपना
शिकार बना रहे हों उस समय सर्वेश्वर जैसे कवि आत्मश्लीन नहीं रह सकते वे मशाल
जलाकर जनता के साथ खड़े होंगे। यही कारण है कि अपने पहले काव्ये संकलन काठ की
घंटियां (1949-57)में “मैं
तुम्हारे लिपस्टिक लगे होठों की / विकृत अरूणिमा में भी पंख खोलकर तैर सकता हूँ”2 जैसी पंक्तियां लिखने
वाला कवि अपने काव्य संग्रह गर्म हवाएँ (1966-69) तक आते-आते स्पष्टतया घोषण करता
है कि -
“अब मैं कवि नहीं रहा एक काला झंडा हूँ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में खड़ी है मेरी कविता।”3
सर्वेश्वर की कविताओं से
गुजरना एक भरे-पूरे मनुष्य की दुनिया से गुजरना है। एक तरफ उनकी कविताओं में
प्रकृति-प्रेम माँ-पिता-पत्नी जैसी उनकी निजी दुनिया है तो दूसरी ओर सत्ता के
भेड़िए-गुबरैले-सांप और तेंदुओं से प्रतिरोध करती उनकी कविताएं हैं। एक तरफ जनता
की निष्क्रियता के प्रति उनमें क्षोभ है तो दूसरी ओर उनकी शक्ति में उन्हें गहरी आस्था है। ऐसी अनेकों कविताएं सर्वेश्वर
ने लिखी हैं जिनमें वे जनता की सामूहिक शक्ति को जगाने का प्रयास करते हैं।
आजादी के बाद हुए
दमन-शोषण और भ्रष्टाचार को देखकर सर्वेश्वर के लिए कविता लिखना सुखद कार्य नहीं रह
गया। कुआनों नदी काव्यसंकलन के संदर्भ में विचार करते हुए वे लिखते हैं– “जिस संकट से हमारा देश
गुजर रहा है और व्यवस्थाएँ अशिक्षित तनमन से कमजोर जात-पांत संप्रदाय क्षेत्रीयता
से ग्रस्त जनता के असंतोष को जिस तरह गोली-लाठी- अश्रुगैस से दबा रही है वैसी
स्थिति में कविता लिखना बहुत सुखद कार्य नहीं है। आजादी के 25 साल बाद आम आदमी हर तरह
से और विपन्न ही हुआ। हर तरह से वह टूटा है। सबने अपने मतलब से उसे छला है। सत्ता
और राजनीतिक दल से वह ऊब चुका है। उसका विश्वास सब पर से उठ चुका है। महंगाई-गरीबी
उसे तोड़ चुकी है। उसके लिए जिंदा रहने और आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं है। मैं
उस आदमी के साथ उसकी यातना में खड़ा हूँ।”4 सर्वेश्वोर की कविताएं दमनकारी सत्ता के खिलाफ आम
जनता के साथ खड़ी है। उनकी कविताओं में तत्काश्लीन जीवन के सभी स्तरों पर दिखने
वाली भयावता-तानाशाही के खूँखार पंजों से लहूलुहान होती निरीह जनता की बेचारगी के
दर्दीले अनुभव प्रमाणिक ढंग से व्यक्त हुए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व किये
गये सुनहरे वादों को भूलकर राजनेताओं ने क्याहालत कर दी देश की इसकी पीड़ा यह
खिड़की नामक कविता में सर्वेश्वर ने मार्मिक ढंग से व्यक्त की है। झूठी आजादी और
राजनेताओं के झूठे वादों से कवि इस कदर क्षुब्ध है कि वह अपनी करोड़ों भूखी जनता
की पीड़ा के साथ एक कमरे में बंद हो जाना चाहता है। वह राजनेताओं द्वारा
स्वतंत्रता दिवस की झांकियों में छल- विश्वाचसघा देखता है-
“यह बंद कमरा सलामी मंच है
जहाँ मैं खड़ा हूँ पचास
करोड़ आदमी खाली पेट बजाते
ठठरियाँ खड़खड़ाते हर
क्षण मेरे सामने से गुजर जाते हैं।
झाँकियाँ निकलती हैं
ढोंग की विश्वासघात की
बदबू आती है हर बार एक
मरी हुई बात की।”5
जनता और कवि दोनों को राजनेताओं के आश्वासन-आदर्शों और रंगीन संभावनाओं के
गुब्बारे में कोई आस्था नहीं रह गई है। सर्वेश्वर स्वार्थी राजनेताओं से ही नहीं
बल्कि उन सभी पूंजीपतियों- सेठ-साहूकारों से भी घृणा करते हैं जो जनता का खून
चूसकर बहुमंजिल इमारतें खड़ी करते हैं-
“मैं चमचमाता रास्ता छोड़
हमेशा गंदी बस्तियों के बीच से जाता हूँ।
बहुमंजिली इमारतों को
बारूद से उड़ा देने की सोचता रहता हूँ।
दमकती कारें देखकर मुझे
गुस्सा आता है
उन्हें अकेला पाकर खरोंच
देता हूँ और ऐसा खुश होता हूँ
जैसे किसी का मुँह नोच
लिया हो।”6
गरीबी हटाओ और समाजवाद
जैसे नारों के माध्यम से जनता से छल करके सत्ताकी रोटियां सेंकने वाले राजनेताओं
के प्रति सर्वेश्वार के मन में गहरा क्षोभ है। इन नारों की समाज में वास्तरविक
परिणति क्या हुई इसे सर्वेश्वेर अपनी कविता गरीबी हटाओ में व्यंक्तत करते हैं।
“गरीबी हटाओ सुनते ही
उन्होंने एक बूढ़े आदमी को पकड़ लिया
जो उधर से गुजर रहा था
और उसकी झुर्रियाँ गिनने लगे
तेईस वर्ष गिनने के बाद
जब वे हिसाब में भटक गये
तब उन्हों ने फिर से
शुरूआत की तब तक उनकी आँखों की रोशनी कम हो गयी थी।”7
गरीबी हटाओ अभियान सिर्फ फाइलों में दबकर रह जाता है। गरीबी कभी हटती नहीं पर
जनविरोधी नीतियों के कारण भूख और बदहाली से गरीब जरूर दिन-ब-दिन आत्महत्या करने पर
मजबूर होते हैं।
स्वतंत्रता के बाद सत्ता
में बैठे लोगों ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अपने प्राणों की आहुति देने
वाले लोगों को सिर्फ संग्रहालयों में मूर्तियाँ बनाकर कैद कर दिया। गांधी जी जैसे
नेताओं को मूर्तियों में ढालकर उन्हें चौराहों पर खड़ा कर दिया गया। सत्य अहिंसा
जैसे मूल्यों को सत्तालोलुप नेताओं ने सिर्फ वोट के लिए इस्तेमाल किया। पंचधातु नामक अपनी कविता में
गांधी जी की चीजों का इस्तेमाल सत्ता के रहनुमा किस प्रकार कर रहे उसे कवि
अभिव्यपक्तकरते हुए लिखता है
“तुम्हारी चप्पलगरीबों की चाँद गंजी
करने के काम आ रही हैऔर
घड़ी
देश के नब्ज की तरह बंद है। अच्छा हुआ
तुम चले गये अन्यथा
तुम्हारे तन का
ये जननायक क्या करतेपता
नहीं।”8
चुनाव को भारतीय
लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है। ये महापर्व अपने साथ कितने अपराध लेकर आता है
इससे आम जनता अच्छी तरह वाकिफ है। जाति-पांति और साम्प्र दायिकता की आग भड़काकर
नेता लोग सत्ता तक पहुंचने की कोशिश करते हैं।भारतीय आम जनता का मेहनत से कमाया
गया पैसा राजनीतिक पार्टियां पानी की तरह बहाती है।गाँवों में रहने वाली शोषक
शक्तियां आम जनता को डरा-धमकाकर उन्हें उनके मताधिकार से भी वंचित कर देती है।
हत्या और बलात्कार जैसे घृणित कर्म चुनाव लड़ने की योग्यता से बन गये हैं। ये
स्थिति कमोबेश आजादी के बाद से अब तक बनी हुई है। सर्वेश्वर चुनाव के इसी महापर्व
की अगुवानी में लिखते हैं-
“है लाठियों में तेल मल के आ रहा चुनाव।
हत्याओं की गली से चल के आ रहा चुनाव
दौलत के संग उछल.उछल के आ रहा चुनाव
बंदूकों में उबल-उबल के आ रहा चुनाव
मतपेटियों में मत को छल के आ रहा चुनाव
हम तंग आ गये हैं अब ऐसे चुनाव से
आवाज आ रही है सुनो गाँव.गाँव से।”9
सत्ता अक्सज आम जनता को अपने कारनामों से आतंकित करती है। वह धीरे-धीरे कभी
डराकर कभी प्रलोभन देकर हमेशा जनता को अपना दास बनाये रखना चाहती है और जब जनता
में सरकार की जनविरोधी नीतियों के प्रति सुगबुगाहट होती है तो सत्ता दमन चक्र
चलाती है। आम जनता तो भोलीभाली निरक्षर होती है उन्हें राजनेता अपने झूठे वादों के
जाल में उलझाकर अपनी स्वार्थ सिद्ध करते हैं किन्तु जब ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो
तो एक कवि या बुद्धिजीवी वर्ग का क्या उत्त्रदायित्व होता है? क्या उसे सत्ता से
समझौता कर लेना चाहिए या उसे जनता से जुड़ना चाहिए। सर्वेश्वंर की ऐसी बहुत सी
कविताएं हैं जिनमें एक तरफ वे जनता को सत्ता् की चालाकियों से अवगत कराते हैं तो
दूसरी तरफ जनता के साथ मिलकर सत्ता के भेड़ियों के प्रतिरोध में मशाल जलाकर जनता
की सामूहिक शक्ति द्वारा क्रांति के पथ पर अग्रसर होते हैं। अपनी कविताओं के
माध्यम से वे जनता को उसकी सामूहिक शक्ति से अवगत कराते हैं।
सर्वेश्वशर को सत्ता तंत्र की ताकत का
पूरा अंदाजा है। उन्हेंं पता है कि जनता की आवाज को दबाने के लिए सत्ता के पास गोला.बारूद और अत्यााधुनिक हथियार है।
सत्ता का दमनकारी चरित्र सर्वेश्व र को
भली.भांति पता है। किन्तुद कवि को यह भी पता है कि सत्ताा एक आजाद आदमी की आवाज से
डरती है। कवि को पता है कि आजादी का नाम लेने वाले आदमी की जुबान सत्ता काट लेती है कितु फिर भी वह बोलना चाहता है -
“अक्सर ऐसा होता आया है कि आजादी का नाम लेने वाले की जबान
आततायी काट लेते रहे
हैंऔर लाखों ऐसी जबानों की माला पहनकर
खड़े हो गये हैंए लेकिन
आवाज गयी नहीं है
एक कटी हुई जबान करोड़ों
सिली हुई ज़बानों को खोल देती है।”10
कवि आततायी सत्ता से
सवाल करता है कि क्यों आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी गरीब और गरीब तथा
अमीर और अमीर होता जा रहा है। एक ही शहर में एक तरफ आलीशान इमारतें हैं तो दूसरी
तरफ बद से बजबजाती झोपड़पट्टियां क्यों
हैं। क्या यही लोकतंत्र में समानता के अधिकार का मतलब है? क्योंसत्ताआदमी को आदमी
की तरह नहीं देखती? क्यों आज भी सड़क बिजली-पानी-भोजन-स्वास्थ्यजैसी मूलभूत आवश्य्कताओं से जनता
महरूम है? कवि के सवाल बहुत तीखे हैं।
“क्यों हर हाथ टूटा है
क्यों हर पैर कटा हुआ है?
क्यों हर चेहरा मोम का
है?
क्यों हर दिमाग कूड़े से पटा हुआ है?
क्यों यहाँ कोई जिंदा
नहीं है।”11
सत्तातंत्र ने देश के
अधिकांश नागरिकों को उस कगार पर पहुंचा दिया है जहाँ न उसके पास घर है न रोजगार।
यहां तक कि सपने भी नहीं और यही जनता जब अपने हक की लड़ाई के लिए संघर्ष करती है
तो सत्ता उसका बर्बर दमन करती है। सर्वेश्वर भली भांति जानते हैं कि सत्ता में
परिवर्तन भले ही हो जाए किन्तु उसके चरित्र में परिवर्तन नहीं होता। अपनी सत्ता को
कायम रखने के लिए हर नया दल स्वतंत्रता-समानता और समाजवाद की कसमें खायेगा और
सत्ता मिलने के बाद वह रिश्वत खायेगा जनता का खून पियेगा।
“जो भी आयेगा समाजवाद और
समानता के नाम की
ईंट पकायेगा मनमाने
बेडौल साँचों में
ढालेगा कच्ची मिट्टी पर
बुझा पड़ा होगा आँवा।”12
सर्वेश्वर ने सत्ता के
प्रतीक के रूप में भेड़िया-तेंदुआ-गोबरैला-लकड़बग्घा-सांप जैसे जानवरों को चुना
है। इन प्रतीकों के माध्यम से वे सत्तातंत्र के मुखौटे को बेनकाब करते हैं। इनका
प्रतिरोध करने के लिए सर्वेश्वर मशाल-लालटेन-टार्च-आग जैसे प्रतीकों को चुनते हैं
जो जनता की शक्ति के परिचायक हैं। सर्वेश्वर जनता से अपील करते हैं कि वह अपनी
सामूहिक शक्ति द्वारा सत्ता के उन भेड़ियों को खदेड दे। कवि दूर से बैठकर तमाशा
नहीं देखना चाहता। वह क्रांति की आग को अपने भीतर भी महसूस करता है। बहुत दिन से
जो मध्यावर्गीय द्वंद्व कवि के भीतर चल रहा था उससे वह उबर गया और जनता का अगुवा
बनकर वह उनके साथ आगे बढ़ना चाहता है उनके चेहरे में अपना प्रतिबिंब देखता है -
“यह आग मेरे करीब आती जा
रही है।
कभी मैं किसानों की चिलमों में
अंगारे की तरह दमकने की
कामना करता था
मज़दूरों की बीड़ियों में सुलगने के
ख़्वाब देखता था।
उनके चूल्हों में धधकना चाहता था।
और इस तरह अपने को बचाकर
उनका और उनके लिए होना चाहता था।
अब उनका और मेरा चेहरा
एक हो गया है।”13
आपातकाल से पूर्व नक्सकलवादी आंदोलन के समय ही सत्ता का खूंखार चरित्र जनता के
सामने उजागर हो गया था। सत्ता के भेड़िए और तेंदुए निरीह जनता का शिकार कर रहे
थे। देश में लोकतंत्र अभी शिशुवत अवस्था में ही था कि लकड़बग्घे उसका शिकार करने
लगे थे ऐसे समय में सर्वेश्वर जनता के साथ खड़े होकर उनका आवाहन करते हैं-
“भेड़िए की आँखें सुर्ख
हैं।उसे तब तक घूरो
जब तक तुम्हारी आँखें
सुर्ख न हो जाएँ।
भेड़िया गुर्राता हैतुम
मशाल जलाओ
उसमें और तुम में यही
बुनियादी फर्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला
सकता।”14
सच्चे लोकतंत्र के मार्ग में
साम्प्रदायिक दंगे बहुत बड़ी बाधा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्ष
राज्य की संकल्प्ना की थी किन्तुस्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक साम्प्रकदायिकता
की ये आग बुझी नहीं। दंगों के समय एक साधारण सा आदमी आदमखोर जानवर कैसे बन जाता है
यह बात आश्चुर्य पैदा करती है।
“ऐसा क्यों होता है?
कि धर्म ग्रंथ छूकर भी
किसी आदमी के हाथ
जंगली जानवर के पंजे में
बदल जाते हैं
ज़हरीले नाखून से वह
इनसान की सूरत नोंचने
लगता है
और ईश्व र का नाम लेते ही
जीभ लपलपाने लगती है
वह स्त्री के उन स्तनों को चबाने लगता है
जिसने उसे पाला है
मंत्रों और आयतों की जगह
दहाड़ सुनाई देती है।”15
सर्वेश्वैर ने अपनी भूख नामक कविता में लिखा है जो भी भूख से लड़ने खड़ा होता
है वह सुन्दर दिखने लगता है। सर्वेश्वंर की कविताएँ भूख से लड़ती हैं।
लाखों-करोडों जनता की भूख के लिए सर्वेश्वरर की कविताएं लड़ती हैं। उस व्यवस्था के
खिलाफ जिसमें लाखों लोग भूखे पेट सोने के लिए विवश हैं। उस व्यववस्था के खिलाफ
सर्वेश्वर की कविताएं लड़ती हैं। आम जनता से सर्वेश्वेर को गहरा लगाव है उनके
अंतर्मन में करोड़ों शोषित-प्रताड़ित जनता के लिए करूणा का सागर है। जो लोग जनता
को पैरों की धूल समझते हैं। उसी धूल को सर्वेश्वर ऐसे लोगों की आंखों में झोंकना
चाहते हैं। प्रयोगवाद और नई कविता के अधिकांश कवियों की अभिजात्यवादी भाषा के
विपरीत वे ऐसी सहज-सरल भाषा में कविता रचना चाहते हैं जो साधारण जनता तक पहुंच
सके। वे अपनी कविताओं के द्वारा बौद्धिक समाज में अपनी धाक जमाना नहीं चाहते बल्कि
साधारण मनुष्यों के होठों का गीत बनना चाहते हैं।
“मैं साधारण हूँ और साधारण ही रहना चाहता हूँ। आतंक बनकर छाना नहीं चाहता। मेरी
भाषा मेरे भाव मेरे विचार, बिंब, प्रतीक कुछ भी आतंककारी न हो सकें। वे सहज आत्मीय हों। हर
कविता लिखते समय मेरी यही कामना रहती है। इसलिए मैं बिंब और प्रतीक आम आदमी की
रोजमर्रा की जिंदगी से उठाता हूँ। यदि मेरी भाषा मेरा साथ देती और मुझमें क्षमता
होती तो मैं अपने देश के अनपढ़ आदमी के लिए छंदबद्ध सहज कविता लिखता जिसे वह याद
करके गा सके कवि रूप में यही मेरी सबसे बड़ी कामना है। एक अनपढ़ गरीब समाज में
रहकर यदि मैं एक पढ़े-लिखे समृद्ध समाज की भाषा अपनी कविता में बोलता हूँ तो मुझे
लगता है कि मैं झूठ बोलता हूँ। मैं सच्चा नहीं चालाक बनना चाहता हूँ।”16
सर्वेश्वर का यह कथन यह
स्पतष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि एक तरफ वे समाज में सच्चे लोकतंत्र के हिमायती
थे तो दूसरी तरफ कविता में। दिल्ली की तारकोल की सड़कों पर चलकर वे अपने गाँवों की
कच्ची सड़क कभी नहीं भूले। यदि नागार्जुन को फटे बिवाई वाले रिक्शा चालक के पैरों
के प्रति श्रद्धा थी तो सर्वेश्वकर को भी -
“तारकोल और बजरी से सना
सड़क पर पड़ा है
एक ऐंठा दुमड़ा बेडौल
जूता।
मैं उन पैरों के बारे
में सोचता हूँ
जिनकी इसने रक्षा की है
और श्रद्धा से नत हो जाता हूँ।”17
वर्तमान दौर में जब पूरी
दुनिया में चारो तरफ हिंसा का वातावरण है। मानवता रोज शर्मसार हो रही है।
सर्वेश्वर की कवितायें मानवता के पक्ष में खड़ी दिखती हैं। सर्वेश्वर की कवितायें
प्रेम की ताकत का एहसास दिलाती हैं।किन्हीं दो क्षणों केदो छोटे पत्थरों पर टिक
जाती हैं
“एक विशाल मेहराब दो पत्थरों पर सदियों तक टिकी रह जाती है
लेकिन गहरी नींव पर बनी दिवार अक्सर
हिल जाती है”18
सन्दर्भ सूची -
1. संपादक वीरेन्द्र जैन -
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली;भाग. 2 पृष्ठ सं०. 135
2. वही;भाग.1 पृष्ठ सं०. 39
3. वही पृष्ठ सं०.307
4. वही ;भाग.2 पृष्ठ सं०. 56
5. वही ;भाग.1पृष्ठ सं०. 315
6. वही ;भाग.2. पृष्ठ सं०. 225
7. वही . पृष्ठ सं०. 38
8. वही ;भाग.1 पृष्ठ सं०. 327
9. वही . पृष्ठ सं०. 393
10. वही . पृष्ठ सं०. 54-55
11. वही . पृष्ठ सं०. 27
12. वही . पृष्ठ सं०. 319
13. वही ;भाग.2द्ध. पृष्ठ सं०. 94
14. वही . पृष्ठ सं०. 100.101
15. वही . पृष्ठ सं०. 71.72
16. वही ;भाग.1 पृष्ठ सं०. 6.7
17. वही ;भाग.2 पृष्ठ सं०. 197
18. वही ; पृष्ठ सं०. 132
अभिषेक प्रताप सिंह
सहायक प्रवक्ता,हिन्दी महाविद्यालय (उस्मानिय विश्वविद्यालय), हैदराबाद
मो– 9676653244,ई-मेल:abhishek.pcu@gmail.com
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