चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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साक्षात्कार:प्रो.मैनेजर पाण्डेय से दिवाकर
दिव्य दिव्यांशु की बातचीत
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में सिद्ध-नाथ साहित्य
और विशेष रूप से ‘सरहपा’ की क्या स्थिति है ?
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
हिंदी आलोचना में सरहपा को किस रूप में देखा गया है ?
अथवा उनकी क्या
स्थिति है ?
हिंदी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल सिद्धों को पसंद
नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने उसकी कड़ी ओचना कीहै। रामविलास शर्मा भी उसे पसंद
नहीं करते थे। अतः उन्होंने भी कुछ नहीं लिखा है।
सरहपा की स्थिति ये है कि वे सिद्ध साहित्य के केंद्र में हैं। सिद्ध
साहित्य एक तो मिलता बहुत कम है। राहुल जी ने ही 84 सिद्धों की खोज की और हिंदी
काव्य-धारा में इनकी चर्चा करते हुए इनकी कविताओं का उदाहरण दिया है। इसके अलावा
सिद्धों की कविताओं का कोई उदाहरण तो मिलता नहीं है। इसलिए सरहपा केंद्रीय
व्यक्तित्त्व हैं।
दूसरा ये कि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है और ठीक
ही लिखा है कि सिद्धों के साहित्य का और नाथों के साहित्य का हिंदी के निर्गुण
संतों के साहित्य पर और विशेष रूप से कबीर पर सीधा असर पड़ा था। दोहे दोनों के यहाँ
थोड़े हेर-फेर के समान भाव के मिल सकते हैं। राहुल जी की पुस्तक दोहा-कोश की
विशेषता ये है कि उन्होंने सरहपा की मूल भाषा भी दी है और उसका हिंदी अनुवाद भी कर
रखा है। अन्यथा आज भी सिद्धों की भाषा को समझना संभव नहीं है।
‘सरहपा’ मूलतः बौद्ध परम्परा के कवि हैं। बौद्ध परम्परा में
गौतम बुद्ध के समय से जाति व्यवस्था का विरोध है जो सरहपा में दिखाई देता है।
कबीरदास में भी दिखाई देता है। अतःइन्हें जोड़ कर देख सकते हैं और फिर सरहपा के
दोहों की तुलना कबीर के पदों या साखियों से की जा सकती है। ये जो भारतीय समाज की
व्यवस्था है जिसमें जाति-पाति एवं ऊँच-नीच की भावना है, को भी जोड़ सकते हैं। इसलिए मुझे
ऐसा लगता है कि सरहपा और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा सकता है। इस पर अब
तक कोई काम नहीं हुआ है। यह एक नया काम होगा।
सिद्ध साहित्य और मूल रूप से सरहपा की भाषा दृष्टि
को किस रूप में देखेंगे ?
सिद्धों की भाषा दृष्टि पर बात की जा सकती है।
गुलेरी जी की पुस्तक‘पुरानी हिंदी’ हैजिसमें उन्होंने अपभ्रंश को पुरानी हिंदी कहा है। अतः यह देखना होगा कि क्या
पुरानी हिंदी का संबंध वे सिद्धों की भाषा से जोड़ते हैं ? इस संबंध में राहुल जी का तो
कहना ही यही है कि हिंदी का आरम्भ वहीं से होता है। बहुत सारे लोग इस बात को नहीं
मानते हैं। माने न माने उससे फर्क नहीं पड़ता। तथ्य अगर इस पक्ष में हों तो कहने से
परहेज नहीं करना चाहिए।
राहुल जी ने और गुलेरी जी ने अपभ्रंश को पुरानी
हिंदी कहा है। राहुल जी ने तो सरहपा को हिंदी का पहला कवि माना है। डॉ. नगेन्द्र
ने भी अपनी पुस्तक में सरहपा के दोहों का हवाला देते हुए उन्हें पहला कवि बताया है
और अब पूर्णरूप से इसेस्वीकार भी कर लिया गया है। परंतु फिर भी हिंदी आलोचना में
इस विषय पर बहुत ज्यादा नहीं लिखा गया है। ऐसी स्थिति क्यों है ?
लोग कहते नहीं हैं पर मन में तो है। बौद्ध धर्म का
विनाश ही हिन्दुओं के कारण हुआ। ‘क्या आपने बज्रसूची का नाम सुना है’ लेखमेंमैंनेइसकी थोड़ी बहुत चर्चा
की है कि कैसे इस देश का बौद्ध साहित्य गायब हो गया। अपने आप तो गायब नहीं हो गया।
हिन्दू अपना दोष छिपाने के लिए मुसलमानोंपरआरोप लगाते हैं। मुसलामानोंमें ऐसे शासक
थे जो विश्वविद्यालयोंऔर पुस्तकालयों को नष्ट किया पर इससे किसी देश से किताबें
गायब नहीं होतीं। नालंदा विश्वविद्यालय में जो पुस्तकें थीं वो हस्तलिखित थीं
क्योंकि उस समय प्रिंटिंग प्रेस नहीं था। बज्रसूची अश्वघोष की रचना है। उसकी कोई
प्रति हिंदुस्तान में नहीं मिली है। कोई तिब्बत में, कोई चीन में तो कोई गोबी के
मरुस्थल में मिलीहै। उसी प्रकार सरहपा की रचनाएँ भी इस देश से गायब हो गईं। एक तो
रचनाएँ नहीं मिलतीं। आज भी सिद्धों का साहित्य हिंदी में उतना नहीं है जितना
बांगला में। म.म.हरप्रसाद शास्त्री ने उसे खोजा था और उसे सम्पादित किया था। राहुल
जी को भी उन्हीं से प्रेरणा मिली थी।तो उतन भी हिंदी में नहीं है। हिंदी साहित्य
में सरहपा और सिद्धों के बारे में लोग उतना ही जानते हैं जो राहुल जी ने हिंदी
काव्यधारा में कर रखा है। तो आलोचक लिखे कैसे। इसके तीन कारण हैं :
पहला यह कि बौद्ध धर्म दर्शन से द्वेष और दूसरा उनकी
उपलब्धता का न होना। तीसरा कारण उसकी भाषा का स्वरुप है जो किसी को समझ में ही
नहीं आता। तो लिखे कैसे। अब सभी आदमी राहुल जी की तरह अनेक भाषाएँ तो नहीं जानता।
मान लो कि रामचंद्र शुक्ल ने एक दृष्टिकोण बनाया कि ये साहित्यिक रचनाएँ नहीं हैं।
धार्मिक रचनाएँ हैं। अब तुलसीदास की रचना धार्मिक है तो चलेगी सरहपा की नहीं चलेगी।
फर्क दृष्टिकोण का है। तो इसलिए लोगों ने नहीं लिखा है।
जब शुक्ल जी ने उनकी रचनाओं को धार्मिक साहित्य कहकर
ख़ारिज किया तो इसके ठीक उलट हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उसे हिंदी की अमूल्य निधि
बतलाया। परंतु अंत में उन्होंने यह कहा कि उनकी भाषा हिंदी नहीं है। अतः हिंदी
साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से माना जाना चाहिए। इस पर अपने विचार प्रकट करें ?
द्विवेदी जी के कथन में अंतर्विरोध है।भई जब वो
हिंदी है ही नहीं तो हिंदी की अमूल्य निधि कैसे ही गई। फ़ारसी में लिखा साहित्य
हिंदी की अमूल्य निधि तो है नहीं या संस्कृत में लिखा साहित्य। इसलिए ये सवाल
दृष्टिकोण का भी है। ये जरुर है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को आचार्य
रामचंद्र से मतभेद प्रकट करना था तो शुक्ल जी की धार्मिक साहित्य की धारणा का तो
खंडन किया और उसमें सिद्धों-नाथों एवं जैनियों के साहित्य को महत्त्वपूर्ण साहित्य
कहा पर जब वो हिंदी साहित्य नहीं है तो हिंदी की अमूल्य निधि कैसे मानी जाए।
सरहपा और हिंदी आलोचना विषय पर काम करते हुए क्या
अपभ्रंश भाषा पर भी काम करने की जरुरत है ?
सरहपा की भाषा को कुछ लोग अपभ्रंश का ही अगला रूप
मानते हैं इसलिए लिंक जोड़ो। वह इसलिए भी जरुरी है कि नामवर सिंह की एक किताब है ‘हिंदी के विकास में
अपभ्रंश का योग’ तो अपभ्रंश से हिंदी के ज्यादा करीब है सरहपा की भाषा। तो उसका योगदान क्यों
नहीं होगा। इसमें नामवर जी के विचार का भी उसमें उल्लेख होगा। अपभ्रंश की जानकारी जरुरी नहीं है। उसके इतिहास की जानकरी अपेक्षित है।
इतना ही जानना जरुरी है क्योंकि मूल चिंता अपभ्रंश की नहीं सरहपा की है। यदि कोई
पूछे की अपभ्रंश जानते हो क्या तो बताओ कि किताबों में अपभ्रंश के बारे में जो
लिखा है, वहजानता
हूँ।
हिंदी साहित्य की शुरुआत सरहपा से मानना कितना उचित
है ?
सिद्ध साहित्य अगर हिंदी साहित्य का हिस्सा है तो इसके सबसे
बड़े साहित्यकार सरहपा हैं। अतः या तो सिद्ध साहित्य को हिंदी से निकाल दीजिये। यदि
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से माना जाना
चाहिए तो शिवदान सिंह चौहान ने का हा है कि यदि हिंदी साहित्य अगर खड़ी बोली हिंदी का
साहित्य है तो इसकी शुरुआत 19वीं. सदी से होता है। तो सूर, तुलसी, जायसी तो गए क्योंकि इसमें कोई
ब्रज का कवि है तो कोई अवधी का। खड़ी बोली का नहीं। फिर विद्यापति जो कि मैथिली के
हैं तो दोनों नहीं चलेगा कि व्यापकता के लिए आप विद्यापति को शामिल कर लीजिये,
सूर, तुलसी, जायसी को शामिल कर
लीजिये और शुद्धता के नाम पर भक्तिकाल जपते रहिए। भक्तिकाल खड़ी बोली हिंदी का
काव्य तो है नहीं।
भाषाओं का विकास ऐसे नहीं होता है कि एक दिन में एक
भाषा पैदा हो गई। भाषाओँ का विकास क्रमशः ही होता है। इन सब भाषाओं का खड़ी बोली
हिंदी के विकास में योगदान है। इसलिए नामवर सिंह का जो शीर्षक है ‘हिंदी के विकास में
अपभ्रंश का योग’ तो किस हिंदी के विकास में। खड़ी बोली के विकास में थोड़े है। इसलिए वह वही नहीं
है जिसकी चर्चा शुक्ल जी अपने इतिहास में करते हैं। मान लो ‘पृथ्वीराजरासो’ है। सबलोग उसे हिंदी की
रचना मानते हैं पर उसकी भाषा वही नहीं है जो तुलसीदास की है या कबीरदास की है।
भाषाओं का जो क्रमिक विकास होता है उसमें आगे आने वाली भाषा पीछे गुजरी हुई भाषा
से बहुत कुछ चीजें सीखती है।शब्द आते हैं, व्याकरण के रूप आते हैं। सब उसमें से इसमें आते हैं।
उसी तरह से इन भाषाओं का आपस में संबंध है।
दिवाकर दिव्य दिव्यांशु
शोध छात्र,हिंदी विभाग,हैदराबाद केंद्रीय विश्विद्याल, हैदराबाद
मो.9441376548,ई-मेल:divyanshuhcu@gmail.com
बहुत खूब
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