चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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सिनेमा:वर्तमान हिंदी सिनेमा और सशक्त महिला चरित्र/शिप्रा किरण
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
वैसे सिर्फ सिनेमा ही क्यों, भारतीय दर्शक भी तो बिल्कुल उसी
रफ्तार से बदल रहा है। ये जो नया दर्शक है, उसने सिनेमा के इस परिवर्तित और
अपेक्षाकृत समृद्ध रूप को तहे-दिल से स्वीकार किया है। श्याम बेनेगल ने कभी अपने
एक साक्षात्कार में इसी भारतीय दर्शक के बारे में कहा था कि ‘यह हमारे डीएनए में है
कि हम एक ख़ास किस्म की फिल्में पसंद करते हैं’। लेकिन हिंदी सिनेमा के बदले
हुए परिदृश्य को देखकर लग रहा है कि इस डीएनए की ‘खास पसंद’ में हलचल हुई है। अभी श्याम
बेनेगल के उपरोक्त कथन को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज भी बहुसंख्य फिल्में
उसी ‘खास
किस्म’ की
श्रेणी में आती और बनाई जाती हैं। लेकिन हाँ, इन सबके बावज़ूद कुछ ऐसी फिल्में
भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने बनाये ढाँचों को हिलाने की जुर्रत की है।
अपने समय को संयमित ढंग से दृश्यबद्ध किया है। और सफलता के नये मानदंड भी गढ़े
हैं।
हाल-फिलहाल रिलीज हुई कुछ फिल्मों पर नज़र डालें तो
पाएँगे कि ‘हंसी तो फंसी’, ‘हाईवे’ और ‘क़्वीन’
जैसी फिल्में एक
बिल्कुल नये तरह के सिनेमाई-सौंदर्यशास्त्र को विकसित कर रही हैं। ‘हाईवे’ की वीरा एक उच्चवर्गीय
और रसूखदार परिवार की लड़की है। बचपन से ही वह अपने पिता के बड़े भाई यानी अपने
बड़े चाचा द्वारा शारीरिक शोषण का शिकार होती आयी है। जब वह इसके बारे में अपनी
मां को बताती है तो उसकी मां उसे चुप रहने और इस बाबत किसी से कुछ नहीं कहने की
सलाह देती है। ग़ौरतलब है कि यह वही वर्ग है, जो हमेशा सभ्य और इज्ज़तदार होने
का दावा करता आया है। लेकिन साथ-साथ ये भी याद रखना चाहिये कि यही वर्ग ख़ानदान की
इज्ज़त और मोरल पुलिसिंग के नाम पर, अपने ही घर की लड़कियों की हत्या भी करता आया है। यही वह
तथाकथित सभ्य वर्ग है, जहाँ बात-बात पर लड़कियों को तहज़ीब और एटीकेट की दुहाई दी
जाती है और इसी वर्ग में दीवारों के भीतर स्त्री को, ड्राइंग रूम के किसी कीमती
शो-पीस की तरह ट्रीटमेंट दी जाती है।
अपनी बेटी के साथ घर में ही हो रहे अनाचार के खिलाफ
आवाज़ बुलंद करने की बजाय, चुप रहने की सलाह देना, उसे सिर्फ वीरा का ही दोषी नहीं
बनाता, बल्कि
पूरे स्त्री समाज का दोषी बनाता है। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि पितृसत्ता
ने पूरी सामाजिक व्यवस्था को इस तरह जकड़ रखा है कि एक स्त्री को यह एहसास भी नहीं
होता कि किस तरह वह उस सत्ता की जड़ों को मजबूत करती जाती है। किस तरह वह एक
कठपुतली मात्र बनकर स्त्रियों के खिलाफ किये जाने वाले हर अपराध में सहभागी बनती
रही है।
फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पात्र है- महावीर भाटी। वह
वीरा का अपहरणकर्ता है। फिल्म में फ्लैश बैक के माध्यम से हमारा परिचय महावीर की
मां से होता है, जो एक निम्नवर्गीय ग्रामीण पात्र है। पति से पिटना और गाली सुनना, जैसे उसकी नियति ही है।
वीरा और महावीर की मां की नियति लगभग एक ही है और दोनों के जीवन की कड़ियाँ,
इस स्तर पर एक ही
बिंदु पर जाकर मिलती हैं। अंतर सिर्फ दोनों के परिवारों के सामाजिक स्तर में है।
बाकी शोषण के तरीकों, शोषण के हथियारों और शोषण करने वालों मे कोई अंतर नहीं है। फिल्म में महावीर
का एक संवाद, इस शोषण के एक नये पहलू की ओर भी इशारा करता है- ‘“गरीबन की लुगाई की कहाँ इज़्ज़त”!’
शोषण का यह पहलू,
धनी का निर्धन पर
किये जाने वाले अत्याचार को दर्शाता है और ग़रीब पर किये गये इसी अन्याय का बदला
लेने के लिये महावीर, वीरा को कोठे पर बेचने की बात सोचता है। यहाँ फिल्म जेंडर के सवाल से आगे निकल
कर वर्गीय टकराव की तरफ बढ़ती है।
स्त्रियों के उत्पीड़न के बीज सिर्फ पितृसत्ता और
जेंडर के सवालों में ही नहीं, बल्कि उससे कहीं आगे बढ़कर वर्ग से जुड़े सवालों में भी
तलाशने चाहिए। ‘हाईवे’ एक ही साथ वर्ग और जेंडर के द्वंद्व और इसके गठजोड़ की बारीकियों को समझाती
है। इसी तरह ‘हंसी तो फंसी’ की मीता के माध्यम से हम एक बिल्कुल नये तरह का चरित्र देख पाते हैं। मीता एक
तरफ तो लापरवाह, साहसी और मनमौजी है तो दूसरी तरफ उसमें कुछ कर गुजरने की चाहत और ललक भी है।
वह अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई और रीसर्च के लिए विदेश जाना चाहती है, लेकिन अपने बड़े भाई के
दबाव में आकर, उसके पिता उसे आगे पढ़ने के लिये पैसे देने को तैयार नहीं होते। अपने ही
परिवार की एक लड़की का मॉडल या अभिनेत्री बनना उन्हें अजीब नहीँ लगता। लेकिन किसी
लड़की का इंजीनियर बनना, उनसे बर्दाश्त नहीं होता। यह कहना गलत नहीं होगा कि यही
दोमुँहापन मध्यवर्ग का स्थाई वर्गीय-चरित्र बन गया है।
मीता के चाचा को लड़की की पढ़ाई पर पैसे खर्च करना
नाग़वार गुजरता है। उन्हें तो बस एक ही चिंता रहती है कि मीता से शादी कौन करेगा?
उन्हें मीता के
लड़कों जैसे कपड़ों और छोटे बालों से हमेशा चिढ़ होती है। चाचा, मीता के पिता से कहते
हैं- “’यह
तुम्हारे घर में दामाद नहीं बहू लाएगी’। यह घोर पुरूषवादी जुमला, अक्सर ही हमारे भारतीय
मध्य-वर्गीय घरों में उछलता हुआ देखा जा सकता है। इसी संदर्भ में सिमोन द बोऊआर का
ये कथन भारतीय समाज के चरित्र पर एकदम सटीक और खरा उतरता है, जब वह कहती हैं- “’दल बनाकर सड़क पर घूमने
वाली लड़कियाँ दूसरों के लिये नमूना बन जाती हैं. उनका उछलते कूदते चलना, जोरों से हंसना, ठहाके लगाना, या कुछ खाना पुरुष-वर्ग
का ध्यान आकर्षित ही करेगा। जो ऐसा करती हैं, उनकी चर्चा हुए बिना नहीं रहती।
लापरवाह खुशी उनके लिये एक बुरा आचरण ही कहलाती है।’” वर्षों पहले यूरोपीय समाज के
विषय में लिखी गई यह पंक्ति आज भारतीय समाज के संदर्भ में पूरी तरह सही प्रतीत
होती है।
फिल्म के अंत में मीता के पिता का उसके साथ खड़ा
होना और यह कहना कि “यह सब इसी का तो है”, एक बदले हुए नज़रिये को तो दिखाता ही है... साथ ही समाज में
लड़की के पिता की मजबूत होती स्थिती को भी दर्शाता है। इसी तरह मीता के प्रेमी का
मीता को उसके “तथाकथित मर्दाना मनमौजीपन” के साथ सहज रूप में, प्रेम करना और उसके अनुरूप खुद
को ढालना, एक बदले हुए पुरूष के साथ-साथ एक बदली हुई मानसिक अवस्था का भी द्योतक है।
‘क़्वीन’ भी कुछ इसी मिजाज़ की फिल्म है। यह स्त्री
स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को, उनके सबसे आधारभूत और सबसे ज़रूरी
स्तर पर समझने की कोशिश करती है। यह फिल्म स्त्री के पूरे व्यक्तित्व के गढ़न की
कहानी कहती है। एक बहुत ही आम लड़की के कमज़ोर होने, बिखरने और फिर संभलने की कहानी
है। रानी नामक पात्र के माध्यम से फिल्मकार ने स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का
बेहतरीन चित्रण किया है। जिस समाज में बचपन से स्त्री को घोड़े पर चढ़कर आने वाले
राजकुमार के सपने दिखाये जाते रहे हों, उस समाज में स्त्री का अपने मंगेतर द्वारा ठुकरा
दिये जाने पर, क्या स्थिती होती होगी! इसकी कल्पना की जा सकती है। रानी इसके लिये खुद को ही
गुनहगार समझती है, पास पड़ोस के लोग और रिश्तेदार भी उस पर दया दिखाने से नहीं चूकते। थोड़ा
संभलने के बाद वह अकेले यूरोप घूमने जाने का फैसला करती है। वही रानी, जिसे पड़ोस के दुकान भी
जाना होता था तो उससे सात-आठ बरस छोटे भाई को उसके पीछे लगा दिया जाता था, अब यूरोप जाती है और
अकेली जाती है। रानी की यह यात्रा सिर्फ रानी की ही नहीं, बल्कि हर उस स्त्री के अस्तित्व
और मानवीय गरिमा की यात्रा है, जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने सदियों से बस एक ‘चिर शिशु’ बना कर रखा है। क़्वीन
इसी चंगुल से आज़ाद होने की कहानी है।
ये फिल्में सिर्फ इसलिए ख़ास नहीं कि ये जेंडर के
सवालों से टकराती हैं, बल्कि इसलिए भी ख़ास हैं कि ये एक पूरी की पूरी सामाजिक
व्यवस्था से जूझने का माद्दा रखती हैं। सृजन एक घोर सामाजिक कर्म है और ऐसी
फिल्में ही सृजन और उसके उद्देश्य को सार्थक बनाती हैं। एक बहुत ही ज़रूरी बात यह
है कि इन फिल्मों ने एक फीमेल-प्रोटागोनिस्ट को रचाव है और यह बात हिंदी सिनेमा के
लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। सु़खद यह है कि भारतीय दर्शकों ने इस सिनेमा
को दिल खोल कर सराहा है। ये फिल्में केवल आलोचकों से प्रशंसा पाने तक ही सीमित
नहीं रही हैं, बल्कि इनका व्यवसाय भी खूब रहा है। मल्टीप्लेक्स-कल्चर के इस दौर में, जब कि थोक के भाव से
फिल्में रिलीज हो रही हैं और कोई भी फिल्म एक हफ़्-ते से ज़्यादा सिनेमाघरों में
नहीं टिक पाती, वहीं बिना किसी शोर-शराबे के रिलीज हुई, एक सादा फिल्म ‘क़्वीन’ दूसरे और तीसरे सप्ताह
भी अच्छा व्यवसाय करती है। इन फिल्मों ने मानो समानांतर सिनेमा की अवधारणा को ही
समाप्त कर दिया हो, इस सिनेमा ने कला सिनेमा और मेनस्ट्रीम सिनेमा के अंतर को मिटा दिया है। कला
फिल्में कही जाने वाली उन फिल्मों का दौर बीत गया लगता है, जिसका दर्शक एक खास किस्म का
एलीट वर्ग हुआ करता था। आज का सिनेमा यदि मेनस्ट्रीम या व्यावसायिक सिनेमा है,
तो साथ ही वो अपने
भीतर कला फिल्मों की सादगी और सौन्दर्य को भी समेटे हुए है। शायद अब फिल्मकारों को
राष्ट्रीय पुरस्कारों को लक्ष्य कर कुछ खास तरह की फिल्में बनाने की ज़रूरत नहीं रह
गई है।
इस नये सिनेमा ने फिल्मों को एक खास तरह के ‘एलीटीज्म’ से बचाया है। स्त्री
पात्रों को नायक के रूप में प्रस्तुत करने वाली, इन फिल्मों की स्त्रियाँ अपने
शर्म और संकोच की कैद से निकल जाती हैं। ये तथाकथित साभ्रांत समाज से बेपरवाह हो
ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, ज़ोर–ज़ोर
से गाती हैं और तब तक नाचती हैं, जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता। ये महँगी शिफॉन साड़ियों
में या कई-कई किलो के लहंगे और अनारकली सूट में नज़र नहीं आतीं, बल्कि साधारण कपड़ों में
ही अपने व्यक्तित्व को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती हैं। ‘हाईवे’ के वीरा की जिप्सी वेशभूषा हो या
‘हंसी तो
फंसी’ की
मीता के तथाकथित मर्दाना कपड़े- इन सब में स्त्रियाँ अपने बदले हुए और कायांतरित
रूप में दिखायी देती हैं।
‘हाईवे’ की वीरा जबर्दस्ती थोपे गये अनुशासन और एटीकेट की
पोल खोलती है। इसी संदर्भ में स्त्री-विमर्श की क्लासिक कृति “स्त्री अधिकारों का
औचित्य-साधन” की लेखिका मेरी वोलस्टन क्राफ्ट का वह कथन याद आता है, जब वह स्त्रियों पर थोपे गये
अनुशासन की तुलना सैनिकों के अनुशासन से करती हैं, जहाँ अनुशासन का एकमात्र लक्ष्य
व्यक्ति को पराधीन रखना होता है। वीरा इस पराधीनता को समझ जाती है, तभी झूठे तहज़ीब से बाहर
निकल कर वह कह पाती है कि “अब मैं जा चुकी हूँ”। इसी तरह ‘क़्वीन’ की रानी प्रेम की दासता से मुक्त हो अपने सम्मान को
चुनती है, तो ‘हंसी
तो फंसी’ कि
मीता अपना हक़ ना मिलने पर उसे चुरा लेती है। वीरा का जाना, अकेले उसका जाना नहीं है। यह
अपने पहचान के संकट से जूझती हर लड़की का जाना है। यह हिंदी सिनेमा में औरत के
शख्सियत की वापसी है। औरत की इस वापसी को, उसके जुझारूपन को, दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया है।
दर्शक अब अस्सी-नब्बे के दशक की शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर निकल, यथार्थ की खरोंचों को
महसूस करना चाहता है। वह आईने में स्वयं को देखना और ख़ुद को जनना चाहता है।
इन तीनों ही फिल्मों ने जेंडर डिस्कोर्स को नये मोड़
दिये हैं। साथ ही उन बहसों में कुछ नये अध्याय भी जोड़े हैं। जहां पुरुष स्त्री का
शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने मेल-ईगो और वर्चस्ववाद से
मुक्त हो, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नये तरीके से, अपना विकास कर रहा है।
स्त्री छवियों के साथ-साथ पुरुषों कि सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये
पूरी तरह स्वीकार्य हैं। हिंदी सिनेमा उद्योग के अपने समाज में भी स्त्रियों
अर्थात अभिनेत्रियों और महिला कलाकारों की स्थिति में उत्साहजनक बदलाव दिखाई देते
हैं। अंग्रेज़ी दैनिक ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए अपने हालिया साक्षात्कार में माधुरी दीक्षित यह
स्वीकार करती हैं कि अब अभिनेत्रियों को ज़्यादा स्पेस मिल रहा है और उनके पास अधिक
विकल्प भी हैं। समाज व सिनेमा पर परिवर्तन के इस बयार के असर को साफ़-साफ़ महसूस
किया जा सकता है।
आज सिनेमा ने मनोरंजन के अर्थ बदले हैं। इसके पैमाने
बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया है कि बदला हुआ, यह दर्शक केवल लटकों-झटकों से
तुष्ट नहीं होने वाला। उसे बदलते सामाजिक आर्थिक मौसम के अनुरूप कुछ खास, कुछ मजबूत आहार की
ज़रूरत है। यही वजह है कि करण जौहर जैसे विशुद्ध सिनेमा व्यवसायी भी अपने
स्वनिर्मित रूमानी किले से बाहर निकलने और ‘माइ नेम इज़ ख़ान’ और ‘बॉम्बे टाकिज’ जैसी फिल्में बनाने को
मजबूर हुए हैं।
अब हिंदी सिनेमा अपने पुरसुकून रोमानी माहौल से उबर
रहा है। उसने दर्शकों की बेचैनी को भांप लिया है और अब उसे आवाज़ देनी भी शुरू कर
दी है। अपने नये मिजाज़ से दर्शकों को नये सिरे से न सिर्फ अपनी तरफ खींचा है बल्कि
उन्हें नये तरीके से सोचने पर मजबूर भी किया है। अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी, इम्तियाज़ अली जैसे युवा
निर्देशकों तथा ज़ोया अख़्तर, रीमा कागती और किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने
हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनके स्त्री पात्र अब
विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी डिप्रेशन के शिकार नहीं होते। ना ही ये किसी
‘मीना
कुमारी सिंड्रोम’ से ग्रस्त हैं। ये लड़कियाँ तो इन झमेलों से आगे निकल, जीने के नये रास्ते और उड़ने को
नया आसमान ढूँढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक़्त अपने दुखड़े सुनाते
चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहे। उन्हें भी पात्रों में समय को परिभाषित
करने वाले सशक्त व्यक्तित्व और चरित्र की खोज है। और यही पिछले कुछ वर्षों से
हिन्दी सिनेमा को एक नये युग की तरफ खींचे लिए जा रहे हैं। यह न सिर्फ सिनेमा के
लिए बल्कि भारतीय समाज के लिए भी उम्मीद की किरण जैसा है।
शिप्रा किरण
अतिथि सहायक आचार्य,हिंदी विभाग,बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय
लखनऊ-226025,मो.0960901662,ई-मेल:kiran.shipra@gmail.com
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