चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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आलेख:बुन्देलखण्ड के सामाजिक लोक नृत्य/उमेश कुमार
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
बुन्देलखण्ड प्रदेश में नृत्य की पदचाप का श्रवण आज से हजारों वर्ष पूर्व किया गया था। ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकर के डमरू के निनाद से जहां स्वरों की तरंगित लहरी का उद्गम हुआ वहीं कामदेव पर कुपित अंग प्रत्यंगों की फडकन से ताण्डव का प्रादुर्भाव हुआ। यही ताण्डव नृत्य का प्रथम आधार बना। प्रदोषस्रोत में भगवान शंकर के नृत्य के विषय में कहा गया है कि मन भावनाओं को व्यक्त करने से जिस प्रकार से साहित्य का सृजन हुआ उसी भांति अंगों प्रत्यंगों को गतिमान करके अभिव्यक्ति का माध्यम बना ये नृत्य। बुन्देली लोक नृत्यों के मर्मज्ञ श्री मोहनलाल जी श्रीवास्तव के अनुसार लोक नृत्य, लोक कला का एक आदर्श अंग है।
शब्द के माध्यम से जिस सत्य की अभिव्यक्ति होती है, वह साहित्य है और गति के माध्यम से जिस प्रकार का प्रस्फुटन होता है, वह नृत्य है। साहित्य साधना साध्य है, वाणी का तप है। नृत्य स्वयंभू है, इसलिये अधिक स्वभाविक है। साहित्य में जीवन सत्य की अनबोली छाया स्वर पाती है, लेकिन नृत्य में जीवन शक्ति का आनन्ददायक आन्दोलन चित्रित होता है। मेरा मतलब यहां साहित्य और नृत्य का तुलनात्मक विवेचन नहीं है वरन् में कहना यह चाहता हूँ कि नृत्य शिशू की शैशव क्रीडा की तरह स्वभाविक है। उसमें तारुण्य है, यौवन है उभार है, गति है और सबसे परे सृजन की तल्लीनता है। यदि साहित्य ऋषि की तरह वृक्ष है तो नृत्य ब्रहम्चारी की तरह तरुण वीर्यवान है। अस्तु मनुष्य ने अपने खाली समय को जब मन के भावों से भरने का प्रयास किया और उसके इस प्रयास में शरीर के अंगों ने माध्यम बनकर विभिन्न भंगिमाओं को मूर्त रुप दिया तभी नृत्य का उदय हुआ। बुन्देलखण्ड में लोक द्वारा स्वीकार नृत्य ही लोक नृत्य है।
सामाजिक लोक नृत्य-
आमतौर पर सभी नृत्य सार्वजनिक एवं सामाजिक होते हैं। इन सामाजिक नृत्यों में मनुष्य का व्यक्तिगत लाभ, प्रतिष्ठा जैसी भावनायें आदि सम्मिलित नहीं रहती है। वरन् इन नृत्यों से समाज का प्रत्येक वर्ग आनन्दित होता है और उमंग से भरकर उत्साहित होता है। इन नृत्यों में सामाजिक भावना का समावेश होता है। ये नृत्य सरल, सर्वगम्य सर्वसुलभ होने के साथ स्वसृजित होते हैं। इनमें अप्रयत्नशील सरलता होती है और इनके विविध रुपों में एकरुपता झलकती है। ये नृत्य जीवन की परम्पराओं, अनेकों संस्कारों तथा उनके अध्यात्मिक विश्वासों पर आधारित होते हैं। ये नृत्य नियमों में बंधे नहीं होते तथा सामूहिक रूप से नृत्यित किये जाते हैं। बुन्देली सामाजिक नृत्य कई प्रकार के होते हैं।
सैरा नृत्य- सावन, भादों के माह में जब धीमी धीमी बूंदें गिरती हैं और खेतों में कोई काम नहीं होता तब गांव के पुरुष जन मिल बैठते हैं। सैरा नृत्य पुरुष प्रधान नृत्य है। इस नृत्य में सभी पुरुष जन अपने- अपने हाथों में लकडी की छोटी डंडियां लेकर बजाते हैं तथा मण्डलाकार द्विपंक्तिकार तथा युगलाकार में डंडियों की एक साथ मिली जुली ध्वनि से थाप सर्जना करते हुये गाते हैं -
साहन सुहानी अरे मुरली बजे, भादों सुहानी मोर।
टिरिया सुहानी जबई लगे, ललुआ झूलै पौर के दौर।।
इसका अर्थ है कि सावन के महीने में जब मुरली (बांसुरी) बजायी जाती है तो उसकी धुन बहुत सुन्दर लगती है। भादों के महीने में जब मोर बोलती है तो उसकी आवाज सुनने में अच्छी लगती है। इसी प्रकार टिरिया (स्त्री) सुहानी जब लगती है, जब उसकी संतान हो।
इस नृत्य को कतकिया या राई दामोदर नृत्य भी कहते हैं। इसकी गायकी भी तान खींचकर की जाती है। इस गायकी में सामाजिक कटु सत्य की सुन्दर ढंग से विवेचनाभी होती है और नृत्य के समय दो पंक्तियां ही गायी जाती है।
पाई- पाई पद रौली में मिलता है जब सैरा गाते हुए नृत्य की गति बढती है तब इसे गाया जाता है। इसके गाते ही नृत्य की छवि मनमोहक हो उठती है। नृत्य करते लोगों की भाव भंगिमाओं से मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। पाई पद के शब्द निम्नवत् हैं -
बही जाऊं मोरे राजा हिलोरों में, मरी जाऊं मोरे राजा मरोरों में।
फरबन फरबन आ गई नरबदा पिड़री भींजै हिलोरों में।
ज्ंघियन जंघियन आ गई नरबदा, करहन भींजै हिलोरों में।
क्रहन करहन आ गई नरबदा, छतियें भींजें हिलोरों में।
मरी जाऊं मोरे राजा हिलोरों में।
रैया-इसे बुन्देलखण्ड की नारियां अपने कोकिल कंठ से कजली के दिन नृत्य करते हुये गाती हैं-
घरर घरर नदियां बहे, अरै रैया, गोरी धन माहो अन्हाय
काहे की सिल सपरय भई, काहैं कै जल स्नान
सुले की सिल सपरय भई, अरै मैय्या गंगा के जल स्नान
सपर खोर ठांड़ी भई अरै रैया सूरज की रख लैया
सूरज देवता तुम्ही बडै अरै रैया तुमसे बडोरे नइयां कोंय
सैरा नृत्य के चतुर्थ चरण में राक्षरों की गायकी भी हाती है।
सैरा नृत्य के पंचम चरण में कहीं - कहीं कजली की गायकी भी होती है अतः यह चरण कजली ही कहलाता है। वर्षा ऋतु में कजली की गायकी और नृत्य में पैरों की थाप का संयोग सुमधुर होता है।
ब. दिवारी नृत्य- इसे दीपावली के अवसर पर विशेष कर अहीर (यादव) जाति के लोगों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में सामाज के अन्य वर्गों के लोग भी सम्मिलित होते हैं। यह विशुद्ध रूप से पुरुषों का ही नृत्य है।
इस नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें गीत पहले गाया जाता है तथा नृत्य बाद में किया जाता है। इस नृत्य के बोल सामान्यतः दो-दो पंक्तियों के होते हैं तथा जब इनका गायन होता है तब कोई बाद्य यंत्र नहीं बजता। केवल गायक अपने दाहिने हाथ में लाठी को उठाकर ऊंचे स्वर में गायन करता है उसका दूसरा बांया हाथ उसके बांये कान पर रहता है और जैसे ही उसकी दूसरी पंक्ति समाप्त होती है, तुरन्त ही ढोल , नगड़िया , झींका , मंझीरा, बज उठते हैं और नृत्य की भंगिमायें प्रारम्भ हो जाती हैं। दिवारी नृत्य की गायकी की पंक्तियां बड़ी सन्दर होती है।
1, आज जुदैया तीज की रे भौजी खिलन ने देय
स्खियां ठांडी खोर में मोरो जीरा लहरिया लेय रे।
2, पिया बजारे जात हो, बेई चीजें लाइयो चार
सुआ परेबा किलकिला अरे बगला की उनहार रे।
मोनिया नृत्य- यह पुरुष प्रधान नृत्य है तथा दिवारी नृत्य की भांति होता है इसमें गायन नहीं हाता है। नर्तक मौन रहते हैं एवं अपने हाथों में मोर पंख लेकर नाचते हैं। यह नृत्य भगवान कृष्ण को समर्पित रहता है।
चूंकि इस नृत्य के नर्तक गण मौन रहते हैं अतः इसे मौनिया नृत्य कहते हैं। परन्तु इन मौनिया नर्तकों के साथ एक गायक अलग से रहता है जो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम व योग योगेश्वर श्री कृष्ण से संबंधित गीतों को गाता चलता है। भगवान श्री राम के वीरोचित स्वरुप का वर्णन इस मौनिया गीत में श्रंगार की चेष्टाओं का भी आर्विभाव करता है -
राम राम की कोठरी प्यारे चंदन जडे किबार
तारे लागे प्रेम के सो खोलो कृष्ण मुरार रे।
स्वांग नृत्य- एक व्यक्ति विभिन्न प्रतिष्ठित चरित्रों का रूप बनाकर गाँव में घूम - घूम कर सबका मनोरंजन करता है। वह व्यक्ति बहुरूप धारण करने के कारण बहुयपिया कहलाता हैं। कभी वह नारद का रूप धारण करता है, कभी वह शंकर जी का रूप बनाता है, कभी वह कुँअर हरदौल का रूप बनाता है। जो भी रूप वह बनाता है उसी के अनुरूप वह बोलता भी है। स्वांग के कुछ बोल निम्नवत् हैं -
1, लक्ष्मन पूंछे राम लंका को कौन गली जाये रे।
2, जब जाने पिया लंका में अमर बने रहे।
झिंझिया नृत्य- यह नृत्य विशुद्ध रूप से स्त्रियों तक ही सीमित है तथा केवल शरद पूर्णिमा की रात्रि में टेसू झिंझिया के विवाह के अवसर पर स्त्रियां अपने सिरों पर झिंझिया रखकर नृत्य करती हैं। पुरुषों के लिए तो इस नृत्य को देखना भी वर्जित होता है। सभी स्त्रियां चक्राकार रूप में घूमते हुए चलतीं हैं तथा अपने दोनों हाथों को घुमाकर स्वयं भी घूम -घूम कर इसे करतीं तथा गातीं हैं।
हाय मोरे नार की
रातैं डुको डुकरा से लडी थी।
राई नृत्य-यह नृत्य मुख्यतः बेड़नी जनजाति का नृत्य है जिसे बसंत पंचमी पर गुना जिले के वियावान जंगल में कुडीला पहाडी पर स्थित रामानन्दी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा संबंधित मन्दिर के आस - पास रात्रि में राई की मशाल की रोशनी में किया जाता है। ये बेड़नियां अविवाहित होती हैं तथा मुख्य रूप से ईश्वर के समक्ष ही नृत्य करती हैं।
कुछ लोग अब अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर भी इस नृत्य का आयोजन करवाते है। यह नृत्य स्त्री प्रधान नृत्य है तथा इसमें बेड़निया के साथ ढोलक बजाने वाला भी नृत्य में शामिल रहता है। इस नृत्य के साथ फागें गायी जाती है। ये फागें अध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती तथा दुनिया की वास्तविकता का भी बोध कराती हैं। ईसुरी की फाग बहुत ही उच्चकोटि की है।
बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की
कच्ची भींत उठी माटी की, छाई पूस चारे की
बेबन्देज बड़ी बेबाड़ा, जौ में दस द्वारे की
एकऊ नई किबार किबरियां, बिना कुची तारे की
‘ईसुर’ चाये निकारो, जिदना, हमें कौन बारे की।
इस नृत्य में बेडनियां अपने लहगें को इस प्रकार से हवा में लहराती हैं कि जैसे मट्ठा विलोरते समय मथानी चलती है। बुन्देलखण्ड में मथानी को रई कहते हैं अतः इस नृत्य का नाम राई नृत्य पडा। इस नृत्य की यह विशेषता है कि इसमें एक बार क्लाकवाईज तथा उसके बाद ऐन्टी क्लाकवाईज घूमा जाता है। राई के पुष्प के नीचे का भाग घूमा कहलाता है। इस घूमा की बनावट गोल लहरदार होती है। राई न्त्य के समय बेड़नियां जब चक्राकार मण्डल में घूमती हैं तब घूमा की आकृति सी बन जाती है। अतः इस राई का नाम बडा सापेक्ष है। बेडनियों द्वारा आम तौर पर इसे किया जाने के कारण इस नृत्य को बेड़नी नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
ल. जवारे नृत्य- यह नृत्य वर्ष में दो बार पडने वाली नवरात्रि में किया जाता है जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों नृत्य करते हैं। स्त्रियाँ अपने सिरों पर जवारों से भरे पात्रों को ऊर्ध्वाकार श्रंृखला रूप में रखकर झूम -झूम कर नाचती हैं। तथा हाथों को हवा में लहरा - लहरा कर मैया भवानी के दर्शनों का लाभ पाना चाहती हैं। बुन्देली लोक जीवन में स्त्री एक प्रेरणा स्रोत है। एक ओर जहां वह प्यार, ममता, त्याग और तपस्या की मूर्ति है वहीं दूसरी ओर वह अत्याचार अनाचार के विरूद्ध लडने वाली चंण्डी का रूप धारण कर लेती है। शायद इसी कारण वर्ष में सभी त्योहार एक बार होते है परन्तु नवरात्रि प्रेरणादायी बनकर वर्ष में दो बार मनायी जाती है और लोग बार - बार मां के दर्शनों से अपने आप को लाभान्वित करना चाहते हैं। परन्तु मैया के मठ का द्वार सकरा है अतः दुविधा में पड़कर गाते हैं -
कैसे के दरसन पाँऊरी, माई तेरी सकरी दुअरिया
सकरी दुअरियां, मइया चंदन किवरियां, धरम ध्वजा फहराये
माई तेरी सकरी दुअरिया
माई के द्वारे एक बांझ पुकारे, देव ललन घर जाँऊरी
माई तेरी सकरी दुअरिया
होली नृत्य- फागुन की पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात् युवकों युवतियों की अलग - अलग टोलियां निकलती हैं जो परम्परागत वाद्य यंत्रों को छोड़कर टीन आदि थपथपाते हुए नाचते एक दूसरे को रंग से सरोबोर करते अबीर, गुलाल इत्र लगाते चलते हैं। इस मस्तानी रंग बिरंगी बेला में होली की सुन्दर फागें गायी जाती हैं जिनमें श्रंगार रस उफनाता दिखलाई पडता है। भगवान श्रीकृष्ण यमुना के तट पर गेंद खेल रहे थे। उन्होंने गेंद फेंकी और उसी समय एक गोपिका वहां से निकली । तुरन्त ग्वालों ने उस गोपिका को घेर लिया और उस पर गेंद उठाने का दोष मढ़ दिया। उस गोपिका से गेंद बरामदगी का वर्णन लोक जीवन की श्रृंगार प्रियता व रसिकता का बोध कराता है -
तैने मेरी गेंद चुराई, तैने ही लंगर तैने ही
ढ़रकत ढ़रकत तोनों आई, तैने लई उठाई
तैने मेरी गेंद चुराई, तैने ही लंगर तैने ही
झपटि हात चोली में डारो, एक गई दो पाई
तैने ही लंगर तैने ही।
ढ़कोली नृत्य- नारियल के खोखे से डोरा निकाल कर बने वाद्य यन्त्र को बजाते हुए जो शारीरिक चेष्टायें की जाती हैं वे ढ़कोली नृत्य की श्रणी में आती हैं। यह नृत्य बालकों का नृत्य है। इसमें बालकवृन्द खूब चटखारे लेकर किसी बूढे व्यक्ति की नकल अथवा उसको चिढाते हुए गाते हैं -
बब्बा बब्बा कां गये ते, पातर छोड बिला गये ते
पातर लै गओ कौआ, बब्बा हो गये नउआ
नउआ से मुड़ाई मूंड, बब्बा हो गये डूंढ़
डूंढ़ पै धरो अंगरा, बब्बा हो गये बंदरा
बंदरा ने खाई पाती, बब्बा हो गये हांती
इस नृत्य में ढ़कोली वाद्य यन्त्र प्रधान होता है अतः उसी पर आधारित इस नृत्य का नाम हो गया। ढ़कोली वादक ही इस नृत्य का प्रमुख आकर्षण होता है। ये नृत्य विभिन्न रस्मों की अदायगी के अवसर पर परिवार जनों द्वारा ही किये जाते हैं। इनमें कलश नृत्य, लाकौर या वधावा नृत्य, चीकट नृत्य आदि आते हैं। इन नृत्यों के समय ढोलक ही वाद्य यंत्र होता है तथा गीतों की लय पर ही इन नृत्यों को किया जाता है। नृत्य तो अपने हृदय के उल्लास पूर्ण भावों को शारीरिक भाव भंगिमाओं के माध्यम से प्रस्तुति का पर्याय होते हैं। आनन्द के सूचक होते हैं और उल्लासित होने हेतु प्रेरणास्पद होते हैं।
उमेश कुमार
सहायक प्राध्यापक,भास्कर जनसंचार एवं पत्रकारिता संस्थान, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी उत्तर प्रदेश।
Very nice content you have put many many congratulations-https://bundeliijhalak.com/
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