चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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नियम-कानून (कहानी)/उपासना
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
लड़की ने खिड़की के पास जगह बनाकर बैठते हुए सोचा. ट्रेन अभी भी रुकी हुई थी.
राजधानी की क्रॉसिंग थी. अपनेबैग से किताब निकाल लड़की पढ़ने में मग्न हो गई. सामने
की खिड़की से सटी सीट पर एक लड़का बैठा था. किसी-किसी के नहीं बोलने में भी एक सूक्ष्म
किस्म की बेचैनी होती है...अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की ज़िद जैसी. लड़के में ऐसी
कोई ज़िद न थी. उसकी चुप्पी कर अर्थ सरासर चुप्पी था. दुनिया से बेनियाज़...ख़ुद में
मग्न व निर्लिप्त.
वह खादी की पुरानी, मैली और तकरीबन बदरंग हो चुकी बैंगनी शर्ट-पैन्ट पहने था.
पैरों में रबर की नीली घिसी चप्पलें थीं. गहरे सांवले पैरों पर धूल जमी थी. वह ऐसी
धूल न थी कि पानी गिराया और धूल साफ़ हो गई. वो सफ़ेद-सफ़ेद सी दिखती धूल लगातार कई
दिनों तक सीमेंट और बालू के बीच काम करते रहने व लगातार कई दिनों तक न धोये जाने
के कारण चिपक-सी गई थी.
ट्रेन चल पड़ी थी. खिड़की से भोर की ठंडी हवाएँ आ रही थीं. लगातार कई दिनों तक
वर्षा होती रही थी. सूरज कई दिनों तक बादलों के गद्दे पर सोया-सोया उब गया था. अब
वह धीरे-धीरे जम्हाई लेता उठ रहा था. खिड़की से दृश्य डर दृश्य पार हो रहे थे .
जगह-जगह खेतों में इकट्ठे पानी पर उजली किरणों की लकीर चमक रही थी. पानी पोखरों के
बाहर पीले बरसाती मेंढ़क टर्रा रहे थे. गाढ़ी हरी दूब, हरे पत्ते...और किनारों पर
टर्राते पीले मेंढ़क. लड़के के चेहरेसे निर्लिप्तता का आवरण थोड़ी देर के लिए खिसका
था. उसके होठों पर एक मासूम सी मुस्कुराहट थिरकी थी. वैसी ही मुस्कुराहट जैसी
आसमान में उड़ते ढेर सारे गुब्बारों को देख किसी बच्चे के होठों पर आती है. ताज़ी
हवा के झोंके सुखद लग रहे थे. लड़की ने किताब से नजरें हटाकर कम्पार्टमेंट का जायज़ा
लिया. भीड़ तक़रीबन न के बराबर थी. लड़की ने धीमी आवाज़ में गुलाम अली को बजा दिया.
- “ चुपके-चुपके रात दिन
आँसू बहाना याद है!”
मुखड़ा बज रहा था. अचानक लड़का अपनी भारी आवाज में बुदबुदाया,
- “इसमें एक हिस्सा है न...
“दोपहर की
धूप में, मेरे
बुलाने के लिए,
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद
है.”
यह सुनकर लगता है जैसे सचमुच कोई लड़की धूप में नंगे पाँव छत पर दौड़ रही है!”
लड़की मुस्कुराई. फिर तुरंत ही किताब पढ़ने में व्यस्त हो गई.
ट्रेन किसी स्टेशन पर रुक गई थी.
लड़का लपक कर उतरा और स्टेशन पर बने नल से पानी पीने लगा. इस बीच कुछ संभ्रांत से
दिखते लोग कम्पार्टमेंट में घुस आए थे. वे यहाँ-वहाँ-जहाँ जिसे जगह मिली बैठते गए.
ये सब डेली पैसेंजर लग रहे थे. एक शख्स खिड़की के पास बैठने लगे. किताब पढ़ती लड़की
ने टोका,
- “यहाँ कोई बैठा है.”
सज्जन खींसे निपोरते बोले...
- “आने दीजिये...हट
जायेंगे.”
- “वहीँ किनारे बैठ जाओ.”
किनारे पर जरा सी जगह बची थी.लड़का उतनी ही जगह में सिमट कर बैठ गया. अबपहले सी
शांति न थी. कम्पार्टमेंट किसी अनुशासनहीन कक्षा जैसे शोर मचा रहा था. मूँगफली के
छिलके व फ्रूटी के डिब्बे बिखरे थे. टी०टी० के जूते इन्हें कुचलते बढ़े आ रहे थे.
लड़का सामने की खिड़की के बाहर पार होते दृश्यों को देखने में मग्न था. एक झुकी-झुकी
सी बूढ़ी औरत लड़के के पास आकर ठहरी थी. अपनीमिचमिची आँखों से वह आस-पास किसी सीट पर
बैठने की गुंजाईश तलाश रही थी. बूढ़ी औरत को देख कम्पार्टमेंटका शोर-चर्चा-बातचीत
में कुछ क्षणों का व्यवधान आया था...वे धीमे बुदबुदाहट के साथ तेज होती चर्चाएँ व
बातचीत अपनी निरंतरता में आ गयी थीं. बूढ़ी औरत निराश थी. रॉड थामे खड़ी रही. लड़के
ने उसे देखा. फिर उसने जरा सा खिसककर औरत को बैठने का इशारा किया. औरत ने बैठने की
कोशिश की, पर जगह कम थी. लड़का मुस्कुरा कर खड़ा हो गया. बूढ़ी औरत बैठ गयी. लड़का रॉड
पकड़ेखड़ा रहा.
- “यह तो जनरल का टिकट है.”
टी०टी० टिकट लहरा
कर बोला. लड़का नहीं समझ पाया. उसकेचेहरे पर प्रश्न चिन्ह टंगा था,
- “यह चालू डिब्बे का टिकट
लिया है तुमने...और बैठ गए हो आरक्षित डिब्बे में? जुर्माना देना पड़ेगा.
लड़का उलझन में था. कुछ वैसी ही उलझन जैसी किसी बच्चे से एकदम अनजाने में गलती
हो जाने पर होती है.
- “आरक्षित डिब्बे का टिकट
बना दूं?” टी०टी० उससे मुखातिब था.
- “हम चालू डिब्बे में ही
चले जाते हैं.” इतनी देर में लड़का पहली दफ़े बोला था.
- “अब जाने से क्या होगा?
या तो तुम टिकट
बनवा लो या...!”
- “तो...क्या सोचा तुमने?”
टी०टी० वापस लड़के
से मुखातिब था.
- “हम गलती से इस डब्बे में
आ गए. हमें मालूम नहीं था!”
लड़के ने शायद आखिरी बार अपनी साफिया एश करनी चाही थी.
- “ठीक है गलती से आ गए
हो...पर गलती तो हो गयी है न??! नियम-कानून कोई चीज होती है कि नहीं?”
लड़का चुप रहा. फिर उसने शर्ट की उपरी जेब से प्लास्टिक का एक गंदला गुलाबी
लिफ़ाफ़ा निकाला. लिफ़ाफे की चार तहें खोलकर उनमें से नोट निकाले. टी०टी० देखरहा था,
सौ का एक नोट था,
एक पचास का व तीन
दस के नोट थे.
लड़के ने पूछने के भाव से टी०टी० को देखा. उसके चेहरे पर मासूमियत थी. एक महीन
किस्म की बचकानी समझदारी...जिसके तहत वह इन सारे नियम कानूनों को समझने की कोशिश
कर रहा था.
- “सौ रूपये !” टी०टी० मुख्तसर सा जवाब
देखकर आरक्षण सूची देखने में व्यस्त हो गया.
लड़के ने धीरे से नोट बढ़ा दिया. निरीहता व दर्द के मिले-जुले तास्सुरात उसके
चेहरे पर बिखर गए. टी०टी० आगे बढ़ गया था. लड़के ने गंदले से प्लास्टिक के लिफ़ाफे को
चार तहों में मोड़कर वापस जेब में रख लिया और ख़ामोशी से रॉड पकड़े खड़ा रहा.
उसके चेहरे की वह मानूस मुस्कुराहट छिन गयी थी.
उपासना
ज्ञानपीठ के युवा नवलेखन सम्मान से सम्मानित कथाकार
प्रकाशित कहानी संग्रह 'एक ज़िंदगी एक स्क्रिप्ट भर'
जोधपुर,राजस्थान,ई-मेल: navnit.nirav@bhartifoundation.org,मो- 9571887733
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