चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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समीक्षा:नागमती का विरह-वर्णन/ डॉ.अभिषेक रौशन
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
“पिय सौं कहेहु सँदेसरा
हे भौंरा! हे काग!!
सो धनि बिरहै जरि मुइ तेहिक धुवाँ हम्ह लाग।।”
नागमती प्रेम की पीर में इस कदर डूबी हुई है कि वह भौंरे, कौवे से बातें करने लगती
है। वेदना की तीव्रता ऐसी है कि वह भौंरे, कौवे के द्वारा अपना संदेश प्रियतम के पास भेजना
चाहती है। वह भौंरे, कौवे को आदरसूचक सम्बोधन प्रदान करती है। इस प्रसंग में हमें घनानंद याद आते
हैं। वे बादलों को ऐसा ही आदरसूचक सम्बोधन प्रदान करते हुए कहते हैं कि मेरे
आँसुओं को सुजान के आँगन में बरसा देना, तभी तो वह समझेगा कि मैं कितना दुखी हूँ (घनानंद की
कविताएँ स्त्री-बोधक हैं) :-
“कबहुँ का बिसासी सुजान
के आँगन, मो
अँसुवानि को लै बरसो।”
रानी नागमती विरह-दशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है। वह अपने-आपको
साधारण स्त्री के रूप में देखती है। नागमती का वियोग एक साधारण नारी का वियोग है।
इस वियोग में दरबारी दर्द नहीं है। पति घर में नहीं है। नागमती चिंता में है कि घर
कैसे छाया जाएगा, चौमासा आ गया है :-
“पुष्प नखत सिर ऊपर आवा।
हौं बिनु नाह मंदिर को छावा?”
नागमती के विरहोद्गार को इस तरह दिखाकर जायसी ने भावुकता का परिचय दिया है। इस
बात के लिए शुक्ल जी ने जायसी की खूब प्रशंसा की है। जहाँ तक भावुकता का प्रश्न है,
विरह में नागमती
द्वारा ऐसा सोचा जाना स्वाभाविक है। उधेड़बुन तब शुरू होती है जब नागमती को ‘पद्मावत’ में एक रानी के रूप में
पाते हैं। एक रानी को भला घर छाये जाने की चिंता क्यों होगी? जायसी ने रानी नागमती को
विरह में साधारण स्त्री के रूप में क्यों चित्रित किया है? किसी रानी को दर्द नहीं होता
क्या? फिर
उसे एक साधारण नारी बनाने की क्या आवश्यकता थी? ऐसी कौन-सी मजबूरी है कि हिन्दी
काव्य-परंपरा में ऐसे विरह-वर्णन विरही को साधारण पात्र बनाकर ही सामने लाए जाते
हैं?
वियोग में रानी नागमती
साधारण नारी दिखती है। वियोग में उसका ऐसा सोचना स्वाभाविक है। वियोग चाहे रानी का
हो या साधारण नारी का, दोनों वियोग के धरातल पर अपने-आपको सामान्य मनुष्य सोचने
लगते हैं। वियोग में अगर रानीपन का गर्व रहेगा तो वह वियोग यथार्थ तरीके से सामने
आ ही नहीं सकता। दुःख ही ऐसी मनोभूमि है जहाँ बड़ा आदमी भी अपने-आपको सामान्य आदमी
समझने लगता है। जायसी ने नागमती को साधारण नारी के रूप में चित्रित कर उसके वियोग
को गाढ़ा और लोकव्यापी बनाया है। नागमती का विरह-वर्णन अंतर्मन को इसलिए छूता है
कि वह रानी होते हुए भी अपने-आपको साधारण नारी के रूप में देखती है। काव्य-जगत में
ऐसा करने की परंपरा रही है तो इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं :-
(i) पात्र सामान्य जनता की
सहानुभूति का पात्र बने।
(ii) कथा लोकव्यापी हो।
नागमती रानी होते हुए हाय-तौबा मचाती तो वह पाठकों की सहानुभूति उतनी नहीं
बटोरती जितनी कि वह साधारण नारी के रूप में ऐसा करने में सफल हुई है। जायसी दरबार
के लिए नहीं, सामान्य जनता के लिए लिख रहे थे, इसलिए उन्होंने सामान्य जनता की संवेदना को प्रमुखता
दी है। जायसी का अनुभव लोक सामान्य वर्ग का है। इसलिए उनकी वर्गीय चेतना उन पर
हावी हो गई है। जायसी लोक-कथा के सहारे ‘पद्मावत’ लिखे हैं। नागमती लोक-कथा की रानी है, किसी दरबार की नहीं।
लोक-कथा में राजा-रानी एक प्रतीक होते हैं, उनका व्यवहार जनता की तरह होता
है। जायसी जहाँ दरबारी संस्कार मसलन घोड़े गिनाना, भोजनों के नाना प्रकार आदि का
वर्णन करते हैं, वहाँ वे सिर्फ़ वर्णन करके रह जाते हैं, कोई मार्मिकता नहीं पैदा कर
पाते। जायसी कालिदास के समान दरबारी वर्णन में सिद्धहस्त नहीं हो सकते थे। कालिदास
का लगाव अभिजन समाज से था। क्या कारण है कि एक ही राम-कथा को तुलसी और केशवदास
दोनों लिखते हैं। तुलसी राम-कथा के अमर गायक हो जाते हैं और केशवदास सिर्फ़
चमत्कारी कवि के रूप में रह जाते हैं। तुलसी की शैली केशव से भिन्न है। एक लोक
अनुभव के कवि हैं, दूसरे दरबारी अनुभव के। यही वह बिन्दु है जो हर कवि के रचना-संसार को अलग-अलग
संस्कार प्रदान करता है।
जायसी नागमती को रानी के
रूप में चित्रित कर सकते थे, पर वह चित्रण कितना प्रामाणिक और मार्मिक होता, यह कहना मुश्किल है।
जायसी दरबारी जीवन की बारीकियों से परिचित नहीं थे। जाहिर है कि वह रानी नागमती का
चित्रण करते तो वह वर्णन मात्र होता। वियोग के पक्ष से देखें, तो वियोगावस्था में आदमी
की सारी भौतिक इच्छाएँ मर जाती हैं, बस उसे अपने प्यार को पाने की चाह होती है। सच्चा
वियोग वही हो सकता है जिसमें मनुष्य सिर्फ़ मनुष्य बचता है, सारी भौतिकताएँ पीछे छूट जाती
हैं। वियोग में नागमती अगर रानी बनी रहती तो निश्चित रूप से उसे रत्नसेन के
अतिरिक्त अपने रानीपन से भी प्यार है। वियोग में अगर कोई रानी साधारण नारी की तरह
व्यवहार करती है तो उसका मूल कारण है – प्रेम के प्रति अगाध समर्पण। सुख भौतिक दशा नहीं,
मानसिक दशा होती
है। जो मानसिक रूप से दुःखी है, उसे दरबारी सुख, रानीपन कैसे भाएगा? जायसी मानव-मन का सजीव चित्रण
करने वाले कवि हैं, इसलिए विरह-दशा में उन्होंने नागमती को साधारण नारी के रूप में चित्रित किया
है तो ठीक ही किया है। सुख में मनुष्य गर्व महसूस करता है, एक साधारण तबके के प्रेमी-प्रेमिका
भी अपने-आपको राजा-रानी समझते हैं, पर वियोग की आँच में सारी भौतिक ऊँचाई हवा हो जाती है। आँसू
के सिवा कुछ नहीं बचता है।
जायसी ने नागमती का
वियोग सजीव तरीके से प्रस्तुत किया है। ‘पद्मावत’ की कथा लौकिकता और अलौकिकता दोनों की छाप लिए हुए
है। यही कारण है कि यह विरह-वर्णन कहीं-कहीं अत्युक्तिपूर्ण हो गया है, पर शुक्ल जी के शब्दों
में कहें तो इसमें ‘गांभीर्य’ बना हुआ है। नागमती के दर्द में पूरी प्रकृति रोती जान पड़ती है :-
“कुहुकि कुहुकि जस कोइल
रोई।
रक्त आँसु घुंघुची बन बोई।।”
नागमती की आँखों से आँसू नहीं, खून टपक रहे हैं। भौतिक धरातल पर यह बात अस्वाभाविक है।
दुःख का पारावार कुछ ऐसा है जिसमें पूरी पृथ्वी समाई हुई दिखती है। वर्षा होना एक
प्राकृतिक घटना है। नागमती वर्षा की बूँदों की तुलना आँसू से करने लगती है :-
“बरसै मघा झकोरी झकोरी।
मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।।”
एक विरही एक नितांत प्राकृतिक घटना को भी अपने अनुकूल किस कदर ढाल लेता है,
इसका यह सुन्दर
उदाहरण है। जायसी नागमती के विरह-वर्णन में प्रकृति को साथ लेकर चलते हैं। मेघ
श्याम हो गया है, राहु-केतु काला पड़ गया है, पलाश का फूल दहकते अंगारे-सा हो गया है, यह सब सत्य है। पर जायसी
इसका कारण विरह-ताप बताते हैं। एक कवि अपनी रचनात्मकता की गहरी अनुभूति के सहारे
प्राकृतिक सत्य को अपनी रचना के अनुकूल ढाल लेता है तथा उसे मनुष्य के सुख-दुःख से
जोड़कर उसे सजीव चित्रित करता है। पलाश के फूल का लाल दिखना एक सत्य है, पर उसे जायसी नागमती की
विरह-वेदना से जोड़कर उसे एक अर्थ प्रदान करते हैं।
विरह-दशा कुछ ऐसी होती
है जिसमें सुखदायक वस्तुएँ भी दुःखदायक हो जाती हैं। मानव-मन की यह स्वाभाविक
प्रकृति है। नागमती को चाँदनी रात भी अच्छा नहीं लगता है :-
“कातिक सरद चंद उजियारी।
जग सीतल हौं बिरहै जारी।।”
चाँदनी रात को देख नागमती का हृदय नहीं मचलता है। एक विरही मन का यह यथार्थ
चित्रण है। नागमती वियोग में पागल है, उसे चाँदनी रात में सौंदर्य कहाँ से दिखेगा। उसे तो
रत्नसेन की याद आती है। विरह की अग्नि और भड़क उठती है। वही चाँद संयोग की अवस्था
में असीम सुखदायक लगता है। इसमें दोष चाँद का नहीं, प्रेम के प्रति समर्पण का है। इस
समर्पण की नींव इतनी गहरी है कि नागमती अपना रानीपन भूल जाती है।
जायसी ने मनुष्य की
सामान्य भावना को तब और यथार्थ तरीके से दिखाया है, जब उन्होंने चित्रित किया है कि
नागमती सभी के प्रिय, मित्र के आने पर और व्याकुल होती है। उसमें वैषम्य की भावना मानव-सुलभ ढंग से
प्रस्फुटित होती है। नागमती देखती है कि पपीहे का प्रिय पयोधर आ गया, सीप के मुँह में स्वाति
की बूँद पड़ गई, पर उसका प्राण प्रिय रत्नसेन नहीं आया। वह बिलखते हुए इस वैषम्य की भावना को
उजागर करती है :-
“चित्रा मित्र मीन कर
आवा।
पपिहा पीउ पुकारत पावा।।
स्वाति बूँद चातक मुख परे।
समुद सीप मोती सब भरे।।”
नागमती को गहरी टीस होती है कि सबके प्रिय आ गए हैं, फिर रत्नसेन अब तक क्यों नहीं
आया? सब
खुश हैं, फिर
वही दुःखी क्यों है? वियोगावस्था में नागमती का ऐसा सोचना स्वाभाविक है। प्रेम के प्रति अथाह
समर्पण और प्रिय के न आने की तड़प नागमती को ऐसा सोचने को मजबूर कर देती है।
नागमती विरह में इस कदर अकुलाई हुई है कि उसे हीरामन तोता कभी अक्रूर, कभी वामन, कभी इन्द्र दिखता है। वह
रत्नसेन पर कम, हीरामन पर ज्यादा क्रोधित है। वास्तविकता यह है कि उसे रत्नसेन ने छला है,
पर वह हीरामन को
ही छलने वाला मानती है। रत्नसेन से इतना प्यार है कि वह उसे धोखा देने वाला,
छलने वाला मान ही
नहीं सकती। नागमती को अपने प्रेम पर विश्वास है, इसलिए वह दोषी रत्नसेन को नहीं,
हीरामन को मानती
है। नागमती का हीरामन पर गुस्सा दिखाकर जायसी ने एक प्रेमी हृदय की सामान्य
अनुभूतियों को दिखाया है। महान कवि की विशेषता इसी में होती है कि वह मनुष्य की
सामान्य अनुभूतियों को विशेष बनाता है और इस तरह बनाता है कि वह सामान्य लगता है।
जायसी द्वारा रानी
नागमती का साधारण नारी के रूप में चित्रण उनकी कमजोरी नहीं, विशेषता है। हिन्दी साहित्य में
वियोगावस्था में रानी को साधारण नारी के रूप में चित्रित करना एक परम्परा रही है।
जायसी की विशेषता यह है कि उस परम्परा को अपनाते हुए भी मानव-हृदय की अनुभूतियों
को कुछ इस तरह पेश करते हैं कि वह नया एवं सजीव लगता है। परम्परा का निर्वाह भर
करना एक बात है और उसे मानव-अनुभूतियों में पिरोकर कविता बनाना दूसरी बात। जायसी
साधारण जनता के कवि हैं। वे कहानी राजा-रानी का जरूर कह रहे हैं पर उनकी संवेदना
साधारण जनता के साथ पिरोई हुई है :-
फैले बढ़े पे गढ़ नहीं पाए।।”
जायसी ने समय मापने का पैमाना ठेठ लोक जीवन से लिया है। वे इसके लिए कोई
दरबारी पैमाना भी अपना सकते थे, पर वे लोक अनुभव में सिंचित कवि हैं। दरबार उनका विषय है,
संवेदना नहीं।
नागमती को साधारण नारी के रूप में चित्रित कर उन्होंने पद्मावत को लोक जीवन की
संवेदना से जोड़ दिया है, इसलिए वे लोक में इतने प्रसिद्ध हैं। क्या कारण है कि
प्रेमचंद जन-जन में लोकप्रिय हैं जबकि निर्मल वर्मा सिर्फ़ लेखक की दुनिया या
अभिजात्य वर्ग में? प्रेमचंद सामान्य जनता की संवेदना को सजीव तरीके से चित्रित करते हैं जबकि
निर्मल वर्मा अभिजात्य वर्ग की संवेदना को सजीव तरीके से। दोनों की रचनात्मकता
महान है पर एक पूरे लोक में प्रसिद्ध है जबकि दूसरा एक खास वर्ग में। ‘पद्मावत’ अगर लोकव्यापी काव्य है
तो इसका कारण है – इसका साधारण जन-जीवन से जुड़ा होना।
सहायक पुस्तक:-1. जायसी ग्रंथावली –
सं. आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल
डॉ. अभिषेक रौशन
सहायक प्राध्यापक,हिन्दी विभाग,अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,हैदराबाद– 500 007
दूरभाष – 9676584598,ई-मेल–araushan.jnu@gmail.com
bahut hi sundar lekh.
जवाब देंहटाएंSuper...
जवाब देंहटाएंSuper...
जवाब देंहटाएंअतिउत्तम
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारा वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारा वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत लाज़वाब।।
जवाब देंहटाएंBahut supper
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सटीक व्याख्या है
जवाब देंहटाएंBhut Bhut dhnywaad sir
जवाब देंहटाएंM BHU ka student Orr mujhe iss kaavy ka summary Bhut jarori tha semester exam k Liya...thanxs to you sir....
Bahut hi badiya
जवाब देंहटाएंsir ye paper me iska varnan h
हटाएंBarahmasa kis bhasha me likha gayah
जवाब देंहटाएंMere priya gurudev ji jis prkar aap class me smjhate hai usi prkar yha bhi aapne apni kushlta se hum sbhi ko chakit kr diya /
जवाब देंहटाएंबहुत ही महीन और बारीक विश्लेषण
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