चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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साहित्यकार रमेश उपाध्याय
से बातचीत/मोनिका नांदल
(वर्तमान में नुक्कड़ नाटक के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों
में बदलते स्वरूप के संदर्भ में नाटककार रमेश उपाध्याय से शोधार्थी मोनिका नांदल
की बातचीत)
मोनिका : आप नुक्कड़ नाटक के शुरूआती दौर में इससे
सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। आज किस रूप में आप इस क्षेत्र में अपनी सक्रियता निभा
रहे है?
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
मोनिका : भूमंडलीकरण के दौर में नुक्कड़ नाटक पर इसके
प्रभाव को आप किस रूप में देखते है?
रमेश उपाध्याय : भूमंडलीय पूँजीवाद ने सोवियत संघ के
विघटन को जनवाद और समाजवाद की पराजय तथा अपनी विश्व विजय के रूप में कुछ इस प्रकार
प्रचारित किया कि प्रतिबद्ध नुक्कड़ रंगकर्मियों में एक प्रकार की निराशा फैली,
जिससे उनके उत्साह
में ही नहीं, बल्कि अनेक प्रकार के कष्ट उठाकर, और कहीं-कहीं तो दमन का सामना करते हुए भी, नुक्कड़ नाटक के प्रति
समर्पण के भाव में भी कमी आयी। भूमंडलीकरण का दूसरा प्रभाव, जो ज्यादा घातक था, यह पड़ा कि बाजारवाद की
विचारधारा नुक्कड़ नाटक करने वालों पर भी हावी हुई। कई रंगकर्मी नुक्कड़ नाटक करना
छोड़ मंचीय नाटक, टीवी सीरियल और फिल्मों में जाने लगे। हालाँकि नुक्कड़ नाटक अब भी होते हैं,
कुछ प्रतिबद्ध
रंगकर्मी अब भी सक्रिय हैं, लेकिन 1970 और 1980 के दशकों में नुक्कड़ नाटक का जो आंदोलन चला और व्यापक रूप
में फैला, अब नजर नहीं आता।
मोनिका : नुक्कड़ नाटक का जन्म जनतंत्र में प्रतिरोधी
स्वर के रूप में हुआ था। आप के अनुसार आज के भ्रष्टतंत्र में यह कहाँ तक अपनी आवाज़
को बुलंद कर पा रहा है?
रमेश उपाध्याय : आपका यह प्रश्न स्पष्ट नहीं है।
शायद इसके पीछे आपकी मान्यता यह है कि नुक्कड़ नाटक का जन्म जनतंत्र में हुआ था और
आज के भ्रष्टतंत्र में उसकी मृत्यु हो गयी है। मेरे विचार से ऐसा मानना सही नहीं
है। भ्रष्टाचार तब भी था और जनतंत्र, जैसा भी वह था और है, आज भी कायम है। हाँ, बाजारवाद के साथ-साथ
लेखकों और कलाकारों में बढ़ती व्यावसायिकता, व्यक्तिवादिता और अवसरवादिता के
कारण नुक्कड़ नाटक अब एक व्यापक आंदोलन का अंग न रहकर कुछ नाट्य मंडलियों का निजी
प्रयास जैसा रह गया है। अपनी इसी कमजोरी के कारण वह अपनी आवाज को बुलंद नहीं कर पा
रहा है। लेकिन देश और दुनिया में जैसी परिस्थितियाँ बन रही हैं, उन्हें देखते हुए फिर से
उस आंदोलन की संभावना मौजूद है। अतः स्थिति निराशाजनक बिलकुल नहीं है।
मोनिका : बदलते राजनितिक आयामों में क्या नुक्कड़
नाटक आज केवल सत्ता पक्ष के नीति-निर्देशों और चुनाव प्रचार का माध्यम बन कर रह
गया है? इस
विषय पर आप क्या कहना चाहेगें?
रमेश उपाध्याय: नहीं, मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ।
नुक्कड़ नाटक के दुरुपयोग के कुछ उदाहरण सामने अवश्य आते हैं, जैसे सरकारी प्रचार,
बाजारू उत्पादों
का विज्ञापन या जन-विरोधी राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले चुनाव प्रचार के
रूप में, लेकिन
नुक्कड़ नाटक अपने मूल चरित्र में जनपक्षीय राजनीति को समर्थन देने वाला तथा आगे
बढ़ाने वाला प्रतिबद्ध रंगकर्म है और वह अपने इसी रूप में लोकप्रिय होकर सार्थक हो
सकता है।
मोनिका : आप स्वयं ‘कथन’ नामक पत्रिका निकलते है, जिसमे आज के सवालों को
उठाया जाता है। नुक्कड़ नाटक की स्थिति भी
आज एक सवाल बनकर रह गयी है। आप के अनुसार आज कितनी पत्र-पत्रिकाएँ जनपक्षधरता से
जुड़े प्रश्नों पर गंभीरता से लेख छापती है?
रमेश उपाध्याय : ‘कथन’ के अलावा भी ऐसी बहुत-सी
पत्रिकाएँ हैं, जो यह काम करती हैं। उदाहरण के लिए, ‘जनपथ’, ‘नया पथ’, ‘उद्भावना’, ‘समयांतर’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘प्रगतिशील वसुधा’ इत्यादि। वे नुक्कड़ नाटक
की वर्तमान स्थिति पर लेख आदि भले ही न छापती हों, लेकिन जनपक्षधरता से जुड़े
प्रश्नों पर गंभीर लेख खूब प्रकाशित करती हैं।
मोनिका : आप के अनुसार आज के समय में नुक्कड़ नाटकों
द्वारा किन-किन मुद्दों को उठाने की आवश्यकता है?
रमेश उपाध्याय : मुद्दे तो असंख्य हो सकते हैं,
लेकिन नुक्कड़ नाटक
एक प्रकार की तात्कालिक कला है। नुक्कड़ नाटक प्रायः जनता को प्रभावित करने वाले
तात्कालिक मुद्दों पर लिखे और किये जाते हैं। यही उनकी विशेषता है।
मोनिका : आज नुक्कड़ नाटक को रंगकर्मी थिएटर, फिल्म व सोशल मीडिया के
क्षेत्र तक पहुचने का एक मार्ग मानते है. आप के अनुसार ऐसे में नुक्कड़ नाटक की
प्रतिबद्धता को कैसे बचाया जा सकता है?
रमेश उपाध्याय : प्रतिबद्धता का प्रश्न जटिल है।
इसका कोई सरल उत्तर नहीं हो सकता। प्रतिबद्धता कोई आत्मगत या स्वतःस्फूर्त चीज
नहीं होती। न ही वह किसी पर ऊपर से थोपी जा सकती है। वह विशिष्ट ऐतिहासिक
परिस्थितियों में व्यापक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के दौर में तथा स्पष्ट
लक्ष्यों को लेकर की जाने वाली राजनीति और उससे जुड़ी विचारधारा के प्रभावों से
प्रेरित होती है। जिस प्रकार उसे प्रयत्नपूर्वक पैदा नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार
प्रयत्नपूर्वक बचाया भी नहीं जा सकता।
मोनिका : एक नाटककार के रूप में आज नुक्कड़ नाटक के
क्षेत्र में आप किन संभावनाओं को देखते है?
रमेश उपाध्याय : मैं अब नाटक बहुत कम लिखता हूँ।
नुक्कड़ नाटक तो बिलकुल नहीं। फिर भी, इस क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं--बशर्तें कि
परिस्थितियाँ अनुकूल हों।
मोनिका : आज के वैयक्तिकता के दौर में जहाँ मानव
स्वयं के हितों के लिए प्रयासरत है। आप के अनुसार ऐसे में युवा वर्ग को नुक्कड़
नाटक जैसे कला माध्यमों से कैसे जोड़ा जासकता है?
रमेश उपाध्याय : एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन
के जरिये।
मोनिका : वर्तमान में नुक्कड़ नाटक की क्या चुनौतियाँ
है और आप भविष्य में इसकी किन नयी संभावनाएँ को देखते है?
रमेश उपाध्याय : नुक्कड़ नाटक के सामने आज दो प्रकार
की चुनौतियाँ हैं--लेखकों और कलाकारों के संदर्भ में विचारधारात्मक और नुक्कड़ नाटक
मंडलियों के संदर्भ में राजनीतिक। आज के नाटक लेखकों और रंगकर्मियों में
विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य के विकास की कमी स्पष्ट नजर आती है, जो उनकी राजनीतिक
प्रतिबद्धता और नुक्कड़ नाटक के प्रति उनकी समर्पण भावना को बाधित करती है। जहाँ तक
नुक्कड़ नाटक मंडलियों का प्रश्न है, वे शुरू से ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी न
किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबद्ध होकर ही अपना काम करती रही हैं। आज यह काम
मुश्किल हो गया है। फिर भी, जैसा कि मैंने पहले कहा, देश और दुनिया में जैसी
परिस्थितियाँ बन रही हैं, उन्हें देखते हुए भविष्य में एक नये नुक्कड़ नाटक आंदोलन के
उभरने की संभावनाएँ मौजूद हैं।
मोनिका नांदल,शोधार्थी,मो. (9555245086),ई-मेल:monikanandalkmc@gmail.com
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