चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
========================
आलेख:हिंदी दलित उपन्यासों में इतिहास एवं समाजबोध/ माधनुरे गंगाधर पोचिराम
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
मैं आपको यह बताना आवश्यक समझता
हूँ कि इसी गलत इतिहासबोध के कारण लोगों ने दलितों और स्त्रियों को इतिहासहीन मान
लिया है। जबकि भारत के इतिहास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। वे इतिहासवान है,
सिर्फ जरुरत
दलितों और स्त्रियों द्वारा अपने इतिहास को खोजने की है। इस संदर्भ में वरिष्ठ
दलित चिंतक कंवल भारती कहते है कि –“डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय इतिहासकार है जिन्होंने
इतिहास में दलितों की उपस्थिति को रेखांकित किया है।” दलित रचनाकार इन बिंदुओं को
पकड़कर अपनी रचना के द्वारा समाज के सामने रख रहा है। हिंदी दलित उपन्यास की बात
करें तो रुपनारायन सोनकर के ‘डंक’ उपन्यास में देख सकते है और वे कहते है कि –“इतिहास बताता है कि आर्य
लोगों ने बाहर से आकर इस देश के मूलनिवासियों यानी अनार्यों पर कब्जा कर लिया था।
अनार्य और कोई नहीं बल्कि इस देश के दलित और पिछ़डे वर्ग के लोग थे। आर्य ने
राजनीति, सत्ता,
अर्थ, ज्ञान, विज्ञानपर अपना प्रभुत्व
जमा लिया था। शक्तिशाली बन गए थे। यहाँ के मूलनिवासों यानी अनार्यों को विकास करने
का मौका नहीं दिया था। आज भी उनकी संताने वही संताप भोग रही है।”
आज का दलित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर
के कार्य और विचारों के कारण अपना इतिहास स्वयं जान रहा है और लिख रहा है। इसी
कारण दलित उपन्यास में हमें इतिहास बोध होता है। दलित साहित्य सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के
आधारपर विकसिक हो रहा है। उसने अपना अलग रचना संसार निर्मित किया है, जो हमें अपने इतिहास
संस्कृति और सभ्यता के विभिन्न पक्षों से अवगत कराती है। क्योंकि दलित वर्ग की
संस्कृति एवं सभ्यता सबसे पुरानी है। उसका अहसास आज के दलित उपन्यासों में बराबर
हो रहा है। “द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अंगुठा क्या इसलिए माँगा कि धनुष्य विद्या में वह और
भी प्रवीण न हो जाये? क्या द्रोणाचार्य गुरु होकर भी नहीं चाहते थे कि एकलव्य जैसा शिष्य उतनी
प्रगति न करें कि उसके अपने शिष्य पीछे रह जाये।” इस उपन्यास के संदर्भ से यह
स्पष्ट होता है कि दलित समाज के साथ हमेशा षडयंत्र रचा गया है ताकि वो आगे ना आये।
आज के युग में द्रोणाचार्य अंगुठा नहीं काटेगा बल्कि अंक काटेगा, यह इतिहास बोध दलितों का
है। हिंदी दलित उपन्यास का इतिहास बोध उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता से परिचित
करता है तो दूसरी ओर तथाकथित भारतीय संस्कृति, वैदिक संस्कृति यानी हिंदूवादी
संस्कृति के मानवता विरोधी चरित्र को उद्घाटित करके समस्त इतिहास और परंपरा को
नकार देती है। दलितों के इतिहास में दलित महिलाओं का भी बहुत बडा योगदान रहा है इस
बात को भी हर हिंदी दलित उपन्यास में देख सकते है। “काली चंडी दुर्गा का मैं रुप
हूँ। दूर्गा काली चंडी सभी दलित महिलाएँ थी। वे सभी देवियाँ नहीं बल्कि कर्मयोगी
महिलाएँ थी, जो भी कामुक व दुराचारी व्यक्ति उनके पास गया था वह तरा नहीं मरा था।”
इस भारतीय हिंदूवादी व्यवस्था में
दलित महिलाओ के साथ भी अन्याय-अत्याचार करके उनके कर्मयोगी इतिहास को दबाकर अपना
वर्चस्व स्थापित किया है। हिंदी दलित उपन्यास इन सभी प्रकार के इतिहास को समाज के
सामने प्रस्तुत कर रहा है। इस संदर्भ में हरिनारायन ठाकुर कहते है कि –“दलित साहित्य
आंबेडकरवादी सोच पर आधारित है, इसलिए इसकी सामाजिकता वर्तमान समाज व्यवस्था को परले सिरे
से खारिज करती है। उसका इतिहास बोध भी मुख्यधारा के इतिहास से बिल्कुल भिन्न है।”
अत: स्पष्ट है कि इस आशा के साथ
हिंदी दलित उपन्यास का मुख्य सरोकार अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास में अपनी पहचान
तथाअपनी अस्मिता की खोज करना जो समानता, बंधुता व स्वतंत्रता जैसे जनतांत्रिक मूल्यों पर
आधारित है।
दलित साहित्य का समाज बोध पाठक और
श्रोता की चेतना एवं अनुभूति को प्रभावित करनेवाली गहन संवेंदना से ही पूरा होता
है। साहित्य पर समय और समाज का स्पष्ट प्रभाव होता है। साहित्या की रचनाओं में
मनुष्य की मस्तिष्क पर पड़नेवाले जीवन और जगत की घटना और स्थितियों का ही
प्रतिबिंब होता है। दलित साहित्य की मान्यता है कि कला या साहित्य को सामाजिक दायित्व
का निर्वाह करते हुए कला सृजन में आगे बढ़ना चाहिए। इस दृष्टि से दलित साहित्य
शुद्ध कला न होकर एक सामाजिक आंदोलन है।
हिंदी दलित उपन्यास यह सामाजिक सरंचना की तह में जाकर पूरे समाज की न केवल
पड़ताल करता है बल्कि उसमें छुपी हुई विसंगतियों को उजागर कर उसके प्रतिकार और
परिष्कार का प्रयत्न भी करते हैं। सुअरदान उपन्यास में यह देख सकते है, “तीन बेटियों का मानना था
आदमी जाति से नहीं बल्कि कर्म से बड़ा होता है। जातिवाद, ऊँच-नीच की भावना समाज में यह
कोढ की तरह है। यदि इसका इलाज न किया गया तो पूरा समाज रोगी बन जायेगा।” भारतीय संदर्भ में यह
वर्ण-व्यवस्था का विरोध करके समरस समाज के साथ-साथ मानव मात्र की गरिमा को स्थापित
करना चाहता है। सामाजिक संकीर्णता और विसंगितों से मानव मात्र को मुक्त करना तथा
दलित पीड़ित मानवता को समानता व सम्मान दिलाना ही इस उपन्यास का उद्देश्य हे।
इसलिए प्रथमत: और अंतत: भी इसके लक्ष्य और सरोकार समाजबोध ही है।
छप्पर उपन्यास में चंदन ने अगला
सवाल किया –“तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारी जो आज दीन-हीन हालत है, तुम जो रोजी-रोटी के लिए
दूसरों के मुंहताज हो और तुमको नीच, अछूत या हेय मानकर दूसरे लोग तुमसे जिस प्रकार घृणा
और उपेक्षा का व्यवहार करते है, तुम जो शोषण, अपमान और अत्याचार के शिकार हो इस सबका कारण ईश्वर
है वहीं तुम्हारी दूर्दशा कर रहा है।” सदियों के शोषण, प्रताड़ना, द्वेष और वैमनष्य के
भेदभाव तले दबा दलित समाज भारतीयों की सांस्कृतिक विरासत और समाज व्यवस्था को आज
इसी दृष्टि से देखता है। इस समाज की जो दशा हुई है यहाँ की धार्मिक परंपरा,
ईश्वर का डर यही
बात इस उपन्यास चंदन समाज के सामने रखता है। इतिहास में ऐसे अनेक घटनाएँ घटित हुई
है जिनके पीछे जाति ने गहरी साजिश रची है। देश और समाज के विघटन में भी महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। जब-जब भी बाहरी आक्रांताओं से समुच्चय देश को एकसाथ मिलकर टकराने
की जरुरत पड़ी, जाति में बटाँ समाज एकसाथ जूडने में असमर्थ ही दिखाई दिया और देश को लगातार
पराजयों का मुँह देखना पड़ा। इन पराजयों से भी हमने कुछ नहीं सीखा क्योंकि देश से
बड़ा जातीय गौरव था। जिस भ्रम ने इस देश को हजारों साल गुलाम बनाकर रखा। देश को
गुलाम बने रहना मंजुर था लेकिन जाति को छोड़ना या इसे छोड़ना धर्म का हिस्सा था,
जिसे विद्वान
ईश्वरीय आदेश सिद्ध करने में लगे हुए थे।
दलित उपन्यास इन सबके विरोध खडे है।
वो भारतीय समाज में समता व स्वतंत्रता का पक्षधर है। मनुष्य की अस्मिता एवं सम्मान
को सर्वोपरि मानता है। भारतीय समाज व्यवस्था को दलितों की विपन्नता, निरक्षरता, सामजिक उत्पीड़न,
विद्वेष, हीनताबोध, गरीबी, दुख का कारण मानता हैं।
क्योंकि भारतीय समाज व्यवस्था ने दलितों पर सिर्फ अस्पृश्यता ही नहीं थोपा बल्कि
उनपर कडे और कठोर दंड भी लागू किए। जिसे धर्म, सत्ता और साहित्य ने अपना समर्थन
दिया।
मुक्तिपर्व यह सामाजिक उपन्यास है।
इसमें दलित जीवन का चित्र है, दलित जीवन की विसंगति और समस्याएँ है और दलित शोषण-उत्पीड़न
की व्यथा कथा है। “भई म्हारा इकल्ले का छोरा थोडा ही है सुनीत तो सारी बस्ती का हो गया है अब।”सुनीत ने समाज में
व्याप्त जातिभेद देखा था और उसके विरोध में आवाज भी उठाई थी। प्राथमिक पाठशाला में
पढ़ते समय वो पुस्तक में छपे चित्र पर शंका प्रकट करते हुए पूछता है प्याऊ पर बैठा
आदमी नलकी से दूर से दलितों को पानी पिलाता है। इस चित्र में नलकी क्यों नहीं है?
सुनीत बच्चों और
मास्टरजी के साथ प्याऊ पक जाकर पंडितजी को ललकारता है और नलकी खींचकर फेंक देता
है। छोटे बच्चे का इतना साहस और पोलिस का भय देखकर वह सुनीत की बात से सहमत हो
जाता है। आजादी मिलने के पाँच-छह बरस बितने के समय के सामाजिक वातावरण के लेखक ऐसी
कल्पना कर सके कि पाँच-छह का दलित बालक भी पंडित को भयभित करे उसे जातिभेद मानने
से रोक सकता है। इसे आजादी के पर्व के साथ दलितों का मुक्तिपर्व ही मानना चाहिए।
यही बालक एक दिन पूरे बस्ती के लिए लड़ता है। यह समाजबोध मुक्तिपर्व उपन्यास में
दिखाई देता है। “दलित उपन्यास ही लोगों का संस्कृति विमर्श और सामाजिक ऐतिहासिक पड़ताल है
इसलिए इसकी सामाजिकता और सामाजिक प्रतिबद्धता पारंपारिक साहित्य से बिल्कुल अलग
दिखाई पड़ती है।”
इस प्रकार हिंदी दलित उपन्यास का
इतिहास एवं समाज बोध मुख्यधारा से बिल्कुल भिन्न है। वो मानवीय श्रम को ही सौंदर्य
और व्यवस्था की अन्यायपूर्ण विसगंतियों से मुक्ति को ही अपना सामाजिक सरोकार और
अपनी समाजिकता मानता है उसके केंद्र में केवल और केवल मनुष्य व मनुष्यता है।
संदर्भ ग्रंथ –
1 दलित विमर्श की भूमिका – कंवल भारती
2 दलित साहित्य का समाजशास्त्र – हरिनारायन ठाकुर
3 डंक – रुपनारायन सोनकर
4 मुक्तिपर्व – मोहनदास नैमिशराय
5 सुउरदान – रुपनारायन सोनकर
6 छप्पर – जयप्रकाश कर्दम
माधनुरे गंगाधर पोचिराम
पीएच. डी. हिंदी,अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,हैदराबाद
मो. 9491890946,ई-मेल: madhnuregangadhar@gmail.com
खूब मार्मिक एवम् सचोट लेख।
जवाब देंहटाएंअभिनंदन।
एक टिप्पणी भेजें