चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
========================
स्त्री विमर्श:न्याय की अधूरी कल्पना रेखांकित
करती ‘सीता की अग्नि–परीक्षा’/जितेन्द्र यादव
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
तम हुआ अस्त | प्राची मरीचि विजयान्त
छंद
लिखती –लंका –कंकाल –काव्य –रचना
–प्रबंध
-सत्यनारायण व्यास
रवि हुआ अस्त :ज्योति के पत्र पर
लिखा अमर
रहगया राम रावण का अपराजेयसमर
-निराला
राम–रावण के संघर्ष का विशद वर्णन तथा सेनाओं के तीर –धनुष,गदा का मल्लयुद्ध को
दोनों कवियों ने अपनी-अपनी सूक्ष्म दृष्टि से चित्रित किया है. किन्तु निराला के
राम जहाँ युद्ध में विजय को लेकर हताशा–निराशा और द्वंद्व में है. उनको जामवंत
प्रेरित कर रहे है युद्ध जितने के कौशल और तरीके बता रहे है वही व्यास जी के राम–रावण
पर भारी पड़ रहे है. तभी तो मंदोदरी सशंकित होकर रावण को राम से संधि के विनती कर
रही है.
बोले विश्वस्त कंठ से जाम्बवान –‘रघुवर;
.....................................................
शक्ति की करो मौलिक कल्पना करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक सिद्धि न हो रघुनन्दन
-निराला
‘संधि करो हे नाथ युद्ध में जीत असम्भव
लौटा दो सीता को कर लो रक्षित वैभव ,
-सत्यनारायण व्यास
यहाँ पर मेरा उद्देश्य दोनों कविता के
शुरूआती कथा सूत्र को बतलाने का प्रयास था लेकिन कविता में जो बड़ा अंतर है जिस कारण
से व्यास जी की कविता अलग दिखाई देती है वह है राम के युद्ध विजय के बाद सीता की
अग्नि परीक्षा. उस मार्मिक प्रसंग के आने से पहले ही निराला की कविता की इतिश्री
हो जाती है. निराला न्याय–अन्याय के बीच संघर्ष को दिखाने के चक्कर में राम के
जीवन की सबसे बड़ी बिडम्बना की अवहेलना कर देते हैं जो मर्यादा पुरुष जंगल में घूम–घूम कर ऋषि –मुनियों के रक्षार्थ अन्याय और हिंसा के विरुद्ध लड़ रहा है तथा अपनी
जय–जयकार करवा रहा है वही मर्यादा पुरुष जब सीता से अग्नि–परीक्षा की बात करता
है तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता. उसके मर्यादा की डोर क्या इतनी कसी हुई थी कि
पत्नी के विश्वास को भी वहन नहीं कर सकती थी. यहाँ रामपुरुषोत्तम नहीं बल्कि पुरुषसत्तात्मक हो
जाते है तभी तो सीता कहती है –
सत्ता,क्षमता,आदेश,दंड–सब नर के कर
निर्जीव वस्तु हम ,जीतडाल ली घर –पिंजर
सब नीति-नियम-निर्देश थोप बेचारी पर
नर मुक्त स्वयं, शंकालु–नयन बस
नारी पर,
-सत्यनारायण
व्यास
राम द्वारा रावण से युद्ध सीता की
मुक्ति के लिए नहीं बल्कि अपनी क्षत्रियोचित अभिमान के लिए लड़ा हुआ दिखाई देता है.
यदि सीता की मुक्ति और प्रेम में लड़ा गया युद्ध होता तो वह राम इतना निष्ठुर होकर अपनी
पत्नी से अविश्वासपूर्वक अग्नि –परीक्षा की बात नहीं करता. अस्वीकार करने की बात
नहीं करता-
‘
सीते ! न तुम्हे अब कर सकता मैं अंगीकृत
तुम रही पर पुरुष के संरक्षण में विकृत
- सत्यनारायण व्यास
सीता की अग्नि परीक्षा के मिथक को आधार बनाकर आज के स्त्री शोषण और उत्पीड़न को
बहुत ही करीने से उभारा गया है. भारतीय समाज में जिस रामराज्य की संकल्पना को
अति बड़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है उस पर भी कवि ने सवाल खड़ा किया है. ‘क्या यही कहाता
राम–राज्य पुरुषैकवन्त?’ यह बात सही भी है कि जिस रामराज्य की अवधारणा राम के मर्यादावादी
शील और आचरण को आधार बनाकर रखी जाती है वही राम शुद्र शम्बूक जैसे तपस्वी की निर्मम
हत्या और सीता की अग्नि परीक्षा एवं सीता के निष्कासन के भी जिम्मेदार हैं. शम्बूक और
सीता की घटना से पता चलता है कि राम का रामराज्य का न्याय न केवल स्त्रियों के खिलाफ
है बल्कि शूद्रों के खिलाफ भी है. यदि रामराज्य का विरोध स्त्री और शुद्र करते है
तो इसमें क्या हर्ज है. सीता की अग्नि परीक्षा लेते समय शायद राम को भी पता नहीं
रहा होगा कि आने वाले युग में पुरुषसत्ता का यह सबसे बड़ा हथियार होगा और हर स्त्री
को पवित्रतावादी दृष्टिकोण से देखा जाएगा. जिस भक्त के भगवान खुद इस पोंगापंथी मूल्यों
में विश्वास रखते हो नारी के प्रति दकियानूसी विचार हो तो भला उसका भक्त इस अवसर
से कैसे चूक सकता है. यदि यह कहा जाए कि राम ने स्त्री उत्पीडन करने वालों को
प्रमाण पत्र जारी कर दिया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है. क्योंकि जो राम अपने राज्य
के एक नागरिक के कहने मात्र से अग्नि
परीक्षा के बावजूद राज्य से निष्कासित कर देते है उस राम और आज के आए दिन गली–मोहल्ले
में पत्नी को चरित्रहीनता के आरोप में जो व्यक्ति अपने घर से निकाल देता है. उस
मर्यादावादी राम और आम आदमी में क्या फर्क है. स्त्री उत्पीड़न में वह राम और आम पुरुष
एक ही धरातल पर है.
यह कविता पुरुष पाखंड की पोल खोलकर
रख देती है. क्योंकि अब की सीता आँख में आंसूं भरकर सिर्फ रोती नहीं है बल्कि पुरुष
द्वारा उसके लिए बनायीं गई छल–प्रपंच की इस व्यवस्था पर उलटे सवाल भी खड़ा करती
है.
हर नारी के क्यों भाग्य लिखी यह
अग्नि-चिता ?
क्यों दूध–धुला हर पुरुष ,कहाँ
उसकी शुचिता ?
सत्यनारायण व्यास
देवी दुर्गा,लक्ष्मी कमला कह
शक्ति जिसे
पूजा था प्रभु ने विजय हेतु वह
भक्ति किसे
अर्पित की ?है वही शक्ति यह
सीता भी
तुम अहंकारवश हार गए रण जीता
भी!
-सत्यनारायण व्यास
इसमें कोई शक नहीं की जिस भारतीय समाज
में पति-पत्नी के जोड़ी को आज भी राम–सीता की जोड़ी की उपमा दी जाती है वहाँ कही न
कहीं राम के इस कुकृत्य को सही ठहराने का प्रयास भी होगा अथवा यह एक सामान्य घटना
मान ली जाती होगी कि पुरुष को ऐसा करने का अधिकार है. अन्यथा जिस तरह रामायण के
अन्य चरित्र विभीषण को न्याय का साथ देने के बावजूद घर का भेदी कहते हैं, कैकेयी को
अपने पुत्र प्रेम में राजगद्दी मांगने पर जनमानस ने उसको नकार दिया तो राम को
सीता को ठुकराने के बाद भी एक आदर्श पति–पत्नी के रूप में क्यों पेश किया जाता
है?
व्यास जी की कविता के हरेक बंद में
नारी विमर्श का नया–नया आयाम खुलता हुआ प्रतीत होता है. उनकी कविता का वाक्यविन्यास काफी सधा हुआ है. उनकी कविता को देखकर लगता है कि वह कवि साधक के रूप
में निराला को चुनौती देने के लिए शिल्प और वस्तु की साधना से गुजरे हुए होंगे क्योंकि
जिस तरह की शिल्प और शैली को आधार बनाकर सीता की अग्नि परीक्षा लिखने की कठिन
चेष्टा की गयी होगी. ऐसी चेष्टा अन्य कहीं दुर्लभ जान पड़ती है. व्यास जी कविता की शुरुआत में बिलकुल निराला की तरह तत्समप्रधान शब्दावली को लेकर चलते हैं. हालांकि वहाँ युद्ध वर्णन के दृश्य खीचने के लिए वैसी शब्दावली की मांग भी हो सकती है किन्तु
जब सीता की अग्नि परीक्षा की तरफ आते है तो वहाँ धीरे–धीरे शब्दों की सरलता और
कोमलता भी बढ़ती जाती है .जैसे –
अपनी भाभी सीता को रथ पर तुम
सवार
कर वन में आओ छोड़ कहीं यह दुर्निवार
आज्ञामेरी, हो अभी पालना इसी समय
परिणाम जो भी मुझ पर छोड़ अभय”
-सत्यनारायण व्यास
कहने की बात नहीं कि उपर्युक्त पंक्ति में दुर्निवार को छोड़कर बाकी सभी प्रचलित
शब्द है.
व्यास जी ने सीता के चरित्र को आधार
बनाकर जिस तरह से नारी त्रासदी का चित्र खिंचा है आज वह बिलकुल नारी विमर्श को तेज धार
देने वाली है. स्त्री समस्या को न केवल कवयित्री बल्कि एक कवि भी उतनी ही संवेदनशीलता और तर्क के साथ उठा सकता है. यह इस कविता से सिद्ध हो रहा है. व्यास जी
ने जगह–जगह पर कविता के मर्म स्थल को भी पकड़ा है. कविता का अंतिम बंद बड़ा ही रोचक
और मार्मिक बन पड़ा है जब सीता धरती से निवेदन करती है.
मुझको ले लो निज गोद, जगत होता न सहन
दाम्पत्य नहीं माँ! रहा मात्र
नारीत्व दहन
.......................................................
उतरी वह माँ की कोख ,नमन करके
अदीन
धरती की बेटी थी, धरती में हुई
लीन
-सत्यनारायण व्यास
इस प्रकार देखा जाय तो व्यास जी की कविता समकालीन नारी विमर्श को आगे बढ़ा रही
है. यह उदात्त शिल्प और उदात्त दृष्टि में लिखी गई बड़े विजन की कविता है. कथा सूत्र
में पिरोई गई कविता में अनावश्यक शब्दों से कवि ने पाठकों को बचाया है. कविता में तत्सम शब्दावली
होने के बावजूद भाव संप्रेषण में रुकावट न आने देना यह कवि की कलात्मकता का ही
परिणाम है. हमें उम्मीद है कि कवि की इस सशक्त कविता को आने वाले समय में हिंदी साहित्य में
एक अलग पहचान मिलेगी.
डॉ.सत्यनारायण व्यास
हिंदी लेखक और कवि(देह के उजाले में,असमाप्त यात्रा सहित कुछ और कविता संग्रह)
29 .नीलकंठ,शहीद भगत सिंह कॉलोनी,छतरीवाली खान के पास,चित्तौड़गढ़,राजस्थान-312001,मो-9461392200
जितेन्द्र यादव,चित्तौड़गढ़,राजस्थान.मो-9001092806,ई-मेल:jitendrayadav.bhu@gamail.com
Also Read रामायण में सीता की अग्नि परीक्षा के बारे में गलत धारणा क्यों? here https://hi.letsdiskuss.com/why-misconception-about-sita-s-ordeal-in-ramayana
जवाब देंहटाएंसीता की अग्नि परीक्षा के बहाने समकालीन स्त्री विमर्श के लिए कच्ची सामग्री Raw Material प्रस्तुत करता बहुत ही सारगर्भित लेख।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें