शोध आलेख :मुर्दहिया और अन्धविश्वास/जितेन्द्र यादव
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
अन्धविश्वास भारतीय
समाज की जड़ों में समाहित वह तत्व है जो आज भी ज्ञान –विज्ञान के युग में लाखों –करोड़ों
भारतीय के जन-जीवन को किसी न किसी रूप में प्रभावित कर रहा है। भूत-प्रेत तथा
चुड़ैल की कपोल –कल्पित कहानियां यहाँ के
रोजमर्रा के जीवन में बसी हुई हैं। आज भी ग्रामीण भारत में ओझा –सोखा तथा
तांत्रिकों द्वारा तरह –तरह के चमत्कार दिखाकर भोली –भाली जनता को मनोवैज्ञानिक
जालसाजी का शिकार बना रहे हैं। इसी अन्धविश्वास की कसौटी पर तुलसीराम की चर्चित
आत्मकथा मुर्दहिया का पाठ हम जब करते है तो पुनः उसी भूत –प्रेत ,चुड़ैल के
काल्पनिक दुनिया में चले जाते है। जिसका हमारे जीवन से बहुत कुछ सम्बन्ध है। यह
महज संयोग नहीं है कि लेखक के सात अध्याय में विभाजित किताब में तीन अध्याय भूत –प्रेत
और अन्धविश्वास पर है। लेखक ने शुरुआती अध्याय का नामकरण ही ‘भुतही पारिवारिक
पृष्ठभूमि रखा है। इसके अलावा तीसरे और पांचवे अध्याय का नाम क्रमशः ‘अकाल में
अन्धविश्वास’ तथा ‘भूतनिया नागिन’ रखा है। इसके साथ ही और अध्याय में भी प्रसंग वश
भूत –प्रेत ,झाड़ –फूक ,पशुबलि का जिक्र आया है।
आत्मकथा की शुरआत
में ही लेखक ने मुर्खता ,अशिक्षा और अन्धविश्वास के सम्बन्ध को रेखांकित किया है। उन्होंने
लिखा है - ‘मुर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी...सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम
यह हुआ कि मुर्खता और मुर्खता के चलते अन्धविश्वास का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से
कभी नहीं उतरा ।।शुरुआत यदि दादा जी से करू तो पिता जी के अनुसार उन्हें एक भूत ने
लाठियों से पीट –पीटकर मार डाला था ।।।दादा जी को मैंने कभी देखा नहीं था, क्योंकि
उनकी यह भुतही हत्या मेरे जन्म से अनेक वर्ष पूर्व हो चुकी थी।इस हत्या की गुत्थी
मेरे लिए आज भी एक उलझी हुई पहेली बनी हुई है । तर्कसंगत तथ्य तो शायद यही होगा कि
दादा जी की गाँव के ही किसी अन्य व्यक्ति से अवश्य ही दुश्मनी रही होगी और उसने
साही भूत का मनोवैज्ञानिक बहाना निर्मित कर उन्हें मार डाला हो ।सच्चाई चाहे जो भी
हो, इस भुतही प्रक्रिया ने मेरे खानदान के हर व्यक्ति को घनघोर अन्धविश्वास के
गर्त में धकेल दिया। परिणामस्वरूप घर में भूत बाबा की पूजा शुरू हो गई। घर में
ओझाओं का बोलबाला हो गया किसी को सिर दर्द होते ही ओझैती –सोखैती शुरू हो जाती थी।’१
अन्धविश्वास के कारण सबसे बड़ी त्रासदी लेखक के जीवन में जो घटित होती है वह आजीवन
छाप छोड़कर चली जाती है। जो लेखक को मानसिक पीड़ा ,अपमान और भेदभाव का दंश बाहर तो
बाहर घर में भी झेलने को मजबूर करती है। हुआ यह कि जब लेखक तीन साल का था तभी चेचक
के भयंकर प्रकोप की चपेट में आ गया। अन्धविश्वास की वजह से घर में ओझाई का अंतहीन
सिलसिला शुरू हुआ। जिसमें तरह –तरह के मन्त्रों का उच्चारण और झाड़ –फूक चलता रहता
रहता था। सूअर ,बकरों तथा भैंसों की मनौतियाँ मानी गई। लेखक के ऊपर से चेचक का
प्रकोप जब उतरा तो उसके बाद जो हुआ वह लेखक के शब्दों में कुछ इस तरह है –‘इस पूरे
प्रकरण में मेरे शेष जीवन पर अत्यंत दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना घटी ,चेचक से
मेरी दाई आँख की रोशनी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। भारत के अन्धविश्वासी समाज में
ऐसे व्यक्ति ‘अशुभ’ की श्रेणी में हमेशा के लिए सूचीबद्ध हो जाते हैं। ऐसी श्रेणी
में मेरा भी प्रवेश मात्र तीन साल की अवस्था में हो गया।अतः घर से लेकर बाहर तक
सबके लिए मैं ‘अपशकुन’ बन गया।’२ इस तरह लेखक हमेशा के लिए लोगों के बीच में कनवा
बन जाता है। यही हाल विधवाओं का भी था जो अभी भी मूढ़ भारतीय समाज में कहीं –कहीं
देखने को मिलता है। इसमें भी जिक्र आया है कि एक ब्राह्मणी विधवा थी जिसे लोग
देखना पसंद नहीं करते थे। गाँव भर के लोगों का कहना था कि पंडिताईन का सामना हो
जाने से किसी काम में सफलता नहीं मिलेगी। किसी का सामना हो जाता तो वह घर वापस
लौटकर थोड़ी देर तक ठहरकर अपशकुन मिटाता था।
अन्धविश्वास का भी
अपना समाजशास्त्र ,राजनीति और मनोविज्ञान होता है तभी तो इसकी आड़ में एक की
मुर्खता दुसरे के लिए वरदान सिद्ध होती है। चुड़ैल का अफवाह फैलाकर आज भी आदिवासी
समाज में कहीं –कहीं महिलाओं को मार दिया जाता है। जिसके पीछे का कारण कई बार उसकी
जमीन और सम्पत्ति हड़पने का भी होता है। आज वर्तमान परिदृश्य में गाय के नाम पर
मानव की हत्या हो रही है तो उसके पीछे भी राजनीतिक कारण है। इसी क्रम में बेहद
अन्धविश्वासी माहौल में पले –पढ़े लेखक के पिता जो दादा –परदादा के समय से गांवों
में ब्राह्मण जमींदारों के खेतों पर बंधुआ मजदूर थे। जो कभी भी उससे मुक्त होना
नहीं चाहते थे। लेखक ने लिखा है –‘वे अकसर कहा करते थे कि यदि हरवाही छोड़ दूंगा तो
ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। अत्यंत धर्मान्ध होने के कारण वे हरवाही को अपना
जन्मसिद्ध अधिकार और पवित्र कार्य समझते थे।’३ इस घटना से सहसा गोदान का होरी और
सवा शेर गेहूं का शंकर कुर्मी याद आ जाता है। उन दोनों के मन में भी अन्धविश्वास
का कुछ ऐसा ही भय और आतंक समाहित था।
अन्धविश्वास का कहर
भारतीय समाज के दलित समाज में किस तरह घुसपैठ किया हुआ है ।इसका आभास आत्मकथा में
कदम –कदम पर होता है। चमरिया माई ,डीह बाबा की तरह –तरह की मनौतियाँ सूअरों की बलि
रोजमर्रा का हिस्सा जान पड़ता है। प्रत्येक पीपल, बरगद, तालाब, पोखर के बारे में
कोई न कोई भूत का किस्सा जरुर प्रचलित रहता था। गरीबी की जहालत झेल रहे दलित
परिवारों के लिए इस तरह के कर्मकांड अतिरिक्त आर्थिक बोझ की तरह था जहाँ पर ओझा –सोखा
के लिए तो मौज और जश्न था किन्तु उन्हें गरीबी के चक्र से बाहर निकालने के बजाय और
अंदर ही धकेल देता था। ऐसे घोर अन्धविश्वास के माहौल में पला –बढ़ा लेखक भी अपने
शुरुआती दिनों में निहायत डरपोक, भाग्यवादी, और अन्धविश्वासी हो जाता है तो कोई
आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
घर में नित्यप्रति
होने वाले झाड़ –फूक ,ओझैती –सोखैती ,टोने –टोटके को लेखक ने बहुत ही सूक्ष्म और
बारीक़ दृष्टि से परखा था। उनके भूत भगाने की क्रिया-कलाप को मनोवैज्ञानिक जालसाजी
का नाम दिया है। ग्रामीण भारत में भूत का मनोवैज्ञानिक आतंक इतनी गहराई से मन –मष्तिष्क
पर छाया रहता है कि हरेक छोटी –बड़ी घटना के पीछे भूत –प्रेत के प्रभाव को मान लिया
जाता है। आज भी कई घरों में आपसी विवाद का कारण भूत –प्रेत के किस्से होते हैं जो
ओझा की मनगढ़ंत आरोपों पर आधारित होता है।
लेखक की आत्मकथा पूर्वी उत्तरप्रेदश के ग्रामिण
अंचल के अन्धविश्वास की व्यापक लेखा –जोखा प्रस्तुत करती है। धोकरकसवा बाबा या
लकड़सुंघवा बाबा के अफवाह के किस्से जिस रूप में लेखक के समय में था वही हमलोगों के
समय में भी था शायद अब भी हो। सवाल यह है कि शिक्षा का ग्राफ बढ़ने के बाद भी भूतों
का मनोविज्ञान वही क्यों है जो लेखक के समय में था। लेखक की दादी जो लेखक के सबसे
करीब थी वह भूतों की कहानियां और क्रिया –कलाप को विशेषज्ञ की तरह बताया करती थी
जिससे उनके बालमन पर और भी अधिक भय छाया रहता था। लेखक ने इसका जिक्र करते हुए
लिखा है –उधर रातों को मुर्दाखोर सियारों का हूआं- हूआं वाला शोर बच्चों को बहुत
डराता था ,किन्तु मेरी दादी कहती कि मुर्दहिया के सारे भूत अपनी बढ़ती हुई आबादी से
खुश होकर नाचते हुए सियारों जैसा गाना गाते हैं...दादी यह भी कहती थी कि महामारी
में मरने वाली औरतें नागिन बनकर घूमती हैं। उनके काटने से कोई भी जिन्दा नहीं बचता।’४
अपनी आत्मकथा में लेखक ने एक न भूलने वाली
यादगार घटना का जिक्र किया है जो अन्धविश्वास का शायद चरमोत्कर्ष है। यह घटना यू
आर अनंतमूर्ति का उपन्यास संस्कार का याद ताजा कर देता है। हुआ यह कि लेखक का पिता
जिस ब्राह्मण के यहाँ हरवाही करता है उसकी माँ की मृत्यु हो जाती है। वह समय
हिन्दू धर्म के अनुसार खरवांस यानी अपशकुन वाला महिना माना जाता है। उनके पट्टीदार
अमिका पांडे ने पतरा देखकर बताया कि अभी पन्द्रह दिन खरवांस है इसलिए दाह –संस्कार
नहीं हो सकता यदि ऐसा किया गया तो माता जी नरक भोगेंगी। उनके सुझाव अनुसार लाश को
मुर्दहिया के कब्र में गाड़ दिया जाता है फिर पन्द्रह दिन बाद सड़ी और बजबजाती लाश
को लेखक के पिता और लेखक को हिन्दू रीति के अनुसार बड़ी मुश्किल से चिता सजाकर लाश
को जलाया गया। और सभी लोग दूर से मुहं –नाक ढककर निर्देश देते रहे। अमिका पाण्डेय के इस पाखंड और अन्धविश्वास के
सामने संस्कार उपन्यास के प्राणेशाचार्य का अन्धविश्वास फीका जान पड़ता है।
भूत –प्रेत का अन्धविश्वास और ओझा –सोखा तथा तांत्रिक का आतंक भारतीय समाज को
जड़ और गतिहीन बना दिया है। इसकी एक ऐसी दुनिया है जिसमें एक तरफ अनपढ़ और मुर्ख
जनता है तो दूसरी तरफ चालाक और धूर्त ओझा और तांत्रिक है। जो लाचार और बेबस जनता
को काल्पनिक भूत का भय दिखाकर दोनों हाथों से लूटते है। एक ओझा या तांत्रिक के पास
सिर दर्द और पेट दर्द की समस्या लेकर जाने पर वह आज के युग में भी झाड़ –फूक ही
करेगा किसी मेडिकल की दवा नहीं लिख सकता। तुलसी राम ने अपनी आत्मकथा में ओझाओं और
तांत्रिकों की पोल खोलकर अपने तर्क की कसौटी पर ख़ारिज करके आने वाली पीढ़ी को एक
दृष्टि दी है। भूत के मनोरोग से पीड़ित समाज और व्यक्ति का मखौल भी उड़ाया है। लेखक
ने अन्धविश्वास की आड़ में घटित कुछ घटनाओं का जिक्र जो किया है उस घटना को पढ़कर
दया, हंसी और आक्रोश सभी एक साथ आते हैं। लेखक के शब्दों में घटना का जिक्र कुछ इस
तरह है- ‘प्रचंड अकालग्रस्त गर्मी में
दोपहर का समय था। उस पेड़ से करीब ढाई सौ गज की दूरी पर पत्तू मिसिर का घर था । वे
वहीं से मलदहिया (आम) की तरफ देखा करते थे। चिखुरी को कभी इधर तो कभी उधर पेड़ के
इर्द –गिर्द आम बीनते देखकर पत्तू मिसिर आशंकित होकर गलियां देते हुए लाठी लेकर
दौड़ पड़े। उन्हें देखकर चिखुरी तुरंत भागकर मुर्दहिया के तरफ चले गए। मैं पेड़ पर
काफ़ी उचाई पर था इसलिए नीचे नहीं उतर सका इस बात से बुरी तरह डरा हुआ था कि आज
पत्तू मिसिर बुरी तरह पिटाई करेंगे। अतः एक डाल पर बैठे-बैठे मैंने पत्तेदार कई
टहनियों से अपने को ढक लिया। गलती से मेरा एक पैर डाल से नीचे लटक रहा था।...संयोगवश
उन्होंने मेरे लटकते हुए पैर को देख लिया। इसे देखते ही पत्तू मिसिर जय शुद्धू
बाबा की ,जय शुद्धू बाबा की कहते हुए पेट के बल जमीन पर गिर पड़े। बड़ी मुश्किल से
अर्धविक्षिप्त अवस्था में हकलाते हुए वे जय शुद्धू बाबा की, जय शुद्धू बाबा की रट
लगाते हुए अपने घर की तरफ गिरते –पड़ते भागे।’5 लेखक के अनुसार शुद्धू नाम का कोई
दलित पास के नीम के पेड़ से दतुवन तोड़ते हुए गिर कर मर गया था। जो खतरनाक भूत माना
जाता था लेखक के पैर को भी पत्तू मिसिर शुद्धू भूत का पैर मान लेते है। घर पर वे
बीमार हो गए उनको ठीक करने के लिए ओझाओं का जमघट लग गया। एक इसी तरह का रोचक घटना
और है लेखक के परिवार में ही एक भाभी जिनका पेट दर्द होता रहता है। एक ओझैत महिला
के यहाँ का भभूत खाने से वह ठीक हो जाती थी। उसका कहना था भूत के कारण पेट दर्द कर
रहा है। यह भभूत लाने की जिम्मेदारी लेखक की ही रहती है। एक दो बार के बाद लेखक को
खुराफात सूझी चोरी से बाहर बगल के घर से राख लेकर पत्ते में लपेटकर वापस आकर दे
देता था उसे खाकर भी वह कहती थी पेट दर्द ठीक हो गया। लेखक उसके मनोरोग को राख से
संतुष्ट करता रहा।
इस प्रकार देखा जाए मुर्दहिया आत्मकथा में इस तरह के उदाहरण अनगिनत आए हैं।
लेखक भी बचपन में भूत के भय से बहुत पीड़ित रहता है। लेखक द्वारा नागिन को मार देने
की वजह से घर वाले इतना डरा देते है कि उसको हमेशा गीता का पाठ करके इस भय से
मुक्ति का प्रयास करना पड़ता है। घर और गाँव वालों का कहना था कि वह तुम्हारा फोटो
खीच ली है भूतनिया नागिन बनकर बदला लेगी। ‘भूत –प्रेत निकट नहीं आवे। महावीर जब
नाम सुनावे।‘ हनुमान चलीसा की यह पंक्ति भी लेखक की सबसे प्रिय पंक्ति बन गई थी।
जैसा माहौल भूत –प्रेत का उस समय था उसके बारे में सोच कमोबेश आज भी वही है। आज तो
बल्कि मिडिया भी गाहे –बगाहे इस तरह के किस्सों को टीआरपी के चक्कर में हवा देता
रहता है। बहुतेरी हारर फिल्मे इसी पटकथा पर बनती हैं और मोटी कमाई करती है। फिल्मो
के नाम ‘एक थी डायन’ इसका उदाहरण है जो अंधविश्वास को और भी पुख्ता करती हैं।
अन्धविश्वास के उन्मूलन के लिए कटिबद्ध नरेंद्र दाभोलकर की हत्या भी एक गहरी साजिश
की तरफ इशारा करता है। एक तर्कशील समाज की ओर बढ़ते हुए वैज्ञानिक चेतना से लैस
होकर चीजों को देखने का दृष्टि विकसित होगी तभी सच्चे अर्थों में इन मनगढ़ंत, फिजूल
और बेबुनियादी किस्सों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिलेगी।
संदर्भ सूची –
1.पृष्ठ संख्या 9 ,पुस्तक, मुर्दहिया- लेखक तुलसी राम ( पहला संस्करण 2012
राजकमल प्रकाशन)
2. पृष्ठ संख्या 12 , वही
3. पृष्ठ संख्या 14 , वहीं
4. पृष्ठ संख्या 42 , वही
5. पृष्ठ संख्या 94 , वही
जितेन्द्र यादव
शोधार्थी- हिंदी विभाग,दिल्ली
विश्वविद्यालय दिल्ली
सम्पर्क- 9001092806,ई-मेल- jitendrayadav.bhu@gmail.com
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