सिनेमा:फ़िल्मों में जीवंत होते हाशिए के सरोकार/विमलेश शर्मा

चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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सिनेमा:फ़िल्मों में जीवंत होते हाशिए के सरोकार/विमलेश शर्मा

 चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा
जो सदियों से हाशिए पर रहा आज वो केन्द्र में है, जिसे सदियों तक दबाया गया,अपने अधिकारों से वंचित रखा गया आज वह अपनी बात बेबाकी से रख रहा है। उसकी इस बात में शमशीर सा तेज है, एक आक्रोश है और भोगे हुए की अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति कहीं स्वानुभूति है तो कहीं परानुभूति। दलित शब्द का बहुत सामान्य  आशय है पिछड़ा। यह शब्द शायद उतना ही पुराना है जितनी भारतीय संस्कृति और उसकी परम्पराएँ। यह वही वर्ग है जिसका उल्लेख चातुर्वर्णयों में शूद्र  के रूप में हुआ है, जिसे कभी सामाजिक तानों बानो में उलझाया गया है तो कभी स्त्री कहकर शोषण किया गया है। दलित के अर्थ के संबंध में बात की जाए तो जो दमित हो, जिसे दबाया गया हो औऱ पनपने के अवसर नहीं दिए गए हो वह दलित है। इस संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि, “केवल बौद्ध या पिछड़े हुए वर्गीय जन ही दलित नहीं है वरन् जो जो शोषित श्रमजीवी हैं सब दलित संज्ञा में समाविष्ट है।”(फड़के भालचंद्र,दलित साहित्य चेतना एवं विद्रोह,पृ.28) दलित शब्द के अर्थ के साथ ही जुड़ी है दलित चेतना जिसने दलित वर्ग को सर्वाधिक प्रभावित किया। दलित चेतना में अपने अस्तित्व के प्रति आग्रह है ,अपने अधिकारों का अहसास है और समाज तथा इस वर्ग विशेष के विकास का आह्वाह्न है। वस्तुतः जो दलित की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक,सामाजिक भूमिका की छवि के तिलिस्म को तोड़ता है वही दलित चेतना है। दलित मतलब मानवीय अधिकारो से वंचित सामाजिक तौर पर जिसे पशु से भी लांछित जिन्दगी जीने के लिए नकारा गया है। उसकी चेतना यानि दलित चेतना।”(वाल्मिकी ओमप्रकाश,हिन्दुसस्तानी जबानी, अप्रेल-जून,पृ.7)अगर इसी वंचित तबके की मुख्यधारा के सिनेमा में दखल और भूमिका पर बात करें तो प्रभावी अभिव्यक्तियाँ कम भले हो ,पर मिलती अवश्य हैं।सिनेमा लोक का प्रतिनिधित्व करता है और हिन्दी सिनेमा में भी अनेक स्थानों पर सभी वर्गो को व्यापक प्रतिनिधित्व मिलने लगा है। सिनेमा का जन्म सिर्फ मनोरंजन परोसकर पैसे कमाने के लिए नहीं हुआ है। सदा से सिनेमा के मज़बूत कन्धों पर देश-काल और सामाजिक दायित्व का दोहरा बोझ भी हुआ करता है। अपने प्रारम्भिक काल से ही सिनेमा अपने मनमोहक लुभावने अंदाज के साथ-साथ अपनी सरल और प्रभावशाली संप्रेषणीयता के कारण लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामाजिक कुरीतियों के विरोध में सिनेमा का, साहित्य और नाटक की तरह सामाजिक परिवर्तन के ध्येय से एक तेज़ दो-धारी तलवार की तरह इस्तेमाल किया गया।”(हिंदी फिल्में और सामाजिक सरोकार-प्रों.एम.वेकटेश्वर)

कुछ समय पहले तक यह बात बराबर देखी जा रही थी कि हिन्दी फिल्मों में दलितों से जुड़े मुद्दे पूरी तरह गायब है और अक्सर यह संदेश मिलता था कि फिल्मों में जातीय वर्चस्व गहराई तक पैठा हुआ है।कलाएँ समाज से जन्म लेती है, समाज ही उसे वैचारिक खाद देता है , परिपक्व बनाता है औऱ अंततः वे समाज को ही प्रभावित करती हैं। इस प्रकार यह स्वीकार्य है कि समाज में होने वाले लगभग सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों को हमारी फिल्मों में उकेरने का प्रयास किया गया है। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन ने छठे दशक में और बाद में अदूर गोपालकृष्णन, जी. अरविंदन, एम. एस. सथ्यु, श्याम बेनेगल, कुमार शहानी, मणि कौल, सईद अख्तर मिर्जा, गिरीश कासरवल्ली आदि फिल्मकारों ने सचेत रूप से फिल्मों में यथार्थवाद और नवयथार्थवाद की उन परंपराओं को अपनाया जो यूरोप में पांचवें और छठे दशक में प्रतिष्ठित हुई थी। हॉलीवुड की अतिरंजनकारी शैली को इन फिल्मकारों ने भी नहीं अपनाया। इस शैली का असर सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों पर ही अधिक दिखा जिन्होंने मेलोड्रामाई शैली को हॉलीवुडीय शैली के साथ मिलाकर अपराध प्रधान फिल्मों का निर्माण किया था। इनमें से अधिकतर फिल्में फिल्म इतिहास के कूड़ेदान में पहुंच चुकी हैं।“(भारतीय समाज में सिनेमा : जवरीमल्ल पारख)

  सिनेमा चूँकि देखने, सुनने और अनुभव करने की क्रमिक प्रक्रियाओं से साथ -साथ गुजरता है,ज्ञानेन्द्रियों से सीधे जुड़ता है इसीलिए वह मानस पटल पर अधिक स्थायी होता है। यही कारण है कि सिनेमा में प्रस्तुतिकरण और कथानक दोनो पर बराबर ध्यान देने की आवश्यकता होती है।हालिया फिल्मों की बात की जाए और हाशिए के सरोकारों को सामने लाने की बात की जाए  तो सार्थक दलित हस्तक्षेप आरक्षण फिल्म में देखने को मिलता है।इस फिल्म में ना केवल सटीक फिल्मांकन किया गया है परन्तु दलित संदर्भों में जातिगत समीकरणों को समझने और आरक्षण के औचित्य को दलित संदर्भों में समझने की एक सार्थक कोशिश की गई है। फिल्म में अमिताभ  और सैफ अली खाँ के किरदार के माध्यम से इस समस्या पर अच्छा विमर्श प्रस्तुत किया गया है।

हाल ही मे प्रदर्शित माँझीके पास दर्शक को प्रभावित करने की कई वजहें हैं जिनके कारण वह आम आदमी के मस्तिष्क पर लम्बे अरसे तक काबिज़ रहेगी। दशरथ मांझी का सजीव चित्रांकन और उतनी ही जीवंत अदाकारी ने इस किरदार को अमर बना दिया है। हम फिल्म की समीक्षा के  बजाए अगर वास्तविकमुद्दे सरोकारों और दलित हस्तक्षेप की बात की जाए तो यह वाकई अपनी जिम्मेदारी का पूर्णरूपेण वहन करती नजर आती है। हाशिए को मुख्यधारा के नायक के बीच ला खड़ा कर देना कथाकार की उपलब्धि है। जहाँ एक ओर यह फिल्म व्यवस्था पर चोट करती हैं वहीं प्रेम के उदात्त रूप का ऐसा कोमल बिम्ब खींचतीं है कि मांझी का प्रेम एक मिसाल बन जाता है। यह प्रेम वस्तुतः प्रतिदर्श है नैतिकता के उच्च मानदण्डों का कि व्यवस्था से हतोत्साहित व्यक्ति से अगर कोई अपना छिन जाता है तो उसके सिर पर एक जुनून हावी हो जाता है। जुनून भी ऐसा जो 22 वर्षों तक अनथक चलता रहे। प्रेम का ऐसा चित्रण मुख्यधारा के सिनेमा में हाशिए की अभिव्यक्ति को अब तक नहीं मिला है। 22 वर्षों तक लगातार अपनी जीवनसंगिनी के प्रेम को उसी तीव्रता के साथ उसकी मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रखना वाकई बड़ी बात है। यह फिल्म वास्तविक घटना पर आधारित है।

गत कुछ वर्षों में सिनेमा मेंवर्चस्व की परंपरा टूटने लगी है। दो साल पहले 'शूद्र' नाम की एक फिल्म आई थी जिसने बहुत तीखेपन के साथ उस ऐतिहासिक शोषण-दमन को दिखाया था, जिसके बारे में बात करने से हम प्रायः बचते हैं, किनारा कर लेते हैं। स्वाभाविक तौर पर उस फिल्म में भी नायक दलित वर्ग से था। इसी साल आई कुछ फिल्मों जैसे 'गुड्डू रंगीला' और 'मसान' ने नायक की परंपरागत धारणा को ठीक-ठाक चुनौती दी है। 'मसान' का नायक बनारस के मणिकर्णिका घाट पर लाशों का दाह-संस्कार करने वाले डोम परिवार से है और अपने से ऊँची जाति की लड़की से दोतरफा इश्क करता है।इसी परंपरा का अगला पड़ाव'माँझी' है।(विकास दिव्यकीर्ति के विचार)शायद यही संकेत देने के लिये इस फिल्म का नाम 'दशरथ' या 'दशरथ माँझी' नहीं, सिर्फ 'माँझी' रखा गया है। इसका नायक बिहार के एक गरीब मुसहर परिवार का है। मुसहर जाति दलितों में भी सबसे पिछड़ी जातियों में शुमार है और यह कहा जाता है कि उसके सदस्य चूहे खाकर ज़िंदा रहते आए हैं।दशरथ माँझी को  वास्तविक जीवन के ही फगुनिया की ही तरह सत्ता की कोई मदद नहीं मिलतीउलटे सत्ता तो बार-बार उसकी राह में रोड़ा बन उभरती है। परन्तु वह फिर भी निष्कंप दृढ़ता के साथ डटा रहता है और आखिर में जीतकर दिखाता है।  यह फिल्म मुख्यधारा के सिनेमा में दलित वर्ग का एक मजबूत दखल है। इसका सूत्रपात जहाँ प्रेमचंद ने  पहले पहल गोदान में एक दुबले-पतले, साँवले, कमज़ोर और दब्बू किसान होरी को नायक बनाकर प्रारम्भ किया था जिस समय सारे नायक अमीर, गोरे और बलिष्ठ हुआ करते थेपर प्रेमचंद जाति की दीवारों से थोड़ा बहुत टकराकर भी इतना साहस नहीं दिखा पाए थे कि किसी दलित को उपन्यास के केंद्र में ला खड़ा करें। यह वाकईविमर्श का बिन्दु है कि दलित विमर्श का पदार्पण होने से पहले  साहित्य और सिनेमा की दुनिया में जितने भी नायक हुए, उनमें से शायद ही कोई दलित समाज से था। साहित्य औऱ सिनेमा मनोरंजनात्मक, उपदेशात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, जासूसी  हुआ पर सरोकारों पर जिसने बात की ऐसा साहित्य सही मायने में कम ही हुआ । शायद यही कारण है कि विमर्शों की आवश्यकता महसूस होने लगी ।साहित्य से इतर अगर फिल्मों की बात की जाए तो निःसंदेह यह कुछ जोखिम भरा रहा होगा क्योंकि फिल्म निर्माण में अर्थ महत्वपूर्ण होता है और ऐसे विषय चयन के लिए एक ज़ज़्बे की जरूरत होती है। यहाँ यह भी कहना समीचीन होगा कि सिनेमा ने कई लोकनायक गढ़े हैं, हालांकि उन्हें गढ़ने में वास्तविकता ही हावी है परन्तु इस प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण बिन्दु पीछे छूट गए हैं। उदाहरण के रूप में हम गाँधी और अम्बेडकर को ले सकते हैं।.

इस फिल्म में  माँझी की प्रेम कहानी को समाज से, परिवेश से काटकर नहीं दिखाया गया है वरन् वहाँ तमाम विद्रूपताओं के मध्य प्रेम पलता है। अच्छी बात यह है कि प्रेम की कहानी सामाजिक सच्चाइयों और विसंगतियों के साथ जुड़कर चलती है। फिल्म यथार्थ को बयान करती हुई दिखाती है कि नायक और उसके समुदाय के लोग लगभग रोज जातीय दमन को झेलते हैं। वे बेगार के लिये मना नहीं कर सकते और मना करने पर उन्हें अत्याचार का सामना करना पड़ता है । यह प्रसंग मुझे हाल ही में घटे अनेक जातीय अत्याचारों की तरफ ले जाता है जहाँ अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए या अपनी अवहेलना बर्दाश्त नहीं करने के कारण लोग किसी वर्ग की , स्त्री की अस्मिता से खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकते।  फिल्म में वे सभी अत्याचार बताए गए हैं जिन्हें किसी ना किसी रूप में आज भी हाशिए का वर्ग झेल रहा है। वे अगर ना कह दे तो उनके पैरों में घोड़े की नाल ठोक दी जाती है।

आज़ादी मिलने से, संविधान में अस्पृश्यता के उन्मूलन की घोषणा से , भूमण्डलीकरण से औऱ कुछ राहतों की बौछारों सेहाशिए की असल ज़िंदगी नहीं बदली है।  इस फिल्म के यथार्थपरक दृश्यांकन का  एक उदाहरण यह भी है कि यहाँ खुद नायक बुरी तरह पिटता है क्योंकि उसने सवर्ण मुखिया को छू दिया है। यह वास्तविकता का वह चेहरा है जिस पर हर कोई मुखौटा लगाए फिरता है। सवर्ण मुखिया जो मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करता है ,का बेटा दलित नायक की बीवी की अस्मिता को  सरे बाज़ारधूमिल करनेकी कोशिश करता है और पिट जाने पर रोष स्वरूप दलितों की बस्ती पर हमला कर देता है। शोषण का यह प्रसंग यही समाप्त नहीं होता वरन् वह और उसके आदमी एक दूसरे दलित युवक की बीवी को उठाकर ले जाते हैं। उस स्त्री के साथ रात भर अमानुषिक बर्ताव किया जाता है और सुबह उस मनसा मृत औरत की देह तालाब में मिलती है। यहीं एक औऱ घटना का जिक्र भी है कि दलित के जीवन को, जो अपरिचित है उसके जीवन को कितना सस्ता समझा जाता है। एक  दलित युवक ईंटों के भट्टे की धधकती आग में गिरकर ख़ाक हो जाता है पर इतने पर भी भट्टे की आग बुझाई नहीं जाती, कैसी विडम्बना है। फिल्म अनेक स्तरों पर नमक का दारोगा और ठाकुर का कुआँ की सशक्त अभिव्यक्ति भी मिलती है। चलते-चलते यह फिल्म यह संकेत भी कर देती है कि नक्सलवाद और आतंकवाद  के उभार की वर्गीय व्याख्याएँ तब तक अधूरी रहेंगीं जब तक उसमें जातीय दमन के तत्व को पर्याप्त महत्त्व न दिया जाए।


वाकई हम एक भयानक समय में जी रहे है और जो घट चुका है वह बार बार दोहराया जा रहा है। आज हमारी ही आँखों के सामने तमस का सजीव चित्रांकन हो रहा है और हम यह सब चुपचाप देख रहे हैं। यहीं दादरी भी है और यहीँ उस जैसे अनेक ऐसे मुद्दे भी जो प्रकाश में नहीं आ पाते हैं।यह फिल्म इसलिये भी महान है कि यह इतिहास के इन पक्षों से नज़र नहीं चुराती बल्कि आँख से आँख मिलाकर उन्हें अपने वास्तविक वीभत्स रूप  रूप में दिखाती है। यह दिखाना सिर्फ इसलिये ज़रूरी नहीं है कि हमें अपने इतिहास की गलतियों पर शर्म करने का मौका मिलता रहे; बल्कि इसलिये भी ज़रूरी है कि शहरों में रहने वाली नई पीढ़ियाँ आरक्षण जैसे शब्द सुनते ही मुँह बिचकाने की बजाय उन घावों से रूबरू हों जिनकी अपर्याप्त लेकिन ज़रूरी दवा आरक्षण है। ऐसी फिल्में तो स्कूलों/कॉलेजों के शैक्षिक पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाई जानी चाहियें। रोचक बात है कि इस मामलेमें हॉलीवुड का इतिहास भी बहुत अलग नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो वहाँ की फिल्मों में भी अश्वेतों को बराबर की भागीदारी नहीं मिली। 20वीं सदी की फिल्मों में पहले पहल तो अश्वेत चरित्र होते ही नहीं थे; और अगर होते भी थे तो प्रायः चोर, उचक्कों और गुंडो की निम्न भूमिका में जैसे कि हमारे यहाँ संस्कृत नाटकों में दिखाया जाता रहा है। 2001 के आसपास इस स्थिति में थोड़ा बदलाव दिखना शुरू हुआ जो 2013 तक आते-आते घनीभूत हो गया। अब अमेरिकी फिल्मों के नायकों की पृष्ठभूमियों में डाइवर्सिटी दिखनी शुरू हुई है। हाल ही में आई फिल्म "Twelve years a slave" इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण दखल है।इसी बात को आगे बढ़ाते हुये एक नजर भारतीय सिनेमा पर भी डालना समीचीन है आखिर समाज और सिनेमा को दूर रखें भी तो कैसे! कुछ दिन पहले एक फिल्म आयी थी दम लगा के हइसा।  बेमेल शादी पर बनी यह फिल्म स्त्री जीवन के वास्तविक अर्थशास्त्र को प्रस्तुत करती है।यहां वर-वधू को छोड़कर परिवार का हर सदस्य विवाह के रस्मों-रिवाजों के मजे ले रहा होता है। नहीं तो सिर्फ वर और वधू। फिल्म की नायिका बी.एड पास पढ़ी लिखी महिला है जिसे कुछ समय पश्चात् नौकरी भी मिल जाती है मगर वर 10 वीं पास नाकारा युवक है जो किसी कोमलांगी औऱ स्वर्ग की अप्सरा के ख्वाब संजोए रहता है लेकिन उसकी आशाओं पर कुठाराघात होता है औऱ उसके उलट उसे ऐसी युवती से ब्याह करना पड़ता है जिसके शरीर में वसा की अधिक मात्रा होती है।विवाह के पश्चात कुछ समय तक को स्त्री तमाम समर्पण के साथ पति को मोह के सात्विक धागों में पिरोने की कोशिश करती है परन्तु अंततः एक सीमा के पश्चात् प्रतिकार भी करती है। यहाँ भी समाज अपनी उसी भूमिका में है जो स्त्री को बेचारगी की नजरों से देखता है। फिल्म में नायिका कहीं से भी दबी-कुचली, मिमियाती, हीन भावना से ग्रस्त लड़की नहीं है। बल्कि वह अपनी पढ़ाई, बुद्धि, काबिलियत पर गर्व करने वाली आधुनिक नारी है, जिसके लिए उसका दूसरों से अलग होना कहीं भी उसकी काबिलियत को कम नही करता। मसलन, बार-बार उसका अपने पति से सम्मान की अपेक्षा करना और अपेक्षित व्यवहार नही मिलने पर उसकी सीमित शिक्षा को उसका असल कारण समझना और बताना बदलते समाज की ही तो निशानी है। मुख्य-धारा की अधिकतर फिल्मों में सामाजिक संदर्भों में अच्छी न दिखने वालीनायिका फिल्म के अंत में एक आदर्श सांचे में ढलीनिकलती हैं, और तब जाकर नायक के सपने पूरे होते हैं। लेकिन यहां अंत इस संदर्भ मेँ अलग है कि दोनों देह से ऊपर उठ कर उस प्रेम रूपी धागे को हर दुनियावी कमियों से ऊपर मानते हैं और अपने जीवन को ससम्मान जीने के लिए आगे बढ़ चलते हैं।


मांझी, दम लगा के हइसा,मसान, आरक्षण जैसी फिल्में सामाजिक समस्याओं के गहरे संदर्भों को उजागर करने वाली फिल्में हैं। हालांकि बार बार यह तर्क दिया जाता है कि ये फिल्में परिपक्व दर्शकों के लिए ही बनी है। परन्तु समाज को परिपक्व बनाना भी आखिरकार सिनेमा की ही जिम्मेदारी है।अगर सिनेमा व्यावसायीकरण की दौड़ से परे हटकर वास्तिवकता को उकेरने की जिम्मेदारी लेता है तो निःसंदेह यह एक सराहनीय कदम होगा।

डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिंदी),राजकीय कन्या महाविद्यालय,अजमेर राजस्थान,ई-मेल:vimlesh27@gmail.com

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