चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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1.
इतनी मजबूत ये दीवार गिरायी कैसे
तूने उस शाम मेरी याद भुलायी कैसे
मैं भला कहता बुरा कहता न कहता कुछ भी
मेरे होंठों पे अपनी बात सजायी कैसे
तू कहे इससे पहले तर्क़े तअल्लुक़ कर लूँ
आखिर ये बात तेरे जहन में आयी कैसे
बात छोटी थी दो लोग अच्छे दोस्त भी थे
ख़बरनवीस ने ये बात बढ़ायी कैसे
तू जिरह कर तेरी हर बात पे मैं राज़ी हूँ
पूरी दुनिया को मैं देता भी सफाई कैसे
2.
मुझको अच्छा था तेरी ज़ात में शामिल होना
एक क़श्ती के मुकद्दर में था साहिल होना
तेरे चेहरे पे खिला धूप का रंग तपता हुआ
और आँखों की तो फ़ितरत ही थी बादल होना
तेरी ये ज़िद थी कि तू ही मेरा सरमाया हो
मैंने कब सीखा था इसरार का क़ायल होना
मुश्क़िलें आयीं तो मैंने भी मुहब्बत कर ली
होश में रहने से अब अच्छा था पागल होना
तू बहुत अपना था जब ग़ैर हुआ करता था
और बेगाना कर गया तेरा हासिल होना
ये नाग़वार से तेवर और ये बेज़ार सी दाद
तेरे क़ाबिल ही कहाँ था मेरा क़ाबिल होना
3॰
तोड़ कर दाँत तू हो बैठा मुतमईं कैसे
इसके सीने में अभी कितना ज़हर बाक़ी है
तमाम रास्ते पक्के किये तो धूप हँसी
खेत प्यासे हैं अभी लानी नहर बाक़ी है
अभी तलक तो निबाहेहैंमैंने क़ौलो क़रार
अभी तो उनके तग़ाफ़ुल का क़हर बाक़ी है
लोग चाहेंगे, सराहेंगे, कहा मानेंगे
पिछली आदत है अभी आँख का डर बाक़ी है
फिर वहीं आ गया उल्फ़त का फ़साना आख़िर
बात होती है वही बात मगर बाक़ी है
अभी तो क़ाफ़िला सहरा के पार आया है
क़श्तियाँ खोलो अभी पूरा बहर बाक़ी है
काम पूरा कहाँ हुआ अभी, बलवे ने कहा
ये लो खंजर अभी पड़ोस का घर बाक़ी है
मेरे हुनर की इसने बानगी देखी है अभी
मुझपे मिटने को अभी पूरा शहर बाक़ी है
4.
अब उससे कुछ ग़िला कोई शिक़ायतें भी नहीं
ज़माना हो गया जब मेरे साथ मैं भी नहीं
मुझसे माज़ी ने किया तर्क़े तअल्लुक़ ऐसा
गुज़र गया और जाने की आहटें भी नहीं
पहले जैसा तोर हा कुछ भी नहीं अब हममें
मुहब्बतें जो नहीं तो अदावतें भी नहीं
ना आशनाई की सब कसमें निबाहीं ऐसे
खुद पे अब फ़ख्र नहीं तो नदामतें भी नहीं
जब उससे इश्क़ था दुनिया में बन्दिशें थी बहुत
जो वो चला गया तो वो रिवायतें भी नहीं
5.
तुमसे पहले भी कई ग़म थे इस ज़माने में
फ़िर भी ये बात क्या आसां है समझ आने में
नींद आई तो वही दर्द ख्वाब में लायी
मौत आई तो सहल हो गया भुलाने में
उसने मुद्दत हुई दो लफ्ज़ ही कहे थे मग़र
अब तो लगता है कि कुछ बात थी फ़साने में
बस वही बात इक घड़ी जो याद आई थी
बस वही बात ज़माना लगा भुलाने में
बाद मुद्दत तो बैठने का हौसला है हुआ
और कुछ वक़्त लगेगा अब उठ के जाने में
6.
देखना एक दिन जो हम सब चौक पर टंग जायेंगे
शहर वाले आदमी से देवता बन जायेंगे
राजा देखेगा कि हममें जान तो बाकी नहीं
और दरबारी ख़बर में फ़ातिहा पढ़ जायेंगे
हर निवाले में हमारे खून की बू है बसी
तय है बाज़ारों में खाने के डियो आ जायेंगे
आज मेरी भूख उनका सबसे मुश्किल पेंच है
कल इसी थ्योरी को आसानी से ये पढ़ जायेंगे
ख्वाब में देखेंगे रोटी नींद से उठ जायेंगे
सुबह का सपना समझ करवट बदल सो जायेंगे
फ्रेम में रोटी की फोटो कल यही मढ़वायेंगे
धान के बोरे तो बिछुड़ी प्रेयसी बन जायेंगे
सुक्खी मर जाये तो भूरा रोपनीकर आएगा
इनके भंडारों समय से हम रसद पहुंचायेंगे
7.
तुम्हें छोड़ा बस उसके बाद हर ज़िद छोड़ दी मैंने
मैं ज़िंदा तो हूँ बस जीने की ख्वाहिश छोड़ दी मैंने
तुम्हें माँगा तो हर एक आस्ताने पर दुआ माँगी
तुम्हें खोया तो हर रब की परस्तिश छोड़ दी मैंने
तुम्हे पाने से बेहतर ज़िन्दगी भर याद रखना था
यही सोचा तो हर बेदाद साज़िश छोड़ दी मैंने
वही कि मेरी हर कोशिश पे जिसने पानी
फेरा था
वही कहता है आसानी से कोशिश छोड़ दी मैंने
यही दुनिया तो हम में फ़र्क़ करने पर अमादा थी
इसी दुनिया से आख़िर हर गुज़ारिश छोड़ दी मैंने
अनुराधा त्रिवेदी सिंह
बी 1504, ओबेरॉय स्प्लेंडर,मजास बस डिपो के सामने,जेवीएलआर, जोगेश्वरी ईस्ट,
मुंबई 400060 ,ई-मेल: anuradhadei@yahoo.co.in
दिल की गहराइयों तक उतरती हुई गजलें । वाह ! बहुत खूब। ढेरो शुभकामनाएँ।
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