चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
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शोध:शिवानी का उपन्यास साहित्यः मानवीय संबंध व नारी चिंतन
भारतीय संस्कृति में नारी के
विविधरूपा स्वरूप के दर्शन होते हैं। वात्सल्यमयी माता, पतिव्रता स्त्री, ममतामयी बहिन आदि विभिन्न रूपों
में त्याग भावना प्रधान नारी तथा वेश्या, अपराधिनी, व्यभिचारिणी आदि विभिन्न रूपों
में विकृत रूपा नारी। शिवानी के कथा-साहित्य में मूल रूप से नारी को ही केन्द्र में रखकर
रचनाएँ लिखी गई है। उनकी नारी प्रत्येक बार नए रूप में प्रस्तुत होती है और हर बार
पाठक वर्ग की संवेदना को स्पर्श कर जाती है। मानव जीवन में पुरूष व नारी दो प्रधान
अंग हैं। इन्हीं दो पहियों के बल पर सम्पूर्ण मानव जाति का अस्तित्व टिका है और
समाज में इन दोनों का महत्त्व समान है। परन्तु तत्कालीन परिस्थितियों के बदलने के
साथ-साथ स्त्री-पुरूष के जीवन में भी परिवर्तन आया है। उक्त परिवर्तन पुरूष की
तुलना में नारी के जीवन में अधिक आया है।
समाज में नारी का स्थान कभी ‘देवतुल्य’ रहा है, कभी ‘दासी’ के समान। कभी यह तुलसीदास जैसे
महान् कवियों की प्रेरणा बनी है तो कभी मात्र मन बहलाने वाला ‘खिलौना’। नारी के इस बहुआयामी स्वरूप को
उकेरने में लगभग सभी लेखकों की लेखनी ने गौरव पाया है। भारतीय संस्कृति में नारी
को प्रकृति रूपा माना गया है। सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में नारी है। नारी पुरूष की
सहचरी है, गृहस्थी का
मेरूदण्ड है। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व नारी का जीवन अत्यन्त हेय और उपेक्षित था, बाद में नवीन दृष्टिकोण, समाज सुधारकों के प्रयास, शिक्षा आदि की वजह से नारी ने
समाज में अपना सम्मानजनक स्थान बनाने में सफलता प्राप्त की। समकालीन दौर तक
आते-आते नारी ने पुरूषों के लगभग हर कार्य क्षेत्र में अपनी दखलंदाजी की। बावजूद
इसके पुरूष प्रधान समाज में पुरूष अपने शारीरिक बल के दम्भ पर नारियों पर अत्याचार
करता आ रहा है। वह कभी नहीं चाहता कि नारी उससे दो कदम भी आगे निकले और यही
स्पर्धा उसे शैतान, हैवान बना
देती है।
शिवानी ने अपने उपन्यासों में
नारी के कोमलतम रूप का भव्य चित्रण किया है। उसका अप्रतिम सौन्दर्य तो सम्मोहित
करता ही है, पर मातृत्व, त्याग और समर्पण भी अनिर्वचनीय है।शिवानी
के कथा-साहित्य में लगभग सभी नायिकाएँ अपूर्व सौन्दर्य की धनी है। जब कौतुहल वश
किसी पाठक ने उनकी नायिकाओं के अपरूप सौन्दर्य का राज पूछा तो शिवानी ने कहा, “मेरी प्रत्येक नायिका अपरूप
सुन्दरी ही कैसे हो जाती है। यह उपालंभ एक बार फिर मुझे बींधे, इससे पूर्व ही मेरा नम्र निवेदन
है कि इस बार दोषी मैं नहीं हूँ। एक तो यह नायिका नहीं, स्वयं विधाता की कृति है, इसी से इसके अपूर्व रूपलावण्य की
सशक्त अभिव्यंजना में मेरी लेखनी एक ईमानदार स्वामिभक्त स्टेनो की ही भाँति अपने
प्रभु का डिक्टेशन मात्र ले रही है। कृपया इसका ध्यान रखें।“
एक अन्य
उदाहरण- “अपने
पाठकों के चिरन्तन उपालम्भ से मैं इस बार भी मुक्त नहीं हो पाऊँगी। उनका एक प्रश्न
मुझे हमेशा बींधता है- ‘मेरी
प्रत्येक नायिका अपरूप सुन्दरी ही क्यों होती है ?” किन्तु चाहने पर भी मैं क्या आज
उसके नुकीले चिबुक को भौंतरा बना सकती हूँ ? उन कर्णायत आँखों की सुदीर्घ
पलकों की चिलमन को किस कैंची से कतर दूँ ? उन पृथुल रसीले लाल अधरों, कपोलों की उस पहाड़ी आडू-सी मोहक
ललछौंही आभा को किस रबर से मिटा दूँ ? इतने वर्षों में भी पानी की टंकी
के पास खड़ी तन्वी सुन्दरी किशनुली की अर्धखुली देह की चमक, मुझे किसी दिवास्वप्न के बीच, सहसा चौंधिया जाती है।”
‘मायापुरी’ उपन्यास में शोभा को शिवानी ने
अप्रतिम सुन्दरी के रूप में प्रस्तुत किया है। उसका यह सौन्दर्य ही उसके जीवन में
बार-बार उथल-पुथल मचाता रहता है। “शोभा का सौन्दर्य द्विगुणित हो
गया था। उसकी पांडु-श्वेत-मिश्रित आननश्री पर तीव्र विद्युत-रश्मियाँ पड़ रही थी, उसके अधर पल्लव भय-मिश्रित लज्जा
से परिस्पन्दित हो रहे थे और वह मंजरी की आड़ में अपने को छिपाने का यथाशक्ति
प्रयत्न कर रही थी। प्रतनु साड़ी का आँचल हवा में चंचल होकर उड़ा जा रहा था, उसके यौवन से उभरे शरीर पर कसा
श्वेत ब्लाउज़ उसके छिपाने पर भी दिखा जा रहा था।”
‘अतिथि’ उपन्यास में जया के सौन्दर्य को
दर्शाने वाला एक उदाहरण “उन्हें
देखते ही महफिल में खलबली मच गई। लज्जावनता जया चुपचाप खड़ी थी। उसके कमनीय सलोने
चेहरे पर एक साथ कई जोड़ी कौतूहली आँखें जड़ गई। समझने वालियाँ समझ गई थी कि जिसे
लेने स्वयं मंत्री प्रवर गए थे और वहाँ पहुँचा स्वंय प्रतिष्ठित कर गए थे, वह निश्चित ही कोई असाधारण अतिथि
ही होगी। उसने वहाँ आते ही वहाँ पहले से बैठी एक से बढ़कर एक सुरसुंदरियों के
परिधान, आभूषणों पर
अपने दिव्य सौंदर्य और अनूठे मयूर हार से ही पल भर में झाडू फेरकर रख दिया था।
गुलाबी चंदेरी में वह स्वयं सुच्चे मोती-सी दमक रही थी।”
‘सुरंगमा’ उपन्यास में एक फिल्म का
डायरेक्टर उसके सौन्दर्य को देख उस पर फिल्म बनाने के लिए पीछे पड़ जाता है,- ‘मैं बड़ी देर से आपके पीछे-पीछे आ
रहा था। अपूर्व, ऐके बारे
अपूर्व।’ “लाखों में
एक चेहरा है आपका- एकदम स्क्रीन टेस्ट के लिए बनाकर पृथ्वी पर भेजा है शायद विधाता
ने। सत्यजीत मेरा परम मित्र है, काश मेरे साथ यहाँ होता। मोशाई, एकदम यही चेहरा ढूँढ रहा था स्वप्न
राय।”
कालिन्दी ‘उपन्यास’ में कालिन्दी का पिता अपनी पुत्री
का रूप देखकर दंग रह जाता है, “कैसा दिव्य रूप था लड़की का-साक्षात् अष्टभुजा, शायद गंगोलीहाट की अष्टभुजा ही
पर्वत मन्दिर छोड़कर सामने खड़ी हो गई है। खुले बाल, प्रशस्त शुभ्र ललाट पर रोली का
लम्बा तिलक, जिस पर
चिपके अक्षत तीखे नासाग्र पर बिखर वहीं अटके रह गए थे। नुकीले चिबुक से लेकर
कपोल-द्वय तक सद्य-पोती गई हल्दी की पीताभ आभा में गोरा रंग पिटे सोने-सा निखर आया
था।”
‘चौदह फेरे’ उपन्यास में अहल्या का सौन्दर्य- “अहल्या तैयार होकर उसके पार्श्व
में खड़ी हुई तो वह मुग्ध हो गई। लाल साड़ी की आभा में उसके गुलाबी कपोल और भी आरक्त
हो उठे थे, सुकुमार
हाथों की शुभ्रता, लाल-लाल
कामदार चूड़ियों में और भी निखर उठी थी। गले में एक रूबी का हार, कालर की तरह ही चिपककर, सुडौल लम्बी ग्रीवा को किसी
ईजिपशियन सुन्दरी का-सा अनोखा सौन्दर्य प्रदान कर रहा था।”‘रथ्या’ लघु उपन्यास में विमलानन्द जब
वसन्ती से मिलने जाता है तो उसके सौन्दर्य को देख चौंक जाता है कि वह शायद गलत जगह
आ गया- “हल्के
गुलाबी रंग की साड़ी के चौड़ी जरी का सुनहला रंग उसके शरीर के उजले दूधिया रंग को
अस्ताचल के गुलाबी सूर्य की आभा-से ही रंग गया था।”
सृष्टि
निर्माण में नारी की सबसे बड़ी भूमिका है उसके मातृत्व की। मातृत्वहीन नारी का जीवन
अभिशप्त जीवन है, कोई स्त्री
अपने आपको बाँझ कहलाने से पूर्व मृत्यु का वरण करना पसन्द करेगी। यदि वह जीवन भर
विवाह नहीं करती है, वह बात अलग
है लेकिन उसके सीने में जो मातृत्व का बीज है वह कभी नहीं सूखता, अवसर मिलते ही अंकुरित हो जाता है, चाहे वह संतान अवैध हो, किसी अन्यायी के अत्याचार स्वरूप
हो या कहीं लावारिस पड़ी मिली हो। पुरूष का हृदय द्रवित नहीं होगा लेकिन कोई भी
नारी किसी भी संतान को कष्ट में नहीं देख सकती। ऐसे कई उदाहरण शिवानी के उपन्यास
साहित्य में मिलेंगे जहाँ नारी ने अपने मातृत्व का खुलकर परिचय दिया है।
‘तीसरा बेटा’ लघु उपन्यास में सावित्री एक
लावारिस बच्चे को ट्रेन से उठा लाती है, “बहुत सोच-विचार कर ही वह उसे
उठाकर साथ ले आई थी। मन-ही-मन उसकी तीक्ष्ण बुद्धि ने उसे सावधान भी किया था- इस
वयस में वह इस गहन बोझ को कितने दिन उठा- पाएगी ? समाज क्या कहेगा ? स्वयं उसकी सन्तान ही क्या उसकी
इस भावुक मूर्खता को सहन नहीं कर पाएगी ?” ऐसे कई प्रश्न सावित्री को कचोटते
हैं लेकिन विजय होती है ममत्व की। और यही तीसरा बेटा माँ की ममता का पूरा हिसाब
चुकाता है। अंतिम समय में भी सिर्फ वही होता है।
‘कैंजा’ लघु उपन्यास में भी नन्दी सुरेश
भट्ट की एक पगली से उत्पन्न नाजायज औलाद को पालती है। जबकि वह खुद आजीवन अविवाहित
रहती है सिर्फ रोहित को उसके बाप का नाम मिले इसलिए सुरेश भट्ट के साथ अंतिम समय
में फेरे लेती है। सिर्फ रोहित के लिए वह सारे कष्ट सहती है। जब सुरेश भट्ट के
मरने के बाद रोहित की सगी नानी नन्दी को ‘कैंजा’ (सौतेली माँ) कहती है तो रोहित घर
के काँच फोड़ने लगता है, वह यह
बर्दाश्त नहीं कर पाता कि नन्दी उसकी असली माँ नहीं है, “मैं तुमको कैंजा नहीं कहूँगा, कभी नहीं।”“कौन कहता है, मैं तेरी कैंजा हूँ पगले !कौन- ” पर हँसकर उसे बहलाने की लाख
चेष्टा करने पर भी रोहित की कैंजा फिर हँस नहीं पाई।”
‘किशनुली’ लघु उपन्यास में काखी किशनुली के
पेट में पल रही संतान को पनाह देने के लिए समाज से लड़ पड़ती है- ‘भाड़ मंे जाएँ तुम्हारे यजमान और
तुम्हारा समाज !’ काखी
चिल्ला चिल्लाकर कहती, ‘क्या अपनी इस अवस्था के लिए अकेली किसना ही अपराधिनी है ? जिस हरामजादे-कमीने ने इस नाबालिग
असहाया, उन्मादग्रस्त
छोकरी का सर्वनाश किया है, उसे ढँूढकर
पकड़ लाए तुम्हारा समाज, तब मैं
जानूँ। दोष किसी का और दंड कोई और भोगे, यह कहाँ का न्याय है जी ? किशनुली कहीं नहीं जाएगी। मैं
पालूँगी उसकी सन्तान को, भले ही
तुम्हारी बिरादरी हमारा हुक्का-पानी बन्द कर दे।’‘मोहब्बत’ लघु उपन्यास में वैदेही बर्वे
रौबर्ट की अवैध संतान अपने पेट में पाल रही है। उसकी माँ उसे बार-बार समझाती है कि
उसे जन्म देना ठीक नहीं परन्तु वैदेही का मातृत्व उसे ऐसा कुछ नहीं करने देता, “मेरा कलंक मेरा ही रहेगा ममी, तुम चिन्ता मत करो, मैं कुछ ही दिनों में कहीं दूर
चली जाऊँगी। कहीं उसे जन्म देकर पाल लूँगी।”“बिदू तू पागल हो गई है क्या ? जानती है जन्म देना कैसा होता है?” “तुम क्या जानती थी ममी? जैसे तुम जान गई, ऐसे ही मैं भी जान जाऊँगी...”
आखिरकार
वैदेही उसे जन्म देती है परन्तु उसकी माँ उसे अनाथालय भिजवा देती है। लेकिन वैदेही
अपने अंश को भूल नहीं पाती।भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से नारी को त्याग एवं
समर्पण की मूर्ति माना गया है। अपने सुखों व आकांक्षाओं का त्याग कर परिवार व समाज
के लिए नारी का त्याग उसे पूजनीय बनाता है। अपने भाई-बहनों, बच्चों तथा माँ-बाप की खुशी के
लिए नारी के त्याग के कई उदाहरण भारतीय कथा-साहित्य में मिल जाएँगे। शिवानी के
उपन्यास साहित्य में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें नारी का त्याग व समर्पण दर्शाया
गया है।
शिवानी के ‘कालिन्दी’ उपन्यास में कालिन्दी के मामा
निःसंतान है, इसलिए अपनी
बहिन अन्नपूर्णा और कालिन्दी को अपने पास ही रखते हैं। कालिन्दी की माँ अन्नपूर्णा
का विवाह कम आयु में कर दिया गया था पर ससुराल वालों की प्रताड़ना से तंग आकर
अन्नपूर्णा के पिताजी उसे पुनः ससुराल भेजने से इन्कार कर देते हैं। तब तक
कालिन्दी उसके गर्भ में आ चुकी होती है। कालिन्दी के बड़े होने पर उसके मामा अपनी
पसन्द का लड़का चुनकर उसका रिश्ता पक्का कर देते हैं। जब उसकी सहेली माधवी पूछती है
कि उसने बिना लड़के को देखे, जाने बगैर
हाँ कैसे कर दी तो कालिन्दी कहती है-
“सच कहूँ तो
मुझे अपने इस रिश्ते के लिए न उत्साह है, न कौतूहल- अम्मा इधर मेरे लिए
बेहद परेशान रहने लगी थीं, कहती तो
कुछ नहीं थी, पर मैं
उनके मन की बात खुली किताब-सी बाँच सकती हूँ माधवी, दो वर्ष बाद मामा रिटायर हो
जाएँगे- माँ को दिन-रात एनजाइना परेशान किए रहता है, मामी डायबिटिक हैं- मामा-मामी
दोनों को यह रिश्ता बेहद पसंद था, मैं क्या कभी उनका दिल दुखा सकती हूँ ?”
मायापुरी
उपन्यास की शोभा चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी है। पिता के गुजर जाने के बाद उस पर
ही सारी जिम्मेदारियाँ है। वह बी.ए. पास कर चुकी है, आगे पढ़ाई करना चाहती है परन्तु
गाँव में सारी सुख-सुविधाएँ नहीं है। उसकी माँ लखनऊ में गोदावरी मौसी के पास भेजना
चाहती है पर वह अपने परिवार को छोड़कर जाने के लिए तैयार नहीं है। तभी दूकानदार
रमिया कहता है- “ठीक ही तो
कह रही हैं भाभी। शोभा, तू
पढ़ी-लिखी है, और पढ़ लेगी
तो भाईयों को सँभाल लेगी, इस गाँव
में क्या खाक-पत्थर पढ़ाएँगी भाभी।” शोभा चुप हो गई।”
‘रथ्या’ लघु उपन्यास में विमलानन्द जब
वसन्ती से मिलने दिल्ली जाता है तो उसके प्रेम में भावुक हो जाता है और उसे गाँव
चलने का प्रस्ताव रखता है। परन्तु वसन्ती जानती है कि जिस मार्ग पर वह चल पड़ी है
उससे लौट नहीं सकती और उस रूप में गाँव में उसे कोई स्वीकार भी नहीं करेगा और विमल
की बदनामी हो जाऐगी सो अलग। विमलानन्द के परिवार का क्या होगा, यह सोचकर वह उसे मना करते हुए
कहती है- “हाय रे
मेरे गोबर गणेश ! संसार की कौन-सी स्त्री आज तक सौत को छोटी बहन मानकर स्वीकार कर
सकी है ? सगी छोटी
बहन भी अगर सौत बन जाए, तो भी वह
फिर सगी बहन के रूप में नहीं स्वीकार की जाती भोलेनाथ ! एक यह ही ऐसा रिश्ता है
छोटे वैद, जिसमें
हिस्सा बाँट नहीं चलता समझे ?”
भारतीय समाज में एक ओर नारी को
देवी तुल्य मानकर प्रतिष्ठित किया है तो दूसरी ओर उसे दूसरे पायदान पर रखकर शोषण
भी किया है। विधवा नारी, बलात्कार
पीड़िता, कुंठाग्रस्तता
नारी का रूप कई बार हम अपने आस पास देखते हैं। शिवानी ने इन नारियों की विडम्बनाओं
का यथार्थ वर्णन किया है।भारतीय समाज में नारी का विधवा जीवन एक अभिशाप है। विधवा
नारी का मुँह देखना भी अपशकुन माना जाता है, मांगलिक कार्यों में उसका प्रवेश
या उपस्थिति ही वर्जित है। वर्तमान युग की बात छोड़ दें तो पहले विधवा को
पुनर्विवाह की स्वीकृति नहीं थी। शिवानी ने उक्त संवेदना को मार्मिकता के साथ प्रस्तुत
किया है तथा प्राचीन परिपाटी को तोड़कर विधवा विवाह की ओर संकेत किए हैं साथ ही उसे
स्वावलम्बी होकर समाज में संघर्षरत रहने का साहस भी प्रदान किया है। उनके
कथा-साहित्य में विधवा जीवन का संघर्ष आलोच्य रचनाओं के आधार पर संक्षिप्त विवेचन
के साथ प्रस्तुत है।
‘रतिविलाप’ लघु उपन्यास में अनसूया का विवाह
उसके कुटिल मामा ने उसके समृद्ध मित्र के अकर्मण्य पुत्र से करा दिया। परन्तु
मिरगी का वह रोगी पहली रात में ही उन्मुक्त अट्टहास करता हुआ चल बसा। उसके श्वसुर
ने उसे एकान्त में बुलाकर कहा, “बेटी, तुमने इसे
जैसा कल देखा, ऐसा यह
नहीं था। मिरगी के दौरे इसे बचपन से ही पड़ते थे, पर इधर दो वर्षाें से वह भी बन्द
थे। मैंने सोचा था, सुन्दरी
सुशील लड़की को वधू-रूप में पाकर यह मानसिक रूप से स्वस्थ हो उठेगा।”बाद में अनसूया के श्वसुर उस घर
को बेचकर जाने का प्रस्ताव रखते हैं और कहते हैं- ‘अनु बेटी ! समाज तो सगे भाई-बहिन
के एकान्तवास को भी अच्छी दृष्टि से नहीं देख सकता। फिर दुर्भाग्य से मैं विधुर
हूँ, और तुम
विधवा, एक
दिन.......’।
“फिर पिताजी
आठ ही दिन के भीतर कभी प्राणों से प्रिय अपनी उस हवेली को उसके एक-एक
स्मृति-चिह्नों के साथ बेच-बाच, बिना किसी से कुछ कहे, मुझे लेकर बम्बई आ गए। वहीं
उन्होंने मेरे लिए यह बुटीक खोल दी थी- ‘इन्द्रधनुष’।
‘पाथेय’ लघु उपन्यास में तिलोत्तमा को
विवाह के कुछ समय बाद ही वैधव्य भोगना पड़ा क्योंकि उसके सगे मामा ने ही रूग्ण
व्यक्ति से शादी करा उसका सर्वनाश किया। वह कहती है, “डाक्टरों ने मेरे ससुर से बार-बार
कहा था- उनके पुत्र के दोनों फेफड़े छलनी हो गए और फिर तब क्षयरोग क्या आज के कैंसर
से कुछ कम घातक था। किन्तु प्रतुल मेरे ससुर का इकलौता पुत्र था, उन्हें धुन थी, वंशधर चाहिए- उत्तराधिकारी नहीं
हुआ तो कौन भोगेगा उनकी अटूट सम्पत्ति।”इस प्रकार शिवानी के कथा-साहित्य
में नारी वैधव्य मार्मिकता से नारी जीवन की करूण गाथा गाते हुए वर्णित हुआ है तथा
शिवानी की लेखनी का आधार पाकर वह और जीवन्त हो उठा।
पुरूष की
तुलना में शारीरिक रूप से कमज़ोर नारी सदैव बलात्कार का शिकार होती रही है। चाहे व
हठात् हो या छल से हो। नारी का सबसे बड़ा आभूषण उसका कौमार्य, जिसे वह सिर्फ विवाह के पश्चात्
अपने पति के लिए संजो कर रखती है परन्तु शरीर के भूखे दानव उसके जीवन की परवाह न
करते हुए उसका शील नष्ट कर देते हैं। उसके बाद नारी का जीवन कुण्ठाग्रस्त व
अवसादमय हो जाता है। समाज में उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। वही पुरूष जिसने
अपने विवाह के पूर्व कितनों का जीवन नष्ट किया हुआ हो, सुहागरात के समय अपनी पत्नी से
उसके शीलवती होने की उम्मीद रखता है। यदि वह ऐसा नहीं पाता है तो उस पर प्रताड़ना
शुरू, कभी-कभी तो
यहाँ तक नौबत आ जाती है कि पत्नी को चरित्रहीन ठहराते हुए तलाक दे दिया जाता है।
“डॉ. हरकिशन
दास गाँधी अपने ग्रन्थ ‘दाम्पत्य
रहस्य’ में इस
सन्दर्भ में निर्देशित करते हैं कि संभोग के पश्चात् वीर्य स्त्री योनि से बाहर न
निकल पड़े इस हेतु से प्रकृति ने योनिपटल या कुमारी पटल का निर्माण किया होगा।
किन्तु आज ये छोटा-सा ‘पर्दा’ तथाकथित शिक्षित लोगों के लिए भी
अभिशापरूप हो गया है। स्पेस युग और लेजर रेइज़ के इस युग में भी कुछ अरब देशों में
यह प्रथा है कि लग्न की प्रथम रात्रि में पति-पत्नी एक शयन गृह में जाते हैं। गृह
के बाहर रिश्तेदार प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं। संभोग के पश्चात् जैसे ही पति बाहर
आता है, वे शयनगृह
में दौड़ पड़ते हैं और सुहाग सेज पर योनिपटल के टूटने से पड़े रक्त के धब्बों को
देखकर मारे खुशी के नाचने-कूदने लगते हैं। और पत्नी की पवित्रता के सम्बन्ध में
परस्पर बधाइयाँ देते हैं। यदि दुर्भाग्य से सेज पर धब्बे न दिखें तो उस स्त्री को
कुलक्षणी, भ्रष्टा, पतिता और चरित्रहीन समझ कर निकाल
दिया जाता है।”
शिवानी के
उपन्यास में नारी विभिन्न रूपों में सामने आई है उनमें से एक रूप ऐसा भी है जिसमें
वह कुण्ठित नजर आती है। चाहे वह असमय वैधव्य की कुण्ठा हो, पति व सास की प्रताड़ना से कुण्ठा
हो, निःसंतानता
की कुण्ठा हो, बलात्कार
पीड़िता हो या कोई और कुण्ठा। ऐसी कई कुण्ठाग्रस्त नारियों का चित्रण शिवानी ने
किया है।‘रतिविलाप’ लघु उपन्यास की अनसूया का जीवन
कुण्ठाग्रस्त है क्योंकि पिता की मृत्यु के पश्चात् उसका विवाह मिरगी के रोगी से
हो जाता है वह भी कुछ समय बाद काल का ग्रास हो जाता है। अकेले वह श्वसुर की सहायता
से साड़ियों की बुटिक खोलती है। फिर उसका सम्पर्क ‘हीरा’ नाम की लड़की से होता है वह उसे
अपने घर ले आती है। कुछ समय बाद हीरा उसके श्वसुर, कीमती कपड़े और धन लेकर फरार हो
जाती है और किसी होटल में उसके श्वसुर की हत्या कर देती है। अनसूया जीवन भर इस
प्रकार के आघातों से कुण्ठित हो जाती है।
‘पाथेय’ लघु उपन्यास में तिलोत्तमा का
विवाह क्षय रोग से पीड़ित प्रतुल से करा दिया जाता है, परन्तु प्रतुल की मृत्यु का दोषी
ठहराया जाता है तिला को, “मासी के
एक-एक विलाप में, मुझ पर
अजस्र गालियाँ बरस रही थीं- राक्षसी खा गई हमारे वंश को, इसी ने चूस लिया उसका रक्त, कलेजा निकालकर चबा गई चुडै़ल, अपया, राक्खूसी।” मासी का ये विलाप और यह दोष तिला
को कुण्ठित कर देता है। उसे क्या मिला ? नारी का वैधव्य जीवन, बेचारी कुछ भी तो न देख पाई अपने
जीवन में सिवाय अवसाद ग्रस्त जीवन के।‘कैंजा’ लघु उपन्यास की नंदी तिवारी न
चाहते हुए भी उस काम लोलुप और उद्दण्ड सुरेश भट्ट के प्रति आसक्त हो जाती है। वह यह
जानती है कि सुरेश भट्ट सिर्फ वासना का पुजारी है, कितनों के जीवन उसने बर्बाद कर
दिए हैं फिर भी वह उसकी ओर आकृष्ट है। सुरेश भी नन्दी से विवाह करना चाहता है और
पहुँच जाता है नन्दी के पिता के पास- “शास्त्री जी, मैं आपकी कन्या से विवाह करना
चाहता हूँ; मैं उसके
वैधव्य योग के बारे में सब सुन चुका हूँ और मुझे कोई आपत्ति नहीं है।” परन्तु नन्दी के पिता इस प्रस्ताव
को ठुकरा देते हैं। नन्दी का विवाह कभी नहीं होता व कुण्ठा भरा जीवन ही जीती है।
‘मायापुरी’ उपन्यास की नायिका शोभा का जीवन
भी कुण्ठाग्रस्त है। शोभा अपनी माँ की सहेली गोदावरी मौसी के यहाँ जाती है। वहाँ
मंजरी और सतीश उससे काफी घुल मिल जाते हैं। सतीश मन ही मन शोभा को चाहने लगता है
लेकिन उसके पिता तिवारी जी की बेटी सविता से उसकी शादी करा देते हैं। सतीश का दुख
शोभा देख नहीं सकती वह घर आ जाती है। घर आने पर पता चलता है कि उसके तीनों भाई मर
चुके हैं और माँ पागल हो गई है। शोभा का इस संसार में कोई नहीं रहता वह इधर-उधर
नौकरी करती फिरती है। अंत में सतीश का एक्सीडेंट हो जाता है वह शोभा को ही याद
करता है, शोभा उसके
पास जाती है लेकिन वह चाह कर भी सतीश की मृत्यु नहीं रोक पाती और घुट कर रह जाती
है।
तत्कालीन
दौर में अब नारी का वह स्वरूप भी सामने आने लगा है, जिसमें उसने ‘निर्बल’, ‘अबला’, ‘असहाय’ आदि शीर्षकों को पीछे छोड़ दिया है।
अवसर आने पर वह अपने पर किए गए अत्याचारों का प्रतिशोध लेने के लिए नागिन-सी भड़क
उठती है। कई जेलों में बन्द महिला कैदियों में कईयों की ऐसी ही कहानियाँ है।
शिवानी ने भी कई जगह जाकर उन महिलाओं से साक्षात्कार किया है जिन्होंने अपने पर
हुए अत्याचारों का बदला उनकी हत्या से लिया है। शिवानी के उपन्यास साहित्य में कई
स्त्री पात्र ऐसे हैं जो अपना प्रतिशोध लेते दिखाई पड़ते हैं।
‘तर्पण’ लघु उपन्यास में पुष्पापंत की
मात्र तेरह वर्ष की आयु में जब भोलादत्त उसका बलात्कार कर देता है। तो वह आजीवन
उसी आग में जलती रहती है। अपने विवाह के बारे में वह सोचती तक नहीं। वह इस बात को
एक पल के लिए भी नहीं भूल पाती कि भोलादत्त के इस अत्याचार से उसके माँ-बाप की मौत
हुई और खुद उसका जीवन बर्बाद हुआ। जब एक दिन भोलादत्त बड़ा मंत्री बनकर उसके स्कूल
में आता है और उसे अपने किए कुकर्म का स्मरण कराता है- “पर जो कहंे मिस पन्त, मुझे गर्व है कि इस शिशिर बिन्दु
के सौन्दर्य को मैंने ही सबसे पहले परखा था। क्यों, क्या कहती हैं ?”
बिजली की
तड़प से पुष्पा पन्त खड़ी हो गई। क्रोध से उसका शरीर थर-थर काँप उठा। घर की बल्ली से
लटकी देवतुल्य सन्त पिता की निर्जीव देह, छाती पकड़कर बैठ गई माँ का करूण
चेहरा, ज्वर से
तप्त उसकी देह पर हाथ फेरती कुछ न कहे जाने पर भी सबकुछ समझ जाने वाली रोती
अन्ध-बधिर नानी की सिसकियाँ सब एक साथ स्मृतियों के तीखे भालों से उसे कोंच उठे।
वह एक क्षण को सब कुछ भूल गई। कुछ ही घंटोें पूर्व तम्बू गाड़ने लाया गया बड़ा-सा घन
वहीं पड़ा था। लपककर उसने उठाया और दोनों हाथों से पकड़कर दन्न से भोलादत्त के सिर
पर दे मारा। ठीक जैसे चितई मन्दिर के पथरीले प्रांगण में जटाधारी नारियल फट्ट से
फूटता है, ऐसे ही
भोलादत्त का सिर फट्ट से दो समान फाँकों में फटकर रह गया।”
‘रतिविलाप’ लघु उपन्यास में चौदह वर्ष की
अबोध बालिका हीरा, जिसका एक
बूढ़े पागल से विवाह कर दिया जाता है। “विवाह हुआ था एक वृद्ध पागल से, दिन-रात उसे पीटता था, नोचता था, खसोटता था।” कई रातों से बेचारी सो भी नहीं
पाई थी। एक दिन भूखी प्यासी ओसारे में ही पसर गई। सहसा पति के विकट उन्मत्त
अट्टहास ने इसे चौंकाकर जगा दिया। दोनों हाथों को साधता, वह इसका गला घांेटने बढ़ा आ रहा था।
इस अभागी को बचाने न वहाँ इसकी सास थी, न ससुर, न देवर, न जेठ। सब मेला देखने गए थे। पगला
धीरे-धीरे, दाँत
किटकिटाता, अपने पुष्ट
हाथों का फंदा इसके गले में डालने बढ़ा, और इसने वहीं पर धरी नई दराँती
खींचकर मार दी। ठीक गर्दन पर ही लगी और नस कट गई। तीन घंटे में ही इसे अपने
उन्मत्त सहचर से सदा के लिए मुक्ति मिल गई।” लेकिन बाद में यही हीरा अनसूया के
पिता की भी हत्या कर फरार हो जाती है।इस प्रकार शिवानी का उपन्यास साहित्य नारी
चिंतन को मानवीय संबंधों के दायरे में मूल्यांकित करता है।
संदर्भः-
1. विषकन्या (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.84
2. किशनुली (रविविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.39
3. मायापुरी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.46
4. अतिथि - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.85
5. सुरंगमा - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.12-13
6. कालिन्दी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.26
7. चौदह फेरे - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.39
8. रथ्या (कस्तूरी मृग) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.110
9. तीसरा बेटा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.127
10. कैंजा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.78
11. किशनुली (रतिविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.56
12. मोहब्बत (रतिविलाप) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.138
13. कालिन्दी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.18
14. मायापुरी - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.11
15. रथ्या (कस्तूरी मृग) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.124
16. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.12
17. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.18
18. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.19
19. पाथेय (दो सखियाँ) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.84
20. द्रष्टव्य- दाम्पत्य रहस्य- डॉ. हरिकिशन गाँधी, पृ.84
21. पाथेय (दो सखियाँ) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.14
22. कैंजा (पूतोंवाली) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.50
23. तर्पण (कस्तूरी मृग) - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.78
24. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ.20
25. रतिविलाप - शिवानी - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली - पृ. 20
हीरा लाल लुहार
(शोधार्थी)
व्याख्याता,हिंदी,राउमावि,बिनोता,
तहसील-निम्बाहेड़ा,चित्तौड़गढ़
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