चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
========================
समीक्षा:'परती-परिकथा’ और ज़मीदारी व्यवस्था/सुरेश कुमार ‘निराला’
चित्रांकन-सुप्रिय शर्मा |
‘परती-परिकथा’ का अध्ययन करने पर हमारे
समक्ष कोशी-अंचल का संपूर्ण प्राकृतिक और मानवीय दृश्य झलक उठता है। साथ ही उन
दृश्यों के साथ कलाकार की आस्था और अंतरदृष्टि भी झाँकती है। इस संदर्भ में निर्मल
वर्मा का मत है- ‘‘रेणु जी ने जिस तीली से किसान के उदास, धूल-धूसरित क्षितिज में छिपी
नाटकीयता को आलोकित किया था उसी तीली से हिंदी के परंपरागत यथार्थवादी उपन्यास के
ढाँचे को भी एकाएक ढहा दिया था। मेरे विचार में यह रेणु की अविस्मरणीय देन और
उपलब्धि है। ‘‘मैला आंचल’’ और ‘परती-परिकथा’महज उत्कृष्ट आंचलिक
उपन्यास नहीं है, उपन्यास को एक नई दिशा दिखाई थी, जो यथार्थवादी उपन्यास के ढाँचे से बिल्कुल भिन्न
थी।’ ‘परती-परिकथा’में सैकड़ों पात्र मानों
एक विशाल जन समूह की तरह एकत्र हो गए हैं। रेणु जी ने सभी पात्रों का चरित्रांकन
सबल रेखाओं से करना चाहा है। जहाँ तक कुछ पात्रों का चरित्र अधिक उभरकर आया है,
किन्तु इस उपन्यास
में ऐसे निरर्थक पात्र नहीं हैं जिन्हें केवल गणना के लिए रख दिया गया हो। ये सभी
चरित्र परती जमीन के जीवन की विभिन्न दशाओं के प्रतीक हैं। परानपुर के महोत्सव में
शामिल होनेवाले ये चरित्र अपनी व्यक्गित विशेषताओं से पूर्ण हैं। वे किसी वर्ग के
प्रतिनिधि मात्र नहीं है। वे अपना एक जीवन जीते हैं। जितेन्द्र और ताजमनी
शिवेन्द्र और गीता आदि प्रमुख पात्रों को कथा-धारा में अधिक स्थान मिला है,
किन्तु साधारण से
साधारण पात्र भी लेखक की सबल रेखाओं को छूकर अविस्मरणीय बन गया है। इस उपन्यास में
जितेन्द्र का कुत्ता, मीरा और शिवेन्द्र का घोड़ा-मुंगा भी उपन्यास की मार्मिकता में सहायक है। ‘परती-परिकथा’पात्रबहुल तथा घटना बहुल
हो जाने के कारण स्थूल-समूह प्रतीत होता है परंतु भावों की गहराई में जाने पर तथा
सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह रचना एकाग्रचित होकर लिखी गयी प्रतीत होती है। ‘परती-परिकथा’ के लेखक ‘रेणु’ एक सफल कथा-निर्माता के रूप में अवतरित होते हैं। वे
कहानियाँ गढ़ना जानते हैं, सुनाना जानते हैं यह उनका अपना दुर्लभ गुण है।’
‘परती-परिकथा’ में परती भूमि की धुरी पर समस्याएँ घूमती रहती हैं,
और रेणु जी ने
इसीलिए भूमि को अपनी दृष्टि का अवलम्बन माना है। परानपुर गाँव में निवास करने वाली
सभी जातियों की समस्याएँ, सभी वर्गों की समस्याएँ चाहे वह सामाजिक हो या आर्थिक,
नैतिक हो या
भौगोलिक, सभी
को उपन्यास में कुशलता से उद्घाटित किया गया है। उपन्यासकार का कुशल अंकन हम तब
देखते हैं जब सभी समस्याओं के केंद्र में परती ‘धरती’ को ही रखते हैं, क्योंकि सभी समस्याओं के
चित्रण का माध्यम जमीन ही है। जितेन्द्र और उसके विरोधियों का संघर्ष भी परती जमीन
पर ही आधारित है। विशाल परती जमीन, बन्ध्या धरती की चौहद्दी पर परानपुर गाँव, पीड़ित भारतीय ग्रामीणों
की भूमि, लालसा,
नैतिक-अनैतिक सभी
रूप धारण करती रहती है। जमींदारी उन्मूलन के पश्चात् भी भूमिहीनों की समस्या ज्यों
की त्यों बनी रहती है। भूमि की समस्याएँ वहाँ के लोगों के हृदय में उथल-पुथल मचाती
रहती हैं। वहाँ के ग्रामीणों का जीवन भले ही सामाजिक घटनाओं के मध्य दोलायित होता
रहता है, परंतु
भारतीय गाँव और ग्रामीण बेजान होकर अपनी एक लीक पर स्थिर दिखाई पड़ते हैं। ‘‘नाम के लिए तो जमींदारी
समाप्त हो गयी किंतु सभी पुराने जमींदार और राजा, बड़े-बड़े कृषक बन बैठे, जिनके पास दस-दस,
पंद्रह-पंद्रह सौ
बीघे जमीन थी। ऐसी अवस्था में पुराने सामन्तों और भूमिहीन कृषकों में संघर्ष होना
स्वाभाविक है।”इस उपन्यास में उपन्यासकार का ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि ‘भूमि’ ग्रामीणों का जीवन है,
नैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक सभी
प्रकार की समस्याएँ इसी के द्वारा बनती-बिगड़ती रहती हैं। साथ ही रेणु जी ने ग्रामीण जीवन में वैज्ञानिक
पद्धति के परिवर्तन की कल्पना की है। कोसी बांध के प्रसंग में पुरातन गाँव में
वैज्ञानिक पद्धति की कल्पना दिखाई पड़ती है। कोसी की विनाशकारी लीला से ग्रामीणों
को मुक्त कराने में भी जितेन्द्र को उनका हृदय परिवर्तन कराना पड़ता है। परती जमीन
पर गुलाब की खेती एक अच्छी एवं सरस कल्पना है। परंतु इस कल्पना में ग्रामीणों की
दमित लालसा की पूर्ति का प्रयत्न ही दिखाने का उद्देश्य उपन्यासकार का
है।जितेन्द्र, लुत्तो, वीरभद्र आदि पात्र भले ही अलग-अलग दीख पड़ते हों, परंतु लेखक का संकेत एक ही
समस्या की ओर है और वह समस्या है ‘भूमि’ की। रेणुजी ने इसे स्पष्ट करने की चेष्टा की है कि ‘‘गाँवों में नैतिक
मूल्यों में कमी आ गयी है। परिमाणतः गाँवों का सौंदर्य समाप्त हो गया है। गाँव टूट
रहे हैं, परिवार
टूट रहे हैं, भूमि पारस्परिक द्वेष के संघर्ष का कारण बन गई है। प्रत्येक व्यक्ति ईर्ष्या
एवं स्पर्धा की भावना से प्रेरित है। एक-दूसरे का हक लूटने को तत्पर है। जिले-भर
में किसानों और भूमिहीनों में हलचल मची हुई है। सिर्फ भूमिहीन ही नहीं, डेढ़ सौ बीघे के मालिकों
ने दूसरे बड़े किसानों की जमीन पर दावे किए हैं..हजारों बीघे वाला भी एक इंच जमीन
छोड़ने को राजी नहीं।’’ बाप-बेटे में हक के लिए
संघर्ष है तो भाई-भाई हक के लिए संघर्ष करने पर तत्पर हैं। ‘‘छः महीने में ही गाँव का
बच्चा-बच्चा पक्की गवाही देना सीख गया है।..छः महीने में गाँव बदल गया है, बाप-बेटे में भाई-भाई
में अपने हक को लेकर ऐसी लड़ाई कभी नहीं हुई।पिछले डेढ़ साल से गाँव में न कोई पर्व
ही धूम-धाम से मनाया गया है और न किसी त्योहार में बाजे बजे हैं..सोहर का गीत,
कहीं-कहीं गाया
गया है। लड़के-लड़कियों के ब्याह रूके हुए हैं..गीत के नाम पर किसी के पास एक शब्द
भी नहीं रह गया है, मानो..मधुमक्खी के सूखे मधुचक्र-सी बन गयी है दुनिया’’ इन पंक्तियों में लेखक ने भारतीय संवेदना को उभार कर रख
दिया है। उपन्यास में इसी रूप में मानवीय संवेदना को अभिव्यक्ति मिली है। एक ओर
उपन्यासकार नवीन वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा गाँव परानपुर का स्वरूप बदलना चाहता
है तो दूसरी ओर मानवता के प्रति लेखक का व्यापक दृष्टिकोण है। जितेन्द्र भूमिपति
के रूप में उपस्थित होकर परम्परित सामन्तवादी युग की याद दिलाता है, उसके जीवन को लेखक ने
ढहते हुए सामन्तवादी युग की कथा के रूप में उपस्थित किया है। ‘परती-परिकथा’ मात्र परती जमीनकीकथा न
होकर ग्रामीणों के परती मन की कथा भी है। जमींदारी उन्मूलन तो हुआ परंतु जमीन की
समस्या ज्यों का त्यों बनी हुई है साथ ही भूमिहीनों की समस्या भी ज्यों का त्यों
बनी हुई है। ‘‘मुंशी जलधारीलाल दास तहसीलदार और रामपखारन सिंह सिपाही। परानपुर स्टेट के इन
दोनों कर्मचारियों ने मिलकर अपने स्वामी शिवेन्द्र मिश्र के सपुत्र जितेन्द्र के
लिए कलम की नोंक और लाठी के जोर से जमींदारी की रक्षा की,..साबित कर दिया परानपुर पट्टी
पत्नी है। जमीन खुदाकश्त, वाकश्त है रैयती हक है।’’ इतना ही नहीं ‘रेणु’ जी ने लैंड सेटिलमेंट की
चर्चा करते हुए एक ऐतिहासिक सत्य का उद्घाटन किया है- ‘‘हिन्दुस्तान में सम्भवतः सबसे
पहले पूर्णिया जिले पर ही लैंड सर्वे ऑपरेशन किया गया है। जिले में जमींदारों और
राजाओं की जमींदारियों का विनाश हुआ किन्तु हिन्दुस्तान के सबसे बड़े किसान यही
निवास करते हैं।जातिवाद संपूर्ण समाज में कोढ़ की तरह फैला है। मानव- हृदय को
जातिवाद के दीमकों ने छलनी कर दिया है। छोटी जाति के लोगों का कातिल होना भी बड़ी
जाति के लोगों को अखरता है।’’ इस बात का फायदा खवास टोली के लुत्तो पूरी तरह से उठाता है।
वह अपने पिता को दागने वाले मिश्र परिवार से बदला लेने के लिए छोटी जातियों को
उकसाता है तथा जातिवाद के आधारपर प्रजातंत्र को जातितंत्र में बदल देना चाहता है।
इसके लिए वह समाज के अंधविश्वासों से लाभ उठाता है। गहलोटा टोले के निरसू भगता पर
चक्कर परती के परमादेव की सवारी लुत्तो की कूटनीति ही का एक अंग है इसीलिए निरमू
सवार परमादेव कमेसरा से कहता है “सोलकन्ह होकर तुम बाबू बबुआन के पच्छे में हो। तुम्हारा नाश
होगा।” इसी
प्रकार गहबर से जाने के पहले वह कहता है- ‘‘परती तोड़ कर मेरी आसनी को जिसने
बर्बाद किया है उससे बदला लो। ठाकुरवाड़ी में जो रामलला है। रामलला की पूजा करने
वाले पुजारी की बात सुनो, कल्याण होगा।”
रामलला के
पुजारी पंडित सरवजीत चौबे चार हजार सोलकन्ह का नेता है। लुत्तो ने उसे
ग्राम-पंचायत का सरपंच बनाने का लोभ दिखाया है। सरपंच पद के चक्कर में पड़ कर वह
परती को तोड़ने वाले जितेंद्र पर अस्सी हजार गौ-हत्याओं का पाप लगाने के लिए रामलला
के भक्तों से ‘बा-आं-आं’ का नारा लगवाता है।
सिमराहा की सपाट धरती पर हजारों पेड़ लग गए हैं। रेणु ने पूर्णिया की लाखों एकड़
बंध्या परती जमीन को हरे-भरे बागों और लहराते हुए खेतों में परिणत होने का स्वप्न
देखा था। उन्होंने विश्वास किया था कि नेहरू सरकार द्वारा चलायी गई कोशी नदी घाटी
योजना पूर्णिया अंचल को बाढ़ के प्रकोप से सदा के लिए मुक्त कर देगी और ऊसर-बंजर
पड़ी लाखों एकड़ जमीन अन्न और फलों की खेती से लहलहा उठेगी। लेखक इसी विजन को
प्रस्तुत करने के लिए परानपुर स्टेट के जमींदार पुत्र जितेन्द्रनाथ मिश्र को शहर
से गाँव में बुलाता है जहाँ उसकी प्रेमिका ताजमनी ही नहीं, सूखी बंजर धरती भी अपने उद्धार
के लिए प्रतीक्षा कर रही है। इस धरती के ‘नालायक’ बेटे परानपुर के अपढ़ और अधपढ़ किसान, कुसंस्कार-ग्रस्त पिछड़ी
मानसिकता के ग्रामीण मिश्र परिवार के प्रति द्वेष और प्रतिहिंसा से ग्रस्त युवा
नेता जितेन्द्र गाँव लौटना पसन्द नहीं करता और हर कदम पर उसका विरोध करता है। इस
संघर्ष में सारा गाँव एकजुट होकर जितेन्द्र के खिलाफ खड़ा है, पर अन्ततः विजय
जितेन्द्र की ही होती है और उपन्यासकार की संपूर्ण सहानुभूति जमींदार-पुत्र
जितेन्द्र के साथ है। कथाकार की दृष्टि में गाँव के निवासी अंधविश्वासों और
कुसंस्कारों से ग्रस्त हैं, जमीन के आपसी झगड़ों में ही दिन-रात लगे रहते हैं और जमींदार
परिवार के प्रति अनावश्यक प्रतिहिंसा भाव से ग्रस्त हैं।जितेन्द्र एक ऐसा
जमींदार-पुत्र है जिसका हृदय-परिवर्तन हो चुका है, जो गाँव का कायाकल्प कर देने का
संकल्प लेकर अपने गाँव वापस लौटा है। आते ही वह पहले तो सर्वे सेटलमेंट में अपने
अधिकार की लड़ाई लड़ता है और नाजायज तरीके से अपनी जमींन पर कब्जा करने की नीयत रखने
वाले परानपुर के दुष्ट किसानों को निराश करता है, पर भूमिहीन किसानों के दावों को
स्वीकार कर लेता है। किंतु अपने प्रति प्रतिहिंसा की कुंठा से ग्रस्त लुत्तो की
चुनौती से वह नहीं डरता। लुत्तो जितेन्द्र के कुछ विरोधी रिश्तेदार और उनका
राजनीतिक शत्रु कुबेर सिंह उसे गाँव से उखाड़ने की पूरी कोशिश करते हैं, पर उन्हें सफलता नहीं
मिलती, कथाकार
की पूरी सहानुभूति जो उनके साथ है, जितेन्द्र अपने अधिकार की हजारों बीघे बंजर जमीन को
ट्रैक्टर से जोत डालता है और गुलाब की खेती करता है, नए ढंग से पेंड़ लगाता है।
यहाँ एक बात स्पष्ट है कि लुत्तो द्वारा जितेन्द्र के विरूद्ध चलाया गया किसान
आंदोलन इसलिए असफल होता है कि उसके पीछे किसानों के हित का भाव न होकर व्यक्तिगत
प्रतिरोध का भाव है। धीरे-धीरे जितेन्द्र के प्रति गाँव का सामूहिक विरोध भी
समाप्त हो जाता है, क्योंकि उस विरोध में वर्ग चेतना न होकर केवल परिवार के प्रति पुरानी
प्रतिहिंसाहै। उपन्यास के अंत में कोशी नदी घाटी योजना का एक कार्यक्रम परानपुर
गाँव में लागू होता है जिसमें गाँव के किनारे बहनेवाली ‘दुलारी-दाय’ नदी को नहर में बदलकर
हजारों एकड़ परती जमीन को खेती के योग्य बनाने का लक्ष्य है। लुत्तो के नेतृत्व में
इस कार्यक्रम के विरूद्ध एक जबरदस्त किसान आंदोलन होता है जिसमें जितेन्द्र
किसानों को इस योजना की उपयोगिता समझाने में सफल होता है और आंदोलन तितर-बितर हो
जाता है।
‘रेणु’ के इस उपन्यास पर कई आलोचकों का मत इन पंक्तियों से अपना सहमति दर्ज कराते हैं
कि- ‘‘पिछले
पाँच दशकों में उत्तर बिहार के कोशी अंचल में हुए विकास को देखते हुए स्पष्ट है कि
इस अंचल में आज भी कोशी नदी की विनाश लीला जारी है। कोशी नदी घाटी योजना की असफलता
एक ऐतिहासिक सच्चाई है।’ देखा जाए तो अभी भी इस
अंचल में भूमि सुधार के कार्यक्रम नाम-मात्र को आगे बढ़े हैं और बड़े-बड़े भूमिपतियों
के भूमिहीन किसानों पर अत्याचार और दमन की कहानियाँ समाचार-पत्रों में छपती रहती
हैं। शायद ही कोई ऐसा उदहारण हो जिसमें किसी भूमिपति का हृदय परिवर्तन हुआ हो और
उसने अपनी अतिरिक्त जमीन भूमिहीन किसानों में वितरित कर दी हो। किसी परती भूखंड को
उपजाऊ बनाकर किसानों में न्यायपूर्वक वितरित करने का भी कोई सरकारी उदाहरण नहीं
मिलता। फिर रेणु के इस विजन का क्या औचित्य है? ऐसा लगता है कि रेणु अपने लेखन
के प्रारंभिक दौर में एक झूठे आशावाद के शिकार थे वास्तविकता यह है कि 1950 में भारत गणतंत्र घोषित
होने तथा प्रथम आम चुनाव के साथ प्रथम पंचवर्षीय योजना लागू होने पर समस्त भारत
में आशा की एक लहर फैल गयी जिसमें आम जनता ही नहीं प्रबुद्ध जन और रचनाकार भी बह
गए। रेणु भी इस झूठी आशा की लहर से बच नहीं पाए। यद्यपि ‘मैला आंचल’ में उनका यह आशावाद
नियंत्रित है किंतु ‘परती-परिकथा’में वह अपनी सीमाएँ तोड़कर बहने लगा है।’इस प्ररकार से आलोचकों ने ‘परती-परिकथा’ को एक आदर्श-परक कथा के
रूप में भी देखते हैं।‘रेणु’के रचना-संदर्भ में रामवचन राय कहते हैं कि- ‘‘रेणु के रचनात्मक विकास
पर नजर डालने से एक बात साफ-साफ दिखाई पड़ती है कि उनका रचना-कर्म उनके जीवन-कर्म
की तीव्रता के बीच ही अधिक हुआ है। जब-जब वे संघर्षों के बीच जूझते रहे, रचनात्मक ऊर्जा इस
दरम्यान ज्यादा हासिल की और श्रेष्ठ कृतियों का सृजन किया, निश्चिंतता और सुख-सुविधा की
स्थिति में उन्होंने छोटी-छोटी फुटकल रचनाएँ की। इसलिए ‘‘मैला आंचल’’ और ‘परती-परिकथा’ के मुकाबले और रचनाएँ
कमजोर मालूम पड़ेंगी।’ ’परती-परिकथा’ को लेकर डॉ. रामधारी
सिंह ‘दिवाकर’
एवं मिथिलेश
कुमारी मिश्र परिषद- पत्रिका के संपादकीय में लिखते हैं- ‘‘स्वातंत्र्योतर भारत में ‘मैला आंचल’
(1954) का प्रकाशन
उस समय हुआ था जब हिंदी उपन्यास की सारी संभावनाएँ लगभग चुक गयी थीं। ऐसे समय में ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन ने एक तरह का
युगान्तर उपस्थिति कर दिया। पूर्व के स्थापित सारे ज्योति-स्तंभ ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के साथ ही
जैसे मंद पड़ गए। फिर सन् 1957 में ‘परती-परिकथा’ उपन्यास प्रकाशित हुआ जो शिल्प और संरचना की दृष्टि
से ‘मैला
आंचल’ से
आगे की कृति थी।’ निर्मल वर्मा के अनुसार-‘यह अजीब विरोधाभास था कि
जिस ‘परती’
को रेणु ने अपनी ‘परती-परिकथा’ के लिए चुना था वह अपनी
अनुभव-संपदा में सबसे अधिक उर्वरा थी, क्योंकि अब तक किसी कथाकार ने अपनी कलम से उसे नहीं
कुरेदा था।’ इससे आगे दिवाकर जी लिखते हैं कि ‘‘हिंदी उपन्यास-साहित्य में जातीय संभावनाओं की पहचान
करने वाले पहले लेखक ‘फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने प्रेमचंद और उसके भी पूर्व से
चले आते उपन्यास के संपूर्ण संरचनात्मक ढाँचे को ही बदल डाला। रेणु की एक नई भाषा
थी। हिंदी गद्य में उन्होंने काव्यात्मक लोच, संगीतात्मकता, लोकगीतों के माधुर्य और
गाँव की बोली के लय-सप्तक को हिंदी गद्य में उन्हें ध्वन्यांकित कर यह प्रमाणित कर
दिया कि मिथिला के गद्य में भी विद्यापति संभव हो सकते हैं। खास करके उपन्यास के विकास को एक नई राह देने
में ‘मैला
आँचल’ और ‘परती-परिकथा’ को आगे की पंक्तियों में
स्थान दिया जाता है।’ इसी संदर्भ में अज्ञेय जी लिखते हैं ‘‘सोचते-सोचते उनकी पुस्तकों के पन्ने उलटता हूँ। ‘मैला-आंचल’, ‘परती-परिकथा’ दो उपन्यास जिन्होंने
मानो उपन्यास के विकास को एक नयी लीक में डाल दिया।”
‘परती-परिकथा’ में आचंलिक परिवेश को ऐसा पंख लगा है कि वहाँ के वातावरण का कोई भी पहलू अछूता
नहीं रह गया है। चाहे वहाँ की सामाजिक गतिविधियाँ हो राजनीतिक गतिविधियाँ हो
आर्थिक गतिविधियाँ हो या सांस्कृतिक गतिविधियाँ हो सबके सब एक दूसरे से गुंथे हैं।
इस संदर्भ में ‘शताब्दी के ढलते वर्षों में’,में निर्मल वर्मा ने अपने एक लेख ‘रेणु समग्र’ मानवीय दृष्टि में
स्पष्ट किया है- ‘‘यह अद्भुत ड्रामा था। शायद ही किसी हिंदी उपन्यासकार ने उपन्यास की ‘नैरेटिव’ परंपरा को झिंझोड़कर उसे
प्रेमचंदीय ढाँचे से बाहर निकालकर इतना नाटकीय, इतना लचीला.. रेणु ने जिस तीली
से किसान के उदास, धूल-धूसरित क्षितिज में छिपी नाटकीयता को आलोकित किया था उसी तीली से हिंदी के
परंपरागत यथार्थवादी उपन्यास के ढाँचे को भी एकाएक ढहा दिया था। मेरे विचार में यह
रेणु की अविस्मरणीय देन और उपलब्धि है। ‘मैला-आंचल’ ‘परती-परिकथा’ महज उत्कृष्ठ आंचलिक उपन्यास
नहीं है। वे भारतीय साहित्य में पहले उपन्यास हैं जिन्होंने अपने ढंग से झिझकते
हुए भारतीय उपन्यास को एक नई दिशा दिखाई थी।’ ‘परती-परिकथा’ के आंचलिक परिवेश और
आंचलिक ढाँचागत स्थितियों को तोड़ कर नई स्थिति के साथ, जो प्रगतिशील है, से संबंध जोड़ने में रेणु
जी अपनी लेखनी के माध्यम से सफल रहे। इसलिए निर्मल वर्मा लिखते हैं,‘‘अनेक कथाकारों का नाम
लिया जा सकता है, जिन्होंने उनसे पहले भी आंचलिक उपन्यास लिखे थे। रेणु का स्थान यदि अपने
पूर्ववर्ती और समकालीन आंचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ट है तो वह इसमें है कि
आंचलिक उनका सिर्फ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवनधारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का
उल्लंघन करती थी। रेणु का महत्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में निहित
है। बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की
नियति-रेखा को उजागर किया था। यह रेखा किसान की किस्मत और इतिहास के हस्तक्षेप के
बीच गुंथी हुई थी।‘परती-परिकथा’ में मूल समस्याएँ भूमि की हैं और रेणु जी ने उन परिवेश को क्यों चुना और इतनी
बारीकी से आने का क्या कारण रहा है कि उपन्यास पढ़ते समय एक-एक चीजें हू-ब-हू सामने
आती हैं, सरल
से सरल रूप में इसके पीछे वजह यह रही है कि भूमि संबंधों और उनके अंतर्विरोधों के
बारे में रेणु की जानकारी किताबी न थी। यही नहीं, उन्होंने ग्रामीण संस्थाओं की
निरंकुशता को प्रत्यक्ष देखा था। फलतः उनके गाँवों में अंतर्विरोधों के मार्मिक
प्रकरण हैं। ये प्रकरण उन्होंने कल्पना से नहीं गढ़े। बचपन से ही इस निरकुंश
व्यवस्था का उन्हें बोध था। जो अन्ततः एक सामाजिक संघर्ष के दर्शन में बदल गया। इस
दर्शन को रेणु ने जीवन और गद्य विधा के रूप में प्रमाणित किया।”अतः कहा जा सकता है कि ‘परती-परिकथा’ उपन्यास अपने समूचे
आंचलिक परिवेश के गुण-दोष, संस्कृति और भौगोलिक सीमाओं को अपने अंदर समेटे हुए है,
जिसमें भूमि संबंध
का ईमानदारीपूर्वक चित्रण है, वहाँ की मिट्टी की गंध तथा लोक-जीवन सरल रूप में उपस्थित है,
साथ ही उनकी
समस्याएँ भी और निदान भी। इसमें आस्था और विषमताओं से संघर्ष करता हुआ एक आशा और
नव-निर्माण भी है।वही संघर्ष और नव-निर्माण उपन्यास को पूर्णता प्रदान करता है।
रेणु जी ने जो ‘मैला आंचल’ की भूमिका में कहा “इसमें फूल भी है, शूल भी।धूल भी है, गुलाब भी।कीचड़ भी है, चंदन भी।सुन्दरता भी है,
कुरूपता भी।’’ यह ‘परती-परिकथा’ पर भी लागू होता है।
रेणु जी ने ‘परती-परिकथा'मेंअपनी अंतदृष्टि एवं
मनौवैज्ञानिक सूझ-बूझ और पकड़ का परिचय देते हैं। इनकी दृष्टि गाँव के सामूहिक
जीवन के चित्रांकन पर है। सामान्यतः रेणु ने भारतीय देहात की ओर विशेषतः परानपुरदेहात
की मानसिकता को व्यक्त किया है, जिसमें स्वतंत्रता के बाद की हलचल और वस्तुस्थिति को
रेखांकित किया जा सकता है।राजेंद्र यादव लिखते हैं- ''विस्तार, गहराई और शक्ति की दृष्टि से
राल्फ फॉक्स ने उपन्यास को आज के युग का महाकाव्य कहा है, वह महाकाव्य की तरह जीवन और जगत
के विविध रूप प्रस्तुत कर सकने में समर्थ है। चूँकि गद्य का विकास मशीन युग की देन
है, इसलिए
शोध में लिखे गए इस महाकाव्य को हम मशीन युग के मनुष्य का चित्र कह सकते हैं।..हाँ
यह बात अवश्य है कि युग के इन विराट चित्रों के पीछे सदियों की मेहनत और परम्पराएँ
होती है।'' ठीक इसी प्रकार ‘परती-परिकथा’ में अनेक टोलों के माध्यम से गाँव में बँटा हुआ समाज जहाँ एक ओर अपनी अस्मिता
को तलाशता हुआ आपस में जूझता-टकराता है, वहीं मानवीय रिश्तों की आपसी मिठास में कोई फ़र्क
नहीं पड़ता। उपन्यास में पात्र सामाजिक वातावरण में जीते हैं। उनमें स्थानीय रंग
देने के लिए रेणु ने स्थानीय बोली का प्रयोग किया है। ''बेटा भेल-लोकी लेल। बेटी
भेल-फेंकी देल'' शामा-चकवी का उत्सव मनाती हुई हर
वर्ग-वर्ण की युवतियों को लें अथवा गायन करते हुए बूढ़े कथावाचक रग्घूई रमायनी को।
सवर्ण युवक से इश्क फरमाती अवर्ण कन्या मलारी हो या गाँव के जमींदार जितेन्द्रनाथ
मिश्र के प्रेम में डूबी अपने पेशे से विमुख बैठी नट्टिन ताजमनी, जलधारीलाल जैसा कलम की
मार करता कुटिल धूर्त मुंशी अथवा नया-नया नेता बना गरूड़धुज झा जैसे व्यक्ति,
सामबत्ती पीसी
जैसी ‘घरघुमनी’
औरत का मजेदार
चित्रण हो या इरावती जैसी पढ़ी-लिखी युवती का चरित्र इन सभी को ‘रेणु’ ने अपनी सशक्ता
रचनाशीलता से सफलतापूर्वक गढ़ा है।
'परती-परिकथा' की भाषा हिंदी होते हुए
मैथिली क्षेत्र की कथा-व्यथा को अपने अन्दर समेटे हुए है। भूमि-समस्या उपन्यास के
केंद्र में है। जमींदारी व्यवस्था की हकीकत इस उपन्यास में बहुत ही ढंग से दिखाया
गया है।‘परती-परिकथा’
में पात्र सामाजिक
वातावरण में जीते हैं और मिट्टी की महिमा, चाहे वह लहलहाते खेतों की हरियाली से हो, या बंजर, उसर जमीन से हो सब
काबखान करते हैं। उसमें स्थानीय रंग भरने के लिए प्रचुरता से स्थानीय बोली का
प्रयोग करते हैं साथ ही वहाँ की बहुलता को और भी अधिक चमत्कारपूर्ण बनाने के लिए
क्षेत्रीय बोली से इतर अंग्रेजी, बंग्ला, पहाड़ी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग जहाँ-तहाँ
कुशलतापूर्वक करते हैं। इतना ही नहीं, भाषा बोली के साथ-साथ उनके व्यवहार को भी रेखांकित
करते हैं। 'परती-परिकथा' की सबसे बड़ी खूबी है कि उस अंचल में प्रचलित तमाम लोक-कथाओं की झलक इस उपन्यास
में विद्यमान है।उपन्यास में आंचलिकता के कारण वहाँ की मिट्टी की सुगंध, परिवेश और क्षेत्र का
सजीव चित्रण हुआ है।इस उपन्यास का कथानक आजादी के बाद के आस-पास के समय का है।
परानपुर ही नहीं, सभी गाँव टूट रहे हैं। व्यक्ति टूट रहा है- ‘रोज-रोज काँच के बर्तनों की तरह’
साथ ही निर्माण
कार्य भी हो रहे हैं। नया गाँव, नए परिवार और नए लोग।
उपन्यासकार ने जमींदारी
व्यवस्था को केंद्र में रखकर देश भर के सामंतों और पूँजीपतियों का चेहरा साफ किया
है। यही कारण है उपन्यास का फलक बड़ा हो गया है। जमींदारी व्यवस्था को लेकर रेणु की
दृष्टि बहुत ही पैनी है। रेणु ने '‘परती-परिकथा’' में यह दिखाने का प्रयास किया है कि जमींदारी या
पूँजीपति वर्ग के लोग, आमजनों का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। वे समय के
साथ-साथ अपनी नीति भी बदलते रहे हैं। आमजनों के दिलों में बैठने के लिए सहानुभूति
दिखाते रहे हैं। साथ में अपनी जमीन या धन को किसी तरह बरकरार रख, उसी के बल पर लोगों का
शोषणा भी करते रहे हैं। यह उपन्यास, इसलिए भी प्रासंगिक है कि आजादी के पहले से लेकर आज
तक यही स्थिति बनी हुई है। उदाहरण के लिए, शिवेन्द्र मिश्र ने जायदाद, जालसाजी, डकैती आदि सभी हथकंडे का सहारा
लेकर खड़ा किया। पड़ोस की जमींदारिन विधवा मिसेज गीता मिश्र का मैनेजर बनकर, प्रेमी और पति हो गया।
जमींदारी उन्मूलन होने के समय दाव-पेंच और लाठी के बल पर सारी जमीन शिवेन्द्र
मिश्र के बेटे जितेन्द्र मिश्र के नाम कर दी जाती है। जितेन्द्र मिश्र उस जमींन को
बचाने के लिए जनता के प्रति सहानुभूति दिखाकर उसके दिल में बैठ जमीन बचाने में सफल
रहता है। इस तरह से उपन्यास में जमींदार का बेटा जमींदार बनकर जीता है और गरीब और
अधिक गरीब होते जा रहे हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस उपन्यास में
जमीदारी-व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास हैकिन्तु उन्होंने इस ओर
भीइशाराकिया है किजमींदारी व्यवस्था बरकारार है। उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि यह
है कि इनमें सिर्फ समस्याओं का चित्रण-भर ही नहीं है बल्कि उन समस्याओं का समाधान
खोजने का विलक्षण प्रयास भी दिखता है। वस्तुतः रेणु ने अपने उपन्यास‘परती-परिकथा' में जिन समस्याओं को
उठाया है वे समस्याएँ आज भी हमारे समाज में विद्यमान हैं। रेणु चित्रित करते हैं
कि तमाम संघर्षों के बावजूदहमारे समाज में जमींदार अपनी मजबूत स्थिति बनाए हुए हैं,
साथ ही ये भी
दिखाते हैं कि यदि हमारे समाज में
जमींदारी प्रथा जीवित है तो संघर्ष भी समाप्त नहीं हुआ है. किसानों और मजदूरों की
तरफ से भी संघर्ष जारी है।
संदर्भ-ग्रंथ सूची
1. ‘परती-परिकथा’ - फणीश्वीरनाथ ‘रेणु’,संस्करण-2009, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.,नई दिल्लीा।
2. ‘विवेक के रंग’–देवीशंकर‘अवस्थी’,संस्करण-1993, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
3. ‘उपन्यास के पक्ष’
-एम.फार्स्टर,
(अनु)श्रीमती
राजुल भार्गव,प्रथमसंस्करण-1982,राजस्थानहिंदी-ग्रंथ-आकदमी, जयपुर।
4. ‘’‘संचयिता’-फणीश्वरनाथ रेणु’’,-संपा.सुवासकुमार,संस्करण-2003, मेधाबुक्स, दिल्ली।
5. ‘हिंदी साहित्य और
संवेदना का विकास’ -रामस्वरूप चतुर्वेदी,बाइसवाँ संस्करण-2009, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
6. फणीश्वर रेणु (भारतीय
साहित्य के निर्माता), - सुरेन्द्रचौधरी,संस्करण-2000, साहित्य अकादमी।
7. ‘आलोचना की सामाजिकता’
–मैनेजरपाण्डेय,द्वितीय संस्करण,
2008, वाणी
प्रकाशन, नई दिल्ली।
8. ‘उपन्यास और लोक जीवन’
-रॉल्फ फॉक्स,अनु० नरोत्तम नागर,
तीसरा संस्करण-1980, पीपुल्स पब्लिशिंग प्रा. लि., नई दिल्ली।
9. ‘हिंदी उपन्यास एक
अंतर्यात्रा’–रामदरशमिश्र, पहली आवृति-2004, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
10. ‘उपन्यास: स्वरूप और
संवेदना’-राजेन्द्रयादव,संस्करण-2007, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
11. ‘शताब्दी के ढ़लते वर्षों
में’–निर्मलवर्मा,संस्करण-2000, राजकमल प्रकाशन
प्रा.लि.नईदिल्ली।
पत्र- पत्रिकाएँ
1. 'विपक्ष' पत्रिका’, - (संपा.) भारतयायावर,अंक-8, नवम्बर, 1993, वाणीप्रकाशन, नई दिल्ली।
2. 'विपक्ष पत्रिका',–राजा खुगशाल, अंक-5/6, जुलाई 2001, चेतना प्रेस, नई दिल्ली।
3. ‘मधुमती ’, - (संपा.) भोपाल सिंह चौहान,
'राजस्था1न साहित्य् अकादमी,
उदयपुर।
4. 'परिषद-पत्रिका’,
- (संपा.) सर्वेश
चन्द्र‘प्रभाकर’,(संयुक्तांक) अप्रैल-2005 से मार्च-2006, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,
पटना।
5. 'परिषद-पत्रिका’,
- (संपा.) सर्वेश
चन्द्र ‘प्रभाकर’,(संयुक्तांक)अप्रैल-2006 से मार्च-2007,बिहारराष्ट्रभाषा परिषद,
पटना।
6. 'परिषद पत्रिका',
(फणीश्वरनाथ रेणु,
विशेषांक)-
(संपा.), मिथिलेश
कुमारी मिश्र,जुलाई-दिसम्बर-2009,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना।
सुरेश कुमार निराला
शोधार्थी,अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,हैदराबाद –500 007
दूरभाष –
8978238147. ई-मेल- niralaeflu@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें