चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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महिला आत्मकथाओं के पुरुष पात्र और ’दोहरा अभिशाप/डॉ.राजेश्वरी एवं डॉ.मैथिली राव
आत्मकथा लेखन में स्वयं की कथा के साथ अन्य निकटतम व्यक्तियों की कथाएँ अवश्यंभावी रूप से स्वयं संलग्न हो जाती हैं। यही कारण है कि आत्मकथा लेखिकाओं के मन में एक अंतर्द्वंद्व की स्थिति का प्रादुर्भाव होता है, जो उन्हें अपनी बात कहने की प्रेरणा भी देता है और अभिव्यक्ति से रोकता भी है। किसी भी व्यक्ति की जीवन-यात्रा के सुखद और दुखद अनुभवों में उसके तत्कालीन समाज और विशेषत: परिवार के सदस्यों की अहं भूमिका होती है। जीवन की परिस्थितियाँ और उन परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति की संवेदनाएँ और प्रतिक्रियाएँ उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण और विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कौशल्या बैसंत्री के जीवन में ऐसे दो पुरुष पात्र थे, जिन्होंने उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया। उनके चरित्र और व्यवहार के कारण ही कौशल्या बैसंत्री एक लेखिका के रूप में सामने आईं और अपने अनुभवों को सबसे साँझा करने का अप्रतिम साहस जुटा पाईं। एक पात्र से उन्हें अप्रतिम स्नेह मिला तो दूसरे से उससे अधिक कष्ट। एक ने उनकी राहों से काँटे हटाए तो दूसरे ने उनकी डगर को शूलमय बनाने में कोई कसर न छोड़ी। ये किसी नाटक या कथा के पात्र नहीं हैं अपितु उनके जीवन के जीते- जागते चरित्र हैं, जिन्होंने उनके व्यक्तित्व निर्माण और निर्धारण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कौशल्या
बैसंत्री
के
पिता: बाबा-
कौशल्या बैसंत्री के पिता, जिन्हें वे बाबा कहकर बुलाती थीं, का बचपन बहुत कष्टकारी रहा था। दादी भरी जवानी में विधवा हो गई थीं। दो बच्चों के पालन-पोषण के लिए उन की माँ (दादी) ने दूसरा विवाह कर लिया था, यही व्यक्ति बाबा के पिता थे। तीन वर्ष की अवस्था में वे अनाथ हो गए। दादी के पहले पति के भाई तीनों बच्चों को अपने घर ले आए। सारा दिन घर और खेत में काम करने के बावजूद उन्हें पराया माना जाता था और उन्हें चाचा-चाची का प्यार नहीं मिला क्योंकि वे उनके खानदान के नहीं थे। भाई- बहन बहुत प्यार करते थे तथा चोरी-छिपे खाना भी खिलाते थे। परन्तु आठ वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते भाई-बहन की शादी के बाद खाने को चाचा-चाची की मार ही मिलती थी।1
पड़ोस में रहने वाली साखरा बाई एक मासूम बच्चे पर यह अन्याय होता देख बहुत दुखी होती थी। उन्हें अपनी गाय-बकरियों की देखभाल के लिए एक लड़के की ज़रूरत थी सो उन्होंने चाचा से बाबा को माँगा तो चाचा ने खुशी से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि वे तो उनसे पिंड छुड़ाना ही चाहते थे। साखरा बाई ने बाबा को अपने पास बहुत प्रेम से रखा। बाबा भी उनका बहुत आदर करते थे और जो भी काम दिया जाता, पूरी लगन और ईमानदारी से करते थे।
उनके घर पलकर वे जवान हो गए। उनका रंग साफ़ था, नाक-नक्श अच्छे थे और कद लंबा था यानि कि बहुत सुंदर दिखते थे। उन्होंने कभी साखरा बाई के जेवर-पैसों को छुआ नहीं था। बाबा की ईमानदारी से प्रभावित होकर वे उन्हें अपना बेटा मानती थीं। गाँव में अकाल पड़ने के बाद साखरा बाई बाबा को लेकर नागपुर आ गई थी।2
बड़े होने पर उन्हें काम करने की आवश्यकता हुई तो उनको नागपुर के सी०पी० क्लब में नौकरी मिल गई। वे वहाँ कुर्सी-मेज़ साफ़ करके टेबल पर शराब और सोडे की बोतलों के साथ खाने का सामान लगाते थे। बचा-खुचा खाना वे घर ले आते थे तथा बोतलों की बची शराब और सोडा खुद पी जाते थे। अंग्रेज़ों की दी बख्शीश से कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती थी।3
आजी ( नानी) और बाबा की उपजाति एक ही थी। उन्हें कौशल्या जी की माँ के लिए बाबा पसंद आए और आजोबा के विरोध के बावजूद उनकी शादी हो गई। माँ को क्लब के पास वाले घर में बहुत अकेलापन लगता था। उसी घर में अपने तीन बच्चों की मौत के बाद बाबा ने क्लब की नौकरी छोड़ दी और आजी के घर के पास ही थोड़ी-सी ज़मीन खरीदकर एक छोटा-सा झोंपड़ा बना लिया। बाद में साहूकार से कुछ पैसे उधार लेकर तथा आजी और साखरा बाई की मदद से उन्होंने अपने हाथों से दो कमरे का पक्का घर बनाया।
इसी बस्ती से थोड़ी दूर एक गोवा की ईसाई विधवा महिला की बेकरी थी, वहाँ उन्हें अठारह रुपए माहवार पगार पर नौकरी मिल गई। वे सवेरे चार बजे बेकरी में जाते तथा खमीर मिले मैदे के आटे को पत्थर की मेज़ पर मलकर उन्हें तौलकर साँचे में डालकर पकाते थे। डबलरोटी तैयार होने के बाद वे उन्हें बँधे घरों में पहुँचाते थे। पहले वे यह काम पैदल करते थे, बाद में उन्होंने साइकिल खरीद ली थी। वे रात में भी देर से घर आते थे तथा थकान के कारण तुरंत खाना खाकर सो जाते थे। उन्हें त्योहार पर भी छुट्टी नहीं मिलती थी, यहाँ तक कि रविवार को भी नहीं। अठारह साल में उनकी तनख्वाह में कोई भी बढ़ोत्तरी न किए जाने के बावजूद वे कुछ नहीं कहते थे। वे किसी से ज़्यादा बात या बहस नहीं करते थे। वे अत्यंत शांत स्वभाव के थे, कोई भी काम चुपचाप करते रहते थे। वे अत्यधिक सहनशील व्यक्ति थे।4 कुछ लोग गणपति उत्सव के समय उनके घर पर पत्थर फेंकते थे, तब भी वे चुपचाप रहते थे तथा माँ को भी चुप रहने को कहते थे। उन्हें लगता था कि मूर्ख लोगों के मुँह नहीं लगना चाहिए।
एक दिन माँ ने गुस्से में आकर उनकी नौकरी छुड़वा दी और वे कबाड़ी का धंधा करने लगे। उन्ही के पास आई पुरानी किताबें पढ़ने से कौशल्या जी में पाठक-प्रवृत्ति का विकास हुआ। वे सोमवार और गुरुवार को अपनी पुरानी वस्तुओं की दुकान सजाकर बैठते थे। इस बात से लेखिका को हीनता महसूस होती थी। आय पर्याप्त न होने के कारण घर का खर्च चलाने में अनेक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता था। इसलिए उन्होंने कबाड़ी का काम छोड़कर नागपुर की एम्प्रेस मिल में मशीनों में तेल डालने की नौकरी कर ली। यहाँ उन्हें शिफ़्ट में काम करना पड़ता था, पंद्रह रोज़ दिन में और पंद्रह रोज़ रात में। उन्हें मशीनों को साफ़ करने के लिए कुछ नए कपड़े की पट्टियाँ मिलती थी, जिन्हें वे धोती के नीचे लंगोट की तरह बाँधकर घर ले आते थे। इन कपड़ों को जोड़कर फ़्रॉक और पेटीकोट सिलकर पहने जाते थे। बाबा इन पट्टियों को जोड़कर तकिए के गिलाफ़, मेज़पोश और गोदड़ियाँ भी सिलते थे।
वे अशिक्षित थे तथा अपनी घटिया परिस्थिति के बारे में सचेत नहीं थे। उन्हें यह नहीं पता था कि इतिहास-भूगोल क्या है, बस इतना ही पता होता था कि बच्चे किस कक्षा में पढ़ रहे हैं और वे पास हो गए हैं। लेखिका ने ही उन्हें अँगूठे और उँगली में होल्डर पकड़कर दस्तखत करना सिखाया था।5 घर में तंगी होने के बावजूद उन्होंने बच्चों को पढ़ाना जारी रखा। लेखिका को कॉलेज जाते समय उन्होंने किसी से पुरानी लेडी साइकिल भी खरीदकर दी थी। वे पैसों का हिसाब अच्छी तरह से कर लेते थे और पाई-पाई का हिसाब रखते थे। वे काम के कागज़ों को विषयानुसार लिफ़ाफ़ों में संभालकर रखते थे ताकि ज़रूरत पड़ने पर तुरंत निकाल सकें।
बाबा बहुत परिश्रमी थे और उन्हें खाली बैठना बिल्कुल पसंद नहीं था। वे कभी ढीली खाट कसते तो कभी यहाँ-वहाँ कील ठोकते। कभी घर के खपरैल टूट जाते तो नए खपरैल डालकर छत दुरुस्त करते थे। वे माँ के किसी काम में दखल नहीं देते थे अलबत्ता घर के अनेक कामों में उनका हाथ बँटाते थे। वे रोज़ मिल से आने के बाद सीने का काम करते थे। वे थोड़ी बढ़ईगिरि भी जानते थे। उन्होंने बच्चों के पढ़ने के लिए एक टेबल बनाया जिसके नीचे किताबें रखने के लिए अलमारी भी बनाई थी। उन्होंने एक स्टूल भी बनाया था जिसे घर के एक कोने में रखा गया था तथा जिसपर जनाबाई का काढ़ा हुआ मेज़पोश बिछाया था और काँच के गिलास में कागज़ के फूल सजाकर रखे थे। लेखिका के कहने पर बाबा ने घर का नाम मनोहर सदन रखा था तथा उन्होंने एक लोहे की पट्टी पर घर का नाम लिखकर बाहर टाँग दिया था।6
कौशल्या बैसंत्री के पति:देवेन्द्र कुमार बैसंत्री
देवेन्द्र कुमार बैसंत्री से लेखिका की मुलाकात नागपुर अधिवेशन के दौरान हुई थी। उस समय वह एम०ए०, एल०एल०बी० करने के बाद डि०लिट० कर रहा था। वह कानपुर से निकलने वाले हिंदी अखबार में लेख लिखता था। वह मूलत: बिहार में खर्ड़िया गाँव का रहनेवाला था। वह पहले बिहार के किसानों के आंदोलन में सक्रिय रहा था तथा इसी सिलसिले में जेल भी गया था। बाद में एम०एन०राय की रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी में रहा तथा यू०पी० शेड्यूल कास्ट फ़ेडेरेशन का अध्यक्ष भी था।7
लेखिका को उस समय इस बात का भान नहीं था कि देवेन्द्र शादीशुदा है अत: वे उसे पसंद करती थीं तथा सामान्य पत्र व्यवहार करती थीं। परन्तु सच्चाई का पता चलने पर उन्होंने पत्र लिखना कम कर दिया था। कुछ दिनों बाद उसने लेखिका को बताया कि उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई है और यह भी कि उसका विवाह बचपन में ही उसकी मरज़ी के बिना हुआ था। उसकी शिक्षा से प्रभावित होकर लेखिका ने उससे विवाह के लिए स्वीकृति दे दी। उस समय देवेन्द्र के माँ-बाप की मृत्यु हो चुकी थी। परिवार में दो छोटी बहनें थीं, एक सात-आठ साल की और दूसरी सत्रह साल की थी। एक छोटा भाई चौदह-पंद्रह साल का था, जो विवाह में भी शामिल हुआ था। शादी के बाद लेखिका के साथ वह बनारस आ गया। शादी से पहले वह बी०एच०यू० के छात्रावास में रहता था, बाद में कैंपस से लगे छितुपुर नामक गाँव में तीन कमरे वाला मकान किराए पर लेकर अपने भाई-बहनों को भी साथ रहने के लिए बुलवा लिया।
वह कभी लेखिका के साथ घर की समस्याओं के बारे में बात या सलाह-मशविरा नहीं करता था। वह अपने ही घेरे में रहनेवाला आदमी था। उसे किसी की भावना, इच्छा, खुशी आदि की ज़रा भी परवाह नहीं थी। उसे अपने काम भी खुद करने की आदत नहीं थी। बाथरूम में तौलिया, कच्छा-बनियान रखने से लेकर पाखाने की बाल्टी में पानी भरने तक का काम वह स्वयं नहीं करता था।8 उसे साठ रुपए महीना छात्रवृत्ति मिलती थी। चौदह रुपए घर का किराया देने के बाद घर का खर्च बहुत मुश्किल से चलता था। इसी बीच उसके छोटे भाई को सारकोमा की भयंकर बीमारी हो गई और परिवार में एक सदस्य की वृद्धि भी। इन परिस्थितियों के चलते उसे अपनी रिसर्च छोड़कर लेबर इंस्पेक्टर की नौकरी करनी पड़ी।यह भारत सरकार की राजपत्रित पोस्ट थी। वह कोयला खान के मज़दूरों के लिए काम करता था। नौकरी लग जाने पर धनबाद और आसनसोल के बीच जी०टी०रोड पर निरसा नाम की नीरस जगह पर पोस्टिंग मिली। वहाँ के नौकर-चाकर उसकी जाति के कारण ठीक व्यवहार नहीं करते थे। यहाँ तक कि उसका क्लर्क उसके दिए पत्रों को डाक में नहीं डालता। पता लगने पर देवेन्द्र ने उसे निलंबित कर दिया पर उसके बहुत मिन्नत करने पर उसकी नौकरी बहाल कर दी थी। चार-पाँच महीने बाद देवेन्द्र यह नौकरी छोड़कर भारत सरकार के सूचना और प्रसारण विभाग में असिस्टेंट रिसर्च ऑफ़िसर के पद पर नियुक्त हो गया।
दिल्ली में आठ वर्ष रहने के बाद उसका तबादला भोपाल हो गया। वह पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत पूरे मध्यप्रदेश के लिए नियुक्त हुआ था। यहाँ महीने में बीस दिन वह मध्यप्रदेश के दौरे पर रहता था। उसे बड़े-बड़े सरकारी कार्यक्रमों के निमंत्रण पत्र मिलते रहते थे अत: अक्सर त्योहार के दिन भी वह घर में नहीं रहता। कहीं जाते समय वह इस बात की सूचना लेखिका को भी नहीं देता था। प्रसूति के समय अपनी बीवी को तीस रुपए पकड़ाकर चला गया। बच्चा होने के बाद एक दिन अस्पताल आकर, अपनी शान दिखाने के लिए, अपनी पत्नी को प्राइवेट वार्ड में शिफ़्ट करवाया परन्तु उससे मिलने की ज़रूरत नहीं समझी। यहाँ तक कि किसी से उसकी हालत के बारे में भी नहीं पूछा। पाँव में मोच का बहाना बनाकर अस्पताल नहीं आया और किसी ऑपरेटर के हाथ तीस रुपए देकर अस्पताल का बिल चुकाने को कहकर स्वयं इंदिरा गाँधी के साथ दौरे पर चला गया, जबकि बिल दो सौ रुपए का था।9 भोपाल में साढ़े पाँच साल रहने के बाद तबादला दिल्ली हो गया। दो वर्ष लाजपत नगर में किराए के मकान में रहने के बाद ईस्ट किदवईं नगर में सरकारी क्वार्टर मिल गया। इमरजेन्सी की वजह से सेवानिवृत्त होने से दो वर्ष पहले ही यह मकान खाली करना पड़ा।
लेखिका के साथ उसकी नहीं बनती थी। वह गर्म मिज़ाज का ज़िद्दी व्यक्ति था। उसने कभी लेखिका की इच्छा, भावना और खुशी की कद्र नहीं की। बात-बात पर गंदी गाली देना और हाथ उठाना मानो रोज़ की बात थी। वह अपनी पहली पत्नी और माँ-बाप को भी बहुत क्रूर तरीके से मारता था। वह स्वयं कहता था कि वह बहुत शैतान है। उसे पत्नी सिर्फ़ खाना पकाने और शरीर की भूख मिटाने के लिए चाहिए थी। पैसे वह हमेशा अलमारी में बंद रखता था और दूध या सब्ज़ी के लिए गिनकर देता था, वह भी कभी-कभी भूल जाने पर याद दिलानी पड़ती थी। कोई बात पूछने पर दस मिनट तक कोई जवाब नहीं देता था। कपड़े और चप्पल के लिए पूछने पर या तो टाल देता और कभी मारने दौड़ता तथा गंदी-गंदी गालियाँ बकता था। लेखिका अखबार की रद्दी बेचकर कुछ पैसे बचाती थी, पता चलने पर वे पैसे भी वही रखने लगा था। बहुत बहस के बाद लेखिका को चालीस रुपए पगार देनी शुरू की, जो रिटायर होने के बाद बंद कर दी थी तथा नौकरानी को भी काम से हटा दिया था। एक बार लेखिका के ऐतराज़ करने पर कहता है कि- “मैंने तुम्हें पालने का ठेका नहीं लिया है, बाहर जाकर काम करो और खाओ ।”
वह बात-बात पर लेखिका को ताने देता था। यदि कोई बच्चा लेखिका का पक्ष ले तो बहुत क्रोधित होता था। कंजूस इतना कि साबुन और चीनी भी अलमारी में बंद रखता था। लेखिका किसी को चाय भी नहीं पिला पाती थी। खाना बनाने के लिए जितना सामान ज़रूरी होता, रख देता और खुद अपना खाना निकालकर खाता था। किसी दिन अधिक भूख लगने पर यदि पत्नी पहले खाना खा ले तो बहुत क्रोधित होता था। वह हरदम यह चाहता था कि उसकी पत्नी तंग हो और इसी कोशिश में उसपर बहुत ज़्यादती करता था। अत्यधिक अत्याचार बढ़ जाने पर लेखिका उससे अलग हो जाती है तथा उसपर केस दायर करती है। कोर्ट लेखिका के लिए ५०० रुपए का मेंटेनेंस खर्चा तय करता है, जिसे भी वह चार-पाँच महीने तक नहीं देता।10
देवेन्द्र को स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र मिला, सरकार की ओर से उसके काम की प्रशंसा की गई है और उसे हर महीने पेंशन भी मिलती है। परन्तु वह अपनी पत्नी को एक दासी के रूप में ही देखना चाहता है।’दीए तले अँधेरा’ और ’पर उपदेश कुशल बहुतेरे’-उस पर ये कहावतें पूर्णतया चरितार्थ होती हैं।
संदर्भ सूची-
1.
बैसंत्री कौशल्या, दोहरा अभिशाप, संस्करण २०१२, परमेश्वरी प्रकाशन, नई दिल्ली, पेज न० २३
2.
वही, पेज न० २४
3.
वही, पेज न० ४३
4.
वही, पेज न० ७३
5.
वही, पेज न० ४३
6.
वही, पेज न० ८३-८४
7.
वही, पेज न० ९५
8.
वही, पेज न० १००
9.
वही, पेज न० ११८
10. वही, पेज न० १०६
डॉ.राजेश्वरी एवं डॉ.मैथिली राव
बंगलूरु, कर्नाटक
संपर्क सूत्र:-ईमेल:-dr.rajeshwarig @gmail.com
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