चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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समकालीन हिन्दी उपन्यासों में
आदिवासी नारी की सामाजिक स्थिति/डॉ.आर.तारासिंह
चित्रांकन
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विश्व की जनसंख्या में हर सातवाँ व्यक्ति भारतीय है। भारत में कई जनजातियाँ
पाई जाती हैं। भारत की जनसंख्या में आदिवासी लगभग आठ प्रतिशत हैं। यह आँकड़ा पूरी
तरह से विश्वनीय नहीं है, क्योंकि इसमें
केवल वही आदिवासी समूह आते हैं, जिनके नाम भारतीय
संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की अनुसूचित जनजातियों की कुल
जनसंख्या 8.6 करोड़ है। आदिवासियों को भारतीय
संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ (scheduled
tribes) के नाम से संबोधित किया गया है। आदिवासी से
अभिप्राय देश के मूल एवं प्राचीनतम निवासियों से है। आज हम जिस समाज में रहते हैं
उस समाज में आज भी कुछ ऐसी आदिवासी जनजातियाँ हैं, जो मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। आदिवासी जनजातियों का जीवन पूरी तरह
से जंगल पर निर्भर है। उसे भी बाहरी (सभ्य समाज) लोगों ने हड़प लिया है। हजारों
वर्षों से जंगलों में रह रहीं आदिम जनजातियाँ खुले मैदानों तथा सभ्यता के
केन्द्रों में बसे लोगों (सभ्य समाज) से अधिक सम्पर्क स्थापित किए बिना ही अपने
अस्तित्व को बनाए रखी हैं।
जहाँ तक आदिवासी समाज में नारी की स्थिति का प्रश्न है तो यह निस्संदेह
कहा जा सकता है कि तथाकथित गैर आदिवासी वर्ग के समाज में जो नारियों की स्थिति है,
उससे बेहतर है। पत्नी के रूप में आदिवासी स्त्रियाँ
घर-बाहर पुरुषों के साथ-साथ कंधों से कंधा मिलाकर काम करती हैं और अपने श्रम,
मेहनत से परिवार का पालन-पोषण करती हैं। आदिवासी समाज
में स्त्रियाँ हल भी चलाती है। इन सबके बावजूद भी आदिवासी समाज में नारियों की
स्थिति पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे की ही है। वहाँ भी नारियों को पुरुषों की
तुलना में कमतर रखने के लिए अनेक कड़े नियम हैं। इसी संदर्भ में आदिवासी समाज और
साहित्य की प्रसिद्ध मर्मज्ञा रमणिका गुप्ता ने लिखा है- ''ऐसे तो आदिवासी नारियाँ की स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता के
मिथक और भ्रम का खूब प्रचार किया जाता रहा है, लेकिन समाज के भीतर ऐसे कड़े नियम और बँटवारे हैं जो स्त्री को पुरुष से
कमकर महसूस करने के लिए गढ़े गये हें। एक बात तो माननी होगी कि भारतीय संस्कृति
के बिल्कुल विपरीत आदिवासी स्त्री को अपना वर चुनने की इजाजत है, इसके लिए वह न तो दंडित होती है और न ही दोषी करार दी जाती
है।''[1]
आदिवासी लोग जंगलों में रहता है। जल, जंगल, जमीन उसकी संपत्ति है। नारी और पुरुष
दोनों मिलकर समानता से पेट भरने की जुगाड़ में परिश्रम करते हैं। घर चलाने में
नारियाँ पुरुषों से अधिक भूमिका अदा करती हैं। नारियों को भी पुरुषों की तरह स्वतंत्रता
है, परन्तु जब अंग्रेजों ने राजस्व की नीति
बनाई और जमीन के पट्टे जमींदारों के नाम लिखे तभी से नारियों को संपत्ति के अधिकार
से वंचित किया जाने लगा और पुरुष वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों ने जन्म लिया और
नारियों का शोषण शुरू हो गया। रमणिका गुप्ता ने लिखा है- ''जब गैर-आदिवासी समाज आदिवासी क्षेत्र में जमीनों के पट्टे लिखकर और सूदखोर
बनकर प्रवेश करने लगा तब जमीनों और जंगल गैर-आदिवासियों के पास हस्तांतरित होने
शुरू हो गये, विशेषतया झारखंड, छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में। तब दूसरे समाज की विकृतियाँ भी इस
समाज में प्रवेश करने लगीं।''[2]
जंगल में अंग्रेज अधिकारी को नियुक्त किया गया ताकि कोई आदिवासी जंगल की
वस्तुओं का लाभ न उठा सके। यदि गलती से भी कोई आदिवासी जंगल में घुस भी जाए तो
जंगल बाबू को जुर्माना भरना पड़ता था। आदिवासी नारियों, कुमारियों के लिए तो यह जुर्माना उनकी देह से चुकाना पड़ता था। आदिवासी
समाज की 'बिरहोर' जाति की एक लड़की ने जंगल में वानर (बंदर) पकड़ा तो महाजन ने उसके दंड का
जुर्माना उस लड़की को देह से चूकाना पडा। राकेश कुमार सिंह के उपन्यास 'जो इतिहास में नहीं है' में यहाँ जंगल बाबू कहता है- ''तूने जंगल
में घुसकर वानर काहे पकड़ा? महाजन कह कहा था,
गोरमिट का हुकुम उठाती है तो डंड कौन भरेगा? अब नहीं पकड़ेगी वानर, लड़की घिघिया रही थी, अब की भर जान बकस
दे साऊ। जाने कैसे दे रे? तुझे तो जंगल
बाबू के पास चलना ही होगा। तू जंगल बाबू का मन खुश कर दे .... छूट जाएगी।''[3]
नारियों को वस्तु या भोग-विलास का साधन मानने वाले पुरुषों की कमी नहीं
है। आदिवासी समाज में भी पुरुष की अहंकारी मानसिकता के कारण नारियों को वासना या
साधन या उपभोग की वस्तु मानने की मानसिकता देखने को मिलती है। आदिवासी समाज पिता
या भाई साहूकार के पास कर्ज लेते हैं। कुछ दिनों के बाद वह कर्ज का सूद ना चुकाने
से घर की स्त्री की देह को दंड के रूप में देना पड़ता है। यह एक ऐसी विकृति है जो
कहीं भी किसी भी समाज में हो, नारी के जीवन को
एक जीता जागता खिलौना बना देती है। वह सब कुछ जानते हुए, देखते हुए, अत्याचार सहन करने को विवश होती है
और असहाय होकर अपने अस्तित्व को बिखरती देखती रहती है। आदिवासी स्त्री की यह व्यथा
राकेश कुमार सिंह अपने उपन्यास ‘जो इतिहास में
नही’ हैं’ लिखते हैं कि- “कोई आती थी अपने बाब-भाई द्वारा लिये
गये पुराने कर्ज का सूद चुकाने। कोई आती थी जाने अनजाने निषिद्ध वन क्षेत्रों में
प्रवेश कर दंड भोगने। हँडिया के नशे में मताल कोई आदिवासी यदि राजा 'गोयके' के घोड़े के
सामने पड़ जाता तो उसके घर की लड़की को उसके अपराध का दंड भोग सकती थी। अपराध का
दंड या प्रायश्चित बिना गुनहगारी भरे कैसे संभव थी।''[4]
इस तरह आदिवासियों पर आर्थिक, सामाजिक स्तर पर
उनका शोषण तो किया ही और धर्म के नाम पर भी वे उनका शोषण करते रहे हैं। उनकी सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप
कर रहे हैं और अपना वर्चस्व स्थापित किए हुए हैं। क्या एक औरत या लड़की को इतनी
कह देना मात्र ही अग्नि-परीक्षा से कम नहीं है कि उसकी इज्जत लुट गई है।
अग्नि-परीक्षा के डर से आदिवासी स्त्री मर्द द्वारा अपने ऊपर किये गये अत्याचार
को लेकर जबान तक नहीं खोल सकती। इसी प्रकार उपन्यास 'पठार पर कोहरा' में भी आदिवासी महिला पर अत्याचार
का प्रसंग दिखाई देता है। जिसका परिणाम जाति उस स्त्री का हुक्का-पानी बंद कर
देती है। रंगेनी अपने पति की मृत्यु के बाद अकेली रहती है। अपना जीवन चलाने के
लिए जंगल में वनोपजों को चुनकर तथा घर के पास उगाए गये सब्जियों को लेकर शहर में
बेचने के लिए जाती है। रेलगाड़ी में सिपाही उसके साथ अत्याचार करते हैं जिससे वह
गर्भवती हो जाती है। गाँव में यह पता चलने पर उसे पंचायत में बुलाया जाता है और
उससे पूछा जाता है कि यह गर्भ किसका है? रंगेनी अब
तक झुका अपना सिर ऊपर उठाकर कहती है- ''बीते
दिनों कई मरदों ने हमारी देह खँखोरी है। रेलवई के सिपाही, सँझली गाड़ी में। साइत जतने थे, सबने
......। फिर एक दिन औघड़वा भी हमारे साथ ......।''[5]
इसी तरह 'धार' उपन्यास में आदिवासी स्त्री मैना को केन्द्रीय पात्र के रूप में
चित्रित करते हुए उसके माध्यम से आदिवासी नारियों का शोषण, आदिवासी समाज पर हो रहे अत्याचार एवं आदिवासी जन-जीवन को प्रस्तुत किया
है। इस उपन्यास में मैना का चरित्र दबंग स्त्री के रूप में अंकित हुआ है।
आदिवासियों की सबसे बड़ी समस्या है उनका आर्थिक शोषण। आर्थिक शोषण ही आदिवासियों
का बड़ा आतंक है। फलस्वरूप गलत काम करने के लिए उन्हें विवश होना पड़ता है। मैना
के शब्दों में – ''हमको याद आता, जब हम बच्चा था, खेती से चार-छै
महीना का काम चल जाता, आज एक दिन का भी नईं। खेत-खतार,
पेड़, रूख, कुआँ, तालाब, हम और हमारा बाल-बच्चा तक आज तेजाब में गल रआ है। भूख में जल
रआ है। पहले हम चोरी का चीज है, नई जानता था,
भीख कब्भी नईं माँगा, चुगली दलाली कब्भी नईं किया, इज्जत
कब्भी नईं बेचा, आज हम सब करता, आदत पड़ गया है, बल्कि कहें,
इसके बिना गुजारा नईं।''[6]
जाहिर है कि सदियों से ही स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा
के लिए आत्म संघर्ष करना पड़ा है। नारियों पर अत्याचार, बलात्कार, अपमान आदि से संबंधित घटनाएँ आज के
समाज में नई घटना नहीं है। बहुत समय से ही नारियों पर जुर्म एवं अत्याचार की
घटनाएँ होती आ रही हैं। गैर सवर्ण जातियों का समृद्ध तबका भी इस संधात में शामिल
हो गया। जैसा कि हम जानते हैं और गैर सवर्ण जातियों का यह समृद्ध तबका अपनी
मानसिकता में दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों इत्यादि के प्रति उतना ही सामंतवादी, सवर्णवादी है जितना कि कोई सामंत या सवर्ण, बल्कि कुछ ज्यादा ही। यहाँ रेत उपन्यास की कस्तूरी कहती है कि- ''यह देसी फिरंगी हमें परेड के लिए नहीं, हमारी छातियाँ नापने के लिए बुला रहा है। बुलाया है तो जाना पड़ेगा कस्तूरी।
मैं तो देख चुकी है। इस दरोगा को दरोगा नहीं पूरा जल्लाद है। जरा भी रहम नहीं है
मरे के। बचनो तेरे जाने में कोई हर्ज नहीं है पर सबको बुलाने का मतलब का है?
मतलब हम सब को पता है। अपने ही मुल्क में हमारे दो-दो
बैरी हो गये। पता ना देवी 'मारी', 'प्रभा' ही भूइयाँ,
माँ से पीछा छुड़ाएंगी। असली बैरी तो अपने ही हैं। देखती
न है आए दिन गाजूकी में राय साहब, दीवान साहब,
राय बहादुर और खान बहादुरों की कैसी लैन लगी रहती है। ये
सब और कुछ ना हैं इन फिरंगियों के कोरे दलाल हैं। असली हुकूमत फिरंगी नहीं इनके ये
बहादुर शाह और ये दरोगा जैसे भड़ुए कर रहे हैं। जो भी हो बचनों वह तो भोगतना ही पड़ेगा अब।''[7] संजीव का उपन्यास 'जंगल जहाँ
शुरू होता है', में थारू नारियों का शोषण विभिन्न
स्तरों पर अनेक वर्गों द्वारा किया जाता है। थारू नारियों की गरीबी, मजबूरी तथा अकेलेपन का फायदा लोग आसानी से उठाते हैं। मलारी
के साथ ठाकुर, सेठ, पुलिस सभी शारीरिक शोषण करते हैं। मलारी को पोलिस डाकुओं से मिली हुई
समझकर पकड़ती है। वह अपनी मजबूरी बताती है- ''हाकिम? हमारा कसूर बस इतना है कि गरीब हैं,
औरत जात है, जो ही आता
है डरा-धमका के जबरदस्ती करने को मगजूर करता है।''[8]
एक अबला स्त्री की यातना का पुलिस पर कोई असर नहीं होता है। पुलिस वाले
उसके साथ अभद्र व्यवहार गाली-गलौज और मार-पीट करते हैं। ऐसा ही जीता जागता वर्णन
हमें जंगल जहाँ शुरू होता है उपन्यास में देखने को मिलता है- ''सहसा सुदर्शन सिंह का चौड़ा हाथ उसके मुँह पर पड़ा और वह खाट
पर सीधे जा भहराई प्रेमप्रकाश ने सीधे राईफल तान ली, बोल भोंसड़ी। रंडी कुतिया .....। बोल मादरचोद। ...... नहीं तो राइफल तेरे
पेट में डाल देंगे।''[9] बिसराम बहू का
शेाषण पुलिस, डाकू एवं जमींदार करते हैं। उस पर
थाने में अत्याचार किया जाता है। वह आप बीती बयान करती है- ''ऊ गाली दिया। हम चुपचाप सुनते रहे। फिर बोला तुम काहे आए,
तुमरा जवान लड़की नहीं है? ...... ऊ बोले, तो जाओ, भेज दो । .... बहोत मारा, बहोत। अब हम किसी
काम के नहीं रह गये नँय बचेंगे हम।''[10]
अंग्रेजों के प्रशासनिक नीति का मार सबसे ज्यादा आदिवासियों पर पड़ा,
क्योंकि इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए योजनाएँ बनाई
है। जिसमें असंख्य आदिवासी कार्यरत थे। उनमें पुरुषों के साथ स्त्रियाँ, युवतियाँ भी मजदूरी कर रही थी। वहाँ भी आदिवासी किशोरियों और
नारियों पर ठेकेदार एवं महाजन अत्याचार करने लगे। लेखक राकेश कुमार सिंह ने अपने 'जो इतिहास में नहीं' उपन्यास
में कामी पुरुषों की वासना का शिकार होती नारियों के शोषण की दयनीय अवस्था को
चित्रित किया है- ''ईस्ट इण्डिया रेलवे की इस बड़ी
परियोजना में लाखों वनवासी श्रमिक कार्यरत थे। पुरुष, स्त्रियाँ, किशोर तथा अधेड़ आदिवासियों के
बड़े-बड़े दल स्थानीय ठेकेदारों के लिए रात दिन काम करते थे।......रेल विभाग में
ठेका चलाने वाले ठेकेदार आदिवासी किशोरियों-युवतियों को प्राय: अपने तम्बू में
खींच ले जाते थे। कभी अकेली, कभी दसियों
आदिवासिने मद्यप ठेकेदारों और वर्षों से स्त्री-सुख को तरसते रेल अधिकारियों की
वासना पूर्ति हेतु उठा ली जाती थीं।''[11]समाज में
कुछ ऐसे पुरुष भी होते हैं जो जिनके जीवन का कोई नैतिक मूल्य नहीं होता है। वे
आदिवासी स्त्री के प्रति और गैर-आदिवासी स्त्री के प्रति कामुक दृष्टिकोण रखते
हैं। वे प्रत्येक स्त्री के प्रति मात्र भोगवादी दृष्टिकोण रखते हैं।
झारखंड के गजलीठोरी के साहू गगनबिहारी का चरित्र कामुक है। आदिवासी किशोरी
रूदिया बिहारी के दुकान पर अक्सर खरीदी के लिए आती है। साहू, रूदिया पर अपनी कामुक दृष्टि डाले रहता है। साहू गगन बिहारी
की कामुक दृष्टि का चित्रण करते हुए लेखक कहते हैं – ''बचपन और कैशार्य की संधि रेखा पर खड़ी किशोरी रूदिया को देखते ही साहू गगन
बिहारी की आँखों में गिरगिट जैसी चमक जाग उठती है। हीरा है हीरा ..... ! आह रे
जोबन ..... ! आह रे रूप ..... !! जैसे जंगल में गिरा पड़ा हो केाई हीरा अनमोल। …..
एक-दो ग्राहकों को निबटाकर पैसे अपनी काठ की सन्दूकची
में डालने के बाद साहू इस बार सचमुच रूदिया का सोडा नापने लगा। आँखें नपने पर नहीं,
रूदिया पर लगी हैं। नाप रही हैं रूदिया को।''[12]
साहू की बुरी नजर रूदिया की सुंदरता पढ़ती है, वह दुकान से चली जाने के बाद उसे फूलों की सुगंद से तुलना
करता है। लेखक के शब्दों में- ''श्यामवर्णी
रूदिया की देह से पुटुस के खिले फूलों की खटमिट्टी गंध फूटती है। रूदिया के दुकान
से चले जाने के बाद भी देर तक हवा में डोलती रहती उसकी देहगंध। ……रूदिया के जाने के बाद भी रूदिया के बारे में ही सोचते साहू
की मुसकी छूट गयी। कोई असंभव-सी कल्पना .... ! रूदिया के साथ कोई काल्पनिक संबंध
दृश्य।''[13]
आदिवासी स्त्री रंगेनी पर कई तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। रंगेनी
एक पुत्र को जन्म देती है। वह किसकी पैदास है उसे भी पता नहीं था। वह इसकी आवश्यकता
भी नहीं समझती थी। उसके लिए इतना ही काफी था कि उसका पुत्र केवल उसका है। लेखक
कहते हैं- ''रंगेनी भी बस इतना ही जानती है कि नौ
महीने जिस मांस की लोथ को अपनी देह में ढोती रही, जो लोथ उसकी अपनी देह से देह और अपने प्राण से प्राण धरकर धरती पर उतरी,
जिसकी देह में रंगेनी का अपना खून-दूध दौड़ता है,
वह सोने जैसा बेटा सोनारा उसका ही तो है।''[14]
आदिवासी समाज घने जंगलों में तथा वनों में निवास करता है। आदिवासी लोग जंगल
से सूखी हुई लकड़ियाँ नहीं उठा सकती। यदि गलती से भी कोई आदिवासी जंगल में घुसकर
सूखी लकड़ियाँ लाने से जुर्माना अदा करना पड़ता है। आदिवासी नारियाँ, कुमारियों के लिए तो जुर्माना उनका देह से चुकाना पड़ता है। 'धूणी तपे तीर' की दल्ली जंगल
में बकरी चराते समय उसने आसपास से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी की। इस संदर्भ में–
''ऐ छोरी! तूने जंगल से लकड़ियाँ काटी? पीठ पीछे से कड़कती आवाज सुनकर दल्ली चौंकी। घबराती हुई
हड़बड़ाहट में स्वयं को संभालती हुई और पीछे पीछे मुड़ी। देखा वन रक्षक की पोशाक
में दो हट्टे-कट्टे युवक खड़े थे। उनके हाथों में लाठियाँ था। लकड़ियाँ के गठ्ठर
को दल्ली अपने माथे पर रख रही थी कि एक वन रक्षक ने उसकी चोटी पकड़कर झटका दिया।
वह नीचे गिर पड़ी।.... दल्ली का पहला कटु अनुभव था। पथरीली जमीन पर गिरने से दल्ली
के माथे पर चोट लगी थी। वह उसे ससोड़ती हुई खड़ी हुई और साहस बटोर कर भागने का
प्रयास करने लगी। चोट्टी कहीं की, जंगल बर्बाद करती
है और बचकर भागना चाहती है। दूसरे वन रक्षक डांटते हुए दल्ली की बाँह पकड़ी। चल
छोड़ यार गलती हो गयी बेचारी से । साहब के पास ले चलते हैं। वे इसे माफ कर देंगे।
पहले वन रक्षक ने सहानुभूति के जाल में लपेट कर ये शब्द कहे। साथी वन रक्षक ने
उसे टेढ़ी नजरों से देखा और मुस्कराया। .... मेरा प्यारा दोस्त आया है। इसे खुश
करने के लिए कोई जुगाड़ करो।''[15] दल्ली को पकड़कर
रेस्ट हाउस में लाया। तब सूबेदार ने हिंसक बनकर उस पर शोषण करता है। चीखती-चिल्लाती
पर उसका साथ कोई नहीं देता है। यही है आदिवासी स्त्री की शोषण। हरिराम मीणा की
कलम से – ''किसन सिंह ने दल्ली को यूं समझाकर
अंदर कमरे में भेजा था। दल्ली के भीतर घुसते ही सूबेदार हिंसक जानवर की तरह शिकार
पर हमला करने के लिए तैयार बैठा था। दल्ली को देखते ही उसने दरवाजा बंद कर लिया।
दल्ली चीखी-चिल्लाई। प्रतिरोध भी डटकर किया था। उसने अपने माँ-बाप को पुकारा था
और हरिया को आवाज लगाई थी। इस जरख से मुझे ब SSSS चा SSSS लो S! .... दल्ली का बाप
पाँच्या रात भर ढूंढता रहा अपनी प्यारी बेटी को। नाहर मगर के नीचे बहने वाले
नाले के कीचड़ में दल्ली की लाश मिली थी अगली सुबह।''[16]
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी उपन्यासों में चित्रित
आदिवासी नारी की सामाजिक स्थिति अत्यन्त दयनीय और करुण है। स्पष्ट है कि आदिवासी
स्त्री अन्याय-अत्याचार ग्रस्त है। इस समाज में ठेकेदार, महाजन, पोलिस, वन रक्षकों द्वारा आदिवासी स्त्री शोषण ग्रस्त हो रही है।
आदिवासी नारी जीवन संघर्ष की अनेक छवियाँ जीवंतता के साथ अंकित है। भले ही उन्हें
पुरुषों की तरह रहने और स्वतंत्र घूमने की आजादी हो। साथ ही रोजगार की तलाश या
विकास के नाम पर घटते जंगलों के कारण पलायन की स्थिति में अथवा गैर-आदिवासियों
द्वारा दिखाये गये सब्जबाग के झांसे में फँसकर दैहिक एवं आर्थिक शोषण झेलने को
विवश होना पड़ता है।
सन्दर्भ
[1] कथादेश – अंक मई 2002, पृ.सं. 39
[2] वही, पृ.सं. 39
[3] जो इतिहास में नहीं है – राकेश कुमार सिंह, पृ.सं. 46
[4] जो इतिहास में नहीं है – राकेश कुमार सिंह, पृ.सं. 85
[5] पठार पर कोहरा - राकेश कुमार सिंह,
पृ.सं. 69
[6] धार – संजीव, पृ.सं. 54
[7] रेत – भगवान दास मोरवाल, पृ.सं. 52-53
[8] जंगल जहाँ शुरू होता है- संजीव,
पृ.सं. 196
[9] वही, पृ.सं. 196
[10] वही, पृ.सं. 27
[11] जो इतिहास में नहीं - राकेश कुमार सिंह,
पृ.सं. 51-52
[12] पठार पर कोहरा – राकेश कुमार सिंह, पृ.सं. 11
[13] वही, पृ.सं. 18
[14] वही, पृ.सं. 75-76
[15] धूणी तपे तीर – हरिराम मीणा, पृ.सं. 343
[16] वही, पृ.सं. 345
डॉ.आर.तारासिंह
अंग्रेजी एवं विदेशी विश्वविद्यालय हैदराबाद.
सपर्क सूत्र:-09908093049 ,ई-मेल:- tarasingh.m@gmail.com
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