चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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गाय सबसे सटीक नारा है/जितेन्द्र यादव
(1)
‘उनकी सख्त पकड़
के नीचे/ भूख
से मरा हुआ
आदमी / इस मौसम
का / सबसे दिलचस्प
विज्ञापन है और
गाय/ सबसे सटीक
नारा है/ वे खेतों
में भूख और
शहरों में / अफवाहों
के पुलिंदे फेंकते
हैं/ देश और
धर्म और नैतिकता
की/ दुहाई देकर/
कुछ लोगों की
सुविधा /दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते
हैं/ वे
जिसकी पीठ ठोंकते
हैं / उसकी रीढ़ की
हड्डी गायब हो
जाती है’
राजनीति को हमने
वैचारिक धरातल से उतारकर भावनात्मकता के नाजुक पिंजरे में बंद कर दिया है। वरना राजनीति जैसे गंभीर विषय में भला गाय का क्या काम ? राजनीति के लिए अन्य जानवर की तरह वह भी एक
जानवर होती किन्तु प्रतीकों की राजनीति ने गाय जैसे सामान्य पालतू पशु को भी राजनीतिक
जानवर बना दिया है। दादरी और उना जैसी जघन्य घटनाएँ इसी तरफ संकेत करती है। भारत
में गोरक्षा के नाम पर कितना गोरख धंधा हो रहा है यह एक सामान्य आदमी भी जानता है। सवर्ण राजनीति के निशाने पर हमेशा पिछड़ा, अल्पसंख्यक और दलित रहा है। इन्हें सताने
और अपने धार्मिक और सामाजिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए गाय पुरानी बोतल में नई
शराब की तरह एक सटीक नारा बनकर उभरी है। गाय राजनीतिक सत्ता और धार्मिक सत्ता
दोनों का प्रतीक बन गई है। जो लोग गाय–गाय चिल्लाते है उन्हें हम मुर्ख और अनपढ़
समझते है किन्तु वह पहले दर्जे के शातिर और चालाक लोग है। उन्हें पता है कि गाय
ही वह हथियार है जो विघटित हो रही धार्मिक और राजनीतिक सत्ता के लिए दीवार का सहारा
बन सकती है। वर्ना घरों में कुत्ते पालने वाले सभ्रांत लोगों में गाय के प्रति हमदर्दी
और दिलचस्पी का भला क्या तुक हो सकता है?
जब खाए-अघाए घरों
के नुमाइन्दें गोरक्षा के नाम पर चार दलित लडकों पर सटाक–सटाक की आवाज में शरेआम बाजार
में बाधकर पीट रहे थे तो ऐसा लग रहा था मानों सदियों से दबी नफरत, घृणा और वैर का
बदला ले रहे है। गाय तो एक बहाना है बदला कुछ और का लिया जा रहा है एक तरफ मनु है
तो दूसरी तरफ अम्बेडकर, मानों मनु कह रहे हैं कि बोलो तुम्हारा मन इतना कैसे बढ़
गया? मेरी मनु स्मृति को क्यों जलाया? क्यों संविधान बनाकर सबको बराबर का हक
दिलवाया, क्यों गर्दन ऊचा करके और सीना तान के चलते हो बोल..बोल...बोल.. ।
जो लोग बात–बात में भारतीय संस्कृति की
दुहाई देते है वे भी भीड़ में खड़े होकर उस दिन अपनी संस्कृति का नंगा नाच देख रहे
थे। यदि भारतीय संस्कृति को लेकर दलित–पिछड़ा सवालियां निशान लगाता है तो क्या यह अनुचित
है? दलितों का सदियों से जितना उत्पीड़न और शोषण हुआ है। मरी हुई गाय का खाल निकालने की वजह से दलित की पीठ पर
अपनी कायराना बहादुरी का परिचय देने वाले गोरक्षा के तथाकथित नुमाइन्दों को शायद
भूख और गरीबी का अर्थशास्त्र व भारत का समाजशास्त्र नही पता था। उनमें इतिहासबोध
की भी कमी थी वरना इस तरह का हरकत करते हुए उनको भय नहीं तो शर्म जरुर आती है. ‘मुर्दहिया’
के प्रसिद्ध आत्मकथाकार तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में दलित जीवन की यथार्थ पीड़ा और
दंश को जिस रूप में अभिव्यक्त किया है वह बहुत कुछ समझाने के लिए पर्याप्त है। वे
लिखते है:-‘उस समय एक परम्परा के अनुसार गाँव का कोई भी हरवाहा अपने मालिक जमींदार
के मरे पशु की खाल निकालकर उसे बेचने से बचे धन को अपने पास रख लेता था। ऐसे चमड़ों
की कीमत प्रायः बीस रूपये होती थी............जब हमारे घर की कलोरी गाय मरी तो छह
आदमी काड़ी पर ढोते हुए मुर्दहिया पर ले गए थे। .मुन्नर चाचा कहने लगे थे कि उस
छुट्टी में मैं चमड़ा छुड़ाना धीरे–धीरे सीख जाऊं ताकि भविष्य में इस चर्मकला में पारंगत
हो सकूं’। मुन्नर चाचा ने एक बड़ी सी छुरी को एक छोटे से पत्थर से रगड़कर तेज किया।पत्थर
से रगड़ने के कारण छुरी से निकलती हुई कर्र–कर्र की ध्वनि ने मुर्दहिया के सन्नाटे
को भंग कर दिया। देखते ही देखते मुन्नर चाचा ने गाय के गर्दन के निचले हिस्से में
छुरी भोक दी तथा तेजी से पूरे पेट को चीरते हुए पिछली टांगो के बीच से आर- पार कर
दी’।
लेखक की उपर्युक्त पंक्तियां यह दिखाने के
लिए काफी है कि इस तरह का कार्य समुदाय विशेष का प्रमुख पेशा रहा है। इसी तरह भूख
से पीड़ित दलित महिला द्वारा बैल का मांस खाने का वाकया भी आया है। ’जोखू पांडे के
हरवाहे द्वारा चमड़ा छुड़ाए जाने के बाद उसी के घर की एक रमौती नामक दलित महिला जो
मुर्दहिया पर घास छील रही थी, उससे रहा नहीं गया। वह डांगर के लालचवश खुरपा लेकर
गिद्धों से भीड़ गई और मरे हुए बैल का कलेजा काटकर उनके खूंखार चोचों से बचते हुए
घास से भरी टोकरी में छिपाकर घर लाई। मेरे साथ अनेक दलित बच्चे यह नजारा देख रहे
थे’।
तथाकथित बुद्धजीवी साथी जो कभी कभार हास्टल या
होटलों में दलित की थाली में खाना खाकर छुआछूत या भेदभाव की संक्रामक बीमारी, सामाजिक, आर्थिक विषमता को झूठला देते है।उन्हें गांवों की सामाजिक संरचना को समझने के
लिए (जो अभी भी बहुत कुछ वर्ण व्यवस्था से संचालित होती है और उसमें सामंती समाज और
मनुस्मृति की बू अब भी आती है) उन पर कोई शोध जरुर करना चाहिए। उन्हें जो आकड़े मिलेंगे
वह बेहद चौकाने वाले होंगे, ऐसा मेरा मानना है। अपमान और जहालत भरी जिस जिन्दगी को
दलित आज भी जी रहा है वह इक्कीसवीं सदी के विकसित हो रहे भारत पर काले धब्बा की
तरह है.
एक तरफ लोकतंत्र के केंद्र में संविधान है तो
दूसरी तरफ धर्म के केंद्र में गाय है। दोनों दो छोर पर खड़े है। वैज्ञानिक और तार्किक
प्रगतिशील सोच वाले पढ़े–लिखे बुद्धजीवी लोग। वे समाज को संविधान के चश्मे से देखने का
आग्रह करते है। जहां एक तरफ समता, स्वतन्त्रता, बंधुत्व, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को
हथियार बनाते है वहीं दूसरी तरफ जड़तावादी, पुनरुत्थानवादी और रूढ़ीवादी लोगों की जमात
है।ऐसों का समाज को देखने का एक मात्र नजरिया गाय और धर्म है।. धार्मिक पुस्तकों में
कुछ अच्छी चीजों को छोड़कर उन तमाम उलुल-जुलूल बातों को न्यायसंगत ठहराने के लिए
अतिवाद का रुख अपना लेते है। यहाँ तक कि अपनी बात व विचारों को मनवाने या थोपने के
लिए हिंसा, मार–काट जैसे तरीकों का भी इस्तेमाल करते है। ये भलेमानस यह भूल जाते
है कि यह धार्मिक पुस्तक भी किसी मनुष्य द्वारा ही रची गयी है। हो सकता है किसी समय
उक्त बात सही हो किन्तु आज हमारे लिए प्रासंगिक नहीं है तो फिर क्यों लकीर का फकीर
बने हुए है? क्यों निष्प्राण हो चुकी चीज को बेवजह चिपकाकर घूम रहे है? यह तो वही जिद
हुई कि बचपन के छोटे हो चूके मोज़े को बड़ा होने पर पहनने का प्रयास करना और जब वह
पैर में न आए तो मोज़े को बेकार सिद्ध करने के बजाय पैर को काटकर मोज़े में पहनाने
जैसा है।
एक
सहृदय मनुष्य के लिए सड़क पर कुचला हुआ कुत्ता, बिजली की करंट से मरा हुआ पक्षी अथवा विलुप्त हो चूके गिद्ध व विप्लुप्त हो रही गौरेया पर भी उतना ही दुःख होगा जितना की
एक गाय के मरने या मारे जाने पर. यदि मान लिया गाय दूध देती है तो क्या भैंस, बकरी,
ऊंट दूध नहीं देते है। कई लोग ऐसे भी होते है जो जीवन भर भैंस का दूध पीते रहे
किन्तु गाय के नाम पर मरने–मारने की बात करते है। क्या यह भैंस के साथ सरासर
अन्याय नहीं है? यह तो वही बात हुई कि कोई पले–बढ़े, खाए–पीये भारत का और जान
लुटाए अमेरिका के लिए। यह भी एक धार्मिक धोखाधड़ी है.
(2)
इस बार
अपनी माटी का अंक आने में कुछ ज्यादा ही विलम्ब हुआ इसके पीछे की वजह हमारी कई परेशानियाँ रही। उन्हीं कारणों से बार–बार प्रकाशन तिथि को टालना पड़ा। पाठक और लेखक दोनों को दिक्कत
का सामना करना पड़ा है हम इस बात को समझ सकते हैं। हम प्राप्त रचनाओं का कई बार समय से जवाब भी नहीं दे पाए। इन सभी
कारणों के लिए हम पाठकों और लेखक साथियों से क्षमाप्रार्थी हैं। आगे का अंक समय पर आए यह
सुनिश्चित करने का भरपूर प्रयास करेंगे। प्रकाशन अवधि में ज्यादा अन्तराल
होने के कारण यह अंक सयुक्तांक समझ लीजिएगा। कुछ हमारे लेखक साथियों से शिकायत है कि कई बार
वे अनमने ढंग से दो -तीन पेज का शिथिल व सतही लेख या समीक्षा भेजकर बार–बार फोन
करते है कि हमारी रचना कब छपेगी। ऐसे साथियों से निवेदन है कि वह केवल छपने के लिए न लिखे बल्कि लोगों को पढ़ाने के लिए भी लिखे। यह भी खयाल रखना
महत्वपूर्ण है कि लेख का फॉण्ट यूनिकोड या मंगल में हो ताकि हमें प्रकाशन में सुविधा रहे।
कई साथी अंशदान के लिए पूछते रहते हैं, उन्हें
हम बता दे कि यह अंशदान लेख छपने के बाद या वैसे स्वैच्छिक भाव से जमा कर सकते हैं। आपकी भेजी राशि का पूर्ण उपयोग हम लोग साहित्यिक गोष्ठियों ,कविता पाठ ,कलाओं पर करते हैं।. यह
राशि आप 'अपनी माटी' के पते पर चेक द्वारा या सीधे वेबसाइट पर उपलब्ध खाता संख्या
में जमा कर सकते हैं।हमारा आय व्यय विवरण हमेशा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।
इस अंक में विविधता का पूरा ध्यान रखा गया है.
अलग अलग मुद्दों पर बेहतरीन वैचारिक लेख, समीक्षा, कविता, कहानी को आप पढ़ पाएंगे। इस
अंक में साथी सौरभ का योगदान सराहनीय रहा जिन्होंने अपनी शोध की व्यस्तताओं के बावजूद भी कई
तरह से सहयोग दिया।.
अभी हाल में दिवंगत हुए नाटककार मुद्राराक्षस जी, सतीश
जमाली जी, नीलाभ अश्क जी, महाश्वेता देवी जी,चित्रकार हैदर रज़ा साहेब को 'अपनी माटी' की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि।
जितेन्द्र यादव,सम्पादक,अपनी माटी
प्रिय संपादक जी, आप द्वारा लिखी गई संपादीय अत्यन्त सामयिक और उन मुद्दों को तत्परता से उठाई है जिसका एक बुद्दिजीवी सदैव खोज में रहता है। आप विचार जिस प्रकार सामाजिक, धार्मिक और मानवीय चौखट को लांघते हुए तार्किक मानवीय परिणति तक पहुंचाता है, वह अत्यंत सराहनीय और मार्गदर्शीनीय है। इस प्रकार की गंभीर विचार उत्तेजक संपादकीय के लिए कुटिश: धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंbehtar sampadkiy likhe ho bandhu...............
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