चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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आज स्त्री-विमर्श के स्तर
पर नारी चेतना से संपन्न अनेक कहानियाँ और उपन्यास लिखे जा रहे हैं, जिनमें नारी की आत्मा, स्व और अहं ध्वनित है। वास्तव में चेतना का
अर्थ विचारों, अनुभूतियों,
संकल्पों की आनुषंगिक दशा,
स्थिति अथवा क्षमता से
है। उसका संबंध नारी की स्वयं की पहचान या किसी भी स्तर पर विषयगत अनुभवों के
संगठित स्वरूप से होता है। स्त्री-विमर्श और चेतना के विकास का ही परिणाम है कि
नारी आज सामाजिक, राजनीतिक,
आर्थिक, व्यावसायिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में पुरुष के
समान ही नहीं बल्कि पुरुष से आगे बढकर अपनी निःशंक सेवाएँ दे रही है। वैयक्तिक
स्वतन्त्रता के नाम पर स्त्री को बेवकूफ बनाया जाता रहा है। कहीं उसका मातृत्व
छीना जाता है तो कहीं बालिका भ्रूण हत्या कर दी जाती है। तलाक या पुनः विवाह पर
स्त्री शोषण इन्हीं अनुभवगत दौर पर चलती लेखनी जब प्रकाशन मार्ग ढूंढती है तो
सम्पादकों द्वारा स्त्री लेखन ‘चूल्हे चौका ’ का लेखन कहकर खेद
सहित लौटा दिया जाता है। महिला रचनाकारों ने देश-धर्म की तर्ज पर रचनाएँ की तो गाज
उसी पर ही गिरी। लेकिन लेखिकाओं ने हार नहीं मानी। जब से महिला ने हाथ में कलम
थामी तो सामाजिक सरोकारों पर कलात्मकता और ईमानदारी के साथ निडर महिला रचनाकारों
के प्रयास से परिवर्तन आया। उनके लिए अब महिला रूपक न लिंग है न आधी दुनिया। वह
समाज है। एक सतत् परिवर्तनशील समाज! लेखन एक बडा अनुशासन है। महिला लेखन को छोटे
खाने में कैद नहीं किया जा सकता। महिला रचनाकारों ने साहित्य के माध्यम से जन जागरण
की अलख जगाई और कामयाबी से आगे बढ़ रही है । किंतु स्त्री समाज का एक वर्ग ऐसा भी
है जिसकी स्थिति जस की तस बनी हुई है, वह है वेश्या नारी का जीवन-संघर्ष।
चित्रांकन
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हमारे साहित्य, समाज और राष्ट्र में सदा से
स्त्री का उच्च स्थान रहा है। जन्मदायी होने के कारण उसे ‘जननी‘ जीवन भर साथ निभाने के कारण ‘सहयत्रिणी‘ धर्मकार्यों में उसका साथ अनिवार्य होने के
कारण ‘सहधर्मिणी‘
तथा गृह की व्यवस्थापिका
होने के कारण ‘गृहलक्ष्मी‘
विशेषण से विभूषित किया
जाता है। भारत में तो स्त्री को देवी के रूप में स्वीकार किया जाता है। पत्नी को
पति की अर्धांगिनी माना जाता है। महाभारत में कहा गया है-‘‘न गृहं गृहं गृहिणी गृहमुच्यते‘‘ अर्थात ईंट और मिट्टी की दीवारों से बना घर घर
नहीं होता। वास्तविक घर तो उस घर की अधिष्ठात्री गृहिणी ही होती है।स्त्री को एक
ओर जहाँ सरस्वती अर्थात विद्या की देवी कहा जाता है तो वहीं दूसरी ओर उसे लक्ष्मी
अर्थात धन का प्रतीक भी माना जाता है। मनुस्मृति में कहा गया है-‘‘यत्र नार्यस्तु पूजयंते रमंते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूजयंते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।‘‘1 अर्थात जिस कुल (स्थान) की स्त्रियाँ सम्मानित
होती हैं वहाँ ईश्वर की विशेष कृपा होती है। जहाँ उनका सम्मान नहीं होता ईश्वर भी
उन लोगों से अप्रसन्न होता है। किंतु वर्तमान समय में स्थिति विपरीत दिखाई पड़ती
है।
हिंदी के लोकप्रिय कवि मैथिली शरण गुप्त
इस संदर्भ में लिखते हैं-‘‘दो-दो कौर अन्न पा लेगी, और धोतियाँ चार, नारी, तेरा मूल्य यही तो रखता है संसार।‘‘2 भारतीय सांस्कृतिक मंच पर लोक-संस्कृति की
अधिष्ठात्री नारी देवी, माता, भगिनी, अर्धांगिनी जैसे संबोधनों से सुशोभित होने पर
भी सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में प्रायः कुत्सा का शिकार ही बनी रही, तथा समस्त सामाजिक विसंगतियों का कारण मानी
जाती रही। आधुनिक युग में नारी का उत्तरदायित्व बढ़ गया, शिक्षा के फलस्वरूप जीवन के विविध आयामों के
संदर्भ में नए प्रश्नों से उसका सामना होने लगा। परिणामस्वरूप विवश होकर उसे
प्राचीन मूल्यों, परंपराओं तथा
मान्यताओं की सीमाओं का अतिक्रमण करना पड़ा। पुरूष की स्वार्थी प्रवृत्ति ने कभी
उसके साथ छल किया तो कभी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का सामना करने हेतु निराश्रित
अकेला छोड़ दिया। सामाजिक-आर्थिक समस्याओं ने एक नए नारी वर्ग को जन्म दिया जिसे ‘वेश्या‘ कहा गया। वेश्यावृत्ति मूलतः सामंतशाही तथा
पूंजीवादी समाज की देन है। जहाँ पुरूष शासक तथा नारी शासिता है। स्त्री तथा पुरूष
के लिए भिन्न-भिन्न सामाजिक नियम हैं। जो कार्य पुरूष के लिए क्षम्य है, वही नारी के लिए वर्जित है। पुरूष का अनैतिक
आचरण देखकर भी अनदेखा कर दिया जाता है। सच्चरित्र नारी का एक रात्रि को भी बाहर
रूकना अक्षम्य अपराध माना जाता है। नारी को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरूष के आश्रय में रहना पड़ता है, चाहें वह कितना ही पाखण्डी, लोभी, कायर, स्वार्थी क्यों न हो। जब नारी किसी कारणवश पुरूष की छत्रछाया से भटक जाती है
तो वेश्या बन जाती है। वेश्या नारी समाज का एक ऐसा अंग है जिसे समाज अपना मानने से
हिचकिचाता रहा है। नारी की भूमिका सामाजिक होते हुए भी सामाजिक संबंधों के सामान्य
चौखटे में नहीं आ पाती। विडंबना यह है कि वेश्या नारी एक प्रकार से अपने नारी समाज
से कटकर रह जाती है और उसकी भूमिका असामाजिक बन जाती है।
नारी के वेश्या बनने के कारणों में प्रमुख
कारण है आर्थिक संघर्ष। नए कहानीकारों ने भौतिक मूल्यों को सर्वग्राही तथा
विध्वंसक मानते हुए भूख तथा सेक्स संबंधी जो कहानियाँ लिखी हैं, उनमें आर्थिक विवशता स्पष्ट रूप से परिलक्षित
होती है। दीप्ति खण्डेलवाल की कहानी ‘भूख‘ में रधिया जब बीमार पति तथा छोटे-छोटे बच्चों के लिए दूध-रोटी का जुगाड़ नहीं
कर पाती तो विवश होकर ड्राइवर के हाथों दस रूपए में बिक जाती है। रधिया के मानसिक
द्वंद्व का चित्रण इस प्रकार हुआ है-क्या कहा था उस मुएं डिरेवर ने? ‘‘एक रात के पूरे दस रूपए देगा। ‘‘दस रूपए....खिचड़ी-सबके लिए खिचड़ी, दस रूपए में पंद्रह दिन कट जाएंगे। बिरजू अच्छा
हो जाएगा। रामू शामू जी जाएंगे, कटोरी किलकने लगेगी और वह स्वयं....? लेकिन पेट में धधकती आग के आगे रधिया को कुछ और सोचने का
होश नहीं था। यह आग सभी के पेट में धधक रही होगी, बिरजू के, रामू शामू के, नन्ही कटोरी के-‘‘हे देवी क्षिमा करना‘‘3
यशपाल की कहानी ‘आबरू‘ की घर से भागी हुई नारी जब रोजी-रोटी का कोई हल नहीं ढूढ़
सकती तो शरीर बेंचने को बाध्य हो उठती है। ‘‘हम लोग क्या करें? इस बदन के सिवाय हमारे पास है क्या.?‘‘4‘आदमी या पैसा‘ कहानी में यशपाल ने ऐसी नारी की अभ्यस्तता
चित्रित की है जो इस पेशे को मात्र पेट की मजबूरी के संदर्भ से जुड़ा हुआ मानती है।
‘‘टके से ही संतोष होता है
बाबू, पेट भरना है तो
टका चाहिए, टके के लिए करती हूँ
...।‘‘5 ग्राहक के पूछने
पर कि क्या वह इस पेशे से संतुष्ट है, बड़े दार्शनिक ढंग से उत्तर देती है-‘‘बाबू, क्या सब लोग संतुष्ट ही हैं? मनचाहा ही काम करते हैं? पेट बहुत कुछ कराता है, बाबू और सौ काम यह भी एक काम है। पालने वाला
कोई एक न हुआ, दस बीस के ही
सहारे जिंदगी काट रही हूँ। दस बुरा कहते हैं, तो दस को अच्छी लगती हूँ।...चोर बाजार करने
वाले को सब गाली देते हैं, तो क्या कोई अपना धंधा छोड़ देता है। मैं कौन अनोखी बात करती हूँ।‘‘6 इसी प्रकार कमलेश्वर की कहानी ‘मांस का दरिया‘ तथा श्रीकान्त
वर्मा की ‘शवयात्रा‘
अभ्यस्त वेश्या नारी की
कहानियाँ हैं। प्रभाकर द्विवेदी की ‘तीन वैश्याएं‘ में उस नारी तथा समाज का चित्रण है जहाँ खुद लोग अबला जानकर
नारी को पथभ्रष्ट करते हैं और बाद में ‘रंडी‘ संबोधन प्रदान करते हैं। महानगरीय वातावरण में वेश्यावृत्ति के अड्डे वेश्याओं
के घरों के अतिरिक्त होटलों, क्लबों, नृत्यघरों तथा अन्य सुरक्षित स्थानों पर होते
हैं। संपन्न घरानों में पहले लोग जिस प्रकार ‘कोठों‘ या ‘वेश्यालयों‘ पर मुजरा देखने जाते थे अब नाचघरों में ‘कैबरे‘ देखने जाते हैं और पसंद आने पर गुप्त रूप से सौदा कर लेते
हैं। महानगरीय अड्डेनुमा वेश्यावृत्ति का चित्रण प्रियदर्शी प्रकाश की ‘वर्किंग गल्र्स‘ कहानी तथा राजेन्द्र अवस्थी की कहानी ‘लावारिश लाशें‘ में मिलता है, जहाँ लड़कियाँ मात्र मौज के लिए धंधा करती हैं-‘‘मैं यहाँ मात्र पैसे कमाने के लिए नहीं आती,
मैं तो मौज के लिए
कभी-कभी आती हूँ। जगह शाही और सुरक्षित है। ऐसे वैसे लोग यहाँ पहुँचते ही नहीं।‘‘
गोविन्द मिश्र की कहानी ‘अव्यवस्थित‘ भी वेश्यावृत्ति को लेकर लिखी गई है। होटलों,
क्लबों तथा रेस्तरां में
होने वाली वेश्यावृत्ति के अतिरिक्त हिंदी कहानीकारों ने उस वेश्यावृत्ति को भी
चित्रित किया है जो सामान्य घरेलू औरत के रूप में वेश्या का पेशा करती है। इस
संदर्भ में दूधनाथ सिंह की कहानी ‘सब ठीक हो जाएगा‘ उल्लेखनीय है। कहानी की नायिका मिसेज मित्रा ‘कालगर्ल‘ के रूप में बाहर ही धंधा करती थी पर आवश्यकता
पड़ने पर ग्राहकों को घर भी लाने लगी। ग्राहक मिसेज मित्रा के साथ कमरे मे होता तो
मिसेज मित्रा का पति बाहर।7 महानगरीय एवं नगरीय वातावरण की अपेक्षा कस्बाई वेश्यावृत्ति की कहानियाँ कम
ही लिखी गईं। जो कहानियाँ मिलती हैं उनमें चित्रित नारियाँ परंपरागत ढंग से वेश्या
का पेशा करने वाली हैं। ‘भंवरे की जात‘ कहानी की चिणकुली तथा उसकी बेटी कुंतली परंपरागत वेश्याएं हैं जो इसी पेशे के
आधार पर अपना जीवन गुजर बसर कर रही हैं। स्वतंत्रता पूर्व चिणकुली को किसी प्रकार
का आर्थिक संकट न था, फौजियों का आना
जाना बना रहता था, अब पूरा धंधा
करके भी घर की हालत नहीं सुधरती-‘‘अरे, उस शाही जमाने
में जितना पैसा मैं ‘मेरी जान‘
कहकर, कमर पर हाथ रखने वालों से वसूल कर लेती थी,
उतना आज मेरी बेटी पूरा
पेशा करके भी नहीं कमा पाती है।‘‘8
वेश्यावृत्ति का पेशा अपनाने के लिए कस्बों
तथा गाँवों से धोखे से भोली-भाली लड़कियों को उठवाकर ‘कोठों‘ पर बिठा दिया जाता है जहाँ वह उम्र भर के लिए वेश्या बनी
रहती हैं-‘‘अरे क्या होगा।
दस बरस की लौंडिया को कोठरी में बिठा दिया, लोग छोड़ेंगे थोड़े ही उसे। कल तो आई है हजार
में।‘‘9‘‘ऐसी ही भोली-भाली
युवती निरंतर कुछ वर्ष वेश्यालय में गुजारने पर इस कदर अभ्यस्त हो जाती है कि
ग्राहकों से लड़-झगड़ कर दाम वसूल करती है।‘’10 इस प्रकार वेश्यावृत्ति की भावभूमि से परिचित होकर कहा जा सकता है कि इस सारी
स्थिति के लिए एकमात्र वेश्या ही नहीं, सारा समाज जिम्मेदार है। निस्संदेह बदली हुई मनःस्थिति के
कारण एक नारी वर्ग ऐसा है जो स्वेच्छा से इस ओर प्रवृत्त होता है। वेश्या नारी की
कुचेष्टाएं तो बाहृय व्यवहार मात्र हैं जो उसे आर्थिक और सामाजिक संघर्ष के कारण
अपनानी पड़ती है। एक वेश्या नारी के हृदय में भी सदगृहणी के भाव होते हैं। परंतु
सामाजिक व्यवस्था उसे इस स्थिति से उभरने ही नहीं देती । सुरेन्द्र अरोड़ा की कहानी
‘आबनूस‘ में एक वेश्या का कथन उसकी दमित संवेदना को
चित्रित करता है-‘‘तुमने क्या समझ
रखा है मुझे। एक बाजारू औरत। हाँ बाजारू हूँ, पर बाजारू औरत के मन में भी कभी ऐसी हूक उठती
है कि उसका कोई हो, कोई अपना जिसे वह
बहुत निकट से महसूस कर सके।‘‘11
यशपाल ने रोटी और सेक्स की समस्या को अनेक
कहानियों में निरूपित किया है। किस प्रकार पूंजीवादी सामाजिक विधान में नारी को
अपनी इज्जत-आबरू का सौदा करना पड़ता है। यशपाल के अनुसार गृहस्थ नारी वेश्या से भी
बद्तर है। ‘दुखी-दुखी‘
कहानी में यशपाल वेश्या
के प्रति सहानुभूति एवं करूणा प्रकट करते हैं, और समाज को इस तथ्य से अवगत कराना चाहते हैं कि
उनका यह अनैतिक कर्म परिवेश के कारण अनैतिक नहीं रह जाता-‘‘वह जो अपने शरीर का सौदा करने बैठी थी, न जाने क्यों मुझे उसके प्रति जरा भी ग्लानि न
हुई। कह नहीं सकता, मेरा विवेक मर
गया था, या स्वयं मेरे
अपने पेट की आग उसकी ओर से सफाई दे रही थी। उस समय एक रोटी के लिए मैं क्या कुछ
करने को तैयार न हो जाता, यह आज नहीं कह सकता।‘’12 वेश्या नारी का दूसरा रूप ‘हलाल का टुकड़ा‘ कहानी में है, जहाँ फुलिया वेश्या होकर भी धर्म को पहचानती
है। ईमानदारी से सौदा करती है। दो रूपए की खातिर अपना शरीर बेंचने वाली फुलिया
कांग्रेस नेता रावत के दो हजार रूपए ठुकरा देती है-‘‘वाह रे, हम कोई पीर-फकीर हैं क्या? जो हाथ फैलाकर खैरात की खिदमत करेंगे तो हलाल
के टुकड़े पर हमारा हक होगा। ऐसे गए गुजरे थोड़े ही हैं कि भीख माँग लें।‘‘13 यद्यपि वेश्यावृत्ति पर स्वतंत्रता पूर्व के
कथाकारों ने भी लिखा किंतु उनकी दृष्टि स्वातंत्र्योत्तर लेखकों से भिन्न दिखाई
देती है। मुख्य रूप से वे इनकी सामाजिक समस्याओं का चित्रण मार्मिक रूप से तो करते
हैं तथा देवदासी प्रथा को वेश्यावृत्ति का मूल कारण मानते हैं। उनका दृष्टिकोण इस
रूप में भिन्न है कि वे वेश्या वर्ग के प्रति अपनी करूण संवेदना व्यक्त करते हुए
वेश्या नारी को हेय समझते हैं तथा घृणा की दृष्टि से देखते हैं।
हिंदी कहानी में जो नारी की भूमिकाएं अंकित की
गई हैं, उनसे कहानीकारों के सजग दृष्टिकोण का पता चलता है। आज नारी इतनी बदल चुकी है
कि वह परंपरागत मूल्यों को नकारने तथा सामाजिक आग्रहों को तोड़ने को प्रयासरत है।
हिंदी कहानियों में चर्चित कुछ नारियां अपने में ‘व्यक्ति‘ हो सकती हैं, नारी जीवन की प्रतिनिधि नहीं कही जा सकतीं।
नारी को केवल उपभोक्तावादी दष्टि से देखना सर्वथा अनुचित है। स्वातंत्र्योत्तर कहानीकारों ने वेश्यानारी या
वेश्यावृत्ति पर खुलकर लिखा है। वे इस वर्ग के साथ संवेदना के स्तर पर साथ खड़े
दिखाई देते हैं। इनके समर्थन में खुलकर आवाज उठाते हैं। यद्यपि ये कहानीकार भी
वेश्या समाज को मुख्य धारा से जोड़ने का कोई ठोस आधार, सुझाव या समाधान देने में संकोच करते दिखाई
देते हैं। आज आवश्यकता कोरी नारेबाजी से अधिक जमीनी स्तर पर कुछ ठोस कर्म करने की
अधिक है। जब तक इन नारियों को अनैतिक, कुल्टा, रण्डी शब्दों तक ही सीमित रखा जाएगा, तब तक इनको सामान्य महिला के रूप में स्वीकृति मिलना कठिन
है। समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ सामान्यजन को भी इन अभागी स्त्रियों को समाज
की मुख्य धारा में लाने का प्रयास करना होगा। छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा ने
कहा था कि नारी केवल मांस पिण्ड नहीं है। अतः वेश्या नारी की अस्मिता को भी केवल
मांस पिण्ड के दायरे में न रखकर समाज की अन्य सामान्य स्त्रियों की तरह जीवन-यापन
के लिए अधिक अवसर देने की आवश्यकता है। इनको भी स्त्री-विमर्श के केन्द्र में लाने
की जरूरत है, तभी
स्त्री-विमर्श सार्थक होगा। अतः कहा जा सकता है तलाक, दहेज समस्या तथा वेश्यावृत्ति नारी जीवन के
विभिन्न पहलू हैं तथा नारी की सामाजिक भूमिका में फिट न होने पर भी इन्हें अनदेखा
नहीं किया जा सकता।
1-मनुस्मृति:
प्रकाश-भाषा-टीका संहिता, टीकाकार श्रीगणेश दत्त पाठक, प्रकाशक,:
श्री ठाकुर प्रसाद पुस्तक भण्डार, वाराणसी, सन्-2002 ई0, पृष्ठ-15, श्लोक-56
श्री ठाकुर प्रसाद पुस्तक भण्डार, वाराणसी, सन्-2002 ई0, पृष्ठ-15, श्लोक-56
2-मैथिलीशरणगुप्त,
विष्णुप्रिया, साहित्य सदन, झंासी, संस्करण संवत 2022,पृष्ठ-66
3-दीप्ति खण्डेलवाल,
‘भूख‘ (‘वह तीसरा‘) राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1976,पृष्ठ-91
4-यशपाल, ‘आबरू‘, (‘तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ‘) विप्लव प्रकाशन लखनऊ, द्वितीय संस्करण 1959, पृष्ठ-97
5-यशपाल ‘आदमी या पैसा‘, (‘चित्र का शीर्षक‘) विप्लव प्रकाशन लखनऊ प्रथम संस्करण
1952,पृष्ठ-26
6-वही, पृष्ठ-2
7-दूधनाथ सिंह,
‘सब ठीक हो जाएगा‘,
(‘सपाट चेहरे वाला आदती‘)अक्षर प्रकाशन दिल्ली,
प्रथम संस्करण 1967 पृष्ठ-55
8-शैलेश मटियानी,
‘भंवरे की जात‘, (‘दूसरों के लिए‘) प्रतिभा प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण
1973, पृष्ठ-23
9-भीष्म साहनी,
‘अभी तो मैं जवान हूँ‘,
(‘पटरियाँ‘) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1973, पृष्ठ-95
10-वही, पृष्ठ-97
11-सुरेन्द्र अरोड़ा,
‘आबनूस‘, (‘आबनूस‘) सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1974,पृष्ठ-84
12-यशपाल ‘दुखी-दुखी‘, (‘पिंजरे की उड़ान‘) विप्लव
प्रकाशन लखनऊ, संस्करण 1963पृष्ठ-66
13-यशपाल ‘हलाल का टुकड़ा‘ (‘ज्ञानदान‘) विप्लव
प्रकाशन लखनऊ, संस्करण 1963
पृष्ठ-102
सालिम मियाँ
शोधार्थी,हिंदी विभाग,ए.एम.यू, अलीगढ़,संपर्क सूत्र:-07417007056
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