चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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लोकतंत्र की विडम्बना और हिन्दी कहानी/अभिषेक कुमार गौड़
(आपातकाल के विशेष संदर्भ में)
“कोई भी संवेदनशील लेखक अपने समय की, अपनी परिस्थितियों की और अपने हालात की उपेक्षा करके नहीं जी सकता। वह चाहे कवि हो या गद्यकार, अपने समय का साक्ष्य देने के लिए अविकल है।”1
दुष्यन्त कुमार
की ये पंक्तियां साहित्य के लोकतंत्र की ही व्याख्या करती है। एक लेखक का लोकतंत्र
उसकी साहित्यिक ईमानदारी से जुड़ा होता है। समय के सच की पहचान तथा उसे अभिव्यक्ति
प्रदान करना ही एक लेखक की नैतिक जिम्मेदारी है। जिस समाज में वह जी रहा है; उसमें
हो रहे परिवर्तन, संघर्ष तथा नवाचार को एक दिशा देने का कार्य
साहित्य का रहा है। जब भी शीर्ष पर संकट आया है तो आशाभरी निगाहें साहित्यकार की
ओर उठती है। ये अपेक्षाएं सिर्फ अभिव्यक्ति ही नहीं चाहती बल्कि एक विकल्प की भी
चाह रखती हैं। इन अर्थों में साहित्य का लोकतंत्र समाज के प्रति उसकी उपादेयता तथा
सीमाओं की व्याख्या करता है।
विश्व इतिहास पर
नज़र डालें तो संकट के समय साहित्य का प्रतिरोध उल्लेखनीय रहा है। विश्व की
महत्त्वपूर्ण क्रांतियों तथा व्यवस्था परिवर्तन में साहित्य आगे-आगे चला है।
फ्रांस की क्रांति (1789), इंग्लैण्ड की क्रांति (1868), जैसे
उदाहरण हमारे सम्मुख हैं। साहित्य का लोकतंत्र इन अर्थों में अलग है कि वह संकट के
आने से पहले ही भविष्यवाणी करता है, साथ ही संकट के समय अपना मुखर विरोध दर्ज़ करवाता
है। लेखकीय लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए रघुवीर सहाय उसके प्रतिरोध की तीव्रता
को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-
“लोकतंत्र में बोलने की आजादी ही एक विषय नहीं है।
उस हद तक जीने की आजादी चाहिए जिस हद तक सरकारों को कवि की बोली अन्याय के संगठित
साम्राज्य के विरोध में बर्दाश्त करना असंभव हो जाए।”2
साहित्य का यह
स्वभाव रहा है कि जहाँ भी मनुष्यता पर संकट आया; इसने अपना प्रतिरोध दर्ज़ करवाया। प्रतिरोध की
गुंजाइश ही लोकतंत्र को अन्य व्यवस्थाओं से बेहतर बनाती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था
में साहित्य की भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र में
साहित्य का कार्य मनुष्य में स्वतंत्रता की समझ तथा दायित्वबोध विकसित करना है।
भारत में
लोकतंत्र अपने वर्तमान स्वरूप के साथ 15 अगस्त 1947 से विकसित हुआ। लोकतंत्र की
विश्वसनीयता के लिए भारत का संविधान निर्मित हुआ। इस प्रकार मनुष्य की निजता, शुचिता
तथा विकास सुनिश्चित हुआ। किन्तु जब ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो जाती हैं; जहाँ
लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है, वहाँ साहित्य आगे बढ़कर दायित्व उठाता है। अगर
समाज लोकतंत्र की कसौटी है तो लोकतंत्र की कसौटी साहित्य है। अतः समाज और देश के
पक्ष में लोकतंत्र को बचाने की चुनौती साहित्य की है। साहित्य के हवाले से
दुष्यन्त कुमार स्पष्ट करते हैं कि-
“इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और
या इसमें रोशनी
का करो इंतजाम और”3
रोशनी की ऐसी ही
आवश्यकता पड़ी जब 25 जून 1975 को भारत में आपातकाल लागू कर दिया गया। साहित्य की
ईमानदारी एवं नैतिकता के लिए यह चुनौती भरा समय था। वक्त का तकाज़ा यह था कि लेखक
आगे बढ़कर साहित्य के पक्ष से अपना प्रतिरोध प्रकट करें। आम आदमी के साथ हुई
दुर्घटना पर, उन्हें
बचाने का मूल दायित्व इनका था। साहित्य की विभिन्न विधाओं के स्वर इस घटना पर कैसे
थे? ये
महत्त्वपूर्ण प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।
साहित्य की ‘कहानी’ विधा ने
इस दुर्घटना को कैसे जाँचा परखा और प्रश्न उठाया यह महत्त्वपूर्ण है। इस बात का
मूल्याँकन जरूरी है कि कहानी में आपातकाल किस तरह का है। इस विधा में आपातकाल ‘विषय’ के रूप
में आया है या ‘स्वानुभूति’ के रूप
में। कहानी विधा ने आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी निभाई थी, अथवा
दूर से ही उसके ताप को महसूस किया। एक लेखक का कर्तव्य था इस अमानवीय घटना का
पुरजोर विरोध; जिससे
लोकतंत्र की रक्षा की जा सके। साहित्य का लोकतंत्र ‘करुणा’ प्रकट करना नहीं था बल्कि उसका स्तर होना चाहिये
था ‘अधिनायकत्व
का प्रतिकार’।
रघुवीर सहाय के शब्दों में समझे तो – “निरी करुणा भी सच्ची मानवीयता नहीं हो सकती।
करुणा में अन्याय के प्रतिकार का बोध होना चाहिए। तभी उसका और मानव जीवन का कोई
ऐतिहासिक अर्थ होता है।”4
आपातकाल पर कहानी
के इसी ऐतिहासिक अर्थ तथा उसकी अनिवार्यता का मूल्यांकन कई कहानीकारों ने किया है।
आपातकाल की समूची पृष्ठभूमि को कहानी के जरिये समझने वाले प्रमुख लेखकों में पंकज
विष्ट (कवायद 1976, खोखल (1976), विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (डायरी, 77), प्रदीप
पंत (आम आदमी का शव, 1975), मृदुला सिन्हा (जब-जब होहि धरम की हानी), हिमांशु
जोशी (जलते हुए डेने 75, यह सब असंभव है, समुद्र और सूर्य के बीच), तथा
दीप्ति खण्डेलवाल (एक और कब्र, 75) प्रमुख हैं। कहानियों के माध्यम से लेखकों ने
समय के सच को ही नहीं परखा बल्कि इसकी पूर्व घोषणा भी कर दी थी। यह इन लेखकों की
साहित्यिक ईमानदारी का ही एक सबूत था।
यह कौतूहल का
विषय रहा है कि आपातकाल अचानक से हुई दुर्घटना थी या इसका ढाँचा पहले ही तैयार हो
चुका था। 1969 में चार राज्यों के सत्ता के प्रश्न नें काँग्रेस का दो धड़ों में
विभाजन कर दिया। जिसमें से एक धड़ा इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस (आई) के
नाम से जाना गया। इस पार्टी पर श्रीमती गाँधी का प्रभाव ऐसा था कि इसे ‘इन्दिरा
काँग्रेस’ भी कहा
जाने लगा। इस प्रकार शक्ति का ‘केन्द्रीकरण’ हुआ और इन्दिरा गाँधी की महत्वाकाँक्षा को पर
लगे। इतिहासकार बिपिन चन्द्र इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम के निहितार्थ को व्यक्त
करते हुए लिखते हैं- “इन्दिरा गाँधी अब नई पार्टी और सरकार दोनों की
निर्विघ्न नेता हो चुकी थी। शीघ्र ही यह नई पार्टी असली काँग्रेस बन गई। श्रीमती
गाँधी को मध्यम वर्ग और गरीब दोनों प्रकार की विशाल जनता एवं बुद्धिजीवियों के एक
बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त था। सच्चाई तो यह कि श्रीमती गाँधी की राजनीतिक
शक्ति उससे कहीं ज्यादा बढ़-चढ़ गई थी, जिसका उनके पिता ने कभी उपयोग किया था।”5
इस बढ़ी हुई
शक्ति के बावजूद इन्दिरा गाँधी का राजनीतिक भविष्य बहुत असुरक्षित था। एक ओर जहाँ
पार्टी का ही एक धड़ा उनके विरोध में खड़ा था; वहीं दूसरी ओर ‘मध्यम’ एवं ‘गरीब’ वर्ग की जनता अपनी आकाँक्षा, अपेक्षा
एवं सपनों का भारी बोझ लिए खड़ी थी। ये वही सपने थे जो आजादी के बाद बुने गये थे।6
इसी सपने को मृदुला सिन्हा की कहानी का पात्र हरिपद अपनी पत्नी के साथ देखता है।
तो दूसरी ओर हिमांशु जोशी, दीप्ति खण्डेलवाल की कहानियाँ भी आम आदमी के
सपनों को पाठकों से साक्षात्कार करते हैं।7
इन तमाम विरोधी
एवं सपनों से निपटने के लिए सरकार के पास किसी निश्चित योजना का अभाव था। इस अभाव
में श्रीमती गाँधी ने उग्र फैसले लेने शुरू कर दिये। सत्ता की चाह ने उनके अंदर
असुरक्षा की भावना को गहरे स्तर पर पनपने दिया। इसे और बल दिया इलाहाबाद हाइकोर्ट
के उस फैसले ने जिसने इनका निर्वाचन ही रद्द कर दिया। इस फैसले की प्रतिक्रिया
श्रीमती गाँधी ने आपातकाल के रूप में दी। इस अदूरदर्शिता ने देश को अराजकता की आग
में झोंक दिया। देश एक अंजाने भय से भर उठा। इस भय की अभिव्यक्ति पूरी ईमानदारी के
साथ पंकज विष्ट8, मृदुला सिन्हा,9 हिमांशु जोशी10, दीप्ति खण्डेलवाल11 जैसे लेखक, करते
नजर आते हैं।
आपातकाल ने जनता
के भरोसे को कैसे तोड़ दिया; इस बात की पड़ताल इन कहानियों में हुई है। यह
भरोसा 1947 में जनता और नेता ने एक दूसरे पर किया था। इसी भरोसे के बल पर अंग्रेजी
शासन का विरोध कंधे से कंधा मिलाकर किया गया था। गाँधीवादी विचारधारा ने आम आदमी
की बेहतरी के सपने देखे थे। पर गाँधीवाद से इत्तेफाक न रखने वाले लोगों ने ’सफेद
टोपी‘ के नीचे
दिये अपने निजी सपने देखे जो कि सत्ता का सपना था। और इस सपने का अर्थ था जनता
की-बदतर जिंदगी। आपातकाल की घटना ने इस सच को सिद्ध कर दिया। गाँधीवादी मूल्य
बिखरे पड़े थे12, सत्ता का नया सिद्धांत सामने आया13, जो
तानाशाही पर आधारित था।14
देश की जनता
स्वप्नलोक से दैत्यलोक में पहुंच गई। देश इमरजेंसी के नाखूनों में कब कैद हो गया
जनता को इसका पता ही नहीं चला। पूरा देश स्तब्ध नजर आ रहा था। श्रीमती गाँधी की हर
हाल में पद पर बने रहने की लालसा ने देश को अंग्रेजी शासन की याद दिला दी।15 जो
बाते इतिहास समझ कर भूली जा चुकी थी वे एक बार फिर इतिहास में दर्ज़ होने के लिए
सामने खड़ी थी। आपातकाल की ये कहानियाँ अंग्रेजी शासन की याद दिला रही थी।16
वास्तव में कहानियों में समय की सच्चाई बयां हुई है। सत्ता की निरंकुशता अब भी
कायम थी। आज आदमी पर हो रहे अत्याचार इसका सबूत है।17
आम आदमी की
मजबूरी का बड़ी चालाकी से सत्ता ने फायदा उठाया। भुखमरी, अकाल, बेरोजगारी
जैसे मुद्दों से जूझ रही जनता भ्रष्टाचार से भी दो-चार हो रही थी। जीवन जीने की
विकट चुनौती प्रत्यक्ष थी। शासन तंत्र ने इस बात पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किये
बिना ही बीस सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इन्हीं में से एक ‘परिवार
नियोजन’ की
योजना थी जिसे अमानवीय तरीके से लागू किया गया। इस योजना के सच पर ‘जब-जब
होहिं धरम की हानी’, ‘कवायद’ जैसी कहानियों ने अपना सार्थक वक्तव्य दिया है।
पचास वर्ष की उम्र में मास्टर साहब की नसबंदी18 (जब-जब होहिं धरम की हानी) हो या
भूख और थकान से बेहाल नौजवान की इलाज के नाम पर नसबंदी19 (कवायद) कर देना इस पूरी
योजना का यथार्थ प्रस्तुत करते हैं। सत्ता के दबाव ने सरकारी कर्मचारियों को
अत्याचार की खुली छूट दे दी थी। योजना की सफलता के लिए आम आदमी पर जुल्मों की बाढ़
सी आ गई। अपने निजी स्वार्थ के लिए इस अत्याचारी यज्ञ में बढ़-चढ़ का आहुतियाँ
डाली गई। जनता की आहें साहित्य के पन्ने पर आज भी सिसकी लेती नजर आती हैं।20
अव्यवस्था का यह आलम था कि आम आदमी बाहर से अराजकता का शिकार हुआ तो अंदर से भी
अराजक होता जा रहा था।21 इस अराजक समय को कहानियों ने अपने ढंग से समझा और उसे
समस्या के रूप में प्रस्तुत किया। कहानियाँ उस समय का हिस्सा नजर आती हैं जब देश
बारूद के ढेर पर बैठा नजर आता था।22
आपातकाल पर लिखी गई ये कहानियाँ पूरे विवेक के
साथ आपातकाल को रेखांकित करती हैं। समय के सच को पूरी जीवटता के साथ प्रस्तुत करने
वाला चैथा स्तम्भ पंगु बन गया था। सच छापने पर प्रतिबन्ध लग गया था।23 कभी इन्कलाब
की अलख जगाने में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अखबार अब ‘गूंगी
गुडि़या’ बने
थे।24 अब सच लिखने पर प्रतिबंध लग गया था। सेंसरशिप के कड़े पहरे ने अखबारों के
साथ ही ‘सच’ को भी
कैद कर दिया था। अखबार वहीं भाषा बोलते जो सत्ता उन्हें बोलने के लिए कहती थी।25
समाज के प्रति उत्तरदायी मीडिया अब सत्ता के तलवे सहला रहा था। जब समाज को बचाने वाले ही उसके दुश्मन हो जायें
तो आम आदमी की क्या बिसात। देश को उन लोगों से खतरा महसूस किया जाने लगा जो सीधे
सादे लोग थे। जो भूख से पीडि़त थे, भले थे, बीमार थे26 जिन्होंने स्वतंत्रता का सपना देखा
था। या फिर वे लोग सरकार का तख्ता पलट सकते थे जो शरीफ कहे जाते थे जिनके पास कोई
आपत्तिजनक सामग्री नहीं थी पर वे सरकार के लिए खतरा पैदा कर सकते थे।27 ऐसे लोगों
को पकड़-पकड़ कर जेलों में ठूंस दिया गया। पशुओं के बाड़े की तरह लोग जेल में कैद
किए गये थे। हिमांषु जोशी अपनी कहानी ‘जलते हुए डैने’ में इस सच का जीवंत वर्णन करते हैं।
“लोग कहते हैं, दूर किसी अन्धी जेल में शिव’दा को
ठूंस दिया है, जहाँ
ऐसे हजारों कैदी हैं, जो पशुओं से भी बदतर जी रहे हैं। जानवरों के
बाड़े की तरह औरतों को रखा गया है। तन ढकने के लिए पूरे वस्त्र तक नहीं। औरतों के
पूरे वार्ड में केवल एक धोती। कभी बाहर से किसी का कोई रिश्तेदार मिलने आता है, तब वही
धोती वह अपने तन पर लपेट लेती है। और वापस आकर उसी को फिर खूंटी पर टाँग देती है”28 यह
पूरा सच कहानियों में बिखरा पड़ा है। यह उस देश का सच था जो 20 वर्ष पहले ही आजाद
हुआ था। लोकतंत्र ने इस देश में अभी आँखे ही खोली थी कि दुर्घटना का शिकार हो गया।
आजादी के पहले के शोषण को लोगों ने जब्त कर लिया था। उन्होंने तब माना था कि वे
पराधीन है। पर अब अपने ही लोगों में ‘बेगानापन’ हावी हो गया था। ‘जलते हुए डैने’ कहानी में लेखक ने इसे महसूस किया है और कहा है-
“अपना ही देश
अपने ही लोग
जगह-जगह फटी हुई
धरती,
लाशों को नोचते
हुए गिद्ध और सियार।”29
समय एवं समाज के
परिवर्तनों को समझना एवं उसे दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य साहित्य का होता है।
साहित्य के दिखाये रास्ते पर ही समाज बढ़ता है। समाज पर आये संकट का माकूल जवाब
साहित्य देता है। आपातकाल के सच पर साहित्य का पक्ष आज भी मूल्याँकन का विषय है।
जब समाज को साहित्य की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी, उस समय यह मौन रहा। आपातकाल ने समय को सच को भी
कैद कर दिया था। समय के सच्चे दस्तावेज न लिखे जाये इसके लिए लेखकों को भी निशाना
बनाया गया। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की कहानी ‘डायरी’ आपातकाल पर लेखकों के पक्ष का बयान है। आम आदमी
के साथ ही यह वर्ग भी असुरक्षित था। इसे शंका की निगाह से देखा जा रहा था। पूर्व
की क्रान्तियों में साहित्य की भूमिका को देखते हुए इसे भी प्रतिबंध के दायरे में
ला दिया गया। सच लिखने वाले लेखकों पर ‘डायरी’ कहानी की प्रतिक्रिया समय की सच्ची बानगी
प्रस्तुत करती है।30
साहित्य का कार्य
समाज के सच का उद्घाटन है। समाज में आई शिथिलता को साहित्यकार ऊर्जा प्रदान करते
हैं। किन्तु जब समाज गहरे संकट में फंस जाये तो उस समय साहित्य का कार्य ‘विकल्प’ प्रदान
करना है। आपातकाल के आरंभिक समय में जनता मौन रही। कहीं न कहीं उसे उम्मीद थी कि
शायद इस प्रकार समय के संकट सुलझा लिये जाये।31 या फिर उन्हें आपातकाल का मतलब ही
समझ में नहीं आया। आगे स्थितियाँ ज्यादा जटिल हो गई तो आम आदमी उम्मीद भरी नजरों
से साहित्य की ओर निहारने लगा। साहित्य ने अपने तरीके से इस समस्या के हल दिये।
आलोच्य कहानियों की यह सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने उस पूरे समय की संवेदना
का परखा साथ ही साथ उन्होंने अपने विकल्प भी दिये हैं।
19 महीने के
कालखण्ड के क्रूर यथार्थ के बाद आम चुनाव की घोषणा हुई। इस घोषणा ने आम आदमी को एक
बड़ा हथियार मुहैया कराया। अपनी पूरी पीड़ा, यंत्रणा, सपनों को जनता ने सरकार के सीने में मतपत्र के
मार्फत ठोंक दिया। इसका परिणाम निकला पूरे देश में इंदिरा गाँधी की भारी पराजय। आम
आदमी के इस प्रतिकार का जायजा मृदुला सिन्हा ने इन शब्दों में लिया है- “मतपत्र
और मुहर हांथ में पड़ते ही उस पर टूट पड़ी सुनयना। मानों पिछले अठारह महीने के
जुल्मों का बदला लेने के लिए ऐसे ही कारगर हथियार का इंतजार था उसे। हन-हन के पचासों
वार किये।”32 आम
आदमी के प्रतिरोध का यह सबसे आसान तरीका था। इस तरीके का ही समर्थन कहानियों में
हुआ है। 19 महीने की आपाधापी ने जनता को यह सिखा दिया कि डरकर भागना विकल्प नहीं
है। सत्ता के अमानवीय निर्णय का विरोध जरूरी है यही लोकतंत्र की मजबूती है।
लोकतंत्र के इस सिद्धांत की सार्थकता, पंकज विष्ट की कहानी खोखल सिद्ध करती है।
अधिनायकत्व का प्रतिकार इस कहानी का मूल स्वर
रहा है।33 आम आदमी जब तक शोषण सहता रहेगा वह इसी प्रकार सताया जाता रहेगा।
अपनी शक्तियों को पहचानते ही वह अन्याय के विरूद्ध उठ खड़ा होगा। अभी तक जो आम
आदमी एक ‘जीवित
शव’ था वह
एक तेज पुँज बनकर संघर्ष करेगा। प्रदीप पंत की कहानी का स्वर इसी से मिलता जुलता
है।34
आपातकाल की इन
कहानियों ने समय का जीवन्त दस्तावेज प्रस्तुत किया है। यद्यपि उपन्यास की तुलना
में कहानी में ‘स्पेस’ कम होता
है। किन्तु आपातकाल की गहरी बानगी इनमें प्रस्तुत हुई है। कहानीकारों ने समूचे समय
की संवेदना को समझा जाना एवं अपना विकल्प भी प्रस्तुत किया। यद्यपि पूरा समय अराजक
था किन्तु कहानियाँ पूरे संयम के साथ एक-एक पक्ष का स्पष्ट करते हुए बढ़ी हैं।
आपातकाल को व्यक्त करने की हड़बड़ी इन कहानियों में कहीं नहीं दिखती। पूरी लेखकीय ‘ईमानदारी’, ‘साहस’ एवं ‘धैर्य’ के साथ
इन कहानीकारों ने आपातकालीन समय का सिलसिलेवार ब्यौरा समाज के सामने प्रस्तुत किया
है। साथ ही साथ आपातकाल पर साहित्यिक बिरादरी के मौन रहने के कलंक से भी बरी
करवाया है। जैसा कि ‘डायरी’ कहानी में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने स्वयं
स्वीकार किया है-“जब एक आदमी नंगा होता है, तो वह
अकेला नहीं होता। उसकी पूरी जाति नंगी होती है, उसकी पूरी संस्कृति।”35
कहानियों ने
सिर्फ लोकतंत्र को ही नहीं बल्कि साहित्य के लोकतंत्र को भी बचाया है। यद्यपि यह
लोकतंत्र की विडम्बना थी कि लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति पर पहरे लग गये।
किन्तु यह कहानी विधा की भी ‘विडंबना’ बन जाती अगर उसका प्रतिरोध दर्ज न होता। अतः
प्रस्तुत कहानियों ने लोकतंत्र, समाज के साथ-साथ साहित्य को बचाने का भी
महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आलोचना, असहमति, विरोध के अभाव में साहित्य हो या फिर समाज
लोकतांत्रिक नहीं रह पाता।
संदर्भ ग्रन्थ एवं टिप्पणियाँ (टिप्पणी)
1. दुष्यन्त कुमार
रचनावली भाग-4, सं.
विजय बहादुर सिंह, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2008, पृष्ठ 476-477
2. अर्थात, रघुवीर
सहाय, राजकमल
प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं.
1994, पृ. 7
3. आपातकाल की
प्रतिनिधि कविताएं, संपादक- डाॅ. कमलकिशोर गोयनका, अरुण
कुमार भगत, धारिका
पब्लिकेशन्स, सं.
2007, पृ. 102
4. वे और नहीं होंगे
जो मारे जायेंगे, रघुवीर सहाय, नेशनल पब्लिसिंग हाउस, नयी
दिल्ली, प्रथम
संस्करण, 1983
5. आजादी के बाद का
भारत, विपिन
चंद्र, हिन्दी
माध्यम कार्यालय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, संस्करण
2015, पृष्ठ
317-318
6. “एक रात
को देखे गये सपने दूसरी रात साकार होंगे। और फिर सपना और साकार के मध्य डोलती उसकी
जिंदगी भी कटती जाएगी।” (जब-जब होहि धरम की हानी, मृदुला
सिन्हा) पृष्ठ 108
7. परन्तु तब उसके
पीछे जोश ही नहीं, जिन्दा-दिली थी। मर मिटने की तमन्ना थी। पर अब मन
कहीं लगता नहीं। सब जी रहे हैं, इसलिए हम भी जी रहे हैं। (यह सब असंभव है, हिमांशु
जोशी, पृष्ठ
170)
8. फिर भारत को आजादी
मिली तो वह उबाल एक गर्व में परिणत हो गया, एक स्वतन्त्र देश के स्वतन्त्र नागरिक होने के
गर्व में। किन्तु वह गर्व भी दीर्घजीवी न हो सका। बार-बार उस गर्व की साँस अटकने, घुटने, रुकने
लगी। (एक और कब्र, दीप्ति खण्डेलवाल, पृष्ठ 39)
9. लगातार मेरा पीछा
किया जा रहा है। पीछा करने वाले को मैं अच्छी तरह देख तो नहीं पाया, पर वह
लम्बे चैड़े और भरे बदन का खूँखार सा आदमी प्रतीत होता है। (खोखला, पंकज
विष्ट, पृष्ठ
47)
10. “अचानक
अहिस्ता-अहिस्ता कदम रखता उसके इर्द गिर्द खुली खिड़की-दरवाजों को बंद करता, एक
नन्हा सा भय दैत्याकार रुप धारण कर किधर से, कब, कैसे जा पसरा उसके शहर पर” (जब-जब
होंहि धरम की हानी, पृष्ठ 109)
11.“सड़कों
पर लोग चूहों की तरह भाग रहे हैं। स्कूटर, बसें, कारें-पता नही एकाएक कहां गायब हो गए हैं। (यह सब
असंभव है”, पृष्ठ
170)
12. “उनके
चेहरे पर भय था, बल्कि
कहा जाना चाहिए कि आतंक था। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सेना के जवान बंदूके हाथ में लिए
तैनात थे”। (आम
आदमी का शव, प्रदीप
पंत, पृष्ठ
47)
13.''रात के
अँधियारे में ‘शहीद ‘चौक’ पर ‘शिव’ दा आज
भी बैठे दिखलाई देते हैं। आज भी अकाल-पीडि़तों के लिए भीख माँगते हुए भटकते हैं”। (जलते
हुए डेने, हिमांशु
जोशी, पृष्ठ
184)
14. ऐसे ही तो भागते
फिरते थे हरिपद के नाना गोरों का राज था। गाँधी बाबा के साथ गोरों का जुर्म सहते
रहे। (जब-जब होंहि धरम की हानी, पृष्ठ 111)
15.और इसके साथ है
चारो ओर कुहराम, त्राहि-त्राहि, चीख-पुकार
..... और यह सब आजादी के पच्चीस वर्षों बाद। कैसा चेहरा है पच्चीस वर्षों की इस
तरूण आजादी का, दागों
से भरा, धावों
से रिसता सा। (एक और कब्र, पृष्ठ 40)
16.उसके कंठ स्वर में
मानों वे सारी आंहें समाहित हुई थी, जिन पर साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर जबरदस्ती की गई थी। (जब-जब होंहि धरम
की हानी, पृष्ठ
110)
17. इस भले आदमी का कसूर
क्या है? इसने
ऐसी क्या गलती की है? फिर इस निरपराध को इतनी बड़ी सजा ‘क्यों’ दी जा
रही है.... शिवदास रोगी है- तपेदिक के। डाइबिटीज के।‘‘ (जलते
हुए डेने, 178)
18. मैंने कोई स्वेच्छा
से यह सब किया है क्या? तुम तो घर में रहती हो, बाहर
क्या हो रहा है, तुझे
क्या पता। शिक्षकों, सरकारी कर्मचारियों पर कहर ढाया जा रहा है। नौकरी
करनी है तो सब बर्दाश्त करना होगा। (जब-जब होंहि धरम की हानी, पृष्ठ
109)
19. उसने मुझे दरवाजे
से बाहर कर दिया और कहा, “बेकार का हल्ला मत करो। अब तुम्हे पैंट की कोई
जरूरत नहीं है”।
(कवायद, पृ. 75)
20. उसके कंठ स्वर में
मानों वे सारी आहें समाहित हुई थीं, जिन पर साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर जबरदस्ती की गई थी। (जब-जब होंहि धरम
की हानी, पृष्ठ
111)
21.बाजार में गेहूँ, चीनी, मिट्टी
का तेल, सभी कुछ
गायब है, यानी कि
दिन- प्रतिदिन के जीवन से शांति गायब है। अव्यवस्था के शिकंजे में कसा आदमी
रक्तहीन हुआ जा रहा है, यानी कि आदमी मर रहा है। (एक और कब्र,पृष्ठ
39)
22. ऐसी ही अराजकता
अनिश्चित काल तक बनी रही तो आगे क्या होगा? वह बारूद एक न एक दिन फटने ही वाला है। (समुद्र
और सूर्य के बीच, हिमांशु जोशी, पृष्ठ 103)
23. देखो और सुनो-भर, बोलो
मत। सरकारी आदेश है-छापो मत, पढ़ो मत, बोलो मत। (जब-जब होंहि धरम की हानी, पृष्ठ
110)
24. इन अखबारों से उनका
लंबा नाता रहा है। समय के तेवर, स्थितियों की मानसिकता, आदमी के
बदलते चेहरे-सभी कुछ तो देखते रहे हैं वे इन अखबारों में। कभी वे अखबार ‘इन्कलाब
जिन्दाबाद’ का नारा
लिए होते थे। (एक और कब्र, पृष्ठ 39)
25. इस वर्ष चेचक से
कितने ही लोग मर गये, पर अखबारों में यूं ही लीपा-पोती होती रही।
हजारों लोग मरते, पर सरकारी आँकडे दस बीस से ऊपर न पहुंच पाये।
(जलते हुए डेने, पृष्ठ
182)
26. पुलिस का खाली ट्रक
कस्बे की सीमा से दूर चला गया था। फिर भी सर्वत्र दहशत छायी हुई थी- पता नहीं
पुलिस कब, किसे
पकड़ कर ले जाये। (जलते हुए डेने, पृष्ठ 179)
27. दरअसल कारण तो मुझे
भी नहीं मालूम, बावजूद
इसके मुझे आपके घर की तलाशी लेनी ही होगी। (डायरी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ
70)
28. जलते हुए डेने, हिमांषु
जोशी, कथा
वर्ष 1976, सं.
देवेष ठाकुर, मीनाक्षी
प्रकाशन मेरठ, संस्करण
1977, पृष्ठ
179
29. वही, पृष्ठ
179
30. आप समय का एक सच्चा
दस्तावेज छोड़ जाना चाहते हैं। यही न? मगर क्यों? आप होते कौन है समय का इतिहास लिखने वाले? क्या
आपको मालूम है अगर इस डायरी को प्रमाण मानकर आपके ही विरूद्ध चार्जशीट लगाया जाए।
(डायरी, पृष्ठ
74)
31. जनता के एक विशाल
बहुमत की आरंभिक प्रतिक्रिया, निरपेक्षता, मौन स्वीकृति, सहमति और यहाँ तक की समर्थन की भी थी। (आज़ादी के
बाद का भारत, पृष्ठ
340)
32. जब-जब होंहि धरम की
हानी, मृदुला
सिन्हा, साक्षात्कार
जुलाई 2013, पृष्ठ
109
33. आखिर कब तक यह लुका
छिपी चलेगी? तिल-तिल
कर मरने की सार्थकता? आखिर मैं कहाँ तक भाग सकता हूँ। धीरे-धीरे खड़ा
होता हूँ, कपड़े
झाड़ता हूँ और घर की ओर एक निर्णय के साथ चल पड़ता हूँ। (खोखला, पृष्ठ
52)
34. “दरअसल
शव पूरी तरह से जिंदा हो उठा था और एक जीते जागते सचेत इंसान की तरह हरकत करने लगा
था।” (आम आदमी
का शव, पृष्ठ
51)
35. वागर्थ, सं.
एकान्त श्रीवास्तव, अगस्त 2014, पृष्ठ 71
अभिषेक कुमार गौड़
शोध छात्र, हिन्दी विभाग, डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
(म.प्र)
संपर्क सूत्र:-9179613730, ईमेल -gaur.abhishek12@gmail.com
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