चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
अपनी माटी
वर्ष-2, अंक-21 (जनवरी, 2016)
========================
'मुन्नी मोबाइल’ में चित्रित
स्त्री जीवन का यथार्थ/इंदु कुमारी
चित्रांकन
प्रदीप सौरभ ने उपन्यास के माध्यम से
उग्र पूँजीवादी समाज के यथार्थ को दर्शाया है। कथाकार ‘रवीन्द्र कालिया’’ का मानना है कि ‘‘प्रदीप सौरभ के पास नए यथार्थ के प्रमाणिक और विरल अनुभव है।’’2
लेखक ने उपन्यास के कथानक में धर्म,
राजनीति, बाजार, मीडिया, शिक्षा व
बेरोजगारी से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों द्वारा बदलते सामाजिक परिवेश को दर्शाया
है। साधारण जीवन का कोई भी पहलू लेखक की निगाह से अछूता नहीं रहा है। हर एक पहलू
को इतनी बारीकी से लेखक ने छुआ है कि पाठक बँध के रह जाता है। कथानक इतना आकर्षक
है कि हीं भी कमजोर नहीं पड़ता।
उत्तर आधुनिक पूँजीवादी परिवेश में
बाजारवाद की चकाचौंध ने स्त्री को आज़ादी दी है, आकर्षक दिखने की नई सोच दी है साथ ही जीवन को सकारात्मक बनाने की शक्ति भी
प्रदान की है। आज उदारीकरण की प्रणाली में स्त्री भी उपभोक्ता के रूप में सकल रूप
से भागीदार है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति में स्त्री एक जागरूक, सचेत व सक्रिय उपभोक्ता के रूप में मौजूद है। 21वीं सदी की स्त्री अपनी छवि पहचान चुकी है। बाज़ारवादी
व्यवस्था ने समाज में आज अपनी पैठ बना ली है। उच्च से निम्न प्रत्येक स्तर पर
बाज़ार ने जन-जीवन को प्रभावित किया है।
प्रदीप सौरभ ने बाज़ारवादी संस्कृति
के बढ़ते हुए प्रकोप को केन्द्र में रखते हुए ‘मुन्नी मोबाइल’ की रचना की है। बाज़ारवाद के प्रसंग
को उठाते हुए लेखक ने एक ऐसी औरत को चित्रित किया है जो पूरी तरह से इस प्रणाली से
ग्रसित है। उपन्यास की प्रमुख स्त्री पात्र ‘मुन्नी मोबाइल’ के माध्यम से एक महत्वकांक्षी स्त्री
के चरित्र का उसकी सोच व क्रियाकलापों का वर्णन लेखक ने किया है। स्त्री जीवन का
एक अनछुआ यथार्थ यहाँ दृष्टिगत होता है। लेखक ने स्त्री जीवन के एक नए पक्ष को
हमारे समक्ष रखने का प्रयास किया है जो कि शायद अब तक किसी अन्य रचनाकार द्वारा
नहीं किया गया। हम सभी अपने दैनिक जीवन में इन सच्चाईयों से कहीं न कहीं रूबरू
होते ज़रूर है पर यथार्थ को इतने करीब से कभी नहीं देखा।
‘मुन्नी मोबाइल’ उपन्यास की
प्रधान नायिका ‘मुन्नी’ अभिजात्य परिवारों में झाड़ू बुहारी करने वाली वह काम-काजी महिला है जो
अपने संघर्ष जीवटता और महत्वकांक्षाओं के चलते विभिन्न रास्तों को अखि़्तयार करती
है और अपना परिवार चलाती है। ये रास्ते कुछ हद तक सही हैं तो कहीं गलत भी हैं। यह
एक ऐसी स्त्री की कथा है जो ‘बिन्दु’ से ‘मुन्नी’ और मुन्नी से ‘मुन्नी मोबाइल’
कब बन जाती है उसे स्वयं भी पता नहीं होता। यह उपन्यास
बिहार के गाँव से आई एक साधारण व गरीब महिला के यथार्थ की गाथा सुनाता है। लेखक ने
आनन्द भारती जोकि उपन्यास में एक सफल पत्रकार की भूमिका में हैं, के माध्यम से मुन्नी की कथा को पाठकों के समक्ष रखा है। आनन्द
भारती और मुन्नी की सामांतर जिंदगियाँ यहाँ दृष्टिगत हैं जिसे लेखकर ने अपने लेखन
के बल से जोड़े रखा है।
‘मुन्नी मोबाइल’ एक आम स्त्री के
जीवन की सफलताओं के साथ ही उसकी विफलताओं की भी व्याख्या है। बिहार के बक्सर में
रहने वाली बिन्दु अपने पति के काम के चलते जीवनयापन हेतु दिल्ली की सीमा से जुड़े
साहिबाबाद गाँव में आकर बस जाती है। जहाँ गुर्जरों का झुण्ड है और जाटों का
वर्चस्व। जब वह यहाँ आयी तो उसकी उम्र मात्र 17 वर्ष थी और उसकी एक छोटी बच्ची भी गोद में थी। उसका पति शराब बनाने की
फैक्ट्री में काम करता था। वे झुग्गी-झोपड़ी में रहते थे। शुरू में मुन्नी ही बस
घर की देखभाल करती और बच्चों का ध्यान रखती थी। धीरे-धीरे उसने घर में ही स्वेटर
बुनना प्रारम्भ किया जिससे वो घर खर्च के लिए कुछ पैसे अर्जित करने लगी। शनैः-शनैः
परिवार भी बढ़ने लगा और 6 बच्चों के साथ अब 8 लोगों का परिवार बन गया। मुन्नी स्वभाव से जिद्दी, अहिमत झूठ के खिलाफ रहने वाली व सच के लिए लड़ने-भिड़ने वाली
महिला है। परन्तु उसका पति सीधा-सादा, कम बोलने
वाला इंसान है। तीज त्यौहारों पर दारू पी लेता है, पर लड़ाई झगड़ा उसकी प्रकृति कतई नहीं है। तभी इस तरह की स्थितियों में
मुन्नी मोर्चा सँभालती है। लेखक ने उपन्यास में इस बात को प्रमाणिकता को हीर सिंह
और मुन्नी के मध्य हुए झगड़े के द्वारा प्रस्तुत किया है। मुन्नी पैसे जोड़-जोड़कर
झोपड़ी से मकान बनवा लेती है जोकि हीर सिंह को बर्दाश्त नहीं होता। इसी के चलते तो
मुन्नी के बच्चों पर चोरी का इल्ज़ाम लगा देता है जो मुन्नी के लिए असहनीय झूठ था।
दोनों में झगड़ा हो जाता है और मुन्नी दुर्गा व काली की शक्ति के साथ उसको डण्डा
लेकर खदेड़ देती है।
इस तरह पैसे कमाते-कमाते उसे पैसे
कमाने की होड़ लग जाती है। अब उसकी पहचान गाँव के एकमात्र अस्पताल की डा0 शशि से हो गई। वहा वहाँ भी काम सीखने लगी और पैसे कमाने का
एक नया साधन अख्तियार कर लिया। उसे मरीज लाने पर कमीशन मिलता। धीरे-धीरे वो पूरी
नर्स हो चुकी थी। वो एबोर्शन के लिए लड़कियाँ खोज के लाती और कमीशन खाती। मुन्नी
रात-बिरात औरतों की डिलीवरी कराने लगी जिससे उसको पैसे मिलने लगे। मुन्नी चतुर तो
थी ही अब वो दूसरी डा० से अपनी सेटिंग करने लगी जिसके कारण डा० शशि से उसकी खटपट
हो गई। अब वो बड़े-बड़े घरों में काम करके पैसे कमाने लगी। वो ऐसी जगह काम पकड़ती
जहाँ उसका मुनाफा हो। आनंद भारती से उसकी मुलाकात ऐसे ही होती हे। इस काम में भी
वो परिपक्व हो जाती है।
मुन्नी के स्वभाव के जिद्दीपन व
अक्खड़पन का प्रत्यक्ष प्रमाण लेखक ने उपन्यास में दिया है। एक बार मुन्नी मोबाइल
पाने के लिए आनन्द भारती के समक्ष जि़द पर अड़ जाती है। वो कहती है कि ‘‘इस बार मुझे दिवाली गिफ्ट में कुछ स्पेशल चाहिए। आनंद भारती
ने कोई जवाब नहीं दिया चुपचाप अखबार पढ़ते रहे। वह सीधे उनके अखबार और आँख के बीच
की दूरी को कम करते हुए बोली -‘मोबाइल चाहिए
मुझे! मोबाइल।’’3
यहीं से मुन्नी के जीवन का एक नया
अध्याय प्रारम्भ होता है। मोबाइल उसके जीवन में एक नई क्रान्ति ला देता है,
वह इसके खेल को समझ जाती है। अनपढ़ होते हएु भी मोबाइल
उसके लिए एक खिलौना बन जाता है। लोगों के नं0 उसके दिमाग में सेव हो जाते थे। पहली बार आनन्द भारती ही उसे ‘मुन्नी मोबाइल’ के नाम से
सम्बोधित करते हैं। धीरे-धीरे वो इसी नाम से प्रसिद्ध हो जाती है। अब मुन्नी की
गाँव की दुनिया की खिड़की बड़ी होने लगी थी। वो हर किसी से लोहा लेने को तैयार
रहती थी।
नेट और मोबाइल ने जीवन को जितना सरल
बनाया है। इसका प्रभाव उतना ही खतरनाक भी है। समीक्षक अभिताभ राय के अनुसार- ‘‘नेट और मोबाइल दुनिया के सब अच्छे-बुरे क्रिया-कलापों के
प्रतीक है। ये प्रतीक है-नयी मानसिकता के। आप सारी दुनिया से कनेक्टेड हैं- हर
वक्त! सारी दुनिया में आप हैं।’’4
मुन्नी का चरित्र उक्त पूँजीवाद के
साथ ही व्यक्तिवादिता का भी प्रत्यक्ष उदाहरण है। मुन्नी सफलता की सीढि़याँ चढ़ते
हुए सही और गलत के विवेक को भूल जाती है। आनन्द भारती हर किसी के सामने मुन्नी के
संघर्ष की कथा सुनाते और सफलताओं का गुणगान करते थे। परन्तु उसकी महत्वकाँक्षाऐं
और पैसे की हवस उसे सैक्स रैकेट चलाने वाली मुन्नी मोबाइल के रूप में परिवर्तित कर
देगी, यह उनके लिए एक कटु सत्य था।
मुन्नी की कथा एक परिकथा के समान है।
वह इतनी दक्ष थी की जिस काम को भी करती पूरी दृढ़ता और मेहनत के साथ करती थी।
अमिताभ राय का कहना है कि - ‘‘वह जिस काम में
हाथ डालती है उसके शीर्ष पर पहुँच जाती है।5 मुन्नी एक मेहनती महिला थी पर यह भी सच था कि वह प्रारम्भ से ही सही गलत
तरीके से पैसे कमाने में लीन थी। उसकी
बढ़ती हुई महत्वकाँक्षाएं ही उसे ऐसा करने में मजबूर करतीं हैं। रोजगार पाते ही
बाहरी दुनिया से उसका परिचय होता है। बाज़ार की चकाचौंध से उसकी लालसायें बढ़ती
जाती हैं। अब वो सिर्फ घरों में काम करने वाली बाई न रहकर दूसरी बेरोजगार औरतों को
काम दिलाने वाली महिला बन जाती है। उसके जीवन की यह सफलतायें उसे मोबाइल की दुनिया
में प्रवेश के द्वारा ही मिलती हैं। अमिताभ राय का कहना है कि - मुन्नी प्रारम्भ
से ही गलत-सही तरीके से पैसे कमाने में विश्वास करती है। चाहें वह एबोरशन प्रसंग
हो, बस आपरेटरों से लोहा लेना हो या सैक्स रैकेट
प्रसंग हो।’’6
मोबाइल से जुड़ने के बाद मुन्नी का
स्टैण्डर्ड बढ़ गया था। वो पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए वो पढ़ाई के महत्व को नहीं समझती थी। इसी कारण अपने बच्चों की पढ़ाई
पर उसका अधिक ध्यान नहीं था। उसका कहना था-‘‘पैसे कमाने के लिए लोग पढ़ाई करते हैं और मैं बिना पढ़े लिखे पैसे कमा रही
हूँ’’7 मुन्नी को अपढ़ होने की कोई ग्लानि नहीं
थी। वो जो चाहती थी अपने दृढ़ संकल्प द्वारा उसे पा लेती है। वो अँगूठाछाप थी
परन्तु उसकी जिद और संकल्प ही उसे दस्तखद्यत करना सिखाते हैं। वह बाजारू युग में
उपयोगितावाद के अर्थ को समझ जाती है और उपयोगिता के चरम को छूती है जिसका
प्रत्यक्ष प्रमाण इस प्रसंग में है। जब वो आनन्द भारती को खरी-खोटी सुना देती हे,
जिन्होंने उसके जीवन की दिशा बदली और हमेशा उसकी हिम्मत
तथा संघर्ष की सराहना की। वह आनंद भारती से कहती है- ‘‘आपने पढ़ कर क्या कर लिया। आप तो वहाँ पढ़े जहाँ नेहरु जी पढ़े थे। न अपना
घर चलाया न बच्चे पाले, न अपनी लुगाई रख पाए, न अपने माँ-बाप की इज्जत कर पाए।... मैं निपढ़ हूँ। पढ़ी लिखी
नहीं हूँ। आपकी सेवा में रहती हूँ। पूरा कुनवा पाल रहीं हूँ।’’8 यहाँ मुन्नी का अहंकार और स्वार्थ न चाहते हुए भी दृष्टिगत
हो जाता है।
लेखक ने भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप
पूँजीवादी समाज में विकसित उपयोगितावाद व्यक्तिवाद व बाज़ारवाद के विभिन्न पहलुओं
को तथ्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। भारतीय नारी समाज के प्राचीन ढाँचे में आए
परिवर्तन ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। मुक्त बाज़ार व्यवस्था, साम्प्रदायिकता व संचार क्रान्ति इसके पीछे मौजूद मुख्य कारण
हैं। उपयोगितावाद ने लोगों को स्वार्थी बना दिया है। वे समाज और व्यवस्था में सेंध
लगाते हुए अपनी सफलता के परचम को लहराना जानते है। भावनाऐं मर चुकी हैं। उपन्यास
की मुख्य महला पात्र मुन्नी इसका प्रमाण है। लेखक ने साहिबाबाद दिल्ली एन0सी0आर0 का वर्णन करते हुए (मुन्नी के माध्यम से) शहरीकरण औद्योगिकरण, सामंतवाद व पूँजीवाद के अंतर्सम्बन्धों को रेखांकित किया है।
मुन्नी के साथ ही उपन्यास में कई
अन्य स्त्री पात्र जैसे-आनन्द भारती की पत्नी शिवानी, डा0 शशि, सीमा, राधा आदि भी अपने-अपने प्रसंगों
द्वारा कथा में दृष्टिगत होते रहते हैं। इन सभी का चरित्र कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में स्त्री जीवन के यथार्थ को प्रकट करता है।
मुन्नी मोबाइल का चरित्र एक एलबम की तरह है, जिसमें कई चित्रों का झुण्ड है। वह अब तक ईमानदारी से कार्य करती है तब तक
वो एक सम्य महिला है दूसरी औरतों के लिए मिसाल हैं परन्तु उसकी इच्छाएँ और
महत्वकाँक्षाऐं उसे सैक्स रैकेट चलाने वाली क्रूर महिला बना देती है। पैसे की भूख
उसे अंधा कर देती है। उसकी यही हवस उसके जीवन का अंत कर देती है। सैक्स रैकेट की
मालकिन होने के चलते उसका मर्डर कर दिया जाता है। उसके संघर्ष और सफलता के
इन्द्रधनुषी रंग अब बदरंग हो चुके थे। आनंद भारती सोचते हैं कि -‘‘उन्होंने जिस मिट्टी से मुन्नी की एक संघर्षशील मूर्ति गढ़ने
की कोशिश की थी, वह मिट्टी चाक में आकार लेने से पहले
ही बिखर गई। उनके संघर्ष की मूर्ति टूट गई थी।’’8 पैसे की हवस, कमीशनखोरी, शार्टकट वाले रास्ते किसी आदर्शवादी राह का निर्माण नहीं करते। ये एक दलदल
है जिसमें एक बार जाना जिंदगी भर का फँसना होता है जिसकी कोई थाह नहीं। मुन्नी
अपनी छोटी बेटी रेखा को पढ़ा-लिखा कर आनन्द भारती के समान अधिकारी बनाना चाहती थी।
उसके द्वारा अखि़्तयार किये गये गलत रास्तों का कालगर्ल वर्ड की नई अवतार रेखा
चितकबरी बनकर सूर्खियों में आती है। मुन्नी का अंत होने के बाद भी कथा का अंत नहीं
होता बल्कि रेखा के रूप में एक और शुरूआत होती है। जिसका शायद ही कोई अंत हो।
मुन्नी के जीवन के माध्यम से एक
स्त्री जीवन के यथार्थ की ऐसी सघन उपस्थिति है, जो क्रूर और खतरनाक तो है ही साथ ही कई बार पाठक को विचलित भी कर देती है।
यह आम स्त्री के दैनिक जीवन की घटना का इतिहास है। मुन्नी के क्रिया कलाप उसे अपने
पति व दोनों बेटो से विमुक्त कर देते हैं। मुन्नी ने अपनी कुशाग्रता से जिन
ऊँचाईयों कछुआ उनके पीछे बाज़ार किसी न किसी रूप में विद्यमान है। यह एक ऐसी औरत
की कहानी है, जिसके चरित्र, विवेक और व्यवसाय पर सवाल खड़ा करने में भी मुश्किल होती है। वास्तव में
बाज़ार के हस्तक्षेप ने ऐसी न जाने कितनी निम्नवर्गीय औरतों के जीवन को अभिशप्त
किया होगा।
स्त्री विमर्श के क्षेत्र में यह एक
नया संदर्भ है। बाज़ारवाद के फलस्वरूप स्त्री जीवन में आई अथाह समस्याओं को अपनी
लेखनी में समेटने का प्रशंसनीय प्रयास है। 21वीं सदी की निम्नवर्गीय स्त्री पर रचित यह उपन्यास यथार्थ के नए पन्नों को
खोलता है। शायद ही ऐसा कोई दूसरा उपन्यास पहले दशक में आया हो। स्त्री जवन के गूढ़
पक्षों की लेखक ने यथार्थ की नयी परिपाटी पर संजोया है।
सन्दर्भ सूची :
1. प्रदीप सौरभ, मुन्नी मोबाइल, कवर पेज, वाणी प्रकाशसन 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
2. यथा पूर्व
3. पृष्ठ सं0-10
4. समीक्षा, सं0-सत्यकाम, अक्टूबर-दिसम्बर-2011, अंक-4,
सम्पादक समीक्षा, एच-2, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068, पृष्ठ संख्या-35
5. वही, पृष्ठ सं0-36
6. वही, पृष्ठ संख्या-36
7. प्रदीप सौरभ, मुन्नी मोबाइल, पृष्ठ सं0-76, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
8. पृष्ठ सं0-155
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
ई-मेल:-indurose1985@gmail.com
इंदु कुमारी
शोध छात्रा हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
शोध छात्रा हिंदी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
ई-मेल:-indurose1985@gmail.com
एक टिप्पणी भेजें