चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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विश्व
सिनेमा की जैसी व्यापकता है वैसे ही भारतीय सिनेमा जगत् भी व्यापक और विस्तृत है।
आशियाई देशों में बहुत बड़ा और ताकतवर देश के नाते भारत की पहचान बनती गई। इस पहचान
के बनते-बनते भारत विज्ञान, कृषि, उद्योग आदि क्षेत्रों में उठता गया। कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, मद्रास जैसे बड़े शहर और विकसित होते गए और इन शहरों में
भारतीय जनमानस के लिए रोजगार के कई नवीन मार्ग खुलने लगे। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री
के कई केंद्र बनते गए और उसमें मुंबई हॉलीवुड़ की धरातल पर बॉलीवुड़ के नाते उभरता
गया। अन्य राज्यों के प्रमुख शहरों में भी फिल्म इंडस्ट्री का विकास हुआ था परंतु
वे शहर अपने राज्य की भाषा में बनती फिल्मों के विकास में जुटते गए और इधर मुंबई
के भौगोलिक परिदृश्य और भारत की आर्थिक राजधानी के पहचान बनने के कारण भारतीय
फिल्म इंडस्ट्री को मुंबई से ही पहचान मिलने लगी। न केवल हिंदी और मराठी तो अन्य
भाषाओं को भी भारतीय मंच पर प्रदर्शित करने का केंद्र मुंबई बनता गया। आज आधुनिक
तकनीक और ऑड़ियो रूपांतरण के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के कलाकारों और तकनीशियनों के
लिए बॉलीवुड़ के दरवाजे खुल चुके हैं। तकनीक के चलते देशीय और क्षेत्रीय सीमाएं
धुंधली पड़ती गई। जैसे भारत में फिल्म इंडस्ट्री ने भाषाई सीमाओं को तार-तार किया
वैसे ही वैश्विक स्तर पर देशीय सीमाएं तार-तार हो गई और भारत के किसी भी भाषा में काम
करनेवाले व्यक्ति के लिए विश्व सिनेमा के दरवाजे खुलते गए। वैसे ही विश्व सिनेमा
भी भारतीय सिनेमा के तेजी से बढ़ते कदमों से चकित हुआ। यहां तक कि विश्व सिनेमा के
मंच पर धूम मचानेवाले कलाकारों के मन में भारतीय फिल्मों में काम करने की इच्छा
पैदा होने लगी। दुनिया के ताकतवर फिल्म इंडस्ट्रियों में बॉलीवुड़ की गिनती होती
है। इसकी व्यावसायिकता और कलात्मक सफलता को देखकर दुनियाभर के फिल्मी जानकार
बॉलीवुड़ की सराहना करते थकते नहीं है। व्यावसायिक नजरिए से हॉलीवुड़ को टक्कर देने
का दमखम भारतीय सिनेमा रखता है। व्यावसायिक तथा कलात्मक नजरिए से विश्व मंच पर
भारतीय सिनेमा और क्रिकेट की दुनिया ने बड़ी तेजी से मजबूती के साथ कदम रखे हैं।
दुनिया में आज एक साल के भीतर लगभग 1,000 हजार
फिल्में बनानेवाली कोई और इंडस्ट्री नहीं है। दिनों के हिसाब से सोच लें तो एक दिन
के लिए तीन फिल्में बनना हमें भी चौंका देता है। अनेक भाषाओं के बहाने भारत में
फिल्म इंडस्ट्री के भीतर कई लोग नसीब अजमाने के लिए आते हैं। इस ओर उठता प्रत्येक
कदम भारतीय सिनेमा के मजबूती का कारण भी बनता है।
भारतीय
सिनेमा का आरंभ/डॉ.विजय शिंदे
चित्रांकन
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भारत में सिनेमा संयोगवश आया है। (हिंदी
सिनेमा : दुनिया से अलग दुनिया, पृ. 15) लिमिएर बंधुओं का ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले मुंबई आना और 7 जुलाई, 1896 में उसका
संयोगवश प्रदर्शन करना भारतीय सिनेमा की पहल माना जा सकता है। इस प्रदर्शनी के
पहले शो के लिए मुंबई के प्रसिद्ध छायाचित्रकार हरिशचंद सखाराम भाटवड़ेकर भी शामिल
हो गए थे। उनके मन में भी इस बात ने घर बना लिया कि लिमिएर बंधुओं द्वारा निर्मित
सिनेमेटोग्राफ अगर मिल जाए तो हम भी ऐसी फिल्में बना सकते हैं। उन्होंने यह केवल
सोचा नहीं तो इसे सत्य में उतारने के लिए लिमिएर बंधुओं से संपर्क स्थापित कर
सिनेमेटोग्राफ का मशीन भी मंगा लिया। हरिशचंद सखाराम भाटवड़ेकर मुंबई में 1980 से स्टूड़ियो का संचालन कर रहे थे और इससे जुड़ा प्राथमिक
तकनीकी ज्ञान और दृष्टि उनके पास पहले से मौजूद थी। लिमिएर बंधुओं के यंत्र का
आधार लेकर उन्होंने मुंबई के हॅगिंग गार्डन में कुश्ती का आयोजन कर लघु फिल्म का
निर्माण किया। उन्होंने दूसरी फिल्म सर्कस के बंदरों को ट्रेनिंग करवाते बनाई और
दोनों फिल्मों को एक साथ 1899 में प्रदर्शित
किया। इस प्रकार हरिशचंद सखाराम भाटवड़ेकर (सावे दादा) पहले भारतीय लघु फिल्म के
निर्माता बने, परंतु इन फिल्मों में कई सैद्धांतिक
कमियां थी जो उन्हें फिल्म ढॉंचे में तब्दील नहीं कर सकी। मूलतः छायाचित्रकार होने
के कारण उनकी फिल्में छायांकन ही रही और फिल्मों के लिए कथा-कहानी होना अत्यंत
महत्त्वपूर्ण था जो इसमें न होने के कारण उनके प्रयास, प्रयास ही माने गए। आगे चलकर ‘राजा
हरिश्चंद्र’ के बहाने कहानी के स्वरूपवाली पहली
फिल्म भारतीय सिनेमा जगत् को मिल गई जो आरंभिक झंड़ा गाड़ने में सफल हो पाई।
धुंड़िराज गोविंद फालके (दादासाहब फालके)
मुंबई में प्रिटिंग प्रेस का भागीदारी में व्यवसाय शुरू कर चुके थे और सन् 1911 के क्रिसमस के दौरान उन्होंने ‘लाईफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म को देखा।
इस फिल्म को देखने के बाद वे रात भर सो नहीं पाए और दूसरे दिन अपनी पत्नी के साथ
दुबारा फिल्म देखने गए। पत्नी और मित्रों के साथ चर्चा करके उन्होंने फिल्म बनाने
की बात को मन में ठाना और उसकी प्राथमिक जानकारी हासिल करने और सामग्री प्राप्त
करने के लिए लंडन गए। वापसी के बाद ‘राजा हरिश्चंद्र’
की पटकथा को लिखा 1912 में इस फिल्म का शूटिंग आरंभ हुआ। 21 अपैल, 1913 में मुंबई के ऑलंपिया सिनेमा हॉल
में इसका प्रदर्शन हुआ। दादासाहब फालके और उनकी पत्नी सरस्वती का भारतीय सिनेमा के
लिए बहुत बड़ा योगदान है। जिस तमस्या और लगन से इन दोनों ने सिनेमा के लिए अपने
आपको समर्पित किया वह प्रशंसनीय है।
इस बीच ‘पीठाचे पंजे’ दूसरी फिल्म वे
बना चुके थे। इनके प्रभाव और सफलता से प्रेरित होकर उन्होंने 1917 में ‘लंका दहन’
फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म के प्रदर्शन से
दादासाहब फालके को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। सिक्कों को बोरों में भरकर बैलगाड़ी पर
लादकर ले जाना पड़ा। इन आर्थिक सफलताओं के चलते मुंबई में अन्य लोग भी फिल्में
बनाने को लेकर सजग हो गए। कला महर्षि बाबूराव पेंटर, आर्देशिर ईरानी जैसे निर्माता भी इसी काल में अपने पैर जमाने में सफल हो
चुके थे। दादासाहब ने अपने जीवन में 20 कथा
फिल्में और 180 लघु फिल्मों का निर्माण किया। उनकी
बोलती फिल्म केवल ‘गंगावतरण’ (1937) रही। बाबूराव पेंटर ने पहली फिल्म ‘सीता स्वयंवर’ (1918) बनाकर फिल्मी
दुनिया में कदम रखे। आगे ‘सैरंध्री’
(1920) से उन्हें काफी प्रसिद्धी मिली। बाबूराव
पेंटर ने फिल्मी तकनीक को कॅमरा, इनडोअर शूटिंग,
जनरेटर, रिफ्लेक्टर्स आदि
से आधुनिक करते हुए जनमानस के सामने रखा। वी. शांताराम की खोज भी बाबूराव पेंटर की
ही मानी गई। इस दौरान विश्व सिनेमा में सवाक फिल्मों का दौर शुरू हुआ था और अन्य
भारतीय फिल्म निर्माता भी आर्देशिर ईरानी की इस पहल से आगे और सफलता की सीढ़ियों पर
चढ़ते गए।
1930 के आस-पास विश्व
सिनेमा जगत् में फिल्मों के साथ ध्वनि को जोड़ने की तकनीक विकसित हो गई थी। फिल्मों
के साथ आवाज का जुड़ना उसको जीवंत बनाने की और एक पहल साबित हो गया। ‘आलम आरा’ (1931) भारतीय सिनेमा
जगत् की पहली सवाक फिल्म साबित हो गई जिसे आर्देशिर ईरानी ने बनाया था।
‘आलम आरा’
फिल्म के प्रदर्शित होते ही भारत के अन्य हिस्सों में भी
सिनेमा को लेकर पहल होना शुरू हुई थी। चेन्नई (मद्रास) और कोलकता (कलकत्ता) यह दो
बड़े शहर है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरे। आगे चलकर एक दक्षिणी फिल्मों का
और एक पूर्वी फिल्मों गढ़ भी बना। पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ का लेखन नाटककार जोसेफ डेविड ने किया,
नायक मास्टर विठ्ठल थे, नायिका जुबेदा थी। इस फिल्म में पृथ्वीराज भी थे। ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताकत है
गर देने की’ यह पहला बोलते सिनेमा का गीत भी इसी फिल्म से फिल्माया गया।
इस फिल्म के अलावा आर्देशिर ईरानी ने ‘वीर
अभिमन्यू’ (1917), ‘वीर दुर्गादास’, ‘रजिया सुल्तान’ आदि फिल्में भी
बनाई। आर्देशिर ईरानी द्वारा बनाई ‘नूरजहां’
(1934) यह फिल्म हिंदुस्तानी और अंग्रेजी में बनाई
गई थी। इन भाषाओं के अलावा बर्मी, पस्तो, फारसी आदि भाषाओं के अलावा अन्य नौ भाषाओं में फिल्म निर्माण
का कार्य आर्देशिर ईरानी ने किया। सन् 1937 में बनाई
‘किसान कन्या’ पहली भारतीय रंगीन फिल्म थी। आर्देशिर ईरानी ने अपने जिंदगी में 158 फिल्मों का निर्माण किया और भारतीय फिल्म उद्योग ने इन्हें 1956 को सवाक फिल्मों का जनक के नाते नवाजा।
सवाक भारतीय फिल्मों के आरंभिक
दौर में निर्माता, निर्देशक, संगीतकार, नायक, नायिका, तकनीशियन, कॅमरामन, लेखक तथा अन्य छोटे-बड़े कलाकर
निश्चित मासिक वेतन पर काम करते थे। लेकिन यह आरंभिक दौर जैसे ही आगे बढ़ा फिल्मों
में अन्य कई लोगों की रुचि बढ़ने लगी और स्वतंत्र निर्माण करने लगे। स्वतंत्र
निर्माताओं ने स्टूड़ियो को किराए पर लेना शुरू किया वैसे ही कलाकारों और अन्य
लोगों को भी ठेके पर लिया जाने लगा। इस तरह की पद्धति आज भी भारतीय सिनेमा और विश्व
सिनेमा में प्रचलित है। हां इसका स्वरूप बदलकर इसे कानून और अनुबंधों के दायरे में
लिया गया है। सवाक फिल्मों के दौर में प्रभात, बॉंबे टॉकीज और न्यू थिएटर्स प्रमुख स्टूड़ियो थे। इस युग में गंभीर,
संदेश देनेवाली फिल्में मनोरंजन के साथ बनाई जा रही थी
जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया। अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करनेवाली, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, देशप्रेम से
संबंधित फिल्मों का निर्माण किया जा रहा था। इस युग में वी. शांताराम ‘दुनिया ना माने’, ‘डॉ.
कोटनीस की ‘अमर कहानी’, फ्रँज ओस्टन की ‘अछूत कन्या’,
दामले और फतेहलाल की ‘संत तुकाराम’, महबूब खान की ‘वतन’, ‘एक ही रास्ता’, ‘औरत’, ‘रोटी’, अर्देशिर ईरानी की ‘किसान
कन्या,’ चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’, उदयशंकर की ‘कल्पना’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘धरती के लाल’ सोहराब मोदी की ‘सिकंदर’, ‘पुकार’, ‘पृथ्वी वल्लभ’, जे. बी. एच.
वाड़िया की ‘कोर्ट डांसर’, एस. एस. वासन की ‘चंद्रलेखा’,
विजय भट्ट की ‘भरत मिलाप’,
‘राम राज्य’, राजकपूर
की ‘बरसात’, ‘आग’ जैसी फिल्में काफी लोकप्रिय हो गई और
सिनेमा के इतिहास में मिल के पत्थर साबित हो गई।
मुंबई में फूलते-फलते भारतीय सिनेमा की
सफलता के देखा-देखी पूरे भारतभर की अन्य भाषाएं भी आंदोलित हो रही थी। कई भाषाओं
में उपलब्ध भरपूर साहित्य की बदौलत फिल्म इंडस्ट्री के कच्चे माल की विपुलता थी।
उसे केवल सिनेमाई फॉर्म में ढालने की आवश्यकता थी। सिनेमा की प्रस्तुति और तेजी से
होते तकनीकी विकास के कारण फिल्में दिनों-दिन असरदार बनती जा रही थी और भारत की
आबादी भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। आज तो ऐसी स्थिति है कि भारत की अबाध गति से
बढ़ती अमापनीय आबादी के चलते साधारण फिल्में भी करोड़ों का व्यापार करती है और बॉक्स
ऑफिस पर हिट होती है। आरंभिक दौर का सिनेमा मांग और रुचि के हिसाब से कई भाषाओं
में एक साथ सफल फिल्में निर्माण करने के लिए लालायित हुआ और वैसी फिल्मों का
निर्माण भी किया। स्टूड़ियो का किराए पर मिलना इस इंडस्ट्री के हक में गया और
सिनेमा का क्षेत्र चारों तरफ से खुलते गया। कई पूंजीपति, उद्योजक, इस क्षेत्र से जुड़े अन्य लोग और रुचि
रखनेवाला प्रत्येक इंसान इससे जुड़ता गया। मुंबई और चेन्नई (मद्रास) में बननेवाली
फिल्मों से प्रेरणा पाकर देश की प्रमुख भाषाओं में फिल्में बनना आरंभ हुआ। विविध
भाषाओं में बनी फिल्मों का यहां पर केवल नामोल्लेख कर रहे हैं जिसका मूल स्रोत
विकिपिड़िया है।
1. हिंदी – ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) दादासाहब फालके द्वारा निर्मित भारतीय सिनेमा जगत् की पहली फिल्म साबित हो
गई जिसे मुंबई में बनाया गया। मुंबई के फिल्म इंडस्ट्री के लिए आगे चलकर बॉलिवुड़
नाम दिया गया।
2. मराठी – ‘पुंड़लिक’ (1912) 18 मई,
1912 को निर्माता आर. जी. तोरणे एवं एन. जी. चित्रे की
धार्मिक पृष्ठभूमि वाली सामाजिक फिल्म 'पुंड़लिक'
मराठी की पहली फिल्म मानी गई। जिसे मुंबई में बनाया गया।
पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के पहले इसे बनाया गया था परंतु इसके विषय का परिदृष्य भारतीय
न होने के कारण वह केवल मराठी की पहली फिल्म बनकर रह गई। मुंबई इसका केंद्र है और
यह बॉलीवुड़ के साथ जुड़कर ही कार्य करता है।
3. तमिल – ‘किछका वध’ (1918) तमिल भाषा
की पहली फिल्म बनी। चेन्नई (मद्रास) इसका केंद्र है और इसे कॉलीवुड़ के नाम से
पहचाना जाता है।
4. बांग्ला –
‘विलबामंगल’ (1919) बांग्ला भाषा की पहली फिल्म बनी। कलकत्ता इसका केंद्र है और इसे टॉलीवुड़
के नाम से पहचाना जाता है।
5. मलयालम –
‘विगथकुमारण’ (1920) मलयालम भाषा की पहली फिल्म बनी। तिरुअंनतपुरम् इसका केंद्र है और इसे मॉलीवुड़ के नाम से पहचाना
जाता है।
6. तेलुगू –
‘भीष्म प्रतिज्ञा’ (1921) तेलुगू भाषा की पहली फिल्म बनी। हैदराबाद इसका केंद्र है और इसे टॉलीवुड़
के नाम से पहचाना जाता है।
7. गुजराती –
‘नरसिंह मेहता’ (1932) गुजराती भाषा की पहली फिल्म बनी। गांधीनगर और बड़ौदा इसके केंद्र हैं और यह
बॉलीवुड़ से जुड़कर ही काम करता है।
8. कन्नड़ – ‘सती सुलोचना’ (1934) कन्नड़
भाषा की पहली फिल्म बनी। बंगलूरु इसका केंद्र है और इसे संदलवुड़ के नाम से पहचाना
जाता है।
9. असमिया –
‘ज्यामती’ (1935) असमीया
भाषा की पहली फिल्म बनी। गुवाहटी इसका केंद्र है।
10. उड़िया – ‘सिता विवाह’ (1936) उड़िया
भाषा की पहली फिल्म बनी। भुवनेश्वर इसका केंद्र है और इसे वॉलीवुड़ के नाम से
पहचाना जाता है।
11. पंजाबी –
‘शीला’ (1936) पंजाबी
भाषा की पहली फिल्म बनी। पहली फिल्म का निर्माण स्वतंत्रतापूर्व लाहौर में हुआ था,
अब यह शहर पाकिस्तान में है। अब चंदीगढ़ इसका केंद्र है।
12. कोंकणी –
‘मगाचो अनवड़ो’ (1950) कोंकणी भाषा की पहली फिल्म बनी। गोवा की राजधानी पणजी इसका केंद्र है।
13. भोजपुरी –
‘हे गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो’ (1963) भोजपुरी भाषा की पहली फिल्म बनी। इस भाषा की फिल्मों का क्षेत्र
बिहार, उत्तर प्रदेश, नेपाल और उत्तरी भारत है। पटना इसका केंद्र है और इसे पॉलीवुड़ के नाम से
पहचाना जाता है।
14. तुलु – ‘एन्ना थंगड़ी’ (1971) तुलु भाषा
की पहली फिल्म बनी। चेन्नई इसका केंद्र है।
15. बड़गा – ‘काला थपिटा पयीलु’ (1979) बड़गा भाषा की पहली फिल्म बनी। उदगमंदलम् (तमिलनाडू) इसका केंद्र है।
16. कोसली – ‘भूखा’ (1989) कोसली भाषा की
पहली फिल्म बनी। संबलपुर (उड़ीसा) इसका केंद्र है।
पिछले विवरण के भीतर भारतीय सिनेमा के जनक
के नाते दादासाहब फालके के नाम का जिक्र हो चुका है और उनकी पहली फिल्म और भारतीय
सिनेमा जगत् की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) को लेकर भी कुछ
बातों पर प्रकाश डाला है। यहां पर उनके योगदान पर संक्षिप्त दृष्टि डालना जरूरी है
उसका कारण यह है कि आज भारतीय सिनेमा जिनकी पहल का परिणाम है वह जिन हालातों से
गुजरा, उसने जो योगदान दिया उसका ऋणी है। सिनेमा को
लेकर उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातों का संक्षिप्त परिचय होना सिनेमा के पाठक को
जरूरी है। दादासाहब फालके जी की कदमों पर कदम रखकर आगे भारतीय सिनेमा बढ़ा और
करोड़ों की छलांगे भरने लगा है। अमीर खान, सलमान खान,
शाहरूख खान के बीच चलती नंबर वन की लड़ाई या इनके साथ
तमाम अभिनेता और निर्माताओं की झोली में समानेवाले करोड़ों के रुपयों में से
प्रत्येक रुपैया दादासाहब जैसे कई सिनेमाई फकिरों का योगदान है। अतः तमाम चर्चाओं,
विवादों, प्रशंसाओं,
गॉसिपों के चलते इस इंडस्ट्री के प्रत्येक सदस्य को
सामाजिक दायित्व के साथ सिनेमाई दायित्व के प्रति भी सजग होना चाहिए। अगले एक
मुद्दे में सौ करोड़ी क्लब पर प्रकाश डाला है, परंतु इससे यह साबित होता नहीं कि वह फिल्म भारतीय सिनेमा का मानक हो।
फिल्म इंडस्ट्री में काम करनेवाला प्रत्येक सदस्य याद रखें कि हमारे जाने के बाद
हमने कौनसे कदम ऐसे उठाए हैं, जिसकी आहट लंबे
समय तक सुनाई देगी और छाप बनी है। अपनी आत्मा आहट सुन न सकी और छाप नहीं देख सकी
तो सौ करोड़ी कल्ब में दर्ज किए अपने सिनेमा का मूल्य छदाम भी नहीं होगा। भारतीय
सिनेमा के इतिहास में क्लासिकल और समांतर सिनेमा का एक दौर भी आया जो उसकी अद्भुत
उड़ान को बयां करता है। इन फिल्मों के निर्माण में कोई व्यावसायिक कसौटी थी नहीं
केवल लगन, मेहनत, कलाकारिता, अभिनय, संगीत, शब्द, गीत, विषय, तकनीक, सादगी, गंभीरता... की उत्कृष्टता थी, जो सच्चे
मायने में सिनेमा के जनक को सलाम था और उनके द्वारा तैयार रास्ते पर चलने की
तपस्या थी। हाल ही के वर्षों में बनती कुछ फिल्मों को छोड़ दे तो केवल व्यावसायिता,
सतही प्रदर्शन, सस्ते
मनोंरंजन के अलावा कुछ नहीं है कहते हुए बड़ा दर्द होता है...।
भारतीय सिनेमा के जनक दादासहाब फालके का
पूरा नाम धुंड़िराज गोविंद फालके है। उनका जन्म 30 अप्रैल, 1870 में नासिक (महाराष्ट्र) के पास
त्र्यंबकेश्वर गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आरंभिक शिक्षा अपने घर में
ही हुई और आगे चलकर उनका प्रवेश मुंबई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टस् में हुआ। वहां
उन्हें छात्रवृति भी मिली और उससे उन्होंने कॅमरा खरीदा। जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टस्
से शिक्षित दादासाहब प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। इस तरह प्रशिक्षित और सृजनशील
होना उनके लिए सिनेमा बनाते वक्त अत्यंत लाभकारी हुआ। वे मंच के अनुभवी अभिनेता थे,
नए प्रयोगों के शौकिन थे और न केवल शौकिन उसको सत्य में
उतारने की कोशिश भी जी-जान से करते थे। आगे चलकर उन्होंने कला भवन बड़ौदा से
फोटोग्राफी का पाठ्यक्रम भी पूरा किया। फोटो केमिकल प्रिटिंग में उन्होंने कई
प्रयोग भी किए, जिस साझेदार के साथ जुड़कर प्रिटिंग
प्रेस में उतरे थे, उससे अचानक साझेदारी वापस लेना और
आर्थिक सहयोग को बंद करना उनके लिए बहुत बड़ा झटका था। उस समय उनकी उम्र 40 थी, व्यवसाय में
निर्मित गंभीर हालातों से उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हुआ और बात-बात पर गुस्सा करने लगे।
इसी दौरान उन्होंने मुंबई में ‘क्राइस्ट ऑफ लाईफ’
(ईसामसीहा की जिंदगी) फिल्म देखी और इस फिल्म ने उनके आहत
स्थितियों को मानो चावी दी। उनके अंदर कई कल्पनाओं ने संभावनाओं को तौला और पत्नी
सरस्वती देवी ने पति के साहस को अपने पलकों में सजाकर उनके हां में हां भरी।
दोस्तों ने कुछ शंका-आशंकाओं के चलते स्वीकृति दी और धुंड़िराज गोविंद फालके जी के
जवान मन और आंखों को पंख लगे।
दादासहब
फालके जी के व्यापारी दोस्त नाड़कर्णी ने व्यापारी व्याजदर से पैसे देने की पेशकश
की और उससे पैसे उठाकर, जहाज में बैठकर फरवरी 1912 में लंदन रवाना हो गए। उनका यह साहस अन्यों के लिए अंधेरे
में तीर चलाने जैसा था, परंतु शायद फालके जी ने मन ने ठान ही
लिया था कि इस जादू में अपने आपको निपुण बनाना ही है। लंडन में उनका किसी से परिचय
नहीं था। केवल ‘बायस्कोप’ पत्रिका को और उसके संपादक को इसीलिए जानते थे कि यह पत्रिका वे नियमित
मंगाकर पढ़ा करते थे। लंदन में दादासाहब ‘बायस्कोप’
पत्रिका के संपादक कॅबोर्ग को मिले और वह इंसान भी दिल
से अच्छा निकला और दादासाहब का उत्साह दुगुना हो गया। कॅबोर्ग उन्हें विभिन्न
स्टूड़ियो, सिनेमा के विभिन्न उपकरणों और केमिकल्स की
दुकानों पर लेकर गए। सिनेमा निर्माण के लिए आवश्यक सामान दादासाहब ने खरीदा और वे 1 अपैल, 1912 में मुंबई वापस
लौटे। सारी दुनिया में संघर्ष करके अपने मकाम पर पहुंचनेवाला प्रत्येक इंसान
दादासाहब के 1912 में किए इस साहस, संघर्ष, आवाहन और कठिनाइयों की कल्पना कर सकता है। वापसी के बाद ‘राजा हरिश्चंद्र’ की पटकथा
तैयार हो गई और तमाम कलाकार मिले परंतु महारानी ताराराणी की भूमिका के लिए कोई
महिला तैयार नहीं हो पाई। बॉलीवुड़ और दुनिया के अन्य सिनेमाओं में अभिनय के मौके
की तलाश करती कतार में खड़ी लड़कियों को देखकर आज दादासाहब को महिला अभिनेत्री खोजने
पर भी नहीं मिली इससे आश्चर्य होता है।
दादासाहब वेश्याओं के बाजार और कोठों पर भी
गए और हाथ जोड़कर महाराणी तारामती के भूमिका के लिए नम्र निवेदन किया। (इस दौर में
दादासाहब फालके के वरिष्ठ दोस्त चित्रकार राजा रविवर्मा के जीवन से जुड़े प्रसंग की
याद आ रही है, उनके देवी-देवताओं के चित्रों की और
अन्य चित्रों की प्रेरणा, चेहरा, नायिका की। उस प्रेरणा ने राजा रविवर्मा के विरोध में देवताओं
के ठेकेदारों से चलाए मुकदमें के दौरान कहे वाक्य की याद देती है, वकील और उच्चभ्रू समाज की ओर मुखातिब होकर वह कहती है कि ‘इस आदमी ने एक मुझ जैसी औरत को देवी बनाया और आप जैसों ने उसे
वेश्या!’ शायद दादासाहब के हाथों से किसी स्त्री को
सिनेमाई दुनिया के ताज पहनने की ताकत का अंदाजा उस समय तक नहीं आया था।) वेश्याओं
ने दादासाहब की बात को हवा में उड़ाते हुए बड़ी बेरुखाई से जवाब दिया कि "उनका
पेशा फिल्मों में काम करनेवाली बाई से ज्यादा बेहतर है।’ रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे पर दादासाहब रुके और चाय का ऑर्डर दिया।
वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने देखा कि
उसकी उंगलियां बड़ी नाजुक है और चाल-ढाल में थोड़ा जनानापन है। उसने दादा के तारामती
के प्रस्ताव को मान लिया। इस तरह भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ की नायिका कोई
महिला न होकर पुरुष थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके।" (हिंदी सिनेमा : दुनिया
से अलग दुनिया, पृ. 17)
मुंबई के दादर में पहली फिल्म का शूटिंग
शुरू हुआ। सूरज की रोशनी में दिन को शूटिंग और रात में उसी जगह पर पूरी यूनिट के
लिए खाना बनता था। सरस्वती देवी के साथ मिलकर सारी टिम खाना बनाने में योगदान करती
थी। किचन और खाना खत्म होने के बाद दादासाहब और उनकी पत्नी सरस्वती देवी फिल्म की
डेवलपिंग-प्रिटिंग का काम करते थे। अपैल 1913 में फिल्म पूरी हो गई और 21 अप्रैल,
1913 को मुंबई के ऑलंपिया थिएटर में चुनिंदा लोगों के लिए
पहले शो का आयोजन किया। चुनिंदा दर्शकों ने इस फिल्म को पश्चिमी सिनेमा के तर्ज पर
देखा और प्रेसवालों ने भी इसकी उपेक्षा की। परंतु दादासाहब इन आलोचनाओं के बावजूद
अपनी निर्मिति से उत्साहित थे, आश्वस्त थे और
उनको यह भी भरौसा था कि आम जनता और दर्शक इस फिल्म को सर पर बिठाएंगे। आगे 3 मई, 1913 कॉरोनेशन सिनेमा
थिएटर में जब इसे आम जनता के लिए प्रदर्शित किया तो उसने दादासाहब के भरौसे को सच
साबित किया। इसके बाद वे रुके नहीं और तुरंत नासिक में उन्होंने कथा फिल्म ‘मोहिनी भस्मासूर’ को बनाया।
रंगमंच पर काम करनेवाली अभिनेत्री कमलाबाई को फिल्म के भीतर मौका दिया। अर्थात्
दादासाहब की बदौलत ‘राजा हरिश्चंद्र’ में न सही अगली फिल्म में एक स्त्री ने किरदार निभाया और वह
भारतीय सिनेमा की पहली स्त्री अभिनेत्री भी बनी। ‘पीठाचे पंजे’ (1914), ‘लंका दहन’
(1914), ‘गंगावतरण’ (1937) आदि हिट फिल्में के साथ कई कलाकारों को इस इंडस्ट्री में स्थापित करने का
कार्य उन्होंने किया है।
दादासाहब अपने अंतिम दिनों में घोर आर्थिक
तंगी का सामना कर चुके थे। चारों ओर से घिर चुके और बाजार से उठाए पैसों के कई
मुकदमें भी शुरू हो गए। 16 फरवरी,
1944 को मुफलिसी के चलते नासिक में उन्होंने आखिरी सांस ली।
उनके मौत के पश्चात् भारतीय फिल्म इंडस्ट्री बड़ी बेपरवाही से और संवेदनहीनता के
साथ पेश आई। दादासाहब फालके जी का 1970 जन्म शताब्दी वर्ष था और भारत सरकार ने इनके योगदान को ध्यान
में रखकर फिल्म इंडस्ट्री में अतुलनीय योगदान देनेवाले व्यक्ति को ‘दादासहाब फालके’ जी के नाम से
पुरस्कार देना शुरू किया। इस पुरस्कार की एक ही कसौटी मानी गई है कि उस व्यक्ति का
भारतीय सिनेमा के लिए आजीवन योगदान हो।
पहला ‘दादासाहब फालके’ पुरस्कार बॉंबे
टॉकिज की मालकिन और फिल्म अभिनेत्री देवीका रानी को दिया गया। अर्थात् भारत सरकार
की पहल से भारतीय सिनेमा के जनक को दुबारा पहचान मिली और भारतीय सिनेमा के नवीन
सितारे अपने पुरखों के प्रति, इतिहास के प्रति,
जिम्मेदारी और कलाकारिता के प्रति सजग भी हो गए।
पिछले सवा सौ वर्षों का सिनेमा का इतिहास
है। 1895 में विश्व कि पहली फिल्म ‘अरायव्हल ऑफ द ट्रेन’ बनी और
उसके देखते-देखते अब तक कितना सफर तय किया है सिनेमा ने। इस परिदृश्य को देखकर
दुनिया चकित होती है। एक ही साथ उसे नजरभर देखने की क्षमता भी हममें नहीं है।
कितना भी समेटने और लिखने की कोशिश करे बहुत कुछ छुटने का एहसास होता है। कई
प्रवाहों, कई देशों और कई भाषाओं में चल रही इस दुनिया
में बेरोजगारों को रोजगार देने की बहुत अधिक क्षमता है। केवल इसके दरवाजे पर कुछ
कौशलों के साथ दस्तक देने की आवश्यकता है। युवकों को यह उद्योग अपने हाथों में
उठाकर चमकता सितारा बना सकता है। मेहनत, लगन,
परिश्रम, कुशलता, तपस्या के बलबूते पर इस दुनिया में अपने-आपको स्थापित किया जा
सकता है। सिनेमाई जगत् से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था बलशाली बन जाती है। बहुत
अधिक संभावनाएं और रोजगार निर्मिति का क्षेत्र होने के कारण इसे इंडस्ट्री भी कहा
जाता है।
भारतीय सिनेमा दादासाहब फालके जी के ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) से आरंभ होता है और उसके अब तक के सौ वर्षों के छोटे परंतु अधिक व्यापक
दुनिया में कई प्रकार की फिल्में बनी। दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनानेवाली
इंडस्ट्री के नाते दुनिया भारतीय सिनेमा जगत् को देखती है। समय आगे बढ़ता गया।
निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीकें बदलती रही और उसके साथ भारतीय सिनेमा भी बदलता गया। आज
उसकी सौ करोड़ों की छलांगे देखकर आंखें चौंधियाती है। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से
शुरुआत करनेवाला भारतीय सिनेमा बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले
चुका है। यथार्थवादी समांतर सिनेमा के काल में भारतीय सिनेमा जगत् वैचारिक चोटी पर
पहुंचा था। इस युग या ऐसे सिनेमाओं को सुवर्णकालीन सिनेमा कहा जा सकता है। ऐसा
नहीं कि वह युग खत्म हुआ, उसका काल बहुत
लंबा है और वैसी फिल्में समांतर सिनेमा के दौरान बनती तो थी ही, उसके पहले तथा बाद में और आज भी बन रही है। बाजारवाद के
प्रभाव में आया सिनेमा पैसे कमाए कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु बाजारू न बने तो उसका
भविष्य तेजोमय होगा। हम कुछ भी कहे, शंकाओं को जताए
भारतीय सिनेमा और विश्व सिनेमा अपने ही धून में विकसित होता रहेगा और आगे बढ़ेगा।
हां कोई नया कलाकार, कोई नया निर्माता, कोई तकनीशियन और कोई प्रयोगवादी इसके रूख को बदल सकता है। कान
फिल्मोत्सव में जाफर पनाहिने के ‘टॅक्सी’
(2015) का पुरुस्कृत होना इसकी ओर संकेत करता है।
वर्तमान युग में भारतीय सिनेमा में बॉलीवुड़ की फिल्में और अन्य प्रादेशिक भाषाओं
की फिल्में दुनिया की किसी भी उत्कृष्ट फिल्म को टक्कर देने की क्षमता रखती है।
संदर्भ
ग्रंथ सूची
1. फिल्मक्षेत्रे-रंगक्षेत्रे– अमृतलाल नागर (सं.डॉ.शरद नागर), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
2003.
2. फिल्मों का
सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा–(सं) कमला प्रसाद,
शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2010.
3. बॉलीवुड़ पाठ विमर्श के संदर्भ – ललित जोशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012.
4. सारिका (मासिक
पत्रिका) – अंक 375, नई दिल्ली, फरवरी 1985.
5. सिनेमा : कल,
आज, कल – विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2006.
6. सिनेमा की सोच –
अजय ब्रह्मात्मज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006, आवृत्ति 2013.
7. हिंदी सिनेमा :
दुनिया से अलग दुनिया – गीताश्री, शिल्पायान प्रकाशन, दिल्ली,
2014.
डॉ.विजय
शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद-431005 (महाराष्ट्र)
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