चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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चित्रांकन
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संस्कृति जीवन को श्रेष्ठ व सम्यक् बनाने की कला का नाम है।
इसी विशेषतम स्थिति की प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपने सांस्कृतिक मूल्यों के
साथ-साथ आस-पास घटित होने वाले नये प्रयोगों, उपकरणों, माध्यमों, व्यवहारों, चिंतन, आदतों, विचारधाराओं से भी ग्रहण करता रहा है। 21वीं सदी के द्वितीय दशक के इस दौर में आस-पास
घटित होने वाली घटनाओं से तात्पर्य सम्पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार के वे सभी मानक हैं,
जो भूमंडलीकरण की
विश्वव्यापी विचारधारा के माध्यम से हमारे
सांस्कृतिक गढ़ों में आ रहे हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ‘मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सम्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती
चली आ रही है, संघर्षों से
मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने
ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की संस्कृति केवल बात की बात है।’ लोकप्रिय संस्कृति की व्यापकता को द्विवेदी जी के उक्त कथन से समझा जा सकता
है। किसी भी देश और जाति की संस्कृति मनुष्य की जीवनीशक्ति के आगे विशेष नहीं रह
सकती है, साथ ही इसमें
ग्रहण और त्याग की प्रक्रिया बनी रहती है।
इसी क्रम में हम देखते हैं कि लोकप्रिय संस्कृति का अर्थ व
माध्यम ‘पॉपुलर कल्चर’
के अन्तर्राष्ट्रीय मंच
से भारत की सांस्कृतिक स्थितियों में व्यापक हेर-फेर कर रहा है। दूसरी स्थिति यह
भी है कि भारतीय संस्कृति के कुछ शाश्वत मूल्य भी उन्हें चिंतन के नए आयाम दे रहे
हैं।
अंग्रेजी के ‘कल्चर’ और ‘पॉपुलर कल्चर’ को अनूदित करके हिन्दी में ‘लोकप्रिय संस्कृति’ बनाया जाता है। हालाँकि इसमें संदेह है कि
लोकप्रिय के अन्तर्गत वे समस्त भाव और विचार आ जाते हैं, जिन्हें ‘पॉपुलर ’ अभिव्यक्त करता है। इसी आधार पर आलोचक मीडिया
विशेषज्ञ सुधीश पचौरी यह मानते हैं कि पॉपुलर और लोकप्रिय में फर्क है। अपनी पुस्तक ‘पॉपुलर कल्चर’ में इस विषय पर उन्होंने पर्याप्त विचार किया
है। अपने एक लेख में उन्होंने लिखा है- 'पॉपुलर के लिए हिन्दी में कभी-कभी लोकप्रिय शब्द का उपयोग
किया जाता है। लेकिन पॉपुलर लोकप्रिय का पर्याय नहीं बन पाता। लोकप्रिय की अपनी
अनुगूँजे हैं जो पॉपुलर या उससे भी छोटे पॉप से अलग है। पॉपुलर व पॉप में भी
अर्थांतर देखा गया है। यों पॉप पॉपुलर का छोटा रूप है, लेकिन वह कई स्तरों पर मुहावरे में बदल गया है,
जिसे हिट होने, अचानक बाजार में छा जाने, लोगों की याद में आ जाने व उसकी नकल करने वाले फैनों
;प्रशंसकों की लाइनों में
पढ़ा जा सकता है।‘
कई बार लोकप्रिय संस्कृति के भी कलात्मक वैसी ही ख्याति
अर्जित करते हैं जो विशेषण सुधीश पचौरी पॉपुलर कल्चर के लिए गिनाते हैं, फर भी सुधीश पचौरी हिन्दी के लोक से पॉपुलर का साम्यभाव नहीं जोड़ते। हिन्दी में लोक शब्द
संस्कृत के लोकदर्शने धतु से धृत प्रत्यय करने पर
निष्पन्न होता है। इस धातु का अर्थ देखना है। जिसका लट् लकार के अन्य पुरुष के एक
वचन का रूप लोकते हैं। अतः लोक शब्द का अर्थ हुआ देखने वाला। इस प्रकार वह समस्त
जन समूह जो इस कार्य को करता है ‘लोक’ कहा जा सकता है। ‘लोक’ शब्द से ही हिन्दी में ‘लोग’ शब्द की व्युत्पत्ति मानी जाती है। जिसका तात्पर्य है सर्वसाधारण
जनता। अतः लोक शब्द का अभिप्राय उस समस्त
जनसमूह से है जो किसी देश में निवास करता है।‘
लोक की विशेषता जहाँ एक निश्चित भौगोलिक सीमा है वहीं
पापुलर कल्चर भूमंडलीय संस्कृति में विश्वास रखता है। सुधीश पचौरी लिखते हैं- ‘लोक
अंग्रेजी के फोक के अधिक नजदीक माना जाता है। समुदाय का होना लोक के लिए जरूरी
है। लोकापवाद में लोक का अर्थ एक समुदाय के विश्वासों से परे चले जाने की बात से
लिया जाता है।‘
सुधीश पचौरी इसी आधार पर पापुलर-संस्कृति पद के उपयोग को
प्रस्तावित करते हैं। इस सन्दर्भ में कई बिन्दु विचारणीय होते है-हिन्दी में लोक
की अवधरणा लोक संस्कृति, लोक गीत, लोक गाथा आदि से
जुड़ी है। इन लोक सांस्कृतिक रूपों के पास अपने मिथ, रूढ़ि, विश्वास, प्रथा, परम्पराएँ आदि
होती थी। इनकी सर्वप्रमुख विशेषता एक निश्चित स्थान विशेष व समूह विशेष की किन्हीं
निश्चित विशेषताओं को अपने गीतों व कथाओं में व्यक्त करना होता था। इसके विपरीत
लोक के साथ ‘प्रिय’ विशेषण जुड़ जाने से इसके अर्थ व सन्दर्भ दोनों
बदल गए हैं। लोकप्रिय संस्कृति किसी स्थान विशेष से नहीं जुड़ती व ग्लोबल होने में
अपनी सार्थकता पाती है।
इसके पास न तो कुछ निश्चित नियम है न सुदृढ़ परम्पराएँ। यह
औद्योगिक व आर्थिक सम्बन्धों से निकली संस्कृति है। यह भाव की दृष्टि से उसी
लोकप्रियता का समर्थन पाना चाहती है, जिसका शोर पापुलर कल्चर में दिखता है। प्रसिद्ध अंग्रेजी
चिंतक रेमंड विलियम्स के अनुसार- लोकप्रिय के अंग्र्रेजी पर्याय ‘पॉपुलर’ की उत्पत्ति मूल रूप से राजनीतिक और विधिक
पारिभाषिक शब्द ‘पोपुलरिस’’ शब्द से हुई है,
जिसमें ‘एल’ जनता से सम्बन्धित है। क्रियात्मक रूप से ‘पॉपुलर ’ सबके लिए खुला था और विधिक रूप से सबके लिए
उपयुक्त और सुविधाजनक भी था।‘
पॉपुलर शब्द में जहाँ सर्वजनता के लिए स्थान है वहीं
लोकप्रिय में भी जनता के बीच लोकप्रियता प्राप्ति के भाव प्रमुख रहते हैं। अनेक
वामपंथी चिंतकों ने लोकप्रिय संस्कृति को लोकप्रियतावाद के पर्याय के रूप में देखा
है। ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’
के अनुसार-लोकप्रिय का आधार
आम आदमी है। आम लोगों द्वारा प्रशंसित, स्वीकृत एवं आदरणीय का नाम है, लोकप्रिय। रेमंड विलियम्स ने लोकप्रिय संस्कृति
का अर्थ ऐसी सांस्कृतिक वस्तु माना है जिसे श्रेष्ठ संस्कृति की तुलना में घटिया
कहा जाए। यह ऐसी रचना है, जो सचेत रूप से जनता में लोकप्रियता प्राप्ति के लिए रची जाती है।‘
लोकप्रिय संस्कृति के कला को ऐसे प्रतीकों के रूप में देखा
गया, जो निम्न श्रेणी के होते
हैं। रेडियों से प्रसारित होने वाले गाने सुनना बेहूदा और संस्कृति विहीन कार्य
माना गया। फिल्मों को भी निम्न कला का रूप माना गया। आज हम प्रत्यक्ष देख रहे
रेडियों की लोकप्रियता घटने के बजाए विभिन्न एपफ.एम. चैनलों के रूप में सामने आ
रही है। इसी तरह फ़िल्में आज लोकप्रियता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुकी है साथ ही
सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्रों के अध्ययन-अध्यापन के लिए भी फिल्मों की समीक्षा की
जा रही है।
अतः जिस प्रकार रेमंड विलियम्स के विचारों में से लोकप्रिय
और पॉपुलर के लिए समान अर्थ ध्वनियाँ निसृत हो रही है, उसी प्रकार हम जानते हैं संस्कृति का समानान्तर शब्द अंग्रेजी में कल्चर है जो पूर्व में कृषि सम्बन्धित कार्यों से जुड़ा
प्रकारान्तर में सभ्य होने के भाव इसमें निहित होते हैं। दोनों अर्थ में यह
संस्कृति की विशेषताओं के पर्यायवाची के रूप में ठहरता है। संस्कृति में परिष्कार
की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है इसी क्रम में आज लोकप्रिय संस्कृति की चर्चा भी
संस्कृति के विराट अस्तित्व के अन्तर्गत आ जाती है। अतः लोकप्रिय संस्कृति और
पॉपुलर कल्चर एक ही विचार के दो शीर्षक
है। ‘अग्रेजी शब्द कोश के अनुसार भी ‘पॉपुलर ’ शब्द का अर्थ है-लोकप्रिय, जनप्रिय, सर्वप्रिय और लोक
प्रचलित, किन्तु पॉपुलर कल्चर से तात्पर्य लोक संस्कृति जन संस्कृति
नहीं हो सकता। लोक संस्कृति और जन संस्कृति में जिस संकल्पना और भावना की प्रतीति
होती है वह पॉपुलर कल्चर की संकल्पना से
मेल नहीं खाती। लोकप्रिय संस्कृति और पॉपुलर
कल्चर में शब्दबोध की समानता या भिन्नता के साथ भी मुख्य बात यह है कि ये
बाजार तन्त्र के शक्तियों से जुड़ी कला शक्तियाँ हैं। इनमें सचेष्ट रूप से
व्यावसायिक और व्यापारिक लाभ कमाने की मानसिकता होती है। साथ ही हम लोकप्रिय
संस्कृति को इसके उदय की परिस्थितियों के साथ समझना चाहे तो भी यह पापुलर कल्चर की
विशेषताओं से समानता रखती है। यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रत्येक देश की
परिस्थितियां बहुत से स्तर पर भिन्न हुआ करती है। बावजूद इसके एक सामान
विशिष्टताओं वाले वर्ग में सतह पर कुछ एक जैसा घट रहा होता है। जिस प्रकार रैनेसां
और नवजागरण काल में अन्तर्निहित भेदों के साथ बहुत से स्तरों पर समानता के चिह्न देखे
गए। ऐसे चिह्न जो दुनिया के कई देशों में नए मूल्य और नए विशेषणों की मांग कर रहे
थे। ऐसे ही पॉपुलर कल्चर और लोकप्रिय संस्कृति में देशगत बहुत सी विभिन्नताओं के
साथ ही औद्योगिकरण की शक्ति के तहत जब आम आदमी ने अपनी पहचान की आवाज उठाई तब
संस्कृति के बने बनाए गढ़ों में परिवर्तन होता गया।
मैथ्यू आर्नल्ड जैसे गंभीर आलोचक ने ‘कल्चर और एनार्की’ पुस्तक में पॉपुलर कल्चर को विद्यमान प्रमुख संस्कृति के संदर्भ
में देखा है। वे पॉपुलर कल्चर के उदय को ब्रिटेन की उद्योग क्रांति या आर्थिक
क्राति के संदर्भ में देखते हैं। वर्ष 1860 तक ब्रिटेन की संसद में वोट का अधिकार नगर के कुछ
संभ्रान्त-कुलीन एवं शिष्ट लोगों को ही प्राप्त था लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के साथ
मध्यवित्तीय वर्ग के महत्व एवं कामगार वर्ग के उदय के कारण इस व्यापक वर्ग ने भी
ब्रिटेन संसद में वोट के अधिकार की मांग की। मैथ्यू आर्नल्ड इसके पक्ष में नहीं
थे। उनका तर्क था कि इस वर्ग के पास पर्याप्त अनुभव नहीं है और इस अनुभवहीन,
अपरिपक्व बौद्धिकता को
यदि यह अधिकार मिलता है तो अराजकता की स्थिति संस्कृति में भी आ सकती है। अतः
आर्नल्ड की कुलीन चेतना शिष्ट संस्कृति से बाहर की समस्त संस्कृति को ‘एनार्की’ के रूप में ही देख पाती है। मैथ्यू आर्नल्ड ही
नहीं वरन् उस युग के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों ने पॉपुलर कल्चर को शंका
की दृष्टि से देखा।
आज सर्वविदित है कि पॉपुलर कल्चर किसी भी सांस्कृतिक दायरे
से अधिक विस्तृत है। कारण इसने हमारी ही संस्कृति के भिन्न-भिन्न रूपों को हमारे
सामने प्रस्तुत किया है क्योंकि इस संस्कृति के निर्माणकर्ता बड़े पूँजीपति देश है
जो संस्कृति को भी एक उद्योग के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं।
भारत में भले ही राजनीतिक रूप से आम जनता को वोट का अधिकार
अपेक्षाकृत रूप से पहले ही प्राप्त था, परन्तु यहाँ कि निर्धन , मजदूर, जनता ने उस अधिकार को बेचा भी है। जब गाँवों का शहरीकरण हुआ
और शहरों में औद्योगिकीकरण ने अपनी गति पकड़ी और संचार माध्यमों ने ज्ञान के नए
अवसर प्रदान किए तो क्रमशः धीरे –धीरे लोक संस्कृति लोकप्रिय संस्कृति में बदलती
गई औद्योगिकीकरण, मशीनीकरण व संचार
माध्यमों की उपलब्ध्ता ने मध्यम श्रेणी के शिक्षित और मजदूर वर्ग को अपने शक्ति पहचानने
का आत्मविश्वास दिया। लोकप्रिय संस्कृति के रूपों का सम्बन्ध् शहरी सभ्यता से रहा
है। औद्योगिक क्रान्ति ने इसे तीव्रता प्रदान की। इसके विकास एवं निर्माण की
प्रक्रिया काफी जटिल रही है। आमतौर पर श्रम विभाजन की प्रक्रिया में नए श्रम सम्बन्धों, नए श्रम तकनीकी
रूपों का जब भी उदय हुआ। लोकप्रिय संस्कृति के नए रूप में नई विधा का जन्म हुआ।
अतः हम देखते हैं कि पॉपुलर कल्चर और लोकप्रिय संस्कृति के
उदय की परिस्थितियों के बीच वे एक समान विचार बिन्दु थे, जो विशिष्ट सांस्कृतिक दायरों के भीतर अपनी
अनुगूंजे बिखरने को एक जुट हो रहे थे। इस संदर्भ में लोकप्रिय संस्कृति, पॉपुलर कल्चर व पॉपुलर -संस्कृति पद भाव और
विचार के धरातल पर एक ही विचार की विभिन्न रूपों में प्रतीति कराते हैं।
सर्वमान्य रूप से लोकप्रिय संस्कृति अंग्रेजी के ‘पॉपुलर कल्चर’ का हिन्दी अनुवाद है और सांस्कृतिक अध्ययन ;कल्चर स्टडीज क्षेत्रों में यह संस्कृति के
लोकप्रिय रूपों के अध्ययन पर जोर देती है। ताकि जनसमुदाय में बड़े पैमाने पर विकसित
हो रही नई आकांक्षाओं को नये बाजार के रूप में समझा जा सके। लोकप्रिय संस्कृति न
केवल जनाभिरुचियों को विश्लेषित करने का कार्य करती हैं, बल्कि उनकी इच्छाओं को उत्पन्न करने पर भी जोर
देती है जिससे नयी मांगे उत्पादन के नये द्वार खोले। ऐसे दृष्टिकोण के लिए एडर्नो
ने ‘संस्कृति उद्योग’
;पदबन्ध का प्रयोग किया
है। उन्होंने लिखा है-‘संस्कृति खुले रूप से और विद्रोही तेवर के साथ एक उद्योग
बन गई है, जो अन्य उद्योगों
की तरह उत्पादन के नियम का पालन करती है। सांस्कृतिक उत्पादन संपूर्णता में
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का एकीकृत अंग है। संस्कृति अब दोषमुक्त भविष्य की शर्त पर
वर्तमान की गंभीर समझ का खजाना नहीं रही। संस्कृति उद्योग वर्तमान के विकृत
कल्पनालोक में विचरण के नाम पर आनंद की वचनवद्धता का परित्याग कर देता है। यह
वर्तमान की व्यंग्यात्मक प्रस्तुति है।‘
इसमें संदेह नहीं लोकप्रिय संस्कृति के माध्यम से विभिन्न
देशों को एक दूसरे के सांस्कृतिक प्रतिरूपों को जानने-समझने का अवसर मिला है। इन
अवसरों को उपलब्ध् कराने की मन्त्रणा के पीछे सांस्कृतिक रूपों को सशक्त करना है
या संस्कृति के ही माध्यम से संस्कृति को औजार बनाकर हमें संस्कृतिविहीन करके
मात्र संस्कृति का बाह्याडम्बर दिखाने को तैयार करना। इस द्वन्द्व की जटिलता का
समाधान किसी सरलीकरण से नहीं हो सकता।
जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने लिखा है- ‘पॉपुलर कल्चर
को लेकर प्रगतिशीलों में दो तरह का नजरिया रहा है। पहला नजरिया यह मानकर चलता है
कि पॉपुलर कल्चर के अंदर जाकर काम करो।
यानि पॉपुलर कल्चर को प्रचार से ज्यादा वे
महत्व नहीं देते। दूसरा नजरिया पॉपुलर कल्चर को आए दिन धिक्कारता रहता है। धिक्कार और पूजा के परे जाकर
आलोचनात्मक नजरिए से पॉपुलर कल्चर के तमाम पहलुओं पर गंभीरता के साथ विचार किया
जाना चाहिए।‘
पॉपुलर कल्चर के प्रसार के पीछे बाजार तन्त्र की आर्थिक दृष्टि
के कारण क्या यह सिद्ध करना ज्यादा आसान हो जाता है कि ये व्यावसायिक मूल्यों से
जुड़ी संस्कृति है। पॉपुलर कल्चर की धारणा से उत्पन्न हुए निम्न व हाशिए के विमर्श
जिस तरह समीक्षा के मूलाधार बन रहे हैं। इस उपयोगिता के संदर्भ में हमारा क्या
उत्तर हो सकता है। पॉपुलर कल्चर की अवधरणाओं को समझने में किसी भी प्रकार का
सरलीकरण व आरोपों को ही आधार बनाकर इससे
निकले कला रूपों के प्रकारों को कैसे अनदेखा किया जायें। यह सत्य है कि बड़े-बड़े
पूँजीपति देश भारत की संस्कृति को व्यापार के रूप में देख रहे हैं। विकसित
पूँजीपति देश अपने हिसाब से हमारे भीतर जरूरतों को देखने की दृष्टि भी विकसित कर
रहे हैं'
पॉल लाकार्ज ने पूँजीवाद के सन्दर्भ में लिखा है- ‘उपभोक्ता
की खोज कराना उसके पेट की भूख बढ़ाना और छद्म जरूरते पैदा करना पूँजीवाद का लक्ष्य
है इस संदर्भ में डी.टी.एच. के लिए मशहूर कम्पनी
एयरटेल के विज्ञापन का उल्लेख प्रासंगिक होगा। इस विज्ञापन में शाहरूख खान स्थानीय
माध्यम से प्राप्त चैनल्स सुविधा की खामी दिखाते हुए कहते हैं विश करो डिश करो
अर्थात् सन्तुष्ट मत रहो, इच्छायें उत्पन्न करो। हम कह सकते हैं कि इसने सादा जीवन उच्च विचार की
संस्कृति पर प्रहार किया है। इस विज्ञापन को देखने का दूसरा नजरिया यह हो सकता है
कि विकास की कोई सीमा नहीं होती। हमें प्रगति की अधिकतम सीमा तक पहुंचने का प्रयास करते रहना चाहिए। यदि
ऐसा नहीं होता तो हम आज तक दूरदर्शन के कुछ सीमित कार्यक्रम ही देख रहे होते। आज
टी.वी. संस्कृति में हर विधा के लिए विभिन्न चैनल्स है। एक ही विधा के लिए विभिन्न
चैनल्स है।
स्मरण यह रखना होगा कि विकास की अंतहीन सीमा संस्कृति की
शाश्वत परिभाषाओं में भी मूल्यवत्ता का विस्तार करें न कि सांस्कृतिक मूल्यों को
निराधार घोषित करें।
सुधीश पचौरी अपनी पुस्तक ‘फासीवादी संस्कृति और सेकूलर पॉप संस्कृति’
में लिखते हैं ‘एक नजर से
देखें तो उत्तर आधुनिकता वाद और पॉप कल्चर एक दूसरे से मिले जुले बढ़े हैं। अमेरिकी
सांस्कृतिक समीक्षक सुजन सौंटाग ने 1966 में अपनी कृति ‘अगेन्स्ट इंटरप्रेटेशंस’ में सम्भवतः सबसे पहले लिखा था कि हम एक नए भाव
बोध् उत्तर आधुनिकता भावबोध में आ गए हैंः ‘नए भावबोध् का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम एक
प्रकार ‘नया भावबोध्
जिसमें उच्च संस्कृति और निम्न संस्कृति का भेद निरर्थक होता जाता है।‘
इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं- इस लेख ने पॉपुलर कल्चर में
उच्च और निम्न के लिए अभेद के बारे में लगातार बताया है। जन समाज बनेंगे तो
जनसंस्कृति बनेगी और इस तरह आधुनिकता वादी चरण के ‘उच्च’ कलामानक व्यर्थ होकर निम्न यानी सामान्य मानकों-जो अन्ततः
और प्रथमतः ‘मांग और पूर्ति’
के नियम से संचालित होते
हैं- में मिक्स हो जाएंगे। मसलन एम.एफ. हुसैन फिल्म बनाने लगेंगे, न्यूज में रहने को आतुर होंगे, पॉपुलर माधुरी के सहारे ‘कला’ करेंगे। इन दिनों मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, मद्रास, व बंगलौर ही नहीं दूसरे दर्जे के महानगरों में
भी हमें ‘उच्च’ कलावन्तों और निम्न कला अनुरोध कि हमें आडिएंस
चाहिए, रिकार्ड एलबम
बनने चाहिए।.. इन दिनों कलाकार ;उच्च कलाकार सबसे पहले ‘निम्न’ बाजार पर नजर
रखता है। यह दृश्य बहुत उपलब्ध्, बीहड़ और स्वयं पॉपुलर है।‘
उपरोक्त कथन से पॉपुलर
कल्चर की कई विशेषताएँ प्रकट होती हैं। पॉपुलर कल्चर की अवधारणा ने ‘उच्च’ और ‘निम्न’ के भेद को मिटाया
है। ‘मांग और पूर्ति के नियम’
को बाजार के अर्थतन्त्र को
इसका एक अंग माना जाता है। ‘न्यूज में रहने को आतुर होंगे’ से लोकप्रियता प्राप्ति की उत्कंठता की ध्वनि निकलती है। ‘पॉपुलर’ माधुरी के सहारे कला करेंगे अर्थात् आज
कला के प्रतिष्ठित मानक भी अधिक लोकप्रियता के लिए पहले से पॉपुलर तत्वों को
ढूंढते हैं। इन दिनों कलाकार उच्च सबसे पहले निम्न बाजार पर नजर रखता है। यह हमें
विभिन्न चैनल्स के लोकप्रिय धारावाहिक कार्यक्रमों में देखने को मिल रहा है।
सुधीश पचौरी पॉप कल्चर और उत्तर आधुनिकता को ‘एक दूसरे से मिले जुले बढ़े’ मानते हैं, कुछ ऐसा ही लोकप्रिय संस्कृति के सन्दर्भ में
कृष्ण दत्त पालीवाल भी कहते हैं- ‘उत्तर आधुनिकता वाद ने ‘संस्कृति’ शब्द का इतना विस्तार कर दिया कि उसमें ‘अर्थअनंत’ की पैठ हो गई है। फिर उत्तर आधुनिकतावाद ने
आभिजात्यवाद के छद्म को अस्वीकार करते हुए लोकप्रिय संस्कृति का खुलकर समर्थन किया
है। वह लोकप्रिय कला-संस्कृति को आभिजात्य कला-दर्शन से कम महत्व नहीं देता।
सच्चाई तो यह है कि यहाँ ‘हाई आर्ट’ और ‘लो आर्ट’ में कोई भेद नहीं किया गया है। लोकप्रिय
संस्कृति की लोकप्रिय स्थिति पर विद्वानों का एक वर्ग अपनी प्रतिक्रियाएँ इसके
विपरीत प्रकट करता रहा है। वे लोकप्रिय संस्कृति की लोकप्रियता को ही निम्न कला का
उदाहरण मानते हैं। सुधीश पचौरी ने इस सन्दर्भ में लिखा है- ‘हाई कल्चर वादियों के
लक्षण इस प्रकार गिनायें जा सकते हैं कि वे स्वयं को जनता नहीं मानते। जनता से
मूलतः परहेज करते हैं उनके लिए पॉपुलर कल्चर हल्की और सतही होती है। जिसे मीडिया
देता रहता है। यह पतनशील होती है। हाई कल्चर हमेशा महान होती है।‘ वस्तुतः जब संस्कृति के साधन माध्यम सर्वसाधरण जनता के बीच उपलब्ध् होने
लगे। इन उपलब्धताओं ने संभवत पूर्व प्रतिष्ठित कला रूपों में रिक्ताएँ करना आरम्भ
कर दी हो। ऐसे समय में उत्पन्न हुई खीझ से उभरने के लिए ही उन्होंने लोकप्रियता को
ही निम्न कला का मानक बना दिया हो। सुधीश पचौरी एंजेला मैकरोवा के मार्फत लिखते
हैं-‘पॉपुलर कल्चर उत्तर आधुनिक स्थितियों में उन आवाजों का कलरव है, जिन्हें आधुनिकतावादी महावृत्तान्तों में दबा दफना
दिया था जो मूलतः साम्राज्यवादी और पितृसत्तात्मक थे।‘
पॉपुलर कल्चर की इस स्थिति ने आज सबको वह मंच, माध्यम, उपकरण दिया है, जिसके जरिये व्यक्ति स्वयं को इस संस्कृति का
सक्रिय सदस्य मान सकता है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते उसके निजी अनुभव, फेसबुक में दर्ज होती पहचान, बोलने की आजादी के नाम पर न्यूज चैनल के ‘हल्ला बोल’ जैसे कार्यक्रम, हालाँकि यह संबंध् भी इतना सच्चा व सपाट नहीं
है। उत्तर आधुनिकता की फिसलनदार पदावली की
तरह इस पॉपुलर कल्चर के परस्पर संबंधें की भी कई तहें है। इस बहाने न्यूज ढूंढने
या बनाने को आतुर संवाददाता को बैठे बैठाये न्यूज मिल जाती है। जनता का विश्वास
पाने का मौका, झूठी चिन्ता दिखाने
का अवसर मिल जाता है। फिर क्या पता कल इसमें हमारा ही चेहरा दिख जाए। लोकप्रिय
होने की चाह में कोई बीसवीं मंजिल पर चढ़ जाता है। इन सब झमेंले में थोड़े समय के
लिए टी.आर.पी. बढ़ जाती है।
इस संदर्भ में मीडिया क्षेत्रों के प्रमुख सिद्धांतकार
पीयरे बोर्दिओ की चिन्ता सार्थक है- बोर्दिओ को सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात
लगी टी.वी.रेटिंग। उसकी मुनाफा कमाने की मंशा। यही वजह है कि जिसके आधार पर खबरें
चुनी जाती है। रेटिंग और मुनाफा के आधार पर अब टी.वी. के सभी उत्पाद तैयार किए
जाते हैं। ‘यह स्वभाविक है
कि वे सामाजिक जगत का रूपायन नहीं करेंगे। मीडिया की स्वार्थ
केन्द्रित दृष्टि को हम कम अधिक रूप में स्वीकार भी करें और विरोध भी तब भी इस
प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता है कि साहित्य की उत्तर आधुनिक स्थिति ने उन सभी
वर्गों को हर दिशा से बोलने की शक्ति दी जो इससे पहले किसी भी रूप में साहित्य के
लेखन में नहीं आ पाई। वे कौन से कारण थे। साहित्य के अंश में वे विमर्श कभी अपनी
जगह नहीं बना पाये जो स्थान और महत्व उन्हें विभिन्न अस्मिताओं के संदर्भ में अब
मिलने लगा है। आज हम साहित्य के सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्रा के अन्तर्गत
सबाल्टर्न-स्टडी, नारीवाद, दलित साहित्य आदि को स्थान मिलते देख रहे हैं।
प्रतिक्रियावादी इस प्रश्न का उत्तर दे- एक जनता की बात करते रहें लेकिन जनता की
जरूरत के लिए कला-संस्कृति और उसके माध्यम जब सर्वसुलभ होने की स्थिति में आए तब
वही इसे पतन कहने लगे। जनता को सांस्कृतिक प्रारूप अधिक उपलब्ध हो यही तो संकल्प
था और जब यह तकनीक, बाजार और
माध्यमों से संभव हो रहा है तो यह परेशानी का विषय है। इस तरह संस्कृति में
आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता का द्वन्द्व
अनेक बुद्धजीवियों को बेकार कर रहा है। लोकप्रिय संस्कृति कला और संस्कृति के
विभिन्न रूपों को प्रचारित करती है। टी.वी. में रियल्टी शोज की बाढ़ ने कितने छुपे
हुए कलाकारों को मंच दिया, पहचान दी, लोकप्रियता दी और
व्यवसाय भी दिया जो इससे पहले उन्हें नहीं मिला। जॉन वीवर अपनी किताब ‘पॉपुलर कल्चर
प्राइमर’ में संस्कृति के
नाम पर उन वर्चस्ववादी नीतियों का हवाला देते हैं, जब 1800 ई. के शुरूआती दौर में इग्लैण्ड के म्यूजियम को इसलिए बन्द
कर दिया गया कि वहां लोगों के बीच म्यूजियम और उसमें रखी वस्तुओं को देखने की समझ
नहीं थी। बाद में फिल्म और मीडिया ही ऐसा माध्यम बना, जिसने धीरे –धीरे म्यूजियम जाकर देखने की प्रासंगिकता
को ही कम कर दिया।
अंतः यह सच तो विभिन्न द्वन्द्व के बाद भी निकलकर आता है कि
लोकप्रिय-संस्कृति ने विभिन्न संचार माध्यमों को जनता के बीच सुलभ बनाया है। इसमें
भी कोई दो राय नहीं है कि इन सबके बीच बाजार का आर्थिक दृष्टिकोण बराबर से और
प्रभावी रूप से अपनी भूमिका निभा रहा है। इंटरनेट के जरिए हम जानकारियों के अथाह
सागर में डुबकिया लगा-लगा के थक सकते हैं, परन्तु जानकारी का कोई अन्त नहीं दिखता। ब्लॉग पर अपनी बात
लिखकर कितने करोड़ों पाठकों तक पहुँचा सकते हैं। ‘गूगल’ 28 दिसम्बर, 2010 से ली गई जानकारी के आधार पर देखिए- ‘साल के
इन दिनों बीस करोड़ से अधिक प्रिंट के पाठक है, पैंसठ करोड़ मोबाइल वाले हैं, साठ सत्तर करोड़ लोग टी.वी. के दर्शक हैं,
अस्सी नब्बे करोड़ लोग
रेडियों के श्रोता है, दस करोड़ से ज्यादा कम्प्यूटर वाले उनमें इंटरनेट वाले हैं, साइबर स्पेस के नये खिलाड़ी है, ब्लागर है, हैंकर हैं।‘
संचार माध्यमों की उपलब्ध्ता के ये आकड़े जनमानस की शक्ति का
परिचय देते हैं, उसकी भागीदारी का
परिचय देते हैं परन्तु यह शक्ति उस महाशक्ति के समक्ष एक आकड़ा
ही बन कर रह गई जब मीडिया ने विकीलीक्स का खुलासा किया। इसमें मीडिया ने तो जनतंत्र को तो दबी
खबरें दी, पर व्यक्ति को
उसकी अस्मिता का भी एहसास उसे करा दिया।
‘लोक संघर्ष’ पत्रिका से उद्धृत तथ्य देखिए विकीलीक्स के एक्सपोजर ने इंटरनेट की परतें
खोलकर रख दी। इसने अमरीका में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्राता के पाखंड को एक सिरे से
नंगा कर दिया। बुर्जआ लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता वहीं तक है जहाँ तक
आप राज्य को सत्ता और प्रभुता को चुनौती नहीं देते।‘
पॉपुलर कल्चर ने तथाकथित जिस उच्च-निम्न के भेद को मिटाने
का दम्भ भरा क्या वास्तव में ऐसा है या यह कहें पॉपुलर कल्चर भेदों को
मिटाते-मिटाते उन शक्तियों के समक्ष पहुँच जाता है, जहाँ से ये भेद बनना प्रारम्भ होते हैं। इसी
पत्रिका में यह भी लिखा है- ‘अमरीका’ ने नई विश्व व्यवस्था में एकमात्र महाशक्ति के नाम पर किस
नरक की सृष्टि की है वह सब विकीलीक्स ने उद्घाटित किया है। अमरीका का नई विश्व
व्यवस्था के संदर्भ में प्रधान लक्ष्य है यूरोप से लेकर सोवियत गुट तक के समाजवादी
देशों तक किसी भी क्षेत्र में कोई भी महाशक्ति पैदा नहीं होनी चाहिए।‘
पॉपुलर कल्चर ने जिस भूमंडलीकरण के माध्यम से नये विश्व
ग्राम की चर्चा की है। वस्तुतः वह अमरीका की ‘नई विश्व व्यवस्था’ है। अपने वर्चस्व की विश्व व्यवस्था, जिसे विज्ञापन के कला जाल से भूमंडलीय संस्कृति
की व्यापक उदार उद्भावना के लपेटे से बाजार के माध्यम से प्रसारित किया जा रहा है।
यह सब इधर पिछले कुछ दशकों से अधिक विस्तार से हो रहा है। नव्य उदार आर्थिक
नीतियों के अनुकरण के बाद नये किस्म की बाजार व्यवस्था ने हमारे मूल्यों मान्यताओं
को खुरेदना शुरू कर दिया है, उपभोक्तावाद को विभिन्न विज्ञापनों के झांसे से इस तरह महिमा मंडित किया जाता
है। मानो मानवतावाद से बड़ा उपभोक्तावाद है। उपभोग प्रवृत्ति की बढ़ती इच्छाओं ने
आनंद को चरम मूल्य मान लिया यहां तक कि मूल्यहीनता को भी मूल्य मान लिया गया। आज
तमाम कम्पनियों के क्रेडित कार्ड ने आय से अधिक व्यय कराना सीखा दिया। संतोष से अधिक
संग्रह को महत्व दिया जा रहा है। प्लेटो का मानना था कि व्स्तुगत रूप से आंतरिक
चरित्र में जो चीज सच नहीं है, वह मनुष्य के लिए आत्मगत रूप से अच्छी और सच्ची नहीं हो सकती। संस्कृति उद्योग
की छल-प्रपंच से भरपूर संरचना न तो सुखमय जीवन का दिशा-निर्देश हैं और न ही नैतिक
जिम्मेदारी की नई कला।
संस्कृति उद्योग ने आज कला को विभिन्न माध्यमों से जनता के
द्वार तक लाकर खड़ा कर दिया है, परन्तु संस्कृति के प्रचार-प्रसार के छल योजना अन्तर्गत, जब यह व्यावसायिक दृष्टियाँ किसी देश के नैतिक
मानकों को ध्वस्त करने लगती है तो कई प्रश्न एक साथ खड़े हो जाते हैं। भूमंडलीकरण
के सौन्दर्यात्मक आवरण में जिस मूल्य हीन संस्कृति को प्रसारित किया जा रहा है उसमें
प्रश्नचिह्न लगते। यदि भारतीय संस्कृति की भाँति वह वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से
जुड़ी होती। ‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ संसार के सभी
देशों के नागरिकों को अपना भाई मानता है। भूमंडलीय संस्कृति में एक देश उत्पादक
होता है दूसरा उपभोक्ता। दुकानदार और ग्राहक के संबंध् आर्थिक लेन-देन के होते
हैं। आत्मीय और निःस्वार्थ नहीं। भूमण्डलीय संस्कृति पूरे संसार को एक नहीं मानती
बल्कि सम्पूर्ण संसार को अपना एक बाजार मानती है। उपभोक्ता जो बाजार का सर्वप्रमुख
आवश्यक तत्व है। इसकी आवश्यकता को समझकर या इसे आवश्यकताओं के बारे में समझाकर
आर्थिक नीतियों के नाम पर आर्थिक गुलामी में लपेट लिया गया है। जगदीश्वर चतुर्वेदी
के शब्दों में- भूमंडलीय संस्कृति वस्तुतः सांस्कृतिक एड्स है, जिसमें उपभोक्ता की अंततः सांस्कृतिक मृत्यु तय
है। लोकप्रिय संस्कृति के पीछे छिपी इन व्यवसायिक दृष्टि को वसुधैव कुटुम्बकम् की
उदात्त भावना से जोड़ा जा सकता है? ऐसे सीधे , सरल समीकरण का आज
क्या औचित्य हो सकता है। इसका समाधन भविष्य के गर्भ से निकलेगा। अभी तो हमें इसके परिणाम देखने को
तत्पर रहना चाहिए। कृष्णदत्त पालीवाल ‘ग्लोबल रीच’ पुस्तक के लेखक रिचर्ड जे. बार्नेट के मार्फत लिखते हैं- ‘.नई तकनीक और नई
विचार क्रान्ति से मजबूत ये लोग पूरे संसार को एक इकाई, एक विश्वग्राम ;ग्लोबल विश्लेषण, ग्लोबल मैन, ‘ग्लोबलिज्म, ग्लोबलाइजेश’ बनाने के चक्कर चला रहे हैं। ...पूरी धरती को
जीतने का साकार स्वप्न। यह कोई रहस्यवाद नहीं है, जीत भरा व्यापारवाद है यही ग्लोबलाइजेशन है।
लोकप्रिय संस्कृति ने अपनी सीमा के भीतर प्रतिष्ठित
उच्चासनों को तो उनके क्षेत्र से हटाकर अपनी जगह बनाई, परन्तु उन पूँजीपति शक्तियों को कैसे महत्वहीन
किया जाए, जो उपभोक्ता को
आर्थिक गुलामी देकर उसके पास कुछ भी नहीं छोड़ने वाले है। वस्तुस्थिति यह है कि कोई
भी राष्ट्र एक ही समय विजेता राष्ट्र और परोपकारी राष्ट्र नहीं बन सकता।
वर्तमान में भारतीय राजनीति ऐसी स्वार्थलोलुप मानसिकता की
शिकार हो चुकी है। विकास के मुद्दे को न तो केन्द्र सरकार अपनाती है, न राज्य सरकारें उन्हें अपने कर्तव्य क्षेत्र
में गिनती है। विश्व व्यापार संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान जब हमारे आर्थिक आधार हमसे छीन लेते हैं, तो हमारे पास उन महाशक्तियों के आगे नतमस्तक
होने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहता। कम्यूनिस्ट घोषणा-पत्रा 1848 में कार्ल मार्क्स एवं फ्रेंडरिक एंगेल्स ने
लिखा है कि- पूजीपति वर्ग ने जहाँ पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी सामंती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक सम्बन्धों को नष्ट
कर दिया। उसने मनुष्य को अपने ‘स्वाभाविक बड़ों’ के साथ बांध रखने
वाले नाना प्रकार के सामंती सम्बन्धों को निर्ममता से तोड़ डाला और नग्न स्वार्थ के
‘नकद-पैसे-कौड़ी’ के हृदय शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्य के बीच
दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया।
आज हम चिंतन के क्षण निकालकर थोड़ा विचार करें तो पायेंगे कि
हमारा दृष्टिकोण भी कितना व्यावसायिक होता जा रहा है। हमारा स्टेट्स सिंबल हमें
आवश्यकता से अधिक महंगी और विदेशी वस्तुएँ संग्रह करने पर जोर देता है। टी.वी. के
एक विज्ञापन में एक युवक परिणय जैसे महत्वपूर्ण और आत्मीय संबंध में भी एक ऐसी
सरकारी नौकरी वाली लड़की को प्राथमिकता देता है ताकि प्राइवेट बहुर्राष्ट्रीय
कम्पनियों में अनिश्चय की जो तलवार लटकी रहती है, उससे बचा जा सके। पॉपुलर कल्चर के उपकरणों का
प्रयोग करते समय हमें यह मानसिक सावधनी रखनी चाहिए कि इससे हमारी संस्कृति की नई
पहचान किस रूप में और कहां तक मिल रही है, क्योंकि कला मंगल की सृष्टि करती है। यदि ऐसा हो तो हमें
स्वयं से प्रश्न करते हुए, उसके कला मानकों को तब तक संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए तब तक किसी भी कोण
से हमें उसमें जीवन के यथार्थ के उत्तर न मिले। यह उत्तर किन्हीं सीमित सांस्कृतिक
दायरों में कैद होकर नहीं बल्कि नैतिक मानदण्डों से भी तय हो सकते हैं। सुधीश
पचौरी बैजामिन के हवाले से लिखते हैं- ‘पॉपुलर कल्चर जीवन का संस्कार करने वाली
रही हैं, लोगों ने उसे और
उसमें से बहुत कुछ चुना है। सब कुछ नकारात्मक होता तो लोग उसे आनंद का कारण न
समझते।
अतः इसमें नकारात्मक भी है। सब कुछ न सही पर कुछ तो है। ऐसा
विश्व की सभी संस्कृतियों में होता है। कोई भी संस्कृति स्वयं में पूर्ण नहीं हो
सकती। पॉपुलर कल्चर ने समाज में जिस उपभोक्तावाद को ‘आनर्स प्राइड’ के नाम पर बढ़ावा दिया है। विज्ञापन में जरूरतें
देखने की जिद को पैदा किया है। लोकप्रिय संस्कृति जनता को थोड़ी लोकप्रियता थोड़ी
उपयोगिता देकर शेष बड़ा हिस्सा अपने पास सुरक्षित रखती है। संस्कृति के इस
उत्तर-औद्योगिक युग ने मार्क्सवाद की तो रीढ़ की हड्डी ही तोड़ दी।
उस मार्क्सवाद की जो वर्गहीन समाज के सपने लेकर खड़ा होना चाहता
था। लोकप्रिय संस्कृति फिर से समाज में नये वर्गों को निर्माण कर रही है, जिसमें एक देश उत्पादन की शक्तियाँ हाथ में
लेकर शक्तिशाली होगा, पूँजीपति होगा
वहीं दूसरा देश उसका ग्राहक, ‘आनर्स प्राइड’ होकर भी गुलाम
होगा। यह कैसा आनर्स प्राइड होगा। मार्क्सवादी विचारधारा के तहत हमें इस पॉपुलर कल्चर के संस्कृति उद्योग की कमियों को दूर करना
होगा। जर्मेसन ने कहा है नए पूँजीवाद के आर्थिक उपक्रमों और
सांस्कृतिक दबावों और बदलावों के संग तालमेल बनाकर ही ‘सर्वाइव’ कर सकेगा..मार्क्सवाद को पॉपुलर होने के लिए ‘पॉपुलर कल्चर’ का नया संस्करण ग्रहण करना होगा।
जीवन में विकास के लिए समन्वय ही वह उचित और अन्तिम माध्यम
होता है। जहाँ से जीवन अपने श्रेष्ठ रूप में अग्रसर हो सकता है। ‘सांस्कृतिक दबावों और बदलावों के संग तालमेल’
से इसी ध्वनि की ओर संकेत
है कि हमें इसमें से कुछ ग्रहण करना पड़ेगा, कुछ का त्याग। जिस प्रकार मार्क्स ने वर्गहीन
समाज की कल्पना आर्थिक विश्लेषण से की। वस्तुतः हम अर्थ की संरचनाओं को छोड़कर
सामाजिक-सांस्कृतिक स्वतन्त्राता व प्रगति की बातें करते हैं तो यह एक निरर्थक
चिंतन ही सि( होता है। हमारी सांस्कृतिक मान्यताएँ आज इसलिए भी धूमिल पड़ रही है,
क्योंकि हमारे औद्योगिक
नीतियों की शक्ति हमारे हाथ में नहीं है। संस्कृति को हमें अर्थशास्त्रा से जोड़कर
देखना होगा, सांस्कृतिक
मूल्यों के बखान से संस्कृति के क्षय को नहीं रोका जा सकता है। सांस्कृतिक आधरों
की सुदृढ़ता अर्थ तन्त्रा की स्वतन्त्राता से जुड़ी है- पूरन चन्द्र जोशी ने लिखा
है- ‘अर्थशास्त्रा एक सांस्कृतिक विषय है और आर्थिक जीवन से हटकर सांस्कृतिक जीवन
के बारे में नहीं सोचा जा सकता।‘
डा.कुसुम सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली,संपर्क सूत्र:-9899 020 466,ईमेल:-kusumsinghsolanki@gmail.com
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