चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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बदलता हुआ परिवेश और बैगा जनजाति की गोदना परंपराएं/अनिल कुमार पाण्डेय
चित्रांकन
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जनजातियां भारत की
वह स्थानीय मानव प्रजातियां है, जिसकी भारतीय
संस्कृति के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत
में आदिवासियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 8.6 फीसदी है। वर्तमान में देश में
425 से अधिक जनजातियां निवासरत हैं। मानवशास्त्रियों का मत है कि आदिवासियों के अधिकांश समूह नीग्रिटो और
प्रोटोआस्ट्रेलॉयड अथवा मंगोलॉयड प्रजातियों के वंशज हैं। भौगोलिक दृष्टि से
आदिवासियों के समूहों को चार प्रमुख भागों में बांटा जा सकता है इनमें उत्तर और
उत्तर पूर्व क्षेत्र, मुख्य क्षेत्र, पश्चिम क्षेत्र एवं दक्षिण क्षेत्र शामिल हैं। इनमें जनजातीय जनसंख्या की दृष्टि से मध्य क्षेत्र अत्यधिक ही महत्वपूर्ण है। इनमें बिहार के संथाल और बिरहार, उत्कल के वोदों, खोंड, सवरा, जुआडा तथा मध्यप्रदेश के गोंड, बैगा, कोरकू, कमार, भुंजिया आदिवासी आदि
शामिल हैं।
बैगा जनजाति: परिचयात्मक संदर्भ
बैगा छोटा नागपुर की आदिम
जनजाति भुईयां की मध्यप्रदेशीय शाखा है। बाद में इन्हें भूमिया बैगा कहा जाने लगा।
सबसे पहले बैगाओं ने छोटा नागपुर के रास्ते छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया। तत्पश्चात
ये, मध्यप्रदेश के मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर, उमरिया, बालाघाट ज़िलों में निवास करने लगे। बैगा शारीरिक बनावट के
हिसाब से श्याम वर्णीय, गठीले हष्ट पुष्ट
होते हैं। इनकी नाक चपटी व ललाट चौड़े होते हैं। बैगा औसत कद काठी के होते हैं। बैगा मध्यप्रदेश की विकास की दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी
जनजातियों में से एक हैं। साथ की अपनी आदिमता के अंतिम पड़ाव में है। बैगा परम्परा
से सामूहिक जीवन जीने के आदी हैं। बैगाओं की सामाजिक संरचना आंतरिक रूप से अत्यंत ही
सुव्यवस्थित एवं संगठित है। बैगा समाज पुरुष
प्रधान है, लेकिन आदिम बैगा समाज
आन्तरिक रूप से स्त्रियों को अन्य विकसित समाजों की तुलना में अधिक
स्वायत्तता, स्वच्छंदता एवं स्वतंत्रता
प्रदान करता है। वहीं इनकी राजनैतिक व्यवस्था पंचायत आधारित होती है। पंचों द्वारा
दिया गया निर्णय ही सर्वमान्य होता है। किसी भी समाज की आर्थिक व्यवस्था समाज का
महत्वपूर्ण अंग होती है, लेकिन इस मामले में
बैगा अत्यंत ही पिछड़े हैं। बैगा समाज में
खेतीबाड़ी, घरेलू धंधे, पशुपालन, मज़दूरी इत्यादि
इनकी आर्थिक गतिविधियों का मुख्य आधार है। बैगा परम्परागत खेती करने में विश्वास
करते हैं।
बैगा जनजाति का परम्परागत संचार अत्यंत ही समृद्ध एवं चिरकालिक हैं। बैगा जनजाति संचार या संदेशों के संप्रेषण के लिए कई
माध्यमों का उपयोग करते हैं। एक तरह से बैगाओं की सम्पूर्ण जीवनप्रक्रिया ही संवाद करती हुई दिखायी पड़ती है। चाहे उनके धार्मिक
विश्वास हों या फिर विवाह हो या
जन्म-मृत्यु संस्कार सभी के सभी बैगाओं की पुरातन जीवनचर्या कों संप्रेषित करते
हैं। बैगाओं का शायद ही ऐसा कोई क्रियाकलाप होगा, जिसमें संचार न हों। बैगाओं में संचार के तीन प्रारूपों, अन्तराव्यैक्तिक, अन्तरव्यक्तिक, समूह संचार दृष्टिगत होते हैं हांलाकि समय के साथ इनकी संचार प्रक्रियाओं में अंतर आया है। चाहे ये अंतर
भाषागत हो या फिर सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव के कारण हो। 2001 की जनगणना के आंकड़ों
के आधार पर ये जनजाति अपने मूलस्थानों से स्थानांतरित होकर प्रदेश के लगभग आधे
ज़िलों में पहुंच चुकी है। यानि ये अपने मूल स्थान से अलग हो रहे हैं। स्वाभाविक
है ये खुद को एक नए आर्थिक सामाजिक परिवेश में खुद को ढालने की जद्दोजहद में लगे
हैं।
बैगा जनजाति के लोग जैसे-जैसे दुर्गम पहाड़ों, उपत्काओं से बाहर आते गए हालांकि ये दर बहुत ही कम है ने पर-संस्कृति
ग्रहण की प्रक्रिया को आत्मसात किया है, उदाहरण के लिए बंगाल के संथाल जनजाति के व्यक्तियों ने न केवल हिन्दू संस्कृति
को आत्मसात किया बल्कि ये अपने बच्चों के नाम भी हिन्दुओं के नामों की तरह रखने
लगे, लेकिन पर-संस्कृति ग्रहण के कारण कई समस्याएं भी
उठ खड़ी हुई, जिनका प्रभाव जनजातियों के
सामूहिक जीवन पर पड़ने लगा, खुद की जाति के
प्रति हीनता का भाव पैदा हुआ, अनैतिकता ने जन्म
लिया, साथ ही आर्थिक विषमता ने घर
कर लिया इसके अलावा पर-संस्कृति संपर्क का एक दुष्परिणाम बीमारियों में वृद्धि भी
रहा। इनका सामाजिक नियंत्रण ढीला हुआ, लेकिन इन सब के साथ सबसे बड़ा प्रभाव यह रहा कि जनजातियों का लोप ही हो गया।
वर्तमान समय जनमाध्यमों का है और जनजातियां विकास की मुख्य
धारा से जुड़ने को आतुर नज़र आ रही हैं। ये बात सत्य है कि जनजातीय क्षेत्र जंगलों
एवम् पहाड़ों के बीच अवस्थित है। जहां जाना एवम् सम्पर्क साधना अत्यंत ही कठिन है।
ऐसे में जनमाध्यमों की पहुंच जनजातीय समाज में अत्यल्प है, लेकिन वर्तमान में जनमाध्यमों की पहुँच का दायरा विस्तृत
हुआ है। आज आकाशवाणी से कार्यक्रम देश के हर हिस्से में सुने जा सकते हैं।
जनमाध्यमों की पहुंच आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ रही है। सरकार की मदद से आदिवासी
बहुल क्षेत्रों में कम्युनिटी रेडियो के कार्यक्रम प्रसारित किया जा रहे हैं ।
जिनमें आदिवासियों के लिए आदिवासियों द्वारा ही कार्यक्रमों का निर्माण किया जाता
है। इन प्रसारणों के कारण ही जनजातीय समाज में एक चेतना विकसित हुई है, जिसके कारण ही जनजातीय समाज, सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक बदलावों से गुज़र रहा है। बावजूद इन सब के बैगा जनजाति समुदाय अभी भी अपनी परंपरागत
विरासत को संजोए हुये है। ये बात सत्य है कि इनमें क्षरण दृष्टिगोचर हुआ है लेकिन
आज भी ये परंपराएं अनवरत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जारी हैं।
लोक जीवन में संचार परंपराएं -
सृष्टि में सजीव-निर्जीव सभी अपनी–अपनी परंपराओं में बंधे हुए हैं और इस तरह की मान्यताओं का
प्रतिपादन भारतीय मनीषियों ने प्राचीन काल में ही किया है। वहीं विश्व की
प्राचीनतम परंपराओं में से एक भारतीय परंपरा के कई रूपों का अध्ययन भी भारतीय
मनीषियों ने अत्यंत ही गहनता से किया है। परंपराएं सामान्यत: मानवीय समझ विकसित
होने के साथ ही सभ्यता की शुरुआत से ही जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि भारत के
प्रत्येक समाज या समुदाय की पहचान देश-दुनिया में आज भी परंपरागत समाज के रूप में
ही है। सही मायनों में लोग जिसे अपनी परिपाटी कहते हैं वही परिमार्जित रूप में
परम्परा है। परंपरा हमेशा लोक संवाहकों द्वारा संवहित होती है, वहीं लोक-परंपराओं को संवहित करने में पारंपरिक विधियों की
परम आवश्यकता होती है। वर्तमान में माध्यमों का जो स्वरूप देखने को मिल रहा है
कहीं न कहीं पारंपरिक माध्यम ही इनके मूलाधार में है। “पारंपरिक माध्यम हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते
हैं, साथ ही लोगों के सुख–दु:ख, हर्ष, धर्म-कर्म आदि के लिए
सेतु का काम करते हैं। पारंपरिक माध्यम लोक जीवन में सामुदायिक संपर्क तक ही सीमित
नहीं हैं बल्कि सामाजिक संवाद तथा सामाजिक सह-शिक्षण में भी मददगार है।” 1 भारतीय समाज में परंपराओं तथा प्रथित मान्यताओं की एक विशाल श्रृंखला मिलती
है। भारतीय समाज में लोक-परंपराओं को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। परंपराएं हर
स्थिति-परिस्थिति में समाज के लिए अनुकरणीय तथा स्वीकार्य होती हैं।
लोक-संस्कृति मानव की वह जीवन शैली है जिसे उसने अपनी
बुद्धि की कुशाग्रता, मन की सौंदर्य–भावना से सजाया और संवारा है। लोक-संस्कृति, लोक-मानव के मन और बुद्धि के सामंजस्य का वह रूप है जिसमें
उसकी बौद्धिक कुशलता के साथ-साथ हृदय की सहजाभिव्यक्ति होने के कारण एक प्रकार का
अनगढ़पन भी मिश्रित हो गया है। डॉ. श्यामाचरण दुबे ने भी अपनी पुस्तक मानव और
संस्कृति में लिखा है कि “आदिकाल से ही मानव प्रकृति के सामान्य रूप से संतुष्ट नहीं रहा है। सौन्दर्य –
वृद्धि तथा सौन्दर्य-दृष्टि की ओर नैसर्गिक रूप
से उसकी प्रवृत्ति रही है।” 2 मानवीय इतिहास में शायद ही कोई मनुष्य या समुदाय हो जो प्राकृतिक एवम् मानवीय
संबंधों से अलग-थलग रहा हो। वहीं कोई भी चिंतन समाज का परोक्ष या अप्रत्यक्ष आकलन
किए बिना प्रकट नहीं हो सकता। “सौन्दर्य के प्रति मानव का रुझान अत्यंत प्राचीन
है.....मानव कला के बिना जीवित रह सकता है, परन्तु संसार के प्रत्येक भाग में उसने कला का कोई न कोई
रूप–नृत्य, संगीत, चित्रण, स्थापत्य-अवश्य ही विकसित किया है। मानव की कलात्मक चेतना के शारीरिक और मानसिक आधार का
विश्लेषण संतोषजनक रूप में अभी तक नहीं हुआ है। इस प्रकार के विश्लेषण के अभाव में
केवल यही कहा जा सकता है कि अपनी अन्तश्चेतना की कतिपय उलझनों और तनावों को दूर
करने के लिए ही कला की सृष्टि करता है।” 3
संचार की कई विधाएं सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ ही
विकसित हुई हैं। इन विधाओं में अधिकांश विधाएं मनोरंजनता का पुट लिये हुए हैं।
प्रारंभिक स्तर पर जहां मनोरंजन के साधन के तौर पर इन विधाओं का उपयोग किया जाता
था वहीं बाद में यही विधाएं अपने विकसित रूप में संचार के प्रबल साधन के रूप में
सामने आयीं और जब ये संचार विधाएं अपने उत्कर्ष पर पहुंचीं तो इन्हें बतौर
जनमाध्यम स्वीकृति मिली। संभवत: लोक-संस्कृति में लोक कलाओं और लोकसंचार के निर्माण का यही
विकासक्रम रहा होगा। त्रिभुवननाथ शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘लोक संस्कृति की
अवधारणा’ में लिखा है कि “लोक ग्रामीण अथवा
संस्कृति अर्थ में ना होकर अपने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त है। ‘लोक’ यहां ‘जन समस्त’ का संकेत है। जहां
तक मानव समाज का प्रसार है वहां तक लोक की व्याप्ति है। इसी लोक की आचार-विचार
संबंधी क्रियाएं जिस समूह की चेतना में स्पन्दित होती है उसे लोक-संस्कृति कहा
जायेगा।”
बैगा जनजाति की परंपरागत संचार परंपराएं –
भारत की पच्चीस सौ वर्षों की समृद्ध
पुरातन परंपराओं और परंपरागत संचार का उदय एवम् विकास उतना ही रोचक तथा सहज है
जितना कि उसकी क्षेत्रीय शैलियों की विविधता। क्षेत्रीय शैलियों में विभिन्न कलाओं के विकास ने लोक-संस्कृतियों
को जन्म दिया है। गायन, वादन, नृत्य और नाट्य के साथ ही अनेक विधाओं का विकास हुआ
है। लोक-संस्कृति वास्तव में लोक जीवन का दर्पण है। ‘लोक’ शब्द में अत्यंत विराट
भाव समाहित है। मानव संस्कृति के विकास ने कला और संस्कृति को भी विकसित किया है।
इस संस्कृति का आधार परंपरागत संचार है। परंपरागत संचार वह है जो हमारे घर–आंगन,
गली-कूचों में सृजित होता है और अन्तत: हमारे जीवन में रच-बस कर सम्पूर्ण समुदाय में व्याप्त होकर
परंपरा बन जाता है।
परंपरागत संचार की प्रकृति सहज एवम्
सरल होती है। परंपरागत संचार नैसर्गिक तथा स्वत: स्फूर्त होता है। परंपरागत संचार पारंपरिक विरासत के रूप
में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वमेव स्थानातंरित हो जाता है। परंपरागत संचार
जनजातीय समुदाय में लोकगीत, लोकनाट्य, लोक कथा, गोदना, मेंहदी, मूर्तिकला, अल्पना,
भित्ति-चित्रण, चित्रकला के रूप में व्याप्त है और इन्हीं परंपरागत संचार विधाओं
में बैगा जनजाति की संस्कृति के इन्द्रधनुषी रंग समाहित हैं। “गोदना की प्रथा हमारी परंपराओं की देन है। साथ ही लोक-माध्यम भी। गोदना गीत भी प्रचलित है। स्त्री के हाथ, नाक,
ललाट, पैर या अन्य भागों में गोदे गये गोदना से उसके शादीशुदा होने का प्रमाण तो
मिलता ही है, साथ ही क्षेत्र विशेष और अन्य संस्कृतियों व कलाओं का ज्ञान भी होता
है।” 4 वहीं बैगा
समुदाय के परंपरागत संचार विधाओं को उनके वास्तविक स्वरूप में रखना भी प्रासंगिक
है क्योंकि इन विधाओं का संरक्षण बैगा जनजाति का संरक्षण है। बैगा जनजाति दुनिया
की आदिमतम जनजातियों में से है। अतएव इनकी परंपरागत संचार विधाओं का संरक्षण संचार
की पांरपरिक विकास यात्रा को संरक्षित करना है।
बैगा समुदाय की लोक-संस्कृति अत्यंत
ही प्राचीन है। बैगाओं
जनजाति के लोक-परंपराओं तथा रीति-रिवाजों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनकी लोक-परंपराएं
चिरकालिक तथा विज्ञान सम्मत हैं। बैगा जनजाति के लोगों के दैनिक जीवन के
रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, लोकाचार तथा दैनिक वार्तालाप जिस वैज्ञानिकता का संकेत
देते हैं उससे साबित होता है कि बैगा समुदाय के लोगों ने अपनी सामान्य जीवनचर्या को
पर्यावरण अनुकूल, सरल, सहज तथा जनजातीय समाजोनुरूप बनाने का प्रयास किया था। साथ
ही अपनी सामाजिक जीवन शैली का सामुदायिक व्यापीकरण भी बैगाओं द्वारा इस तरह से
किया गया था जिसमें सहजता तथा संप्रेषणीयता सहज ही शामिल हो गई और बाद में यही
संप्रषेण युक्त जीवनशैली पीढ़ी दर पीढ़ी चलकर बैगा जनजाति की परंपरागत संचार
माध्यम में प्रमुख रूप से शामिल हो गई।
बैगा समुदाय के लोग कला–संस्कृति के
मामले में धनाढ्य हैं। अन्य जनजातीय समुदाय की तरह ही बैगाओं की भी अपनी मौलिक
लोक-परंपराएं हैं। बैगाओं की भी अपनी सांस्कृतिक धरोहरें हैं। बैगा लोक-परंपराओं
या बैगाओं के परंपरागत संचार में लोक-गायन, लोक-नृत्य आदि शामिल है। लेकिन वर्तमान
में समय के साथ इन परंपराओं का अस्तित्व संकट में है। सामाजिक जीवन में लोक-नृत्य
उल्लासपूर्ण भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। व्यक्तिगत या सामूहिक हर्ष के विषय
में समूह में या फिर अकेले ही जब उमंग की लहरें हिलोरें लेती हैं तो पैरों में
थिरकन स्वत: ही महसूस
होने लगती है। ऐसे अवसर पर ही जनजातीय समुदाय के लोक अपनी पारंपरिक मान्यताओं से
जुड़कर उसे नृत्य का रूप देते हैं।
इस जनजाति समुदाय का
लोक-जीवन अपनी संपूर्ण विशेषताओं के साथ अपने पारंपरिक संचार माध्यम में उभर कर
सामने आता है। भारत में धर्म और लोक परस्पर घुले- मिले हैं। समाज और धर्म सदैव से
ही एक-दूसरे से प्रभावित करते आए हैं। सांस्कृतिक रूप से पारंपरिक संचार माध्यम के
माध्यम से बैगाओं की लोक-संस्कृति को समझना अत्यंत ही सरल हो जाता है। बैगाओं का
खान-पान, वस्त्र, अलंकरण, मनोरंजन के साधन,
संगीतकला, नृत्यकला, चित्रकला, वास्तुकला और चिकित्सा–ज्ञान संबंधी जानकारियां बहुतायत में इनके पारंपरिक संचार
माध्यम में प्राप्त होते हैं और इनसे बैगा संस्कृति के सभी पक्ष उभरकर सामने आते
हैं।
इस जनजाति समुदाय की
लोक-संस्कृति पारंपरिक संचार माध्यमों में अत्यंत ही सहजता से परिलक्षित होती है।
लोक-संस्कृति सही मायने में जन-साधारण की संस्कृति होती है। लोक-संस्कृति का मूल
जनता में होता है और इन्हें प्रेरणा ‘लोक’ से ही प्राप्त होती है।
बैगा जनजाति की लोक-संस्कृति के सभी तत्व जैसे बैगा जनजाति समुदाय के संस्कार,
प्रथाएं, लोकोत्सव, लोक-गीत, लोक-नाट्य, लोक-विश्वास बैगाओं
के पारंपरिक संचार माध्यमों में विद्यमान हैं। लोक संचार पंरम्पराएं किसी भी
समुदाय की सांस्कृतिक निधि हुआ करती है और समुदायगत वैशिष्ट्य
के अनुसार जनजीवन के बीच विशेष प्रकार से प्रचलित होकर समुदाय के निजी व्यक्तित्व
को प्रस्तुत करती हैं। लोक परंपराओं की समस्त विधाओं को लोक-तत्व का स्वरूप अत्यंत
ही सरलता से देखा जा सकता है।
गोदना प्रेमी बैगा महिलाएं –
इस जनजाति की
मौखिक-वाचिक परंपराएँ, लोक-नृत्य, लोक-गीत तथा अन्य कला माध्यम विभिन्न रूपों में बिखरे पड़े हैं। गोदना जनजातीय समाज को हमेशा से लुभाता रहा है। गोदना बैगा
जनजाति की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के साथ ही बैगा समाज के अंतरतम से जुड़ी हुई है।
गोदना को लेकर बैगा जनजाति में यह मान्यता है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति के साथ
गोदना ही रह जाता है। “बैगा स्त्रियां गोदने को स्वर्गिक अंलकरण मानती हैं।....इस जनजाति में शरीर
अलंकरण के रूप में गोदने की एक दीर्घ परंपरा है। एक ऐसे अलंकरण के रूप में जो शरीर
का स्थायी अंग बन जाता है।” 5 बैगा महिलाएं अपने देह के तमाम हिस्सों में गोदना करवाती हैं। बैगा जनजाति के
कई पुरुष भी गोदना करवाते हैं। बैगा जनजाति दुनिया की इकलौती ऐसी जनजाति है जिसकी
महिलाएं अपने सम्पूर्ण शरीर में गोदना करवाती हैं।
गोदने को लेकर बैगा जनजाति में एक लोक कथा भी सुनने को
प्राय: मिलती है। बैगाओं की इस कथा के अनुसार एक राजा था जो अत्यंत ही कामुक
प्रवृत्ति का था। उसे हर रात्रि एक नई युवती चाहिए होती थी। एक बार वह जिस युवती
से संसर्ग कर लेता था, वह उसके शरीर पर गोदने
की सुई से निशान बना देता था। अंतत: उस राजा से अपने को बचाने के लिए बैगा जनजाति की महिलाओं ने
अपने शरीर पर गोदना करवाना शुरू कर दिया। बाद में यही देहकला विस्तृत होने के साथ
ही बैगा समाज की पहचान बन गई। बैगा जनजाति में गोदना पवित्रता के साथ ही स्त्री सौन्दर्य
का भी प्रतीक है।
बैगा जनजाति की महिलाएं धातु के आभूषणों का उपयोग अत्यंत ही
सीमित रूप में करती हैं, साथ ही बुनियादी
वस्तुओं के अभाव में गोदना ही बैगा जनजाति की महिलाओं का मुख्य़ आभूषण होते हैं।
बैगा गोदना में इस्तेमाल होने वाले रंगों के लिए पलाश के फूल, वृक्षों की छाल तथा अन्य उत्कृष्ट फूलों को सुखाकर रंग
तैयार करते हैं।6 आज भी गोदना बैगा जनजाति में लोकप्रिय है लेकिन समय के साथ बैगा महिलाओं में
यह कम होता जा रहा है। बैगा जनजाति की वृद्ध महिलाओं की तुलना में गोदना समाज की
कम उम्र की महिलाओं में अपेक्षाकृत कम देखने को मिल रहा है। बैगा समुदाय में यह
परंपरा अब लगभग समाप्त होने की कगार पर है।
बैगा जनजाति में प्रचलित
प्रमुख गोदना कलाएं –
बैगा स्त्रियां अत्यंत ही कठिनतम भौगोलिक परिवेश में रहती
हैं, साथ ही बैगा स्त्रियां अपनी शरीर पर कम वस्त्र
पहनती हैं। लिहाजा गोदना उन्हें प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों में प्रतिरोधक क्षमता
प्रदान करता है। बैगा स्त्रियों में गोदना एक उम्र विशेष में करवाना आवश्यक माना
जाता है। इस जनजाति में गोदना नहीं गोदवाना निर्धनता का प्रतीक माना जाता है। बैगा
स्त्रियों में कई गोदना कलाएं प्रचलित हैं जिनमें विशेष प्रकार की कला-कृतियां तथा
चिन्ह विशेष रूप से उकेरे जाते हैं। बैगा जनजाति में प्रचलित प्रमुख गोदना कलाएं
निम्नवत् हैं।
पुखड़ा गोदाय – बैगा जनजाति में गोदना संस्कार की तरह है। सोलह साल की उम्र
में बैगा स्त्रियां पुखड़ा (पीठ) गुदवाती
है। पीठ पर टिपका, सांकल, चकमक, बांह के पीछे – आगे टिपका, मछली कांटा, बेंडा झेला
के गुदना गोदे जाते हैं।7
जांघ गोदाय- इसमें जांघों के आगे वाले हिस्से में गोदना गुदवाया जाता
है। जांघ में गोदना करवाना बैगा स्त्रियों में विवाह से पहले जरूरी माना जाता है।
जांघ गोदाय में गोदना करने वाली बदनिन जाति की औरतें पैर के उपर जांघ तक गोदती हैं।
जांघ पर लंबे झेला तथा टखने पर कड़ी,
कांटा, पोर, झेला तथा घुटने पर भी झेला, बेंडा, दीवा आदि गोदाये जाते हैं। 8
पोरी गोदाय- इसमें हाथ की कोहनी से लेकर हाथ तक गोदना गुदवाया जाता है।
हाथ में बैगा स्त्रियों द्वारा सामान्यत: टिपका, चकमक, मछली कांटा, झेला गोदना गुदवाया जाता है। 9
पछाड़ी गोदाय - इस तरह के गोदने में जांघों के आगे वाला भाग में गोदना
गुदवाया जाता है। पछाड़ी गोदाय पिंडली तथा
उसके ऊपर के भाग में होती है। इसमें भी झेला, टिपका, केंकड़ा, मछली कांटा आदि
गोदने गुदवाये जाते हैं। 10
छाती गोदाय - इसी तरह छाती के गोदने को बैगा स्त्रियां छाती गोदाय कहती
हैं। छाती गोदाय बैगा स्त्रियां अपने विवाह के बाद अपनी सुविधा के हिसाब से
गुदवाती हैं। बैगा स्त्रियां अपनी स्तनों
को छोड़कर छाती पर टिपका, फूल आदि के गोदने बनवाती हैं। 11
पोरी गोदाय- इसमें हाथ की कोहनी से लेकर हाथ तक गोदना गुदवाया जाता है।
हाथ में बैगा स्त्रियों द्वारा सामान्यत: टिपका, चकमक, मछली कांटा, झेला आदि की आकृतियां गुदवाई जाती
हैं। 12
निष्कर्ष-
गोदना अमिट परंपरागत संचार
के रूप में बैगा समुदाय के लोगों में आजीवन संचरित होता रहता है। बैगा जनजाति की
गोदना परंपराएं अमिट परंपरागत संचार के रूप में आज भी प्रासंगिक है लेकिन आधुनिक
जनमाध्यमों के प्रभाव एवम् आधुनिकता के अधिकाधिक प्रयोग के चलते बैगा जनजाति में
परंपरागत संचार की इस विधा का प्राकृतिक-सहज आकर्षण कम हो गया है। दरअसल बैगा
समुदाय में प्रचलित गोदना परंपराएं परंपरागत संचार की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत
हैं। बैगाओं के संस्कारों के साथ ही यह परम्परा बैगा समुदाय की सांस्कृतिक अस्मिता
से भी जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि बैगा समुदाय के परंपरागत संचार की गोदना
परंपरा को सहेजना सही मायनों में बैगा समुदाय के संस्कारों तथा सांस्कृतिक अस्मिता
को सहेजने जैसा होगा।
संदर्भ –
1.
भानावत,
डॉ.महेन्द्र और जुगनू, डॉ. श्रीकृष्ण. (2003) भारतीय लोक माध्यम, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी,जयपुर, पृ. 1.
2. दुबे, डा. श्यामाचरण, (1993) मानव और संस्कृति,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.-155
3. वही, पृ.162-163.
4. कुमार, जिनेश.(2015) परंपरागत माध्यमों का अद्भुत संसार,
कम्यूनिकेशन टुडे (अंक 17, खण्ड 03), पृ.152-154.
5.
त्रिवेदी,
राजेश्वर. (2011) बैगा (संपा.), वन्या प्रकाशन आदिम जाति कल्याण विभाग, भोपाल पृ. 49.
6. वही, पृ. 51.
7.
वही, पृ. 51.
8.
वही, पृ. 52.
9.
वही, पृ. 52.
10.
वही, पृ. 52.
11.
वही, पृ. 53.
12.वही, पृ. 53.
अनिल कुमार पाण्डेय
लेखक संप्रति में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम् संचार विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में अतिथि व्याख्याता हैं।ईमेल mcrpsvvanil@gmail.com
लेखक संप्रति में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम् संचार विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में अतिथि व्याख्याता हैं।ईमेल mcrpsvvanil@gmail.com
इस लेख मे मेरे द्वारा लिखित पुस्तक प्रकृति पुआल बैगा के भी कुछ दशक हे ।पुस्तक का नाम संदर्भ मे देना चाहिए था,
जवाब देंहटाएंप्रकृति पुत्र बैगा
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