चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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भक्तिकाल के कवि लोकजीवन में रमे हुए
कवि हैं। भक्ति साहित्य में लोक की चिंता और साहित्य की चिंता में एकता स्थापित
हुई। यहाँ साहित्य राजदरबार से निकलकर सामान्य जनता की आकांक्षाओं, उम्मीदों का पर्याय बन गया। इस साहित्य में आवरण भक्ति का है,
पर चिंता समाज की है। तुलसीदास भक्ति आंदोलन के बड़े कवि
हैं।
आलोचना:तुलसी की लोकसाधना/डॉ.अभिषेक
रौशन
चित्रांकन
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भक्ति आंदोलन एक विशाल जन-आंदोलन है।
जनसंस्कृति के उत्थान में भक्ति आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका है। तुलसीदास
लोक-चिंता और लोक-आकांक्षा के कवि हैं। उनकी रचना प्रक्रिया लोकसाधना की प्रक्रिया
है। तुलसी का स्वर भक्ति के स्वर द्वारा प्रेषित है। यहाँ भक्ति के माध्यम से समाज
के बारे में सोचा गया है। तुलसी की कविता भक्ति की पेंचीदगी कम, समाज की चिंता ज्यादा है। वे शास्त्रीय परंपरा के लोक परंपरा
के मर्मज्ञ कलाकार हैं। तुलसी आदर्श भक्ति की ही नहीं आदर्श समाज की भी कल्पना
करते हैं। वे राम की भक्ति करते हैं। रामोन्मुखता तुलसी का सबसे बड़ा जीवन-मूल्य
है। पर इस राम में समाज समाया हुआ है। तुलसी की रामोन्मुखता मानवता ही है। वे जब
राम की भक्ति करते हैं, तो अंततः इस लोक की ही भक्ति करते
हैं। उनके राम स्वर्ग में विचरण करनेवाले देवता नहीं हैं बल्कि समाज में रहने वाले
राम हैं। तुलसी के राम आदर्श चरित्र के नायक हैं। तुलसी कहते हैं मेरी रचना सब
गुणों से रहित है, बस इसमें एक विश्वविदित गुण है –
राम का नाम – ‘भनिति
मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक’। चूंकि तुलसी के
राम मानवीय आकांक्षाओं की प्रतिमूर्ति हैं, इसलिए जाहिर है तुलसी की काव्यसाधना मानवसाधना ही है। तुलसी की लोकसाधना
भक्ति की साधना से प्रभावित एवं अनुशासित है। इसलिए वे जगह-जगह राम को भगवान और
अवतारी बताते हैं। तुलसी के राम मानव और देवता दोनों हैं। राम जो कि भगवान् हैं
उनके साथ छल, ईर्ष्या, दुष्टता और दुश्मनी हो सकती है तब साधारण मानव क्या है? यह बात साधारण जनता को प्रेरणा और शक्ति देनेवाली है। तुलसी
सामंती युग में कविता कर रहे थे। उस युग में एक राजा का उज्जवल चरित्र रखना बहुत
बड़ी बात है। राजा सिर्फ राज करने के लिए नहीं होता है, बल्कि उसके लिए प्रजा की चिंता प्रमुख होती है। जो राजा ऐसा नहीं करता वह
नरक का अधिकारी है –
“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अवसि नरक
अधिकारी।।”
तुलसी सजग कवि हैं। अयोध्या की प्रजा
ऐसी है जो अपने राजा की नुक्ताचीनी करने से नहीं डरती। राम को वनवास मिलता है
इसलिए प्रजा दुखी है। वे दशरथ को कोसते हैं –
“एक कहहिं भल भूस न कीन्हा।
बरू बिचारि नहिं
कुमतिहि दीन्हा।।
जो हहि भएउ सकल दुखु
भाजनु।
अबला बिबस ग्यानु गुनु
भाजनु।।”
राजा दशरथ ने ठीक नहीं किया। उन्हें
कैकेयी को वर सोच-समझकर देना चाहिए था। कैकेयी की जिद पूरा करने चक्कर में अपने
विवेक-बुद्धि भी खो दिए। मध्यकालीन युग में एक राजा के बुरे काम के लिए निंदा करना
साहस का काम था। तुलसी राजा दशरथ की प्रजा के माध्यम से उस दमन और अत्याचार के युग
में प्रजा एक नई चेतना भरते हैं। ‘दोहावली’ में तुलसी उन राजाओं की निंदा करते हैं जो प्रजा को कष्ट देते
हैं। तुलसी का कहना है कि ऐसी व्यवस्था खत्म होकर रहेगी, उन अत्याचारी राजाओं का सर्वनाश जरूर होगा –
“राज करत बिनु काज ही करैं कुचालि कुसाज।
तुलसी ते दसकंध ज्यों
जह्है सहित समाज।।”
ऐसी चेतना हमें एक और भक्त कवि सूर
में भी मिलती है। वे कहते हैं कि राजा का धर्म है कि प्रजा के हित की रक्षा करना।
उन्हें सताना राजधर्म नहीं है –
“राजधर्म सब भए सूर जहं प्रजा न जाय सताए।”
‘रामचरित मानस’ में हम देखते हैं कि राजा प्रजा के लिए चिंतित है और प्रजा राजा के लिए।
तुलसी का यह संदेश प्रगतिशील है। राम अन्याय के विरूद्ध लगातार संघर्षशील हैं। राम
का रामत्व उनकी संघर्षशीलता में है न कि देवत्व में। राम के संघर्ष से साधारण जनता
को एक नई शक्ति मिलती है। कभी न हारनेवाला मन, विपत्तियाँ हजार हैं, लक्ष्मण को ‘शक्ति’ लगी है, पत्नी दुश्मनों के घेरे में है। राम रोते हैं, बिलखते हैं पर हिम्मत नहीं हारते हैं। निराला के शब्दों में
कहें तो – ‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका।’
सामंती युग में एक ऐसे चरित्र को स्थापित करना जो
मानव-हित में लड़ता है, परोक्षरूप से उस समाज में पिसने
वालों को प्रेरणा और शक्ति ही देना है।
रावण राम का विरोधी है। वह
तुलसी के सारे मूल्यों के विरोध का प्रतीक है। राम साधनहीन हैं, रावण साधनों से परिपूर्ण। राम, जंगल में भटकने वाले, परिस्थिति से
लाचार; और रावण सोने की नगरी में रहनेवाला, समृद्धि और वरदान का मालिक। पर राम के साथ मानवता है और रावण
के साथ दानवता। मानवता-दानवता के युद्ध में मानवता जीतती है। राम जीतते हैं यह
महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि मानवता जीतती
है। यह तुलसी की लोकसाधना का प्रबल प्रमाण है। इस लड़ाई में राम को साथ देने के
लिए कोई राजा या सामंत नहीं आता। उन्हें सहयोग और सम्मान बंदर-भालू से मिलता है।
अन्याय के खिलाफ लड़ने में छोटी शक्ति भी महत्वपूर्ण होती है। गिद्ध और गिलहरी भी
अत्याचारियों की तुलना में महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
तुलसी के राम देवता हैं,
पर वे स्वर्ग में बैठकर अप्सराओं का नृत्य देखनेवाले
निष्क्रिय देवता नहीं हैं, उनके राम लोकजीवन
में घुले हुए राम हैं। तुलसी ने राम को राजमहल में कम, संघर्ष की दुनिया में ज्यादा दिखाया है। राम के पैर भी तपती धूप से जलते
हैं। रानी सीता के पैरों में काँटे गड़ते हैं। राम उनके पैर से सहज भाव से काँटा
निकालते हैं – “तुलसी रघुवीर प्रियाश्रम जानिकै बैठ
विलंब लो कंटक काढ़े....।” राम सहज भाव से
निषाद, शबरी से सम्बंध रखते हैं। यहाँ अपने-आपको
महान् दिखाने के लिए कलाबाजी करने का स्थान नहीं है। राम की महानता उनके व्यवहार
में है। उनकी महानता देवता होने में नहीं है। राम का मानवीय व्यवहार सबको लुभाता
है, आश्चर्य में डालता है। राम आदर्श भाई,
आदर्श मित्र, आदर्श पति
और आदर्श दुश्मन भी हैं। तुलसी की लोकसाधना ऊपर से देखने में भले ही भक्तिपरक लगती
है, पर उनके भीतर क आदर्श समाज का सपना, एक आदर्श मानव का चरित्र है। राम वनवास में हैं। उनका
खाना-पीना सब साधारण है। कहीं कोई राजसी ठाठ-बाट नहीं है। राम में राज-पाट के
प्रति लोलुपता नहीं है। जिस युग में राजा राज्य जीतने के लिए खून बहाते थे,
मानव-मानव से लड़ते थे, वहीं तुलसी एक ऐसे नायक को सामने लाते हैं जो पिता की एक आज्ञा से पूरे
राज-पाठ त्याग देता है। तुलसी के राम राजगद्दी के लिए भाई की हत्या नहीं करते,
बल्कि भाई के लिए राजगद्दी छोड़ देते हैं। महत्व मानवता
की है, उसके सामने गद्दी की क्या अहमियत....?
राम का सभी के साथ व्यवहार आत्मीय है। उनकी लोकोन्मुखता
का सबसे बड़ा उदाहरण है कि वे विपत्ति में भी साधारण समझे जानेवाले लोगों से ही
सहायता माँगते हैं। राम में देवत्व है तो मनुजत्व भी। तुलसी के पास ईश्वर के प्रति
आस्था है तो मनुष्य के प्रति सम्मान भी, ये दोनों
चीजें उनकी रचनाओं में जुड़ी हुई हैं। लक्ष्मण को ‘शक्ति’ लगती है तो राम मानव की तरह विलाप
करने लगते हैं –
“अस बिचारि जिऊँ जागहु ताता।
मिलई न जगत सहोदर
भ्राता।।”
आज भी गाँव में दो भाई आपस में
झगड़ते हैं तो बड़े-बुजुर्ग तुलसी की यह चौपाई बड़ी करूणा के साथ सुनाते हैं। राम
मानवता के प्रतीक हैं। जयशंकर प्रसाद ने तुलसी और राम के बारे में लिखा था –
‘मानवता को सदय राम का रूप दिखाया’।
राम को वनवास मिलता है तो सीता भी
पति के साथ हो जाती हैं। सीता भी राम के प्रति समर्पित हैं। उनका चरित्र उज्ज्वल
है। वह वन और बीहड़ की स्थिति आने पर भी पति का साथ नहीं छोड़ती हैं। पति के सामने
राजभवन का सुख फीका है। अगर वह राजभवन में बैठी रहतीं और विरह में पागल में रहतीं
तो एक भोग्या नारी के सिवा कुछ नहीं कहलातीं। सीता पति के लिए राजसी ठाट-बाट छोड़
देती हैं और राम पत्नी के लिए अपनी जान हथेली पर लगा देते हैं। सीता के चरित्र में
रानीपन का दंभ कहीं नहीं है।
तुलसी लोकसाधना के लिए ही साहित्य
लिख रहे थे। पुष्पवाटिका प्रसंग में उन्होंने सीता-राम के प्रेम के लिए सुन्दर
जमीन तैयार की है। शादी के पूर्व ही सीता राम से प्रेम करने लगती हैं, पर उनका प्रेम लोकमर्यादा में बँधा है। सीता अपने पिता की
प्रतिज्ञा पर दुख प्रकट करती हैं – “सुमिरि पिता पनु
मनु अति छोभा”। सीता में प्रेम की आकुलता है पर
पिता भी तो हैं – “फिर अपनऊ पितु बस जाने”। एक ओर सीता प्रेम प्रकट करती हैं दूसरी ओर विवशता और क्षोभ
भी। इस विवशता में मध्यकालीन नारी की विवशता छिपी है।
तुलसी लोकवादी कवि हैं। रामकथा
उन्होंने परम्परा से ली है, पर यह बात गौर
करने लायक है कि जहाँ वाल्मीकि और भवभूति के रामायण में शम्बूक वध का प्रसंग है,
वहीं तुलसी ने इस प्रसंग को छोड़ दिया है। वे अगर चाहते
तो परम्परा में होने के चलते शम्बूक प्रसंग को शामिल कर सकते थे। तुलसी ने सीता
निष्कासन का भी प्रसंग छोड़ दिया है। शम्बुक वध और सीता निष्कासन का प्रसंग छोड़ना
तुलसी की प्रगतिशीलता और समाज के प्रति गहरी प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।
तुलसी के पास समाज के बारे में एक व्यापक दृष्टिकोण है। ‘रामराज्य’ उनके आदर्शमय समाज का एक यूटोपिया
है। तुलसी वर्णाश्रम में पूर्णतः आस्था रखनेवाले कवि हैं। चूँकि लोग अपने कर्म से
च्यूत हो गए हैं, इसलिए समाज विखंडित हो रहा है।
मानवीय मूल्यों के लोप का कारण कलियुग है। लोग अपने कर्म से च्युत हो गए हैं,
इसलिए समाज विखंडित हो रहा है। मानवीय मूल्यों के लोप का
कारण कलियुग है। शूद्र चूँकि वर्णाश्रम व्यवस्था में नीचे है, इसलिए उसे शेष वर्णों की सेवा करनी चाहिए, ऐसी तुलसी की मान्यता है। तुलसी की लोकसाधना कबीर जैसे
निर्गुण खेमे के कवियों की लोकसाधना से बहस करती दिखती है। कबीर के लिए प्रेम और
समतामूलक समाज महत्वपूर्ण है। तुलसी के आदर्शमय समाज मे वर्णाश्रम की पूर्ण
प्रतिष्ठा है। कबीर बनी-बनाई समाज व्यवस्था पर ही प्रहार करते हैं पर तुलसी ‘रामराज्य’ का एक नया समाज
प्रस्तुत करते हैं। तुलसी की महानता निर्गुण संतों को गलियाने या शूद्रों को अधम
घोषित करने में नहीं है, जैसा कि कुछ
विद्वानों का मानना है। शुक्ल जी के अनुसार तुलसी ‘आर्यधर्म को छिन्न-भिन्न होने से’ बचाने
वाले कवि हैं। ऐसा मानने पर तुलसी को प्रतिक्रियावादी कवि स्वीकार करना होगा।
तुलसी की महानता मानव जीवन के संघर्ष, आशाओं-आकांक्षाओं
को व्यक्त करने में है। रामकथा की महत्ता उसकी मार्मिकता और करूणा में है। तुलसी
की लोकसाधना का साध्य रामराज्य है।
तुलसी भक्ति का कोरा उपदेश नहीं देते।
उनकी साधना जीवन की, जगत की स्वीकृति प्रदान करती है।
तुलसी ‘सियाराममय सब जाग जानी’ कहकर इस जगत की सत्यता को रेखांकित करते हैं। तुलसी की भक्ति
किसी व्यक्ति को संन्यासी या पुजारी बनाने के लिए नहीं है। उनकी भक्ति लोक से
जुड़ना सीखाती है, जीवन-जगत से प्यार करना सीखाती है।
प्रो. मैनेजर पांडेय ने लिखा है – “रामचरित मानस की
कलात्मक श्रेष्ठता और उसके प्रभाव की व्यापकता का रहस्य उसके चरित्रों, जीवन-’व्यवहारों,
जीवन-मूल्यों और भावों की मानवीयता में है न कि उसकी
धार्मिकता में।”1 मानवता और त्याग तुलसी की भक्ति के
केन्द्र में है, इसलिए उनकी भक्ति-साधना गहरे अर्थ
में लोकसाधना ही है। यह और बात है कि उनकी लोकसाधना में शास्त्रगत का महत्व ज्यादा
है। उनकी लोकसाधना कहीं शास्त्रमत से अनुशासित है कही स्वतंत्र। जहाँ उनकी साधना
शास्त्रमत से निकल गई है, वहाँ काव्य का
मानवीय-चित्र उभरकर सामने आता है। तुलसी की लोकसाधना से ही उनकी लोकरक्षा का सवाल
जुड़ा है। अगर वे इस लोक को छोड़कर परलोक की साधना करते तो वे भक्ति के क्षेत्र
में भले ही महान हो सकते थे, पर लोकजीवन के
कवि नहीं कहलाते। तुलसी के काव्य-संसार में लोकजीवन का महत्व गहरे अर्थ में समोया
हुआ है। वे धर्मसाधना नहीं लोकसाधना के चलते महान् और भारतीय जनमानस में रचे-बसे
कवि हैं। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है – “तुलसी की लोकप्रियता का आधार धर्मभीरूता नहीं है। देश में कोई मंदिर न जाए,
कोई पूजा-पाठ न करे, तब भी उनकी कविता लोकप्रिय रहेगी, क्योंकि
उनकी कविता जिंदगी के लिए संदर्भवान है।”2 ‘रामचरितमानस’ में हास्य और करूणा, मर्यादा और विवेक, मनुष्यत्व
और देवत्व, आदर्श और नीचता सब एक साथ मिलते हैं,
इसलिए यह ग्रंथ ज्यादा लोकप्रिय है। ‘मानस’ कोरा आदर्श को
स्थापित करनेवाला ग्रंथ नहीं है। यहाँ राम के साथ रावण भी है। सीता के साथ मंथरा
भी है। तुलसी संपूर्ण समाज को एक साथ चित्रित करते हैं। एक ही समाज में पैदा होनेवाले
‘जलज’ और ‘जोंक’ दोनों हैं। तुलसी अगर राममहिमा में ही फँसे रहते तो ‘मानस’ ऊबाऊ हो सकता था।
राम अवतारी हैं तो मानव की तरह रोनेवाले भी हैं। दो विरोधी सत्ता को एक साथ दिखाने
के चलते ‘मानस’ लोकग्राह्य ग्रंथ बना है। पर तुलसी का उद्देश्य राम और रावण के विरोधाभास
को दिखाने में नहीं है, बल्कि इस विरोधाभास में जीतता कौन है
यह महत्वपूर्ण है। कैकेयी के पास ईर्ष्या है तो वह पछताती भी है। अगर कैकेयी अपनी
ईर्ष्या पर शुरू से अंत तक गर्व करती रहती तो ‘मानस’ की हार होती। तुलसी का उद्देश्य
मानवता को जगाने में निहित है और दुष्टता को खत्म करने के लिए समर्पित है।
तुलसी की लोकसाधना मर्यादा और आदर्श
से ही सिंचित नहीं है, बल्कि उसमें भूख और दरिद्रता का भी
चित्रण है। ‘कवितावली’ में लोकसाधना का नंगा यथार्थ सामने आया है। यहाँ तुलसी भूख और बेरोजगारी
से छटपटाते नज़र आते हैं-
“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न, चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग
सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?” (97,
उत्तरकांड, कवितावली)
‘कवितावली’ में तुलसी का आत्मसंघर्ष मुखर है। यहाँ आदर्श कम, यथार्थ ज्यादा है। ‘रामराज्य’
का यूटोपिया यहाँ टूटता नज़र आता है। यहाँ तुलसी के
भक्तिविवेक और जगत्-विवेक में अंतर्विरोध ज्यादा है। अपने बचपन की जिस दीन अवस्था
का चित्रण तुलसी ने किया है इतना शायद ही किसी भक्त कवि ने किया हो। दीनता और
लाचारी की स्थिति इससे बढ़कर क्या हो सकती है जहाँ आदमी को पेट भरने के लिए बेटी
तक को बेचना पड़ता था-
“ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी....”
(96, उत्तरकांड, कवितावली)
भूख और हताशा की यहाँ दारूण स्थिति
है। ‘कवितावली’ में तुलसी का वर्णाश्रम से विश्वास टूटता नज़र आता है – ‘मेरी जाति-पाँति न चहौं, काहू की जाति-पाति......’। मानस के तुलसी
और कवितावली के तुलसी में अंतर है। रामचरितमानस विजयी मन की गाथा है तो ‘कवितावली’ हताश मन की
अभिव्यक्ति। तुलसी के काव्य में ‘कवितावली’
यथार्थवादी रचना है।
तुलसी की लोकसाधना पर शक तब होता है
जब वह ‘खास वर्ग साधना’ में बदल जाती है। उनके शूद्र और नारी सम्बन्धी विचारों को गहराई से परखने
से साफ पता चलता है कि वे शूद्र और नारी के प्रति ईमानदार नहीं हैं। ‘मानस’ के लगभग सभी
पात्र नारी के बारे में समान विचार रखते हैं। भरत और रावण के नारी सम्बन्धी
विचारों में घोर समानताएँ हैं। भरत कहते हैं –
“बिधिहु न नारि ह्दय गति जानी।
सकल कपन अध अवगुन खानी।।”
यह सही है कि ‘मानस’ प्रबन्ध काव्य है। इसमें सभी पात्रों
के विचार अपने चरित्र और परिस्थिति के अनुसार हैं। भरत, मंथरा और अपनी माँ कैकेयी के व्यवहार से बहुत क्षुब्ध हैं। उन्हें लगता है
कि भैया राम इन लोगों के चलते ही वनवास गए हैं। नाराजगी की स्थिति में भरत का ऐसा
कहना स्वाभाविक लगता है, पर मामला पेंचीदा
और संदेहास्पद तब लगता है जब षड्यंत्र मंथरा और कैकेयी करती हैं लेकिन भरत पूरे
नारी समुदाय को कपटी और अवगुण की खान बताते हैं। किसी एक की गलती से उसके पूरे
समाज को गाली देना कहाँ का न्याय है? साफ है भरत का
विचार पूरे नारी समुदाय के प्रति पुरूषवादी मानसिकता से ग्रसित है। उधर रावण तुलसी
की दृष्टि में अमानव का प्रतीक है, पर उसका
नारी-सम्बन्धी विचार भी भरत के विचार के नजदीक है –
“नारी स्वभाव सत्य कवि कहहों।
अवगुन आठ सदा उर रहहों।।
साहस, अमृत, चपलता माया।
भय, अविवेक, असौच, अदाया।।”
स्पष्ट है कि तुलसी के मानव और अमानव
नारी के प्रति एक ही दृष्टिकोण रखते हैं। रामकुमार वर्मा के अनुसार तुलसी ने नारी
की निंदा वहीं पर की है जहाँ नारी ने धर्मविरोधी आचरण किया है। व्यष्टि को
अच्छा-बुरा कहना पात्रों की मनोदशा, प्रसंग आदि पर
निर्भर करता है पर समष्टि को बुरा कहना तो कवि के विचार को ही व्यक्त करता है और
यह तो घोर कवि उक्ति है –
“महावृष्टि चलि फूट कियारी।
जिमि स्वतंत्र भई बिगरहिं
नारी।”
यहाँ तुलसी नारी की उपमा देकर अपनी
बात समझाते हैं। जिस तरह नारी स्वतंत्र होकर बिगड़ जाती है उसी तरह वर्षा का पानी
मेड़ों को तोड़ते-फोड़ते आगे बढ़ रहा है। स्पष्ट है कि तुलसी नारी-स्वतंत्रता को
खतरनाक मानते हैं। यह और बात है कि नारी के प्रति उनकी संवेदना कहीं-कहीं मुखरित
हुई है-
“कत बिधि सृजी नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुँ सुख
नाहीं।।”
तुलसी में यह द्वंद क्यों है इस पर
बाद में विचार किया जाएगा, शूद्रों के बारे
में उनकी क्या मान्यता थी फिलहाल इसे परखा जाए। चाणक्य ने कहा था –
‘पतितोडपि द्जः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः’।
(उद्धृत-27, तुलसीदास-आचार्य
रामचंद्र शुक्ल)
अर्थात् द्विज पतित भी हैं तो
श्रेष्ठ है, शूद्र अगर जितेन्द्रीय भी हो जाए तो
वह अधम है। चाणक्य के इस दृष्टिकोण का जवाब रैदास ने दिया था-
“रैदान वामन मत पूजियौ जो होवै गुन हीन।
पाँव पूजियौ चंडाल के
जो हो ज्ञान प्रवीन।।”
रैदास स्पष्टतः कहते हैं कि गुणहीन
ब्राह्मण पूज्यनीय नहीं है। तुलसी को रैदास की बातों का जवाब देना था। ‘मानस’ का उत्तरकांड
शूद्रों को अपनी औकात दिखाता है। तुलसी रैदास की बातों को साफ उलटते हुए कहते हैं
कि ब्राह्मण शील, गुण से रहित होने पर भी पूज्यनीय है,
शूद्र गुणवान, ज्ञानवान
होने पर भी प्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं है –
“पूजिय बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुण ग्यान
प्रबीना।।”
तुलसी के यहाँ शूद्र और नारी अधम
मानव के पर्याय हैं। तुलसी वर्णाश्रम व्यवस्था में पूर्णतः आस्था रखने वाले कवि
हैं। इसमें संदेह और बहस की गुंजाइश नहीं है। शूद्र अगर ब्राह्मणों को उपदेश देने
लगे, जनेऊ पहने और कूदाल चलाए यह घोर कलियुग है –
“सूद्र द्व्जिन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेलि जनेऊ लेहि
कूदाना।।”
यहाँ तुलसी श्रम की महत्ता को नकार
रहे हैं। जनेऊ पहननेवाला कूदाल नहीं चला सकता। कूदाल चलाने वाला जनेऊ नहीं पहन
सकता। कूदाल और जनेऊ में समन्वय नहीं हो सकता क्या? रैदास श्रम की महत्ता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
“जिह्वा भजे हरिनाम नित, हत्थ करहिं नित काम।
‘रविदास’ भए निहचंत हम, मम चित करेंगे राम।।”
कुछ विद्वानों का मानना है कि तुलसी
के यहाँ शबरी, निषाद को जगह मिली है, उनके राम इन सबका आदर करते हैं फिर वे शूद्र के विरोधी कैसे
हैं? बात सही भी है। भक्ति के क्षेत्र में तुलसी
वर्णाश्रम व्यवस्था को तोड़ते हैं, पर सिर्फ भक्ति
तक। भक्ति से एक इंच भी अलग होने पर वे शूद्रों को अधम मानते हैं। तुलसी को शबरी
और निषाद की चिंता है, पर शबरी और निषाद के समाज की चिंता
नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर वे शूद्र और नारी दोनों को सम्मान देते हैं, पर जहाँ पूरे समाज की बात आती है, वे शूद्र और नारी को पछाड़ने लगते हैं। तुलसी मानवीयता के आधार पर सबको
आदर देते हैं पर उनकी विचारधारा एक खास-वर्ग के समर्थन में खड़ी होती है। उनकी
संवेदना नारी और शूद्र के साथ है पर विचारधारा शूद्र और नारी विरोधी है। डॉ.
विश्वनाथ त्रिपाठी बहुत सही लिखा है – “यदि आज
वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करने के लिए तुलसी का इतना विरोध हो रहा है तो वह अनुचित
नहीं है। हमें तुलसी की कविता के इस दोष से सिर्फ बचने की नहीं बल्कि उसके दूषित
प्रभाव को दूर करने की जरूरत है।”3
तुलसी आचरणहीन ब्राह्मण की भी
निंदा करते हैं-
“बिप्र निरच्छर लोलुप कानी।
निराचार सठ बृषली
स्वामी।”
ब्राहम्ण ‘निरच्छर’ और ‘लोलुप’ हो गए हैं। तुलसी इस बात से दुखी
हैं। एक तरफ तुलसी कहते हैं कि गुण रहित ब्राह्मण भी पूज्यनीय है, दूसरी तरफ आचरणहीन ब्राह्मण से क्षुब्ध हैं। यहाँ तुलसी
अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के शिकार हैं। अगर कोई गुणरहित होकर भी सम्मान पाएगा तो वह
अपने में गुण का विकास क्यों करेगा? ब्राह्मण को
निरक्षर, लोलुप रहने पर भी सम्मान मिले तो वह क्यों
पढ़ना चाहेगा? तुलसी गुणरहित ब्राह्मणों को भी
पूज्यनीय घोषित करते हैं, तो ब्राह्मणों के
चारित्रिक विकास की धार को परोक्ष रूप से भोथरा करते हैं। कोई माँ अपने गुणरहित
बेटे का यह कहकर मनोबल बढ़ाए कि मेरा बेटा अवारा है फिर भी पूज्यनीय है तो वह
परोक्ष रूप से अपने बेटे का नुकसान ही कर रही है, क्योंकि उसके बेटे में सुधरने के जो भी बीज होंगे सब खत्म हो जाएँगें।
तुलसी ने गुणरहित ब्राह्मणों को पूज्यनीय कहकर ब्राह्मण समाज की भलाई नहीं,
नुकसान किया है। तुलसी की लोकसाधना के दो पहलू हैं। पहला
संवेदना को छूकर निकलता है वह प्रगतिशील है, दूसरा विचारधारा को लेकर निकला है और वह प्रतिक्रियावादी है। तुलसी की
संवेदना और विचारधारा में एकता नहीं होने के कारण यह अंतर्विरोध पैदा हुआ है। कबीर
की संवेदना और विचारधारा में कोई अंतर नहीं है, इसलिए वहाँ ऐसा द्वंद्वं नहीं दिखाई देता। गलत विचारधारा के सहारे सही
निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। यही कारण है कि तमाम सहानुभूतियों के बावजूद ‘मानस’ के उत्तरकांड में
तुलसी शूद्र को अधम और ब्राहम्ण को श्रेष्ठ घोषित करते हैं। विचारधारा गड़बड़ हो
तो रचना को साहित्य के मानवीय धरातल पर पराजित होना ही पड़ेगा। प्रो. मैनेजर
पांडेय ने लिखा है – “गलत विचारधारा महान से महान लेखकों
को भी किसी न किसी रूप में कमजोर करती है। तोल्सतोय और प्रेमचंद की अनेक रचनाएँ
ऐसे प्रभावों से नहीं बच पाई हैं।”4
बहुत से विद्वानों का यह मानना है कि
चूँकि तुलसी के समय में शूद्र और नारी की स्थिति दयनीय थी, इसलिए तुलसी ऩे उस समाज का यथार्थ चित्रण किया है। पर ‘मानस’ में उनकी
विचारधारा किसका पक्ष लेती है? तुलसी ने यह तो
कहा कि ब्राह्मण निरक्षर, लोलुप होते जा
रहे हैं, पर उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि ब्राह्मण
शूद्र को अछूत, अधम क्यों समझते हैं। उनके पहले कबीर
ब्राह्मणों का ‘कच्चा चिट्ठा’ सामने ला चुके थे। तुलसी अगर सचमुच ही शूद्र के प्रति आस्था रखने वाले थे
तो उन्हें कबीर की बात को आगे बढ़ानी चाहिए थी। तुलसी को भूख और बेरोजगारी का दर्द
सताता है पर अस्पृश्यता का दर्द नहीं सताता। किसी युग के यथार्थ-चित्रण का मतलब यह
नहीं है कि उस युग का ‘विडियो रिकॉर्डिंग’ रचना में चित्रित कर दिया जाए। बल्कि उस रिर्कार्डिंग से शोषक
व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह, सामान्य जनता की
आशा-आकांक्षा भी निकलनी चाहिए। हाबर्ड फासर्ट अपने उपन्यास ‘आदि विद्रोही’ , समरगाथा आदि में
शोषक सत्ता की क्रूरताओं का यथार्थ चित्रण करते हैं, पर उनकी रचना के उस चित्रण से उस शोषक सत्ता के विरूद्ध विद्रोह की
अनुगूँज भी निकली है। प्रो. मैनेजर पांडेय ने लिखा है – “अगर कोई लेखक सामंती या पूँजीवादी व्यस्था की क्रूरताओं का चित्रण करता है
तो उसके साथ ही उस व्यवस्था के खिलाफ जनता के मन की विद्रोह भावना की भी
अभिव्यंजना करनी चाहिए।”5 तुलसी मध्ययुग
में शूद्र और नारी की स्थिति की चिंता करते तो उनके चित्रण में इस शोषक-व्यवस्था
के विरूद्ध विद्रोह का भाव होता, पर वे इसलिए दुखी
हैं कि शूद्र ब्राह्मणों से बराबरी करने लगे हैं। वे तर्क देने लगे हैं कि जो
ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण है –
“बादहिं सूद्र द्विजन्ह हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि
देखावहिं डाटि।।”
तुलसी की लोकसाधना का मजबूत पहलू है –
उनकी भाषा। तुलसी की भाषा विषयक जनवादिता रेखांकित करने
योग्य है। वे संस्कृत के भी मर्मज्ञ कलाकार हैं फिर भी वे अपनी रचना लोकभाषा में
करते हैं यह बहुत बड़ी बात है। तुलसी सिर्फ भक्ति करनेवाले ही होते, तो लोकभाषा से उनका कोई मतलब नहीं होता। वे संस्कृत में रचना
करते। उन्होंने लोकभाषा को अपनाकर लोक से भाषा के रिश्ते को रेखांकित किया। हिन्दी
साहित्य के इतिहास में पहली बार भक्तिकाल में लोकभाषा और कवि की भाषा में एकता
स्थापित होती है। तुलसीदास संस्कृत शब्दों को भी हिन्दी की तद्भव प्रकृति में
घुला-मिला देते हैं। संस्कृत और फारसी आदि शब्दों को हिन्दी की प्रकृति में ढ़ालकर
तुलसी हिन्दी के वाक्य गठन और ध्वनि प्रवृत्ति को सुरक्षित रखते हैं। वे मुहावरों
को अपनी भाषा में कस देनेवाले कवि हैं। इनकी भाषा जितनी लौकिक है उतनी ही
शास्त्रीय भी। ‘मानस’ में तुलसी ‘प्रसंगानुकूल’ भाषा का प्रयोग करते हैं। सुमन्त की अवधि और मंथरा-निषाद की अवधि में अंतर
है। वे जनभाषा का सजीव उपयोग करते हैं।
तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के
बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। वे गृहस्थ-जीवन और आत्मनिवेदन दोनों
अनुभव क्षेत्रों के बड़े कवि हैं। तुलसी भक्ति के आवरण में समाज के बारे में सोचते
हैं। इनकी साधना केवल धार्मिक उपदेश नहीं है वह लोक से जुड़ी हुई साधना है।
संदर्भ –
1. मैनेजर पांडेय, शब्द और कर्म,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
1997, पृष्ठ – 106.
2. डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, लोकवादी तुलसीदास, राधाकृष्ण,
नई दिल्ली, 1991, भूमिका, पृष्ठ – 6.
3. डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, लोकवादी तुलसीदास, राधाकृष्ण,
नई दिल्ली, 1991, पृष्ठ – 77.
4. मैनेजर पांडेय, शब्द और कर्म,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
1997, पृष्ठ – 21.
5. वही, पृष्ठ –
104
अभिषेक रौशन
सहायक प्राध्यापक (हिंदी विभाग)
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा
विश्वविद्यालय, हैदराबाद,संपर्क-सूत्र – 9676584598
यदि किसी महानुभाव को
जवाब देंहटाएं" सबसे भले विमूढ़ जिनहिं न व्यापहिं जगत गति "
की अर्धाली (दूसरी पंक्ति ) पता हो तो कृपया सन्दर्भ सहित अवगत कराएं । धन्यवाद
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