समीक्षा:अज्ञेय की सांस्कृति-दृष्टि और ‘अरे यायावर रहेगा याद' / डॉ.जे.आत्माराम

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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अज्ञेय की सांस्कृति-दृष्टि और ‘अरे यायावर रहेगा याद'/डॉ.जे.आत्माराम



चित्रांकन
भारत की संस्कृति एक जड़ धातु-पिंड नहीं है,फिर चाहे वह धातु स्वर्ण ही क्यों न हो, वह निधि है जिस की मंजूषाओं में नाना रत्न संगृहीत हुए हैं और होते रहेंगे;वह एक परंपरा है जिस में मानव का ज्ञानालोकित उद्योग कड़ी-कड़ी जोड़ता रहा है,और जिस का सजीव प्रसार काल के विस्तार को कौली भर कर भेंटने की स्पर्धा करता है....
                               अज्ञेय ( अरे यायावर रहेगा याद पृ. 45)
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय ने साहित्य में जिस किसी विधा को छुआ उसे महान कर दिया। कविता-लेखन से साहित्य-सृजन के क्षेत्र में पदार्पण करने वाले 'अज्ञेय' ने कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संपादन, यात्रा-साहित्य, डायरी-लेखन आदि कई विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य लिखकर आधुनिक हिन्दी साहित्य को नई दिशा प्रदान की है। अज्ञेय ने हिन्दी साहित्य को कई श्रेष्ठतम कृतियों से नवाज़ा है जैसे कविता के क्षेत्र में असाध्य वीणा है तो कथा-साहित्य में शेखर एक जीवनी’ ‘नदी के द्वीप जैसे सशक्त उपन्यास। इसी प्रकार तारसप्तक का संपादन कर उन्होंने प्रयोगवाद का प्रवर्तन किया तो अरे यायावर रहेगा याद के माध्यम से हिन्दी यात्रा-साहित्य को एक क्लासिक यात्रा-संस्मरण दे कर यात्रा-साहित्य को परिपृष्ठ किया 

वैसे, यात्रा साहित्य का प्रारंभिक रूप यानी यात्राओं का वर्णन वैदिक एवं संस्कृत साहित्य में भी मिलता है। पर उन्हें यात्रा साहित्य नहीं कहा जा सकता। हिन्दी क्षेत्र में यात्रा-साहित्य का पहला प्रयास ब्रजभाषा में पद्य शैली में हस्तलिखित यात्रा-कृति के रूप में मिलता है, जिसमें ब्रज-प्रदेश के मंदिरों, तीर्थ-स्थलों, प्राकृतिक दृश्यों का विवरण प्रस्तुत किया गया था। हिन्दी साहित्य में गद्य की अन्य विधाओं की भाँति आधुनिक रूप से यात्रा-साहित्य की शुरुआत भी 19वीं सदी में होती है। आधुनिक यात्रा-साहित्य का प्रारंभिक रूप विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकाश में आया। मुंशी सदासुख लाल के संपादन में प्रकाशित बुद्धि प्रकाश (1853) नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र में शिमला से कश्मीर तक की एक पैदल यात्रा का वर्णन है। निबंध शैली में लिखित इस यात्रा वर्णन को खड़ीबोली का पहला प्रकाशित यात्रा-वृत्त माना जाता है। कुछ अन्य विद्वानों की मान्यता है कि खड़ीबोली हिन्दी में गद्य की अन्य विधाओं की भाँति यात्रा साहित्य की शुरुआत भी भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने ही की है। भारतेंदु ने अपनी पत्रिका कविवचन सुधा में निबंध शैली में अपने यात्रा-वृत्त प्रकाशित किये थे, जिनमें सरयूपार की यात्रा, जबलपुर-यात्रा, हरिद्वार यात्रा, लखनऊ यात्रा, वैद्यनाथ की यात्रा आदि प्रमुख हैं। भारतेंदु मंडल के अन्य रचनाकार जैसे पं. बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र ने भी भारतेंदु की ही तरह निबंध शैली में यात्रा-वृत्तों की रचना की हैं। सन् 1900 से बाद सरस्वती, मर्यादा, इन्दु आदि पत्रिकाओं के माध्यम से यात्रावृत्तों के प्रकाशन को बहुत प्रोत्साहन मिला।

हिन्दी यात्रा साहित्य के इतिहास में राहुल सांकृत्यायन सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। उन्हें हिंदी यात्रा सहित्य के पितामह के रूप में भी अभिवर्णित किया जाता है। हिन्दी में इस विधा को प्रतिष्टित करने और इसे सृजनात्मक-साहित्य की एक विधा के रूप में विकसित करने में राहुल सांस्कृत्यायन की महती भूमिका रही है। राहुल ने लगभग दो दर्जन यात्रा-ग्रंथों की है। उनके यात्रा ग्रंथों में मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘जापान’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘इरान’, ‘रूस में पच्चीस मास’, ‘किन्नर देश में’, ‘चीन में क्या देखा आदि उल्लेखनीय है।  उनके यात्रा ग्रंथों की विशेषता यह है कि उनमें विभिन्न देशों की संस्कृति, कला, दर्शन, साहित्य, राजनीति का विस्तृत चित्रण देखने को मिलता है। राहुल सांस्कृत्यान के समकालीन यात्रा-साहित्यकारों में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ('मेरी कैलाश यात्रा' तथा 'मेरी जर्मन यात्रा'), महेशप्रसाद (मेरी ईरान यात्रा), श्री गोपाल नेवटिया (कश्मीर) पं. कन्हैय्यालाल मिश्र (मेरी जापान यात्रा, ईराक की यात्रा), गणेश नारायण सोमानी (मेरी यूरोप की यात्रा), सत्येन्द्र नारायण (दक्षिण भारत की यात्रा) आदि प्रमुख हैं।  राहुल सांकृत्यायन के परवर्ती यात्रा-साहित्यकारों में अज्ञेय का विशिष्ट स्थान है। अज्ञेय के अतिरिक्त इस युग के प्रमुख यात्रा-साहित्यकारों में काका साहब कालेलकर (यात्रा का आनंद), यशपाल (लोहे की दीवार के दोनों ओर’, ‘राह बीती ,‘रूस में छियालीस दिन’, ‘पड़ोसी देशों में’), भगवतशरण उपाध्याय (कलकत्ता से पेकिंग तक’, ‘सागर की लहरों पर’), प्रभाकर माचवे (गोरी नज़रों में हम’)  मोहन राकेश (आखिरी चट्टान तक’),  निर्मल वर्मा (चीड़ों पर चाँदनी’),  धर्मवीर भारती (यात्रा-चक्र), विष्णु प्रभाकर (जमना गंगा केनार में’, ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी), श्रीकान्त वर्मा (अपोलो रथ’), सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (कुछ रंग कुछ गंथ’), आलोक मेहता (स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ’), राजेश अवस्थी (हवा में तैरते हुए’) आदि प्रमुख हैं।

आधुनिक हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन बड़े घुमक्कडी प्रवृत्ति के साहित्यकार माने जाते हैं। राहुल के बाद एक अज्ञेय ही हैं, जिन्हें हिन्दी साहित्य में सबसे अधिक घुमक्कडी प्रवृत्ति के साहित्यकार के रूप में पहचान मिली है। राहों के अन्वेषी के रूप विख्यात अज्ञेय अपने जीवन में देश-विदेश की अनेक यात्राएं की। वे न कभी थके, और ना ही कभी रुके। रमता राम की तरह सदा भ्रमण करते रहे। बहता पानी निर्मला शीर्षक वृत्तांत में अज्ञेय लिखते हैं – “यों तो वास्तविक जीवन में भी काफ़ी घूमा-भटका हूं, पर उस से कभी तृप्ति नहीं हुई, हमेशा मन में यही रहा कि कहीं और चलें, कोई नयी जगह देखें, और इस लालसा ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है। ”1  अज्ञेय स्वयं को ना ही नगर का मानते हैं और ना ही ग्राम का, बल्कि वे तो अपने को अटवी का मानते हैं। जिस प्रकार अटवी यानी जंगल के प्राणी विमुक्त रूप से विचरण करते रहते हैं ठीक वैसे ही अज्ञेय भी आजीवन भ्रमण करते रहे, भौतिक रूप से भी और मानसिक या आंतरिक रूप से भी। अज्ञेय ने बाह्य-यात्राओं की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में अंतर्यात्राएँ की हैं। एक स्थल पर अज्ञेय ने लिखा भी हैं कि वास्तव में जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करता हूँ, उस से ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूं। अज्ञेय कहीं रुके नहीं। अज्ञेय की मान्यता है कि देवता भी जहां रुके कि शिला हो गये, और प्राण-संचार के लिए पहली शर्त है गति, गति, गति !”2  इसीलिए यह यायावर हमेशा भटकता रहा, कभी भी अपने पैरों तले घास जमने नहीं दिया।

अज्ञेय ने यात्रा-साहित्य संबंधी दो पुस्तकों की रचना की है, एक  अरे यायावर रहेगा याद (1953) जिसमें अज्ञेय की भारतीय यात्राओं का विशद चित्रण है और दूसरा  है एक बूँद सहसा उछली (1965)  जिसमें उनके युरोपीय यात्राओं का वर्णन है। इनके अतरिक्त अज्ञेय ने जन जनक जानकी (1984) शीर्षक यात्रा-पुस्तक का संपादन भी किया है। अज्ञेय के यात्रा-वृत्तांतों में भौगोलिक सूचनाओं के अतिरिक्त संस्कृति, सभ्यता, दर्शन एवं इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती  है। इस संदर्भ में प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा लिखते हैं कि  जो काम उनके पिता ने पुरातत्व क्षेत्र में किया जमीन से शिलालेख, मूर्तियों के निकालने का कार्य वही काम अज्ञेय अंतिम वर्षों में अपने भारतीय अतीत के विशाल स्मृति प्रदेश में करना चाहते थे, इतिहास की राख-मिट्टी में दबे उन सब मील के पत्थरों को खोदकर बाहर निकालना, जिन पर भारतीय संस्कृति के पड़ाव-चिह्न अंकित थे।3  निश्चित ही अज्ञेय अपने यात्रा वृत्तांतों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग - मिथकों, पौराणिकथाओं, को उत्कीर्णित करते हैं, जो सैकड़ो वर्षों से हमारी वाचिक और साहित्यिक परंपरा में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहे हैं।

सन् 1953 में पहली बार प्रकाशित यह पुस्तक अज्ञेय की यात्रा संबंधी स्मृतियों का संग्रह मात्र नहीं है बल्कि यह पुस्तक अपने काल के भीतर और बाहर झाँकते हुए साँस्कृतिक विमर्श को प्रस्तुत करती  है। अज्ञेय इस कृति में बिना किसी लाग-लपेट के संस्कृति, समाज और सभ्यता पर बेबाक विचार रखते हुए समग्र भारत के सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है। अज्ञेय ने इस पुस्तक में उत्तर भारत के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का उद्घाटन करने के साथ-साथ सागर सेवित मेघ मिखलित यात्रा-वृत्त के माध्यम से दक्षिण भारत की धार्मिक स्थलों की सांकृतिक महत्व को भी प्रस्तुत किया है। इनके अतिरिक्त, पुस्तक के प्रत्येक वृत्तांत में अज्ञेय के व्यक्तित्व की छाप और आधुनिक भारत की जानता के संस्कृति-बोध को पहचानने की उनकी पारखी दृष्टि का भी परिचय मिलता है। एक सचेत यायवार अपनी यात्रा केवल भ्रमण या मनोरंजन के उद्देश्य से नहीं करता है। सही अर्थों में उसके भ्रमण की सार्थतकता तभी होती है जब उससे उस यात्री की साँस्कृतिक-दृष्टि भी विकसित होती है। इसीलिए अज्ञेय कहते हैं - भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य-परिवर्तन या मनोरंजन न होकर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योग दे, यही उसकी वास्तविक सफलता होती है।”4  इस दृष्टि से अरे यायावर रहेगा याद एक उत्कृत्ट यात्रा-साहित्य है, क्योंकि इससे न केवल लेखक के सांस्कृतिक दृष्टि की जानकारी मिलती है, बल्कि पाठ के साथ यात्रा करते हुए पाठक भी भारतीय संस्कृति के संदर्भ में अपनी जानकारी को समृद्ध करता चलता है।

भारतीय संस्कृति कोई जड़ वस्तु नहीं होती है, एक जीवन्त भावना है, एक जीवन-विधि है, जो देश के हर एक मोड़ पर, प्रत्येक कोने में नज़र आती है। इन्द्रधनुष के रंगों की तरह वह अलग-अलग दिखाई देते हुए भी समेकित रूप से एक होती है। इसी भावात्मक एकता के कारण भारतीय संस्कृति के प्रत्येक रूप के प्रति सभी भारतीयों के मन में श्रद्धा जागृत होती है। यही कारण है कि सजग यायावर अपने देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान सांस्कृतिक महत्व के स्थलों तक पहुँचना चाहते हैं और उनके अनुरक्षण एवं विस्तार में योग देना अपना कर्तव्य समझते है। पर जब अपने ही देश की संस्कृति एवं परंपरा के संवाहक उन क्षेत्रों के दर्शन के लिए किसी विदेशी अधिकारी से अनुमति माँगने के लिए बाध्य होना पड़े तो किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति को बहुत पीड़ा पहुँचाती है। इस पीड़ा को अज्ञेय ने भोगा है, इसीलिए वे लेखते हैं - देश की प्रत्येक सीमा तीर्थ होती है, नहीं तो देश पुण्यभूमि कैसे होता है  पर अपने ही तीर्थ तक जाने के लिए परदेशीय सत्ता के अहंमन्य प्रतिनिधि का मुंह जोहना जैसे चुभता है, उसे भुक्त भोगी जानते हैं..”5   अज्ञेय की इन पंक्तियों में देश की राजनीतिक पराधीनता की पीड़ा और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों की उपेक्षा के प्रति चिंता स्पष्ट ही नज़र आती है। अज्ञेय की यह पीड़ा और भी बढ़ जाती है जब देश की सांस्कृतिक विरासत के संवाहक स्थलों को विदेशी नामों से संबोधित किया जाने लगता है। इसीलिए वे लिखते हैं - यायावर प्रायः कहा करता है कि देश की पराधीनता सब से अधिक अखरती है एक अपने हिमालय के अंग, संसार के सबसे ऊंचे शिखर का नाम एवरेस्ट सुन कर, और एक सीमा-प्रदेशों में जाने के परमिट के लिए फिरंगी पोलिटिकल एजेंट के दफ्तर में जा कर।”6.


प्रायः संस्कृति शब्द को जीवन की ओर देखने का और जीवन जीने का दृष्टिकोण के रूप में अभिवर्णित किया जाता है। प्रसिद्ध समाजवैज्ञानिक मालिनॉफ्सकी ने जीवन की स्वीकृत पद्धतियों को ही संस्कृति संज्ञा दी है7. शाब्दिक दृष्टि से “ ‘संस्कृति शब्द का अर्थ अच्छा बनना’, ‘अच्छा व्यवहार करना और अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव होना है। जैसे हैं वैसे ही रहे’, उसी के अनुरूप व्यवहार करे तो वह प्रकृति कहलाएगी और यदि उससे निकृष्ट व्यवहार हो तो वह विकृति होगी। मानव का जन्म इसीलिए हुआ है कि वह प्रकृति से ऊपर उठे, अधिक अच्छा बने और अधिक परिष्कृत हो। इस दिशा में ही प्रयत्न किए जाने हैं।” 8.  ‘संस्कृति शब्द की व्याख्यायित करते हुए अज्ञेय लिखते हैं कि - संस्कृति मूलतः एक मूल्यदृष्टि और उससे निर्दिष्ट होने वाले निर्माता प्रभावों का नाम है  उन सभी निर्माता प्रभावों का जो समाज को, व्यक्ति को, परिवार को, सब के आपसी संबंधों को, श्रम और संपत्ति के विभाजन और उपयोग को, प्राणिमात्र से ही नहीं वस्तु मात्र से हमारे संबंधों को, निरूपित और निर्धारित करते   हैं।’ 9

इस प्रकार संस्कृति शब्द अधिक व्यापक अर्थ रखता है। संस्कृति की रचना एवं विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का योग रहता है। इसके अन्तर्गत समाज, धर्म, ज्ञान, कला, विश्वास, प्रथा, कानून, विज्ञान, दर्शन, साहित्य, वास्तुकला, स्थापत्य, आदतें आदि सभी सम्मिलित हैं। अत्यंत व्यापक इस शब्द को विभिन्न क्षेत्र के अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग तरह से परिभाषित किया है। अधिकतर विचारकों ने संस्कृति की व्याख्या अतीत की विशेषताओं को ध्यान में रख कर की है। उसके वर्तमान स्वरूप पर बहुत कम बात की है। पर अज्ञेय ऐसा नहीं करते, वे कहते है कि यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि संस्कृति की कोई परिभाषा हम अपनाए संस्कृति की वर्तमान अवस्था की उपेक्षा हम नहीं कर सकते। बल्कि यों भी कह सकते हैं कि हमारा आरंभ बिंदु तो हमेशा वर्तमान ही होगा; वहीं पर खड़े होकर हम उसके अतीत का परिदृश्य और उसके भावी विस्तार की संभावनाएँ रखेंगे।10 इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृति के संवाहक वस्तुओं, कलाओं एवं मान्यताओं के प्रति वर्तमान में हमारी जो दृष्टि होगी उसीसे उसका भविष्य सुनिश्चित होता है।

स्थापत्य का संस्कृति के साथ गहरा संबंध है।  स्थापत्य के प्रतिरूप जैसे मंदिर, महल, गुफाएँ आदि संस्कृति के संवाहक होती हैं। महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट स्थित एलुरा की गुफाएँ भारतीय शिल्पकला एवं भास्कर्य-कला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ये गुफाएँ सदियों पुराने लोगों की आदर्श-साधना के प्रतिफल हैं। देश-काल के सभी बंधनों से मुक्त इन गुफाओं की मूर्तियाँ यात्रियों एवं पर्यटकों को घेर कर उनके मानस पर छा जाती हैं। पर इन चट्टानों के मध्य पड़े दरारों को देख यात्रियों को उनकी उपेक्षित अवस्था का बोध होता है। दुख तो तब होता है जहाँ एक ओर सदियों पुरानी भारतीय सांस्कृतिक विरासत के ढोये हुए एलुरा की मूर्तियाँ झर्झर अवस्था में हैं तो दूसरी ओर उनके पास ही निर्मित औरंगजेब और उनके परिजनों की कब्रे चक-चक चमकने लगती हैं।
अज्ञेय को औरंगजेब और उनके परिवार के सदस्यों की समाधियों की स्थापना और उनके चमकने पर कोई परहेज नहीं है, उन्हें तो चिंता है भारतीय संस्कृति एवं इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण उस स्थल पर औरंगजेब द्वारा अपनी कब्रगाह बनवाने के निर्माण को लेकर है। क्योंकि एलुरा की गुफाएँ सदियों पुरानी भारत की शिल्प कला के प्रतिरूप ही नहीं है बल्कि बौद्ध, जैन, एवं हिन्दू धर्म से जुड़े लोगों की आस्था का स्थल भी हैं। ऐसे अनुपम स्थल के महत्व को कम करने की चेष्टा एक सम्राट द्वारा की गयी तो अज्ञेय कृद्ध हो कर तीखे स्वर में प्रश्न करते हैं    बटोही फिर पूछता है, क्या सोच कर तुम ने यहां अपनी समाधी बनवाने की सोची, सम्राट औरंगजेब ? अपनी समाधी पहले से बनवा रखने की बात औरों को भी सूझती रही, ठीक है, - मृत्युपूजक और भी रहे पर तुम ने यह स्थल क्यों चुना ? ठीक यही स्थल, एलुरा की गुफओं की छत का यह समतल, तुम्हारे शासितों को जो आदर्श हो सकता है कैलास उस से भी कुछ बलिश्त ऊंचा अपना स्वर्ग बनाने की भावना क्यों तुम्हारे मन में रही ?”11

निश्चय ही, एक ओर प्राचीन भारतीय संस्कृति के अंग और भास्कर्य-कला के प्रतिरूप एलुरा की गुफाएँ उपेक्षित अवस्था में हैं तो वहीं खुलदाबाद की लिपि-पुती कब्रे चक-चक चमक रही हैं। इसे देख किसी भी सांस्कृतिक-चिंतक का मन विचलित होना स्वाभाविक ही है, इसीलिए अज्ञेय लिखते हैं   एलुरा की गुफाओं और मूर्तियों पर भी परस्तर और रंग का लेप होता था; वह आज नहीं होता और भीतर के पत्थर निकल आये हैं। तुम्हारी और तुम्हारे भ्रातृघाती, पितृघाती, अपत्यघाती, कुल द्रोही कुनबे की कब्रें आज भी चक-चक लिपी पुती है। लेकिन एलुरा आज भी अचरज है बल्कि रंग न होने के उसका मूल सौंदर्य और उभर आया है; और तुम-तुम्हारी समाधियाँ ? क्यों तुम सोच सके की कि एक दर्प-भले ही शासानुसान का दर्प एक समूची जाति की श्रद्धाविनत साधान से अधिक समर्थ हो सकता है?”12

जब कभी भारतीय संस्कृति की चर्चा की जाती है तो संस्कृति के विचार, चिंतक, और समाज-वैज्ञानिक प्रायः भारतीय संस्कृति के अतीत का गौरवगान करते हैं और वर्तमान में उसकी अवस्था पर शोक प्रकाट करते हैं। किंतु अज्ञेय का संस्कृति की चर्चा करते हुए उसके आधुनिक-स्वरूप को पहचानने और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में भी प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों के परिरक्षण पर जोर देते हैं। वे लिखते हैं  असल कठिनाई यही है कि ये लोग भारतीय संस्कृति के नाम से केवल उन्हीं बातों पर विचार करते हैं जो कम से कम एक हज़ार साल पहले समाप्त हो गयीं। एक आधुनिक भारतीय संस्कृति है या हो सकती है, यह सुझाव ही मानो उन्हें चौका देता है। एक भारतीय संस्कृति यानी एक हजार साल पहले तक की संस्कृति ; और फिर एक आधुनिक संस्कृति जो कि उन की संस्कृति है, तब फिर आधुनिक भारतीय संस्कृति के क्या मायने ?” 13 निश्चय ही प्राचीन भारतीय संस्कृति का स्वरूप गौरवमय रहा है। किंतु अज्ञेय की चिंता आधुनिक वर्तमान भारत की संस्कृति के स्वरूप को लेकर है। अज्ञेय मानते हैं कि आधुनिक भारतीय संस्कृति के नाम पर केवल पश्चिमी संस्कृति का नकल किया जा रह है। उसमें प्राचीन भारतीय संस्कृति का अंश मात्र में भी विकास देखने को नहीं मिलता है। इसीलिए अज्ञेय कन्याकुमारी में निर्मित प्राचीन मूर्तिकला वैशिष्ट को प्रसारित करती कुमारी मंदिर के सम्मुख निर्मित गांधी की समाधि के औचित्य पर प्रश्न उठाते हैं। क्योंकि उन्हें वह मंदिर न केवल वास्तुकला की दृष्टि से बेमेल लगता है बल्कि उसके स्थापत्य में उन्हें भारतीय संस्कृति की झलक भी देखने को नहीं मिलती है। बल्कि इसके उलटे उन्हें लगता हैं कि मातृशक्ति का यह पुण्य-स्थल नये पार्थिवदेवताओं की उपस्थिति से धुंधला होने लगा है। इसीलिए अज्ञेय लिखते हैं यह स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं है कि महात्मा गांधी के प्रति मेरा जो सम्मान-भाव है, मैं कोई कारण नहीं देखता कि वही भाव उनके शव अथवा उनकी राख अथवा उस स्थल के प्रति भी रखूं जहाँ पर वह राख समुद्र में बहायी गयी। पर अस्थि-पूजा के प्रति मेरी इस विरसता को छोड़ भी दिया जाये तो भी गांधी-स्मारण का न बेमेल कम होता है, न उसकी अपरूपता, न यह बात भुलायी जा सकती है कि उसने एक सुंदर स्थापना को विकृत कर दिया है।”14

अज्ञेय की चिंता इस बात को लेखर भी है कि गांधी मंदिर की स्थापना के लिए कुमारी मंदिर के निकट के समीप का स्थल को ही चुना गया ? निश्चित ही गांधी के प्रति भारत के लोगों में श्रद्धा एवं सम्मान का भाव है और रहना भी चाहिए। किंतु यही गांधी-मंदिर उस तट से कुछ दूर निर्मित होता तो भी उस मंदिर के प्रति लोगों का श्रद्धा-भाव कम नहीं होता बल्कि इससे वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य में और भी उन्नति हो सकती थी। इतिहास साक्षी है भारत में कई सुंदर एवं भव्य मंदिरों की स्थापना की गयी हैं पर किसी भी स्थल पर उनके कारण वहाँ का प्राकृतिक-सामंजस्य बिगड़ा नहीं है। बल्कि उनकी उपस्थिति से वहाँ का सौंदर्य और बढ़ा ही है। इसीलिए अज्ञेय लिखते हैं – “ कोई कारण नहीं था कि गांधी मंदिर तट-रेखा से कुछ अधिक दूर और कुमारी मंदिर से हटकर न बनाया जाता; उससे न उसक की प्रासंगिकता कम होती, न सुन्दरता, न अर्थवत्ता  हाँ, आंखों में उस की चुभन कुछ कम अवश्य होती।”15 किंतु यही बात वहाँ निर्मित विवेकानंद मंदिर के संदर्भ में नहीं कही जा सकती। क्योंकि विवेकानंद मंदिर की परिकल्पना वास्तुकला की दृष्टि से गांधी मंदिर से अधिक सुंदर है। किंतु यहाँ भी अज्ञेय को उस स्थल के मूल औचित्य के नष्ट होने की चिंता जरूर ज़ाहिर करते हैं। अज्ञेय मानते हैं कि विवेकानंद जिस एकांत की तलाश में वहाँ गये, और ध्यान मग्न होकर जिस विराट-सत्य का उन्होंने साक्षात्कार किया था, जिसके बाद वे अमेरिका जाकर शिकागों की धर्म सम्मेलन में विश्वप्रसिद्ध भाषण दिया था। उस स्थल के सौंदर्य एवं गौरव का महत्व हम नहीं समझ पाये हैं और उसे हम ने भीड़ एवं निरंतर आवाजाई का केन्द्र बना दिया है। और ऐसी व्यवस्था कर दी है कि फिर कभी कोई विवेकानन्द वहाँ न जाये, जाने की न सोचे। इस संदर्भ में अज्ञेय बिल्कुल ठीक लिखते हैं –“ निर्ममत्व से हमारा इतिहासबोध उसी चीज़ को मिटाता है जिसकी स्मृति को हम इतिहास में सुरक्षित करते हैं। आत्मा का तेज हमें सहन नहीं होता, अस्थियों के लिए हम मंजूषाएँ बनाते हैं।”16


संक्षेप में, हिन्दी साहित्य में यायावर के नाम से विख्यात अज्ञेय ने संपूर्ण भारत का भ्रमण कर भारतीय संस्कृति के स्थावर-कृतियों  मंदिर, महल, गुफाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों - के महत्व उजागर करते हुए उनके संरक्षण एवं विस्तार पर विचार किया है। अज्ञेय भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं इतिहास के पारखी विचारक हैं। वे प्राचीन भारतीय स्थापत्य, शिल्प एवं भास्कर्य-कला के प्रतिरूपों के माध्यम से प्राचीन भारतीय संस्कृति के स्वरूप पर विचार करने के साथ-साथ, आधुनिक भारतीय संस्कृति के दशा-दिशा पर भी प्रकाश डालते हैं। अज्ञेय की मान्यता है कि आधुनिक भारतीय संस्कृति का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे उसके प्रचीन स्वरूप का विकास हो। किंतु अज्ञेय चिंता व्यक्त करते हैं कि वर्तमान समय में आधुनिकता के नाम पर जिस प्रकार पश्चमीकरण की अंधी दौड़-सी लगी हुई है, उसमें भारतीय कलाओं का विकास एवं विस्तार की अधिक संभावना नज़र नहीं आती है। बल्कि वर्तमान समय विनिर्मित बड़े-बड़े भवन, महल ही नहीं छोटे-छोटे घरों भी में पाश्चत्यीकरण का नकल बेतहाशा बढ़ती ही जा रही है। आज भारतीय स्थापत्य नाम की कोई चीज नज़र नहीं आती।  जिसके परिणामवश हम उन्नीसवीं सदी के भारतीय जीवन के बारे में अभी भी हम बहुत-कुछ नहीं जानते हैं, और जो थोड़ा-बहुत जानते थे वह भी बड़ी तेजी से भूलते जा रहे हैं। इसीलिए आवश्यक है कि आधुनिक जीवन-शैली को अपनाते हुए भी हमें अपनी संस्कृति का विस्तार करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि कोई भी प्राणवान संस्कृति नये उपकरणों को अपनी प्रतिभा से अपने अनुकूल ढालती है  अपनी नयी शैलियों का विकास करती है। अज्ञेय ठीक कहते हैं- सब कुछ बदलता जाएगा ---- और परंपरा अटूट भी बनी रहती चली जाएगी ; क्योंकि विकास भी एक सांस्कृतिक मूल्य है और ऐतिहासिक क्रमबोध एक ऐतिहासिक मूल्य है।”17.




संदर्भ:-
  1.      अरे यायावर रहेगा याद’, अज्ञेय, पृ.131
  2.   अरे यायावर रहेगा याद’, अज्ञेय, पृ. 2
  3.   गोदारण, अंक 11, पृ. 81
  4.   अरे यायावर रहेगा यादअज्ञेय, पांचवें संस्करण की भूमिका
  5.   अरे यायावर रहेगा याद, Pg4
  6.   अरे यायावर रहेगा याद, पृ. 4
  7.   समाजशास्त्र : अवधारनाएँ एवं सिद्धांत, डॉ. जे.पी. सिंह, पृ. 347
  8.   अपनी संस्कृति, महादेव गोविंद वैद्य, पृ. 11
  9.   केन्द्र और परिधि, अज्ञेय, 273
  10.   अज्ञेय, केन्द्र और परिधि, पृ. 277
  11.   अरे यायावर, रहेगा याद, अज्ञेय, पृ. 111
  12.   अज्ञेय, अरे यायावर रहेगा यादे, पृ. 111
  13.   केन्द्र और परिधि, अज्ञेय, पृ. 2
  14.   अरे यायावर रहेगा याद, अज्ञेयपृ.142.
  15.   अरे यायावर रहेगा याद, अज्ञेय, पृ.142
  16.   अरे यायावर रहेगा याद, अज्ञेय, पृ.143
  17.    केन्द्र और परिधि, अज्ञेय, पृ. 284 
 डॉ.जे.आत्माराम
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
संपर्क सूत्र:-9440947501, ई-मेल:-atmaram.hcu@gmail.com

2 टिप्पणियाँ

  1. अज्ञेय के यायावरी जीवन को कलम से समेटने वाले कलमकार को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम ।
    श्रीमान "एक बूँद सहसा उछली"पर भी प्रकाश डालें तो और लाभान्वित होऊ।

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