शोध:ज्ञानरंजन:कहानी की विशेषताएँ/भागीरथी पंत चतुर्वेदी

   चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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ज्ञानरंजन : कहानी की विशेषताएँ/भागीरथी पंत चतुर्वेदी

ज्ञानरंजन जी(छायाचित्र गूगल से साभार)
साठोत्तरी कहानी के परिदृश्य में ज्ञानरंजन का उदय हुआ। जिस समय उन्होंने लिखने की शुरुआत की, उस समय नई कहानी का शोर-शराबा था। उसका कुहासा लगभग छँटने लगा था, लेकिन कोलाहल बरकरार था। यहाँ हम संक्षेप में ही, ज्ञानरंजन की कहानियों की उन विषेशताओं पर बात करेंगे, जो उन्हें किसी स्तर पर नई कहानी और उससे पहले की कहानी के साथ जोड़ती हैं, तो दूसरी तरफ उनके विशिष्ट अलगाव को भी रेखांकित करती हैं।

साठोत्तरी कहानी की सर्वोच्च उपलब्धि जिन कहानीकारों में देखी जाती है, उनमें ज्ञानरंजन का नाम अप्रतिम है। ज्ञानरंजन अद्भुत कथा संभावनाओं और सामर्थ्य वाले ऐसे कथाकार हैं जो एक ओर अपने समय के आदमी और उसके भीतर-बाहर जन्म ले रहे तेज बदलावों के प्रति पूरी तरह चौकन्ने और प्रतिबद्ध हैं तो दूसरी ओर अपनी भाषा कोएक संपूर्ण कथा भाषा बनानेके लिए उसके गैर जरूरी छिलके उतारकर उसे एक तरह की ताजगी, चमक और निखार देते हैं। इसी तरह की कथा-भाषा में फेंस के इधर और उधर’, ‘घंटा’, ‘बहिर्गमनजैसी कथाओं का लिखा जाना संभव था, जिन्होंने ज्ञानरंजन को अपार कीर्ति दी।1

एक साहित्यिक की डायरी में मुक्तिबोध कहते हैं, ‘विचार मुझे उत्तेजित करके क्रियावान कर देते हैं। विचारों को तुम तुरंत ही संवेदनाओं में परिणत कर देते हो। फिर उन्हीं संवेदनाओं के तुम चित्र बनाते हो। विचारों की परिणति संवेदनाओं में और संवेदनाओं की चित्रों में। इस प्रकार, तुममें ये दो परिणतियाँ हैं।2
ज्ञानरंजन की कहानियों में भी विचार एक केंद्रीय चरित्र की तरह आते हैं। विचार जब चरित्र बनता है, नायक या कोई पात्र बनता है, तो उसे एक कथात्मक या काव्यात्मक विश्वसनीयता की जरूरत होती है। जिसके लिए उसे एक स्पेस और समय चाहिए।3

इसीलिए ज्ञानरंजन अपनी कहानियों में एक स्पेस और समय का निर्माण करते हैं। उनकी कहानियों की एब्सर्डनेस इस स्पेस का इजाफा करती हैं। उनके चरित्र जो मानवीय चरित्र होते हैं, उनके भीतर एक विचार गहरे जड़ें जमाकर बैठा होता है। उसी विचार के माध्यम से कहानी के सूत्रों की रचना होती है, चाहे वह पिता का चरित्र हो या कुंदन सरकार का, इन सबके भीतर एक विचार है। विचारों के साथ ज्ञानरंजन के कथाकार का यह नजदीकी रिश्ता उन्हें नई कहानी से भी पहले सक्रिय कथाकारों अज्ञेय, यशपाल और जैनेंद्र के साथ जोड़ देता है। अपने पूर्ववर्ती कथाकारों के साथ ऐसा सूक्ष्म जुड़ाव परंपरा का हिस्सा तो है ही, कई बार यह लेखक के अवचेतन में विकसित होता रहता है।

ज्ञानरंजन की कथा-शैली परंपरा से भिन्न है। वह कहानी के रूप में उतनी घटनाबद्ध और चरित्रबद्ध नहीं है, जितनी विचारबद्ध है। घटनाएँ घटित होती हैं, लोग हैं कि आचरण करते हैं, अपने विचार जाहिर करते हैं। इस तरह जीवनानुभवों की एक श्रृंखला में कहानी का गुँथाव होता है। जिस पात्र के मन में- ज्ञानरंजन के यहाँ यह पात्र मैंही खासकर है- कहानी का ताना-बाना बुन रहा है वह अपने सामने घटित क्रिया-व्यापार को अपनी नजर से देखता है और उस पर अपनी सतत प्रतिक्रिया करता है। कहना न होगा कि इस अनुभव प्रक्रिया में ज्ञानरंजन की नजर एक शहर के भीतर की उन कुरूपताओं के रूप में ही ज्यादा पड़ती है जो घंटाके कुंदन सरकार और रेस्तराँ की जिंदगी में उभरती हैं। वे बहिर्गमनके मनोहर और सोमदत्त के उस सोच और व्यवहार में साफ-साफ झाँकती हैं जो अपनी शिक्षा-दीक्षा और बौद्धिकता में हमारे अपने देशी समाज के लिए इतने बाहरी और निरर्थक हैं कि अपनी धरती के मानवीय सरोकारों वाले व्यक्ति से उनकी शायद ही पटरी बैठे। यही कारण है कि घंटाका मैंऔर बहिर्गमनका मैंदोनों के भीतर उस कुरूप, अश्लील और विकृत उच्च, किंतु घृणास्पद अमीर सभ्यता के प्रति एक जबर्दस्त एंटीथीसिस चलता है। इस तरह मैंका प्रतिरोध उस समस्त बौद्धिक और उच्च अमीर सभ्यता के सामने जीवन का सौंदर्य बन जाता है। इन कहानियों के पाठक की तुष्टि कहीं इसी मैंके साथ चलते हुए होती है।4

ज्ञानरंजन की कहानियों में काव्य-तत्वों का प्रचुरता से प्रयोग है, किंतु यह पारंपरिक नहीं है। वह इन तत्वों का प्रयोग भी अपने रूखड़े अंदाज में ही करते हैं। हालांकि कविता का यह वैभव गद्य की सीमाओं के भीतर दिखता है लेकिन यह छायावादी, रोमानी, स्वछंदतावादी कविता नहीं है। उनकी कहानियों का यह पक्ष उन्हें नई कहानी के कई कथाकारों से एकदम अलग खड़ा कर देता है, क्योंकि नई कहानी के कई कथाकारों ने लगभग ऐसा माहौल बना दिया था कि कहानी के भीतर कविता के तत्वों के आने से कहानी की बर्बादी तय हो जाती है। ज्ञानरंजन नई कहानी के कथाकारों यथा राजेंद्र यादव की तरह कविता-विरोधी नहीं हैं। ज्ञानरंजन ने स्वयं इस बात को स्वीकार भी किया है कि उनकी कहानियों का कविता के साथ गहरा संबंध है।

अपनी एक किताब की भूमिका में ज्ञानरंजन लिखते हैं, ‘किसी वास्तविक कहानी की रचना के पीछे कभी-कभी यह भी हुआ है कि एक कविता ने उसका निर्माण कर दिया।दिवास्वप्नीमेरी पहली प्रकाशित कहानी है। पहली लिखी कहानी मनहूस बंगलाथी। बाद में कहानी अचानक फिल्मी लगने लगी थी। दिवास्वप्नीको भैरवप्रसाद गुप्त नेकहानीमें छापा था। इसकी पृष्ठभूमि में लोर्का की एक मेरी प्रिय कविता की ताकत काम करती रही। यह कविता दिवास्वप्नीमें बदल गई। यह विचित्र बात है कि जब मैं कमरे में बैठकर जोर-जोर से कविताएँ पढ़ता हूँ, तो कहानी लिखने की उमंग उठती है।5

दूसरों की कविताओं के साथ अपनी कहानियों का रिश्ता नई कहानी के अन्य किसी कथाकार ने जताया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। अगर कहानीकार खुद एक कवि हो, तो उसकी अपनी कविताओं और कहानियों में संबद्धता अथवा एक रिश्ता सहज ही दिखाई पड़ जाता है, जैसे अज्ञेय की कहानियों और कविताओं में कई जगह दिखता था, जैसे मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में ब्रह्मराक्षस एक ही तरह से आता है, जैसे रघुवीर सहाय और कुँवर नारायण की कविताओं का मृत्यु-बोध उनकी कहानियों में भी धीरे से सरककर आ जाता है, लेकिन ज्ञानरंजन कवि नहीं हैं, विशुद्ध कहानीकार हैं। उनकी कहानियों में कविताएँ अंतर्गुम्फित हैं। अमरूद का पेड़काव्यात्मक सघनता की प्रतिनिधि कहानी है, जो अपने प्रभाव में विशाल और आकार में कविताओं जैसी संक्षिप्ति लिए हुए है।

ज्ञानरंजन की कहानी कला की विषेशता है कि कहानी में स्वयं कहानीकार की उपस्थिति होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता। सभी पात्र अपना-अपना जीवन चला रहे हैं या भोग रहे हैं। उसके बीच जीवन के बीच निस्पृहता और सम्पृक्ति के द्वंद्व चलते रहते हैं।6 नई कहानी के कथाकारों के बीच से निर्मल वर्मा ने अपने लिए खास जगह बनाई और साठोत्तरी कहानी के रचनाकारों के बीच से ज्ञानरंजन ने। और यही कारण है कि अक्सर दोनों की तुलना की जाती है। अपने आंदोलन और दौर के प्रमुख रचनाकार होने के नाते लेखकों की तुलना होना स्वाभाविक है, लेकिन ऐसा करना उचित नहीं जान पड़ता क्योंकि दोनों ही रचनाकारों की दृष्टि अलग रही है, दोनों ने अलग शैलियों का प्रयोग करके अपनी रचनाएँ कीं। तुलनाओं का इसलिए भी कोई रचनात्मक महत्व नहीं होता कि हर रचनाकार अपने आप में अलग होता है। उसके बाद भी तुलनाओं को रोका नहीं जा सकता। इसी क्रम में निर्मल वर्मा और ज्ञानरंजन की तुलनाएँ होती रहती हैं। नामवर सिंह का मानना है कि ज्ञानरंजन में सामाजिक चेतना निर्मल वर्मा के मुकाबले कहीं ज्यादा है, हालांकि वह कहानी के क्षेत्र में निर्मल के अवदान को ज्यादा बड़ा मानते हैं। उनके अनुसार, यदि निर्मल ने घंटाजैसी कहानी नहीं लिखी है, तो ज्ञानरंजन ने भी लंदन की एक रातया दूसरी दुनियाजैसी कहानी नहीं लिखी है। 75

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ज्ञानरंजन भीतरी अंधेरों की शिनाख्त के रचनाकार हैं, जिनके भीतर सामाजिक चेतना भी पर्याप्त है और कहानी कौशल भी। वह अपनी विचार-वस्तु में जहाँ अपने से पहले की कहानी के विलोम में खड़े होने की कोशिश करते हैं, समग्रता में वह अपने से पहले की कहानी से मिली परंपरा को ही पुष्ट करते हैं। जिस पारिवारिक टूटन और संबंधों की छीजन को नई कहानी के कहानीकारों ने उत्सवधर्मिता की तरह छूने की कोशिश की थी, समाज और परिवार के उसी विघटन को ज्ञानरंजन अपनी कहानियों में छूते हैं लेकिन उसके भीतर शामिल होकर, उससे एक निश्चित और उदासीन दूरी बनाकर और उसे एक महत्वपूर्ण सामाजिक चेतनात्मक संदर्भ देते हुए।

ज्ञानरंजन अक्सर पारिवारिक कथा-फलक का चुनाव करते हैं क्योंकि परिवार ही सामाजिक संबंधों की प्राथमिक इकाई है। इसके माध्यम से वे उन प्रभावों और विकृतियों को सामने लाते हैं जो बुर्जुआ संस्कारों की देन हैं। इन्हीं संस्कारोंवश प्रेम जैसा मनोभाव भी हमारे समाज में या तो रहस्यमूलक है या भोगवाचक। ऐसी कहानियों में किशोर प्रेम संबंधों से लेकर उनकी प्रौढ़ परिणति तक के चित्र उकेरते हुए ज्ञानरंजन अपने समय की समूची स्थिति पर टिप्पणी करते हैं। मनुष्य के स्वातंत्र्य पर थोपा गया नैतिक जड़वाद या उसे अराजक बना देने वाला आधुनिकतावाद - समाज के लिए दोनों ही घातक और प्रतिगामी मूल्य हैं। वस्तुतः आर्थिक विडंबनाओं से घिरा मध्यवर्ग सामान्य जन से न जुड़कर जिन बुराइयों और भटकावों का शिकार है, उनकी कहानियाँ इसका अविस्मरणीय साक्ष्य पेश करती हैं। 8

ऐसे लेखक विरले ही होते हैं जिनकी रचनाएँ अपनी विधा को भी बदलती हों और उस विधा के इतिहास को भी। ज्ञानरंजन के बारे में यह बात निर्विवाद कही जा सकती है कि उनकी कहानियों के बाद हिंदी कहानी वैसी नहीं रही, जैसी कि उनसे पहले थी। उनके साथ हिंदी गद्य का एक नया, आधुनिक, सघन और समर्थ व्यक्तित्व सामने आया जो उस दौर की भाषा में व्याप्त काव्यात्मक रूमान की बजाय काव्यात्मक सच्चाई से निर्मित हुआ था। सन साठ के बाद हिंदी कहानी एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु या कहानी का दूसरा इतिहासमानी गई और ज्ञानरंजन सामाजिक रूप से उसके सबसे बड़े रचनाकार कहे गए। 9

ज्ञानरंजन के संदर्भ में नई कहानी और साठोत्तरी कहानी आंदोलनों के कुछ प्रमुख गुणों की तुलना की जाए, तो कुछ दिलचस्प बिंदु प्राप्त होते हैं। वे इस प्रकार हैं

1.     साठोत्तरी कहानी और नई कहानी दोनों कथांदोलन भीतरी स्तर पर एक-दूसरे के साथ जुड़े होने के बाद भी अलग-अलग हैं, दोनों का अलग-अलग अस्तित्व है। नई कहानी के कथाकारों में परिवार के टूटन को कथ्य बनाया गया है, ज्ञानरंजन की कहानियों शेष होते हुए’, ‘संबंध’, ‘पिता’, ‘फेंस के इधर और उधरमें टूटते हुए परिवारों को कथ्य का एक अंश बनाया गया है, लेकिन नई कहानी जिस तरह से अपने कथ्य को सेलेब्रेट करती है, ज्ञानरंजन अपनी कहानियों के कथ्य को भरसक अंडरकरेंट ही रखते हैं।

2.     मूल्यों का टूटन और विघटन नई कहानी के प्रमुख गुणों में से है। यही नहीं, नई कहानी, समाज में नए मूल्यों की तलाश भी करती थी। साठोत्तरी कहानी मूल्यों के अस्वीकार की कहानी है। वह नए मूल्यों की तलाश की तरफ नहीं जाती, बल्कि वह टूट रहे मूल्यों को भी एक चिरपरिचित उदासीनता के साथ देखती है। ज्ञानरंजन की घंटा’, ‘बहिर्गमन’, ‘संबंध’, ‘हास्यरसऔर छलाँगजैसी कहानियाँ मूल्यों के अस्वीकार की कहानियाँ हैं।

3.     आजादी के तुरंत बाद का सामाजिक परिवेश यदि नई कहानी की पार्श्वभूमि की रचना करता है, तो साठोत्तरी कहानी में भी नेहरू युग का स्वप्न-भंग, परिवेश की विसंगति, जिजीविषा, निराशा और कुंठा के चित्रण किए गए हैं। ज्ञानरंजन की यात्राऔर कलहजैसी कहानियों में इसके गुण दिखाई देते हैं।

4.     नई कहानी के चरित्रों में द्वंद्व की स्थिति बनी रही, वह समाज के विषय में सोचता जरूर था, लेकिन इस सोच से पहले निजी संबंध आते थे। जबकि साठोत्तरी कहानी में समाज से चरित्रों का कोई मान्य व पारंपरिक रिश्ता नहीं रह गया था। वह सिर्फ अपने विषय में ही सोचता है, उसे न तो मानवता से कुछ लेना-देना है न ही संस्कृति से, उसे तो सिर्फ अपना लाभ देखना है। उसकी कोई पहचान नहीं है। आइडेंटिटी नहीं है। आइडेंटिटी की तलाश में वह गुम हो जाता है, यथार्थ की तलाश भी उसकी मंजिल नहीं है। वह यथार्थ से छुटकारा पाना चाहता है।10 ज्ञानरंजन की कहानियाँ यात्रा’, ‘घंटा’, ‘बहिर्गमनऔर अनुभवइसके उदाहरण हैं, पेट्रोला जैसी जगह इसी का बयान है और कुंदन सरकार जैसा चरित्र सूक्ष्म स्तर पर, इन सारी बातों को एक जगह इकट्ठा कर देने से बनता है।

5.     नई कहानी कथानक की तलाश में अपने समय के गलियारों में भटकती है, उसमें एक निश्चित प्लॉट भी कई बार दिखाई पड़ जाता है, ज्ञानरंजन सहित साठोत्तरी कहानी का एक प्रमुख गुण यह है कि उसमें कथानक या कहानी बनाने का आग्रह नहीं है और न ही प्रतीकों का मोह है। वह इन सबको ध्वस्त कर देने की कहानी रचने की कोशिश है। ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों का सार लिखना हो, तो हम पाएँगे कि घटनाओं का एक सरल-रैखिक संबद्ध सारांश बनाना बेहद मुश्किल काम है। कहानियाँ किसी एक बिंदु से अचानक शुरू होती हैं, अपना वितान रचती हैं और वापस किसी और ही बिंदु पर जाकर समाप्त हो जाती हैं। ऐसा लगता है, जैसे ज्ञानरंजन अपनी कहानियों में किसी अनछुए यथार्थ का एक झोंका मुट्ठी में कैद हवा की तरह पकड़ते हैं और उसे कहानी के कागज पर छोड़ देते हैं।

6.     नई कहानी ने कहानी के भाषाई सौष्ठव को रूमानी बनाए रखने की भरसक कोशिश की थी, हालाँकि उनके दावे इसके विपरीत होते थे, लेकिन कमलेश्वर, रेणु, निर्मल वर्मा की भाषाई कोमलताएँ इस सौष्ठव की गवाही देती हैं। वहीं ज्ञानरंजन ने एक लद्धड़ किस्म की भाषा को साधा और उन शब्दों-वाक्यों को कहानी के दायरे में ले आए, जो उससे पहले इस्तेमाल नहीं होते थे। इसी कारण ज्ञानरंजन पर अश्लीलता के कई आरोप लगे।

इन सारे बिंदुओं के आधार पर हम स्पष्ट ही एक बात कह सकते हैं कि ज्ञानरंजन परंपरा से विमुख कोई एकांतिक कहानीकार नहीं हैं, बल्कि वह अपनी पंरपरा में पूरी तरह विन्यस्त एक ऐसे कथाकार हैं, जिनका अपने पहले की कहानी के साथ दिलचस्प, द्वंद्वात्मक संबंध रहा है। उन्होंने अपने पहले की कहानी से कई सारे गुणों को प्राप्त किया है, तो उसकी कई सारी आदतों का खंडन करते हुए अपनी एक नई कथात्मक आदत का आविष्कार भी किया है। वह नई कहानी से मिली हुई परंपरा का विकास तो करते हैं, लेकिन उसके साथ ही कहानी को अपने रचनाकार की शक्ति और वैभव के सहारे संचालित करते हुए नए इलाकों की ओर ले जाते हैं। इसीलिए यह कहा जाता है, और कुछ अनुच्छेद पूर्व हमने उल्लेख भी किया है, लेकिन फिर भी उसे यहाँ दुहरा देना हमें समीचीन लगता है कि ज्ञानरंजन की कहानियों के बाद हिंदी कहानी वैसी नहीं रही जैसी कि उनसे पहले थी।

संदर्भ ग्रंथ
1 हिंदी कहानी के सौ वर्ष, प्रकाश मनु, बीसवीं सदी का हिंदी साहित्य, संपादक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2005, पृष्ठ 121
2 एक साहित्यिक की डायरी, गजानन माधव मुक्तिबोध, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 20
3 एक कवि की नोटबुक, राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृष्ठ 13
4 भीतर तक भीगे जीवन का कहानीकार, जीवन सिंह, पल-प्रतिपल, अंक 45, 1998, पृष्ठ 75
5 प्रतिनिधि कहानियाँ, ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1984, भूमिका से
6 भीतर तक भीगे जीवन का कहानीकार, जीवन सिंह, पल-प्रतिपल, अंक 45, 1998, पृष्ठ 74
7 कहना न होगा, नामवर सिंह से बातचीत, संपादक समीक्षा ठाकुर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1994 पृष्ठ 48-49
8 प्रतिनिधि कहानियाँ, ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1984, बैक कवर से
9 सपना नहीं, ज्ञानरंजन, फ्लैप से उद्धृत, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997
10 समकालीन कहानी: दिशा और दृष्टि, धनंजय, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद, 1970, पृष्ठ 90


- भागीरथी पंत चतुर्वेदी
पीएच. डी. शोधार्थी, हिंदी विभाग
शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कन्या
स्नातकोत्तर (स्वशासी) महाविद्यालय, भोपाल

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