चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है/शशि शर्मा
चित्रांकन
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दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को
स्वातंत्र्योत्तर जनविरोधी व्यवस्था का प्रतिवाद करने के लिए अपनाया | समकालीन समय के स्वार्थपरक शासन व्यवस्था, अराजक सामाजिक व्यवस्था और विषम आर्थिक व्यवस्था को ग़ज़लों के
माध्यम से जिस तरह दुष्यंत कुमार ने निरूत्तर कर दिया, वह केवल उनके जैसे जनकवि के बूते की ही बात थी | ‘सारिका’ के संपादक कमलेश्वर उनकी ग़ज़लों की
महत्ता पर विचार करते हुए लिखते हैं –‘नाजिम
हिकमत, पाब्लो नेरूदा की कविताएँ अपने देशों में जो
और जितना कर सकीं, उससे कहीं ज्यादा दुष्यंत की ग़ज़लों
ने भारतीय लोकतंत्र को बचाने में की है |2 ‘साये में धूप’ का आगाज ही आमजन के जीवन को केंद्र
में रखकर किया गया है | लोकतंत्रीय संविधान में ‘लोक’ की संवैधानिक और
वास्तविक स्थिति के पार्थक्य को दुष्यंत कुमार ने सूक्ष्मता से उद्घाटित किया है–
‘कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,/कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए |3
विदेशी दासता से मुक्त होने के
बावजूद विपन्न भारतवासी अपने मूलाधिकारों से वंचित रहे, यह केवल एक संयोग नहीं था, यह सत्ता और
पूँजीवादी ताकतों की गहरी साजिश थी | दुष्यंत समझ रहे
थे कि– ‘तुम्हीं से प्यार जताएँ, तुम्हीं को खा जायें’4- यही सत्ता की असलियत है | सत्ता के लिए
आमजन सिर्फ और सिर्फ ‘वोट बैंक’ है | आजादी उपरांत राजनीति का जो रूप
सामने आया, वह बेहद भयावह था | जन-उद्धारक कुर्सी पर बैठकर ‘जनहित’ की आड़ में ‘स्वहित’ में व्यस्त हो गये और भूख, गरीबी, अभाव को झेलता आम
आदमी सत्तासीनों के आश्वासनों को सच में परिणत होने की आशा लिए काल-कलवित होता गया
| आज स्थिति यह है कि भारत एक गरीब देश के रूप
में विश्व पटल पर चिन्हित है | दुष्यंत लिखते
हैं –‘बहुत मशहूर है आयें जरूर आप यहाँ,/ये मुल्क देखने के लायक तो है, हसीन नहीं |’5 विकास का जो गुणगान सत्ता और मीडिया
मिलकर करती है, उस विकास की वास्तविकता कुछ और ही है
| विकास तो हो रहा है पर किनका? जो सम्पन्न है वे और संपन्न होते जा रहे हैं और जो विपन्न है
वे निरंतर विपन्न होते जा रहे हैं | जिस रोशनी की आस
जगाई गयी, उसकी हकीकत कुछ और ही निकली – ये रोशनी है हकीकत में एक छल लोगो,कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो |6
आजादी उपरांत जिस स्वार्थपरक राजनीति
की नींव पड़ी, उससे विकास का लाभ सीमित वर्ग तक
सिमट गया | ‘लाभ और लोभ’ की संस्कृति ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया फलस्वरूप सारी विकासशील योजनाएँ
आमजन तक पहुँचने से पहले ही बीच में ही अटककर रह गयी | इस असमान विकास पर गज़लकार लिखते हैं – “यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,/मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा |’7 तत्कालीन सरकार की नीतियों और कार्यों पर जिस तरह की प्रतिक्रिया दुष्यंत
कुमार ने व्यक्त की, वह उस समय के बड़े-बड़े दिग्गज कवि भी
न कर सके | स्वातंत्र्योत्तर ‘चिथड़े हुए हिन्दुस्तान’ को नुमाइश में देखकर ‘करोड़ों लोगों को’
अपने भीतर महसूस करने वाले गज़लकार का लहजा व्यंग्यात्मक
हो गया | जब स्थिति यह हो जाए कि ‘जब से आजादी मिली है मुल्क में रमजान है’8 तो किसी भी सच्चे जन-प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए जुबा को खामोश
रख पाना असंभव हो जाता है दुष्यंत कुमार के लिए भी यह असंभव हो गया -–‘ये जुबां हमसे सी नहीं जाती /जिन्दगी है कि जी नहीं जाती’9
एक तरफ वह आमजन है जो अन्न की आस में
कई फ़ाके बिताकर मर जाता है और दूसरी तरफ वे
राजनेता है जो संसद में इस मुद्दे को उछालकर एक-दूसरे पर छींटाकशी करते हैं
| भूख जैसी संवेदनशील मुद्दे के प्रति भी
राजनेता बेहद असंवेदनशील रवैया अपनाते हैं | भूख, गरीबी, अभाव इनके लिए सिर्फ एक ‘मुद्दा’ है | जब तक भूख,
गरीबी और अभाव बना रहेगा, इनकी सत्ता बनी रहेगी | अपनी सत्ता बनाए
रखने के लिए ये भूख और अभाव को वाचिक रूप से चुनावी पर्व के दौरान हटाने का प्रयास
करते हैं पर कार्यकारी रूप में आजतक यानी आजादी के 69 वर्षों बाद भी स्थिति कमोबेश ज्यों कि त्यों है | राजनीति के इस दोहरे चरित्र और षंडयंत्र पर दुष्यंत कुमार की प्रतिक्रिया
देखते ही बनती हैं –‘भूख है तो सब्र कर,रोटी नहीं तो क्या हुआ,/आजकल दिल्ली में है जोरे बहस ये मुद्दा |”10 अपनी ग़ज़लों में गज़लकार ने राजनीतिक विसंगतियों पर कटु प्रहार किया है |
जन विरोधी राजनीति और स्वार्थी, असंवेदनशील राजनेता उनकी जनोन्मुखी दृष्टि को खटकती है | यही कारण है कि वे अपनी ग़ज़लों को जनविरोधी, असंवेदनशील, दमनकारी व्यवस्था
के विरूद्ध एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं – ‘मुझमें रहते हैं
करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, / हर ग़ज़ल अब सल्तनत
के नाम एक बयान है |’11
दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में
स्वतंत्रता पश्चात की यथार्थ तस्वीर मिलती है | स्वतंत्रता पश्चात स्थापित लोकतंत्र से लोक जैसे गायब हो गया और सबकुछ
तंत्र के दायरे में आ गया –‘हमको पता नहीं था
हमें अब पता चला,/ इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही |12 गज़लकार स्वतंत्रता का यह हश्र देखकर आक्रोश से भर उठते हैं |
लोकतंत्र की नाकामी पर वे लिखते हैं – ‘रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं,/ मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार |13
आपातकाल का दौर शासन की तानाशाही का
उदाहरण था | उस दौर में जब ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर पाबंदी लगाई गई, दुष्यंत ने लिखा-
‘गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं,/पेट भरकर गालियाँ दो, आह भरकर
बददुआ |’14 प्रसिद्ध आलोचक डॉ.विजयबहादुर सिंह दुष्यंत
कुमार को ‘दुस्साहसी प्रतिभा’15 मानते हैं कारण उनका बेख़ौफ़ सृजनशील व्यक्तित्व | आमजन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी सशक्त थी कि सरकारी मुलाजिम होते हुए
दमनकारी सरकार के विरोध में लिखने से खुद को नहीं रोक पाए ‘मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ,/ मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं |’16 कमलेश्वर लिखते हैं, ‘आपातकाल के सारे
प्रावधानों और राजनीतिक तानाशाही द्वारा बाधित किए गए सारे मानवीय सरोकारों की
पक्षधरता में हमें हिन्दी का एक ही कवि दिखाई पड़ता है, और वह है ‘साए में धूप’ का कवि दुष्यंतकुमार, जिसने
कलावादी-व्यक्तिवादी दस्ताने उतारकर आग को छूने का साहसिक साहित्यिक उपक्रम किया’17
गज़लकार मानते हैं कि जनविरोधी ताकतों को जनशक्ति
के द्वारा न केवल नेस्तानाबूद किया जा सकता है बल्कि लोकतंत्र में लोक को सही
स्थान भी दिलाया जा सकता है बशर्ते ‘एक पत्थर तबीयत
से उछालने’ के लिए हरेक शख्स अपना हाथ उठाये |
नेत्रहीन और कर्णहीन बनी सत्ता से अपने मौलिक अधिकारों
की प्राप्ति के लिए हंगामा ही शेष विकल्प है – ‘पक गई है आदतें,बातों से सर होंगी नहीं,/कोई हंगामा करो,ऐसे गुजर होगी
नहीं |’18 आलोचक सरदार मुजावर गज़लकार की
क्रान्ति-चेतना के बारे में लिखते हैं – ‘जहाँ
उन्होंने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्ति एवं समाज की आँखें खोलने का प्रयास किया
है, वहाँ उन्होंने समाज की बुराइयों को ख़त्म
करने के लिए क्रान्ति की बात भी कही है | नि:संदेह
उनकी हर ग़ज़ल हमें एक मशाल की तरह नजर आती है जिसके प्रकाश में चाहे व्यक्ति हो
अथवा समाज हो- दोनों ही विकास के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं |”19
दुष्यंत कुमार की गज़लें समकालीन
समस्याओं से सीधा मुठभेड़ करती है | महंगाई, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से आमजन तो जूझ ही रहा था, बाजारवाद के द्रुत विकास से नैतिक मूल्य भी हाशिये पर चले गए |
ह्रदय संवेदनशून्य होने लगा और सामाजिक-बोध मरणासन्न
अवस्था में पहुँच गयी | सबकुछ ‘स्व’ के दायरे में सीमित हो गया है |
एक नई तहजीब का उदय हुआ जहाँ आदमी को भूनकर खाने की
परम्परा बन गयी ‘अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम,/आदमी को भूनकर खाने लगे हैं |’20 पूँजीपोषित सभ्यता की जो नींव आजादी के समय पड़ी, उसका पोषण व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक अलगाववाद के रूप में हुआ |
व्यक्ति इतना स्वकेंद्रित हो गया कि घर की खिड़कियाँ ही
नहीं मन की खिड़कियाँ भी शोर का कारण जानने की आग्रही नहीं रही – ‘इस शहर में वो कोई बरात हो या वारदात, / अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियाँ |’21
दुष्यंत कुमार की गज़लें नैतिक
अवमूल्यन के विरोध में खड़ी होती है | मनुष्य की निरंतर
बढ़ती संवेदनशून्यता से उसे मुक्त करवाने का कार्य करती है | संवेदना मनुष्य के मनुष्य बने होने प्रमाण है, इसका अभाव या न्यूनता उसे मनुष्य के पद से नीचे गिरा, मशीन की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देगा | मनुष्य की यह स्थिति गज़लकार को कतई स्वीकार्य नहीं – ‘तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,/तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं’22
दुष्यंत कुमार की गज़लें हमारी चेतना
को उद्भूत करती है | हमें हमारे अधिकारों और कर्तव्य के
लिए सजग करती है | हमारे देश की आज जो स्थिति है,
उसके मूल में कहीं न कहीं हमारी चुप्पी है | आजादी मिले हमें 69 साल से
अधिक हो चुका है पर भूख, महंगाई, अभाव और लोकतंत्रीय विडंबना से आमजन आज भी त्रस्त है |
हमारे कर्णधारों के लिए आमजन आज भी केवल ‘वोट बैंक’ ही है, उत्तरदायित्व नहीं |
सरकार आज भी उनके प्रति संवेदनहीन है |
अपने इस ग़ज़ल-संग्रह में गज़लकार ने समसामयिक
राजनीतिक परिवेश के साथ-साथ मानवीय
मूल्यों पर मंडराते पूँजीवादी खतरे पर भी अपनी तीक्ष्ण दृष्टि डाली है | पूँजीवाद के
वर्चस्व से मानवीय और नैतिक मूल्य धराशायी हो रहे हैं | हमारी सभ्यता और संस्कृति पर हमला कर हमें दिग्भ्रमित करने का कुचक्र रहा
जा रहा है | आज नैतिक अवमूल्यन एक गहरी समस्या
बनती जा रही है | ऐसी स्थिति में दुष्यंत कुमार की
गज़लों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है |
सन्दर्भ सूची
:
1. संपादक- विजय बहादुर सिंह, दुष्यंत
रचनावली भाग -2, किताबघर प्रकाशन,नई दिल्ली, दूसरा संस्करण:2007, पृष्ठ संख्या –237
2. संपादक- विजय बहादुर सिंह, यारों का यार
दुष्यंत कुमार,यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2008,
पृष्ठ संख्या-123
3. दुष्यंत कुमार, साये में धूप, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नयी
दिल्ली,उन्नीसवाँ संस्करण 2008, पृष्ठ संख्या –13
4. वही, पृष्ठ संख्या – 64
5. वही, पृष्ठ संख्या – 64
6. वही, पृष्ठ संख्या – 29
7. वही, पृष्ठ संख्या – 15
8. वही, पृष्ठ संख्या – 57
9. वही, पृष्ठ संख्या – 45
10. वही, पृष्ठ संख्या –21
11. वही, पृष्ठ संख्या –57
12. वही, पृष्ठ संख्या –18
13. वही, पृष्ठ संख्या –63
14. वही, पृष्ठ संख्या –21
15. संपादक- विजय बहादुर सिंह, यारों का यार दुष्यंत कुमार,यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ संख्या- 10
16. दुष्यंत कुमार, साये में धूप, राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नयी दिल्ली,उन्नीसवाँ संस्करण 2008, पृष्ठ संख्या –64
17. संपादक- विजय बहादुर सिंह, यारों का यार दुष्यंत कुमार,यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2008, पृष्ठ संख्या- 122
18. दुष्यंत कुमार, साये में धूप, राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नयी दिल्ली,उन्नीसवाँ संस्करण 2008, पृष्ठ संख्या –51
19. सरदार मुजावर, दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का समीक्षात्मक अध्ययन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण :2003, पृष्ठ संख्या -34
20.दुष्यंत कुमार, साये में धूप, राधाकृष्ण
प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नयी दिल्ली,उन्नीसवाँ संस्करण 2008, पृष्ठ संख्या –14
21. वही, पृष्ठ संख्या –24
22. वही, पृष्ठ संख्या –64
शशि शर्मा
द्वारा डॉ.राजेन्द्र प्रसाद
सिंह,अमरावती,गुरूंग नगर
प्रधान नगर, सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग,पश्चिम बंगाल-734003
संपर्क सूत्र:-09832321080
ईमेल:-anantshashi.sharma43@gmail.com
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