चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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जगदीश चंद्र के उपन्यासों में मजदूर जीवन का यथार्थ/मौह.रहीश अली खां
, परंतु ध्यान से देखा जाए तो यह विकास कमजोर तबके के लोगों
के लिए कोई मायने नहीं रखता। देश के इस विकास की नींव के नीचे न जाने कितने
मेहनतकश मजदूर एवं किसानों के खून-पसीने की बूँदें, उनका बलिदान व शोषण की कथाएं दबी हुई हैं। इस
वर्ग के लोगों को शुरू से ही हाशिए पर रखा गया है और इनका शोषण भी कम होने के बजाय
लगातार बढ़ता चला गया है। इस शोषण का स्तर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक के साथ-साथ शारीरिक व
मानसिक भी है। निस्संदेह देश भले ही बड़े आर्थिक विकास के दावे बड़े जोर के साथ कर
रहा हो, किंतु इस श्रमिक
वर्ग की जिंदगी में कोई खास परिवर्तन नहीं आ रहा है। आज भी देश में मजदूरों की
स्थित ठीक वही है जो आजादी से पहले थी। भारतीय समाज में श्रमिक मजदूर, खेतिहर या खेत मजदूर आदि को निम्नवर्ग के
अंतर्गत रखा गया है। चमार, हरिजन, भंगी, या मेहतर के अतिरिक्त डोम आदि शूद्रों को मजदूर
माना जाता है। अतः दलित जातियों के अधिसंख्य निर्धन लोग ही मजदूरी करते हैं और
वास्तव में ये ही सच्चे मजदूर हैं।
भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशकों में
लगभग प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया है
चित्रांकन
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जगदीश चंद्र ने ‘धरती धन न अपना’ (1972), ‘नरककुंड में बास’ (1994), एवं ‘जमीन अपनी तो थी’ (2001) शीर्षकों के अंतर्गत एक ऐसी उपन्यास त्रयी की
रचना की है, जिसका आधार
भारतीय समाज का सर्वाधिक उत्पीड़ित वर्ग- दलित मजदूर है। इस त्रयी के अंतर्गत
उपन्यासकार ने दलित मजदूरों के जीवन का अत्यंत यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है।
मजदूरों के रहन-सहन, क्रिया-कलाप,
भूख एवं जुल्म की त्रासदी,
आपसी व्यवहार आदि के
साथ-साथ दलित मजदूरों पर होने वाले उस असहनीय अत्याचार एवं शोषण को भी लेखक ने बड़ी
बेबाकी से प्रस्तुत किया है, जो जमींदार किसानों की फितरत बन चुका है। अतः दलित मजदूरों पर जमींदारों
द्वारा किए गए अत्याचार और यातनाओं को प्रस्तुत करना ही उपन्यासकार का मुख्य
उद्देश्य रहा है।
उपन्यास-त्रयी का पहला भाग ‘धरती धन न अपना’ जगदीश चंद्र के बहु प्रशंसित उपन्यासों में
सर्वोपरि है। सदियों से जुल्म की चक्की में पिसते ग्रामीण हरिजनों और भूमिहीन
मजदूरों की समस्याओं को केंद्र बनाकर लिखा गया यह उपन्यास सवर्णों और हरिजनों के
सामाजिक संबंधों की एकांगिता और सड़ांध को पूरी निर्ममता से उघाड़ता है।1 इसी प्रकार उपन्यास-त्रयी का दूसरा भाग ‘नरककुंड में बास’ भूमिहीन और दलित मजदूर की समाज में क्या स्थिति
है, उसका विविध आयामों से
चित्रण है तथा तीसरा अथवा अंतिम भाग ’जमीन अपनी तो थी’ आजादी के बाद के पंजाब प्रांत के ग्रामीण जीवन का चित्रण
करता है। उसके लिए रचनाकार ने पंजाब के एक गांव के सामाजिक संबंधों (जो मूलतः कृषि
पर आधारित हैं) को अपने उपन्यास का केंद्र बनाया है।
निस्संदेह जगदीश चंद्र ने इस उपन्यास-त्रयी के
माध्यम से युग स्थितियों का इतिहास रचा है। पंजाब की पृष्ठभूमि होने के बावजूद भी
जगदीश चंद्र के यहां गांव भारत का गांव है। एक ऐसा गांव जो आज भी पीड़ित, ऊर्जावान और रूढ़ियों में बुरी तरह से जकड़ा हुआ
है। उसे पंजाब प्रांत के होशियारपुर का सिर्फ ’घोड़ेवाहा’ गांव न समझकर हिंदुस्तान का कोई भी गांव मान
सकते हैं।
जगदीश चंद्र द्वारा रचित उपन्यास-त्रयी भारतीय
समाज के एक विशिष्ट अंग-दलित मजदूर वर्ग की समस्या पर आधारित रचना है। त्रयी के
माध्यम से उपन्यासकार ने यह दर्शाया है कि समाज में इस वर्ग की स्थिति एवं स्थान
क्या है। उपन्यास-त्रयी के केंद्र में दलितों की चमार जाति है, जिसका लगभग प्रत्येक व्यक्ति जमींदारों का
भूदास है अथवा श्रमिक है। चमार जाति के पुरुष जमींदारों के खेतों में परिश्रम करते
हैं जबकि महिलाएं उनके घरों में साफ-सफाई का काम करती हैं। काली इस समाज का
प्रतिनिधि पात्र है जिसने जीवन की शुरूआत से ही मुसीबतों एवं परेशानियों का सामना
किया है।
मजदूरी पर जीवन यापन करने वाले चमादड़ी के चमार
लोग शामलात की (गांव की सांझी) जमीन पर कच्चे घर बनाकर रह रहे हैं। इन लोगों की
दिली इच्छा है कि इनका भी अपना खेत और घर हो। इस समाज का प्रतिनिधि पात्र काली
पक्का मकान बनाने का प्रयास करता है। मकान बनाने के लिए आवश्यक सामान की तैयारियां
की जाती हैं, छज्जूशाह
दुकानदार से कर्ज की बातें भी होती हैं। नींव खोदते समय एवं तालाब से मिट्टी लाते
समय लड़ाई व झगड़ा भी होता है, परंतु सारी योजना असफल हो जाती हैं, जब काली को यह पता चलता है कि जिस जमीन पर उसका घर बना हुआ
है वह जमीन भी उसकी अपनी नहीं शामलात की है। आखिर में बेखेतिहर मजदूर युवक काली
जल्द ही पुनः घसियारा बन जाता है।
काली पक्का घर बनाना चाहता है। इसलिए कुछ पैसे
तो उसके पास हैं और बाकी के लिए वह छज्जूशाह दुकानदार के पास जाता है। काली
छज्जूशाह से कहता है, ‘शाहजी, मेरा कोठा बहुत
ही बोदा हो गया है। पता नहीं किस समें बैठ जाए। सोच रहा हूं कि उसे खदेड़कर पक्का
बना दूं। इसी बारे में आपसे सलाह करने आया था।’2 काली की यह बात सुनकर छज्जूशाह कर्ज देने के
लिए तैयार हो जाता है। काली अपनी जमीन गिरवी रखने की बात कहता है तब छज्जूशाह काली
को बताता है, ‘कालीदास जिस जमीन
की तुम बात कर रहे हो वह जमीन भी तुम्हारी नहीं है। वह शामलात (गांव के जमींदारों
की सांझी) जमीन है। जब तक तू या तेरे वारिस (उत्तराधिकारी) इस गांव में रहेंगे,
जमीन का वह टुकड़ा रिहायश
के लिए तुम्हारा है। बाद में उसका मालिक गांव होगा। वह तेरी मलकियती जमीन नहीं है,
मौरूसी जमीन है।’3 इतना सुनकर काली के पांव तले से जमीन खिसक
जाती है और उसका पक्का मकान बनाने का सपना एक क्षण में रफूचक्कर हो जाता है। अंत
में काली की चाची का स्वर्गवास हो जाता है और उससे उसकी प्रेमिका व गांव दोनों छूट
जाते हैं। काली जालंधर शहर पहुंचता है, फिर नंदसिंह से मुलाकात होने पर शहर के नजदीक बसे गांव में
जाकर रहने लग जाता है। काफी मेहनत एवं मशक्कत के बाद उसका पक्का मकान बनाने का
सपना साकार होता है।
जगदीश चंद्र ने अपनी उपन्यास-त्रयी के अंतर्गत
मजदूर वर्ग के संघर्ष को बड़ी सच्चाई के साथ दिखाया है। प्रो. कुंवरपाल सिंह ने
काली के संबंध में लिखा है, ‘काली की नियति व्यक्ति की नहीं, सर्वहारा की नियति है जिसे न गांव सम्मान का जीवन दे रहे
हैं और न शहर। वे नरक-दर-नरक भटक रहे हैं।’4 काली दो बार गांव छोड़कर शहर भागता है। इसका कारण गांव के
जमींदारों द्वारा काली पर किए गए अत्याचार और असहनीय उत्पीड़न हैं। काली की तरह
उसकी समाज के अन्य बहुत से लोग जमींदारों के जुल्म का शिकार होने के बावजूद गांव
में रहते हैं, परंतु काली शोषण
के विरुद्ध आवाज उठाता है। नंदसिंह चौधरी मुंशी से जूते की मरम्मत का मेहनताना
मांगता है तो वह नंदसिंह को कुत्ता, चमार कहकर गालियां देता है और मारपीट भी करता है। यह देखकर
काली को क्रोध आ जाता है और वह मुंशी से कहता है, ‘चौधरी, क्यों जोर जबरदस्ती करता है। अपनी मेहनत के पैसे मांगे हैं
कोई डांग (लाठी) नहीं मारी है।’5 चैधरी मुंशी नंदसिंह के साथ-साथ काली को भी
गालियां बकता है।
काली की तरह नंदसिंह भी गांव के चौधरियों के
शोषण का शिकार होता है और अपना गांव छोड़कर शहर चला जाता है। काली, नंदसिंह से गांव छोड़ने का कारण पूछता है।
नंदसिंह दुखी होकर कहता है, ‘काली, तू तो घर का आदमी
है। तेरे से कैसा पर्दा, तेरा तो सबकुछ देखा-भाला है। गांव में गरीब आदमी की इज्जत किसी लेखे-जोखे में
नहीं होती। खासतौर पर हमारी बिरादरी की......कम्मियों की। जवान लड़कियों, औरतों को काम से अकेले ही खेतों, खलिहानों, बाड़ों-घरों में जाना पड़ता है। रोटी की मजबूरी
से बहुत कुछ मानना-सहना होता है.......इज्जत-आबरू समेत।’6 अतः चौधरियों के जुल्म के सामने गांव के मजदूर लोग ज्यादा
दिन नहीं टिक पाते हैं। इस शोषण से छुटकारा पाने का सिर्फ एक ही तरीका है- मजबूर
होकर गांव छोड़ दो अथवा शोषण के विरुद्ध संघर्ष करो। मगर संघर्ष करने वालों की हालत
काली और नंदसिंह के समान ही होती है क्योंकि कब तक कोई निर्धन व्यक्ति इन लोगों के
अत्याचार के सामने टिक सकता है।
अपना पैतृक गांव छोड़कर काली, नंदसिंह के साथ जालंधर शहर से कुछ दूर बसे गांव
के अड्डे पर रहने लगता है, परंतु यहां भी शोषण की लपटें उनका पीछा नहीं छोड़ती हैं। इस गांव में भी चौधरियों
की भांति सरदार पृतपालसिंह का बोलबाला है। गांव को मिलने वाली सारी सुख-सुविधाओं
का लाभ भी सरदार व उसका परिवार उठाता है। काली गांव में बनी सोसाइटी से कर्जा लेना
चाहता है। काफी भागदौड़ के बाद भी उसे कर्जा नहीं मिल पाता। जमना कराड़ काली को
समझाता है, ‘लगता है कि अड्डे
पर बैठकर भी तू भोला है। दरअसल ससैटी-डीपू है ही सरदारों के लिए। चीनी भी उन्हीं
की हवेलियों में जाती है और कर्जा भी वही बरतते हैं। काहनसिंह और केसरसिंह के कोरे
कागजों पर अंगूठे भी इसीलिए लगवाए हैं। नाम इनका होगा, रकम सरदार इस्तेमाल करेगा।’7 काली की समझ में आ गया कि सरदार पृतपालसिंह
गांव के लोगों के लिए शोषक बना बैठा है। उसकी खुशामद के बगैर मजदूर वर्ग का एक भी
व्यक्ति कोई भी लाभ नहीं उठा सकता।
जगदीश चंद्र भी वर्ग-संघर्ष को दर्शाए बिना
नहीं रह सके। उन्होंने संघर्ष को बड़ी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किया है। यहां यह
संघर्ष गांव के जमींदार चौधरियों व दलित मजदूरों के मध्य दिखाया गया है। मजदूरों
द्वारा दिहाड़ी मांग लेने पर चौधरी उनका बहिष्कार कर देते हैं। इस बहिष्कार का असर
दोनों वर्गों पर पड़ता है। दोनों ही पक्ष अनेक समस्याओं का सामना करते हैं। गांव का
चौकीदार दासू ढिडोरा पीट कर चमादड़ी के लोगों को सूचित करता है, ‘कोई चमार चौधरियों के खेतों में, उनमें जाने वाली पगडंडियों पर, उनके मुहल्लों की गलियों में व गांव की दूकानों
पर नहीं आ सकता। जो आएगा वो अपने किए की सख्त सजा पाएगा।’8 चौधरियों ने चमारों पर हर प्रकार से प्रतिबंध
लगा दिया। उधर चौधरियों व दुकानदारों को भी चौकीदार सचेत करता है, ‘गांव की पंचायत ने फैसला किया है कि कोई
जिमींदार, दूकानदार चमारों
को अपनी हवेली, मकान, खेत और दुकान पर नहीं आने देगा। उनको काम पर
नहीं लगाएगा। जो कोई ऐसा करेगा, गांव वाले उसका हुक्का पानी बंद कर देगें।’9 इस प्रकार दोनों समुदाय के लोगों ने आपस में संबंध-विच्छेद
कर लिया।
उपन्यास-त्रयी का नायक काली सशक्त पात्र है।
उसके सामने जीवन में कई समस्याएं आती हैं। वह उन समस्याओं का मुकाबला डटकर करता है,
परंतु कुछ समस्याओं के
सामने उसे हार स्वीकार करनी पड़ती है। वह भूख सहन करता है, गरीबी से मुकाबला करता है और प्रेम की खातिर
अपने ही समाज के लोगों द्वारा प्रताड़ित भी किया जाता है, अंत में चौधरियों के अन्याय, उत्पीड़न व शोषण के सामने गांव से भागकर शहर चला
जाता है। काली दो बार गांव छोड़कर जाता है। ‘गांव से पहला गमन पेट की खातिर था तो दूसरा गमन
सांस्कृतिक व सामाजिक उत्पीड़न के कारण।’10 अतः काली गांव से भीतरी एवं बाहरी दबाव के
कारण पलायन करके पहले कानपुर और बाद में जालंधर पहुंचता है। कानपुर से तो अपनी
चाची की याद में वापस आ जाता है, परंतु जालंधर पहुंचने पर वह पुनः लौट नहीं पाता। क्योंकि ज्ञानो की मृत्यु का
समाचार सुनकर काली को लगा कि गांव में अब कोई उसका सगा नहीं है जिसकी खातिर गांव
लौट जाए।
‘धरती धन न अपना’ के आरंभ में ही ज्ञात हो जाता है कि काली लगभग
छह साल पहले गांव छोड़कर कानपुर भाग गया था। गांव से काली के पलायन का मुख्य कारण
भूख और गरीबी तो थी ही साथ ही जमींदारों का उत्पीड़न भी कुछ कम नहीं था। गांव वापस
आकर काली देखता है कि चौधरियों के अत्याचार और उत्पीड़न में तनिक भी बदलाव नहीं आया
है, वह ज्यों का त्यों बरकरार
है। नंदसिंह और चौधरी मुंशी में झगड़ा होने पर, इधर काली नंदसिंह का पक्ष लेता है तो उधर चौधरी
हरनामसिंह चौधरी मुंशी का साथ देता हुआ काली से भला बुरा कहता है, ’देख ओ काली के पुत्तर, जूते मार-मारकर तेरा सिर पोला कर दूंगा। सौ
मारकर एक गिनूंगा। तू शरारती आदमी है। तेरी खैर इसी में है कि तू गांव छोड़ जा।’11 जब काली अपनी सफाई देने की कोशिश करता है तो चौधरी
हरनामसिंह आग बबूला होकर काली को चेतावनी देता है, ‘आगे से टर-टर करता है। तू कहां का धर्म पुत्तर है।
कान खोलकर सुन ले चौधरी के मुकाबले में गलती हमेशा कमीन की होती है। ज्यादा अकड़ और
फूं-फा दिखाई तो तेरी लाश तक नहीं मिलेगी।’12 जब से काली गांव में आया है तब से प्रतिदिन इन्हीं
यातनाओं को झेल रहा है। चौधरी नहीं चाहते कि कोई उनका विरोध करे, इसीलिए वे काली को गांव से भागने के लिए मजबूर
करते हैं। क्योंकि काली जागरुक व्यक्ति है और उसकी यही जागरुकता चौधरियों के लिए
खतरे का निशान है। अंत में ज्ञानो के कारण काली को मजबूर होकर गांव छोड़ना पड़ता है।
काली की भांति नंदसिंह भी चौधरियों के उत्पीड़न
से गांव छोड़कर शहर चला आता है, जहां उसकी मुलाकात काली से होती है। काली के गांव
छोड़ने पर नंदसिंह अफसोस करता है, ‘गांव में कुछ भी हो जाए, कसूर गरीब आदमी का ही होता है। सजा भी उसे ही दी जाती है। तूने कसूर किया।
तुम्हे गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि तू गरीब था। अपना कसूर संभाल नहीं सकता था....।’13 इस प्रकार जब काली नंदसिंह से गांव छोड़ने का
कारण पूछता है तो नंदसिंह कहता है, ‘क्योंकि मैं भी गरीब था। कसूर बड़े आदमी ने किया था। अपनी
जिंदगी और इज्जत बचाने के लिए मुझे गांव से भागना पड़ा।’14 अतः गांव में गरीब होना भी सबसे बड़ा जुर्म है।
गरीबी के कारण ही चौधरियों के जुल्म के सामने काली और नंदसिंह जैसे निर्धन मजदूर
नहीं टिक सके।
‘जमीन अपनी तो थी’ में गांव के सरदार भी भ्रष्टाचार में पीछे नहीं
रहते। सभी प्रकार से साधन संपन्न ये सरदार इतने गिरे हुए हैं कि राशन डिपो से
मिलने वाला निर्धन मजदूरों के हिस्से का राशन तक हजम कर जाते हैं और डकार भी नहीं
लेते। राशन डिपो का मालिक जमना कराड़ काली के भ्रम को इस प्रकार तोड़ता है, ‘
तू क्या समझता है कि
ससैटी डंगर चराने और खेतों के कामों के आसरे चलेगी। हम तो प्यादे हैं। शाह तो
सरदार ही है। मेंबर भी उसने मनोनीत किए हैं। कोई चुनाव नहीं हुआ। कमेटी की मीटिंग
भी नहीं होती। सब फैसले छोटा सरदार ही करता है। बाकी काम मास्टर दिलीपसिंह निपटा
देता है।’15 अतः गरीबों की सुविधाओं के लिए गांव में एक सोसाइटी बनी हुई है, परंतु राशन डिपो और सोसाइटी से मिलने वाली
सुविधाओं का लाभ सिर्फ गांव के सरदार लोग उठाते हैं। काली सोसाइटी से ऋण लेना
चाहता है इसके लिए वह सरदार पृतपालसिंह के पास जाता है। पृतपालसिंह काली को तसल्ली
दिलाता है कि उसका काम जल्द ही हो जाएगा। इस बात से परेशान तरलोकसिंह व दलीपसिंह,
पृतपालसिंह का मुंह ताकने
लगते हैं तब पृतपालसिंह उन्हें समझाता है, ‘दस फर्जी मामलों में एक भी सही और जायज हो तो
बाकी की पर्दापोशी करना आसान हो जाता है। औना-पौना करके इसे कर्जा दे देना। हमें
फायदा ही रहेगा।’16 अतः स्पष्ट है कि सरदारों का रोम-रोम भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है।
गांव में रहने वाले दलित मजदूरों को सरकार
द्वारा जमीन दी जाती है, परंतु दलित समाज के कुछ अधिकारी जो इन मजदूरों के ही अपने सगे-संबंधी हैं,
ऊपर ही ऊपर इनकी जमीनें
अपने और अपने परिवार के सदस्यों के नाम करवा देते हैं। एक व्यक्ति इन भोले-भाले
मजदूरों को बताता है, ‘जमीनों की अलाटमेंट तो बहुत पहले हो गई थी। लोगों ने या तो बेच दी हैं या फिर
बड़े अफसरों और लीडरों ने हथिया ली हैं। उन जमीनों पर तो बड़े-बड़े फॉर्म बन गए हैं।
लगभग सभी अफसर और लीडर आप लोगों की बिरादरी के ही हैं।’17 कुलतारसिंह जौहल जो कि एक अधिकारी है, इन अनपढ़ और भोले मजदूरों की जमीनों को धोखे से
हड़प लेता है और अपने परिवार के सदस्यों के नाम करवा देता है। कुलतारसिंह इन्हीं की
बिरादरी और गांव का इनका संबंधी है, परंतु एक धोखेबाज, रिश्वतखोर एवं बेईमान व्यक्ति है। अतः भ्रष्टाचार की आग ने
इन मजदूरों के सपनों को पूरा होने से पहले जी जलाकर राख कर दिया।
जगदीश चंद्र द्वारा रचित उपन्यास-त्रयी में
जमींदारों के शोषण का शिकार दलित समाज की अधिकतर वे महिलाएं हैं जो इन चौधरियों की
हवेलियों में प्रतिदिन साफ-सफाई करने जाती हैं। मजदूरी के बदले में इन महिलाओं को
बासी या बचा हुआ भोजन मिलता है। ये महिलाएं इन हवेलियों में बंधुआ मजदूर के रूप
में काम करती हैं। हवेलियों में काम करने वाली महिलाओं में अधिकतर युवतियां ही
हैं। एक दिन न आने पर अथवा देर से आने पर जमींदारों की पत्नियां इन्हें बेतुके ढंग
से गाली-गलौज करती हैं। इतना ही नहीं इन मजदूर महिलाओं को जमींदारों की हवस का
शिकार भी होना पड़ता है। ‘धरती धन न अपना’ में निक्कू की
बेटी लच्छो को भूख एवं गरीबी के कारण चौधरी हरनामसिंह के भतीजे हरदेव की हवस का
शिकार बनना पड़ा। हरदेव बहाना करके लच्छो को कोठरी की ओर भेज देता है। ‘लच्छो दरवाजा खोल अंदर चली गई। कोठरी भूसे से
भरी हुई थी। उसमें एक ओर कपास की छड़ियां पड़ी थीं और उनके नीचे गेहूं के सिट्टे।
लच्छो ने सिट्टों तक पहुंचने के लिए दरवाजे का एक पट बंद कर दिया। उसने सिट्टे
उठाने के लिए हाथ बढ़ाए तो उसके सीने पर दो हाथ रेंगने लगे। उसके मुंह से हल्की-सी
चीख निकली और वह अपने आप को छुड़ाने के लिए हाथ-पांव मारने लगी।’18 अतः भूख और बेबसी के कारण लच्छो कुछ न कह सकी
और अपना सबकुछ लुटाकर रात की बची बासी रोटियों के साथ घर वापस आ गई।
लच्छो की भांति प्रसिन्नी और ज्ञानो को भी चौधरियों
की यातनाओं का सामना करना पड़ता है। बाईकाट के दिनों में, हवेलियों में काम करने वाली महिलाओं के साथ चौधरी
बदसलूकी करते हैं। प्रसिन्नी आकर शिकायत करती है, ‘सूल निकले मोए चौधरियों को। हमसे काम नहीं
कराना है तो न सही, उन्हें अबा-तबा
बकने का क्या हक है।..... मोयों के अपने घरों में भी माएं-बहनें हैं। बुरा काम
उनके साथ करें।’19 इसी बीच ज्ञानो भागती हुई आती है और चिल्लाती है, ‘मैं मोए बूटासिंह और मुंशी के घरों में कभी
नहीं जाऊंगी। मोया पालो लाठी लेकर मेरे पीछे दौड़ा और मेरी गुत (चोटी) पकड़ ली।
मैंने भी मोए को टोकरे से मारा।.......मोए बेइज्जती करने पर उतारू हो गए हैं।’20 अतः चौधरी हर प्रकार से इन मजदूर महिलाओं को
उत्पीड़ित करते हैं। इनकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं तथा इनका शोषण करने में तनिक
भी पीछे नहीं हटते। चौधरी मुंशी का बेटा प्रीतू भी नंदसिंह की बेटी पाशो की इज्जत
से खेलना चाहता है। इस घटना के विषय में नंदसिंह काली को इस प्रकार बताता है,
‘पाशो तो अंदर-बाहर भी
अपनी मां के साथ ही जाती थी। फिर भी चौधरी के बेटे प्रीतू ने बवाल खड़ा कर दिया।’21 अतः लच्छो, प्रसिन्नी, ज्ञानो एवं पाशो के समान बहुत-सी ऐसी मजदूर
महिलाएं हैं जिनका चौधरियों जैसे उच्चवर्गीय नीच लोगों द्वारा दैहिक, मानसिक एवं यौन-उत्पीड़न आज भी हो रहा है।
उपन्यासकार जगदीश चंद्र ने उपन्यास-त्रयी में
उन मजदूर हरिजनों के जीवन यथार्थ को वर्णित किया है जो साधनहीन, भाग्यवादी, पराश्रित, अनपढ़ और अभावग्रस्त होने के कारण जमींदारों के
उत्पीड़न-शोषण की असहनीय यातनाओं को झेलने के लिए मजबूर हैं। सदियों से जुल्म की
चक्की में पिसता यह मजदूर समाज अस्पृश्यता के कारण जमींदारों की कुत्सित एवं घृणित
मानसिकता से विचलित एवं पीड़ित है।
पंडित संतराम धार्मिक पाखंड का सहारा लेकर
लोगों को ठगता रहता है। वह पशु बलि को भलाई का सूचक बताते हुए गांव वालों से कहता
है, ‘शास्त्रों के अनुसार बलि
का फल केवल उसे ही मिलेगा जो सामग्री पर नामा (पैसा) खर्च करेगा। मान लो ख्वाजा
पीर को दया आ गई और उन्होंने बलि स्वीकार कर ली तो उसका सारा फल बूटासिंह को ही
मिलेगा। सारा गांव चोबुर्द हो जाएगा। सिर्फ बूटासिंह का घर-बार बचेगा।’22 जब गांव में कोई विपदा आती है तो धर्म की आड़
में पंडित संतराम अपने स्वार्थ सिद्ध करता है। यही नहीं वह बलि के लिए लाई गई बकरी
की कीमत चंदे से इकट्ठी करवाकर मंदिर को गुप्त दान देने की सलाह भी देता है। ‘बहुत सोच-विचार के बाद सब ने पंडित संतराम का
सुझाव मान लिया कि हर आदमी हसब तौफीक एक बर्तन में पैसे डाल दे और वह रकम गुप्त
दान रूप से मंदिर को दान दे दी जाए।’23 अतः यहां धार्मिक पाखंड के साथ-साथ स्वार्थ
सिद्धि को भी दिखाया गया है। तभी तो अवधेश प्रधान कहते हैं, ‘यह ठीक ही कहा जाता है कि ये पंडित और पुजारी,
ये मौलवी और फकीर- ये
धर्म के ठेकेदार असल में अमीरों के दलाल हैं। रूप बदलकर कमाने वालों को, किसानों और मजदूरों को ठगते रहते हैं।’24 अतः धर्म के ठेकेदार धनिकों के दलाल हैं जो
अपनी स्वार्थपरकता के कारण उन्हें ठगने के लिए धर्म को अपना हथियार बनाते हैं।
इसी प्रकार ‘नरककुंड में बास’ में सेठ रामप्रकाश मंदिर बनवाने के नाम पर ठगता
है, ‘मंदिर बनवाने के लिए धन
चाहिए.......मंदिर जितना शानदार बनेगा, हमारी उतरी ही सोभा बढ़ेगी। मंदिर जितना बड़ा और सुंदर होगा
उतना ज्यादा धन भी खर्च होगा।......मैं अब आप लोगों से अपील करता हूं कि भगवान
रविदास के मंदिर के निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दें।’25 यहां सेठ रामप्रकाश दलित मजदूरों की बिरादरी
का अपना नेता है। वह भी इन भोले-भाले लोगों को धर्म के नाम पर अपनी ठगी का शिकार
बनाता है अर्थात् समाज में आज भी धर्म को स्वार्थ सिद्धि के रूप में प्रयोग किया
जाता है। धार्मिक पाखंड की जड़ें उच्च वर्गीय समाज में आज भी जमी हुई हैं जो की
निम्नवर्गीय मजदूर समाज के लिए अत्यधिक घातक हो रही हैं।
समग्र मूल्यांकन के आधार पर कहा जाता है कि
जगदीश चंद्र ने उपन्यास-त्रयी में मजदूर जीवन का यर्थाथ रूप में चित्रण किया।
मजदूर जीवन से संबंधित प्रत्येक पहलू का आपने समग्रता में सूक्ष्मतम वर्णन किया
है। उनकी दृष्टि से मजदूर जीवन का एक भी अंग छूटने नहीं पाया है। समाज में जो देखा
है वास्तव में आपने उसी को प्रस्तुत किया है। तत्कालीन समाज में जिन यातनाओं एवं
उत्पीड़न का सामना यह दलित मजदूर वर्ग कर रहा था, उसी को आधार बनाकर आपने इस उपन्यास-त्रयी की
रचना की है। यही कारण है कि आप के उपन्यासों में मजदूर समाज का जीवन यथार्थ रूप
में प्रकट हुआ है। काली जैसे करोड़ों दलित मजदूर चौधरियों के सामने उच्चवर्गीय
लोगों के शोषण एवं उत्पीड़न को अपना भाग्य समझकर आज भी झेलने को विवश हैं। पेट की
भूख और निर्धनता ने उन्हें इस प्रकार मजबूर कर दिया है कि वे विरोध करने में भी
असमर्थ हैं। यही उनके जीवन की वास्तविकता है। इसी हकीकत के तहत उनका जीवन अनगिनत
संकट एवं समस्याओं से भरा पड़ा है और शायद उनकी चीख पुकार एवं छटपटाहट की आवाज किसी
के कानों तक नहीं पहुंच पा रही है।
संदर्भ:
1. जगदीश चंद्र; धरती धन न अपना; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 1972; पृ.उपन्यास का पिछला
कवर पृष्ठ.
2. वही; पृ. 37.
3. वही; पृ. 55.
4. संपा.- डॉ. तरसेम गुजराल/डॉ. विनोद शाही;
जगदीश चंद्र: एक रचनात्मक
यात्रा; सतलुज
प्रकाशन,पंचकूला
(हरियाणा); 2007; पृ. 123.
5. धरती धन न अपना; पृ. 200.
6. जगदीश चंद्र; जमीन अपनी तो थी; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 2001; पृ. 13.
7. वही; पृ. 95.
8. धरती धन न अपना; पृ. 246.
9. वही.
10. संपा.- डॉ. चमनलाल; जगदीश चंद्र: दलित जीवन के उपन्यासकार; आधार प्रकाशन, पंचकूला
(हरियाणा); 2010; पृ. 13.
11. धरती धन न अपना; पृ. 201.
12. वही.
13. जगदीश चंद्र; नरककुंड में बास; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; 1994; पृ. 312.
14. वही.
15. जमीन अपनी तो थी; पृ. 95.
16. वही; पृ. 106.
17. वही; पृ. 171.
18. धरती धन न अपना; पृ. 97.
19. वही; पृ. 244.
20. वही; पृ. 245.
21. जमीन अपनी तो थी; पृ. 213.
22. धरती धन न अपना; पृ. 217.
23. वही; पृ. 218.
24. अवधेश प्रधान; स्वामी सहजानंद
और उनका किसान आंदोलन; नई किताब प्रकाशन दिल्ली; 2011; पृ. 110.
25. नरककुंड में बास; पृ. 232.
मौह. रहीश अली खां
शोधार्थी,हिंदी एवं भारतीय भाषा विभाग हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय
महेंद्रगढ़,हरियाणा
संपर्क सूत्र:-09756270816, 08607239434, ईमेल:- rahish.agra786@gmail.com
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