चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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जैनेन्द्र कुमार के उपन्यासों में स्त्री चरित्र/अंजलि कुमारी
(विशेष सन्दर्भ:परख, सुनीता, त्यागपत्र)
चित्रांकन
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जैनेन्द्र
कुमार के इस कथन की सार्थकता उनके साहित्य में द्रष्टव्य है। सीमित तथा संतुलित
पात्रों एवं परिवेश के सहारे मानव मस्तिष्क की गहराई तक पहुँचने में, मन की उलझनों
को पकड़ पाने में और मानसिक द्वंद्व की स्थिति को भाँपने में जैनेन्द्र सक्षम हैं।
शायद यही कारण है कि हिंदी साहित्य में उन्हें एक मनोविश्लेषणवादी रचनाकार के रूप
में स्थान प्राप्त है। एक सफल रचनाकार का दायित्व है कि उसका लेखकीय सरोकार
व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका निभाए। अपने समय के प्रश्नों
व समस्याओं से लेखक जूझे और समाज को उसकी कुंद मान्यताओं व नीतियों पर सोचने को
विवश करे। जैनेन्द्र के लेखकीय सरोकार के केन्द्र में स्त्री है। स्त्री जीवन,
उसका अस्तित्व, परिवार व समाज में उसकी भूमिका, स्त्री की इच्छापूर्ति तथा उत्थान
के मार्ग में आने वाली समस्याएँ- यह सभी विषय जैनेन्द्र के साहित्य के मुख्य बिंदु
रहे हैं। यह कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र का साहित्य स्त्री-समस्याओं व प्रश्नों
से लगातार जूझता रहा है। यही उनकी रचनाओं का आधार भी है। यहाँ चर्चा उनके उपन्यासों
के संदर्भ में है तो सन् 1929 में ‘परख’ से आरंभ कर सन् 1985 में ‘दशार्क’ के लेखन तक उनका रचनाकाल विस्तृत है। इस समयावधि में
जैनेन्द्र ने कुल तेरह उपन्यास लिखे जिनमें से अधिकतर उपन्यासों का कथ्य स्त्री
संबंधी है। लेखक ने अपने कुछ उपन्यासों के शीर्षक भी कथा की मुख्य चरित्र रही
स्त्रियों के नाम पर ही दिए हैं। उदाहरण- ‘सुनीता’, ‘कल्याणी’, ‘सुखदा’। यह
उपन्यास स्त्री-जीवन के वृत्त को समेटे हुए हैं। हम लेखक के प्रारंभिक तीन
उपन्यासों अर्थात् ‘परख’(1929), ‘सुनीता’(1935) व ‘त्यागपत्र’(1937) के आधार पर जैनेन्द्र के स्त्री चरित्रों के गठन को समझने का प्रयास
करेंगे।
जैनेन्द्र कुमार
स्त्री को ‘सर्वस्व’ रूप में स्वीकार करते हैं। यह रूप अपनाते ही 'स्त्री’ पूरे
विश्व का मूलाधार बन जाती है। उनका मानना है –‘स्त्री ही व्यक्ति को बनाती है, घर को,
कुटुम्ब को बनाती है। फिर उन्हें बिगाड़ती भी वही है। हर्ष भी वही और विमर्श भी।
ठहराव भी और उजाड़ भी। दूध भी और खून भी। रोटी भी और स्कीमें भी। और फिर आपकी
मरम्मत और श्रेष्ठता भी सब कुछ स्त्री ही बनाती है। धर्म स्त्री पर टिका है,
सभ्यता स्त्री पर निर्भर है और फ़ैशन की जड़ भी वही है। एक शब्द में कहो ,...दुनिया
स्त्री पर टिकी है।”2 ‘परख’ की
कट्टो, ‘सुनीता’ की सुनीता और ‘त्यागपत्र’ की मृणाल को लेखक ने उपर्युक्त स्वरूप
के अनुरूप गढ़ने का प्रयास किया है। इसीलिए कट्टो, सुनीता और मृणाल ‘स्व’ से अधिक
‘पर’ की चिंता करते हैं। वे स्वयं से अधिक दूसरों के प्रति संवेदनशील हैं क्योंकि
सम्पूर्ण विश्व का केन्द्रीय तत्व यह स्त्रियाँ हैं, इन पर पूरे परिवार,
समाज व अंततः पूरे जगत को बांधकर रखने की ज़िम्मेदारी है। ऐसे चरित्र स्वयं अपने
जीवन को बलि चढ़ाकर, गर्त में ढ़केलकर भी किसी को कष्ट पहुँचाने या मुखर विद्रोह
करने की चेष्टा नहीं करते। आदर्श, अहिंसा, आत्मसंघर्ष इन स्त्रियों की चारित्रिक
विशेषताएँ हैं जो तत्कालीन भारतीय समाज में स्त्री छवि को स्पष्ट करती हैं।
जैनेन्द्र के स्त्री
चरित्रों में परम्परा एवं आधुनिकता का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। हालाँकि वर्तमान
संदर्भों में यह स्त्री चरित्र अधिक पारंपरिक और कम आधुनिक नज़र आती हैं। जिस युग
में जैनेन्द्र उपन्यासों की रचना प्रारम्भ करते हैं अर्थात् 20वीं शताब्दी का
दूसरा-तीसरा दशक, यह काल भी परम्परा और आधुनिकता के संघर्ष का समय है। कट्टो,
सुनीता और मृणाल पारम्परिक इन अर्थों में हैं कि वे जानती हैं कि तत्कालीन सामाजिक
संरचना के तहत वे कर्तव्यों से बंधी हैं। उनके यह कर्तव्य उनके परिवार के प्रति
हैं। जैनेन्द्र के यहाँ परिवार और विवाह संस्कार परम्पराओं से जुड़ा है। अतः इनका
निर्वाह करने वाली स्त्री पारम्परिक ही होगी। इन स्त्रियों में परिवार या विवाह
संस्था को तोड़ने की इच्छा नहीं है क्योंकि इनसे कटकर या बाहर निकलकर ‘जीवन’ गर्त
की ओर बढ़ता चला जाएगा। मृणाल के दुखद अंत के माध्यम से जैनेन्द्र यही संकेत देना
चाहते हैं क्योंकि जैनेन्द्र स्त्री की स्वतंत्र सत्ता के पक्षधर नहीं हैं।
‘त्यागपत्र’ में प्रमोद के माध्यम से वे कहलवाते हैं- ‘विवाह की ग्रंथि दो
के बीच की ग्रंथि नहीं है वह समाज के बीच की भी है। चाहने से वह क्या टूटती है। विवाह भावुकता का प्रश्न नहीं है,
व्यवस्था का प्रश्न है।.. वह गांठ है जो बंधी कि खुल नहीं सकती। टूटे तो टूट भले
ही जाए लेकिन टूटना कब किसका श्रेयस्कर है?’3 पारम्परिक यह स्त्रियाँ इन अर्थों में भी हैं कि इन्हें अधिकारसंपन्नता
प्राप्त नहीं है जो कि तत्कालीन समय का भी प्रभाव है। अधिकार पाने हेतु यहाँ स्त्री
लड़ती नहीं किन्तु स्त्री हेतु समाज के द्वारा बनाये गए नियमों व वर्जनाओं का पालन
भी नहीं करती। स्वायत्तता की दरकार इन्हें नहीं है, पति के साथ होते हुए आर्थिक
आत्मनिर्भरता की आवश्यकता भी इन्हें नहीं है क्योंकि जैनेन्द्र स्त्री को पुरुष की
सहभागी के रूप में देखते हैं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं। जैनेन्द्र कुमार का
मत है- ‘स्त्री पुरुष के पौरुष स्पर्धा में न पड़े बल्कि उसे उसी रूप में धारण
करके कृतार्थता का अनुभव करे। आज का कैरियिस्ट शब्द सतीत्व के अर्थ स्पष्ट करता
है। कैरिज़्म में पुरुष से होड़ है। सतीत्व में पुरुष से योग और सहयोग से है|’4 आज के आधुनिक संदर्भों में ऐसी मान्यताओं को इन स्त्री चरित्रों की
सीमाओं के रूप में भी देखा जा सकता है। किन्तु जैसा कि कहा जा चुका है कि
जैनेन्द्र कुमार का समय परम्परा व आधुनिकता के संघर्ष का समय रहा है और ऐसे समय
में जैनेन्द्र परस्पर विरोध एवं प्रतियोगिता की अपेक्षा सामंजस्य का मार्ग चुनते
हैं। उनके भीतर न जड़ परम्पराओं को ढोते रहने का आग्रह है और न ही आधुनिकता के नाम
पर अपना सब कुछ ताक पर रख देने का चलन है। जैनेन्द्र के साहित्य का मूल तत्व
‘प्रेम’ है। ‘प्रेम’ का उत्कृष्ट रूप जैनेन्द्र ‘स्त्री’ के भीतर पाते हैं। यही
कारण है कि परिवार तथा विवाह संस्थान बचाए रखने का दायित्व उन्होंने स्त्रियों के
हाथ में दिया। ‘प्रेम’ के अभाव में जैनेन्द्र विवाह और परिवार की नीँव को कमज़ोर व
अधूरा मानते हैं। उदाहरण के तौर पर उपन्यास ‘परख’ में कट्टो और बिहारी का संबंध,
उनका गठबंधन प्रेम एवं विश्वास पर आधारित है। इस विवाह को सामाजिक रीति-रिवाजों की
कोई दरकार नहीं। जैनेन्द्र के लिए ‘परिवार’ समाज और राष्ट्र के निर्माण की मूल
इकाई है। और इस ‘परिवार’ का केन्द्रीय बिंदु एवं रक्षक वे स्त्री को मानते हैं। स्त्री
परिवार की पूरक है।
दूसरी ओर जैनेन्द्र के स्त्री चरित्रों में आधुनिक स्त्री की झलक भी
दिखलाई पड़ती है। भले ही यह स्त्रियाँ वर्तमान की स्त्रियों की भाँति अपने अधिकार
पाने के लिए बैठकों, समितियों या आंदोलनों का सहारा नहीं लेतीं किन्तु जैनेन्द्र
के स्त्री चरित्र अपने अधिकारों के प्रति सजग अवश्य हैं इसी कारणवश वे निरंतर
संघर्षमयी जीवन जीती हैं। सही-ग़लत, नीति-अनीति, नैतिक-अनैतिक के मायने इन चरित्रों
ने स्वयं निर्मित किए समाज से नहीं लिए, इनका वे अनुसरण भी करती हैं। परम्परा के
नाम पर थोपी जाने वाली मान्यताओं व आदर्शों को वे तोड़कर ‘आदर्श’ का नया रूप गढ़ती
हैं। कम से कम अपने जीवन की राहें वह स्वयं निर्मित करती हुईं, अपने निर्णय पर
अडिग व सामाजिक नैतिकता के नाम पर ढोंग की मानसिकता से स्वयं को अलगाते हुए अपने
स्वयं चयनित मार्ग पर वे आगे बढ़ती हैं। सामाजिक संरचना के दोहरे मापदंडों व खोखले
आदर्शों को जैनेन्द्र के स्त्री चरित्र नहीं अपनाते अपितु अहिंसात्मक तरीके से,
अपने जीवन जीने के ढंग में बदलाव कर यह स्त्रियाँ सामाजिक मूल्य-मान्यताओं पर
प्रश्न चिह्न लगाती हैं। जीवन की कटुता व विषमताओं को भी यह स्त्रियाँ पूरी
ईमानदारी से स्वीकार करती हैं और कष्टदायी समय में भी अपने कर्तव्यों का निर्वाह
करती हैं। आत्मसंघर्ष तथा अहिंसात्मक रुख़ अख्तियार कर यह स्त्रियाँ विरोध भी जताती
हैं। इस संबंध में लेखक गोविन्द मिश्र का मत है- ‘समाज को बदलने के हिंसात्मक
तरीक़े के जैनेन्द्र क़ायल नहीं। परिवर्तन इस तरह कि लोगों को किसी भी तरह खदेड़ा,
कुचला या अपनी जगह पर खचोटा न जाए, बल्कि समझाने के रास्ते त्याग और साझेपन के
ज़रिए, नम्र और विनीत ढ़ंग से मनवाकर परिवर्तन लाया जाए।‘5 विरोध जताने एवं परिवर्तन की आदर्शवादी, अहिंसात्मक एवं सत्याग्रही
तकनीक के कारण ही जैनेन्द्र पर गांधीवाद के प्रभाव को स्वीकार किया जाता है।
जैनेन्द्र के स्त्री पात्र कट्टो, सुनीता व मृणाल इसी लीक पर चलती हैं।
कट्टो बाल विधवा
है जिसके लिए प्रेम और विवाह जैसे संबंध तत्कालीन समाज में वर्जित हैं, पाप हैं।
बावजूद इसके न तो समाज उसकी प्रेम भावना पर ही अंकुश लगा सका और न ही विवाह करने पर।
कट्टो किसी भी सामाजिक रीति-रिवाज़ या समाज द्वारा निर्मित विवाह चिह्न का सहारा न
लेते हुए केवल एक सूत की माला पहनाकर बिहारी का वरण करती है। आजन्म पास रहने का
कोई बंधन नहीं रखती हाँ, साथ निभाने की प्रतिज्ञा ज़रूर करती है। इसीलिए
कट्टो-बिहारी के विवाह को लेखक ने ‘यज्ञ’ कहा है क्योंकि इसमें कोई स्वार्थ, कोई
बंधन नहीं अपितु पवित्रता और परमार्थ ही है।
सुनीता एक
पतिव्रता स्त्री है। पति के राह भटके मित्र को सही राह दिखाना अपना पत्नीधर्म
समझती है। वह एक ईमानदार पत्नी है और इसी कारण पति के आग्रह पर उसके मित्र
हरिप्रसन्न को जीवन के भटकावों से दूर पति की इच्छानुसार ढालना चाहती है। इस
प्रयास में हरिप्रसन्न के मन में अपने लिए उपजे आकर्षण को जानकर सुनीता हतप्रभ
नहीं होती अपितु समाज जिसे अनैतिक व अधर्म कहेगा वह राह अपनाकर हरि को वासना से
मुक्त कर कर्मशील होने को प्रेरित करती है।
वहीं मृणाल एक
प्रबल चरित्र के रूप में उभरती है। वह अत्यंत उदार व आदर्शवादी चरित्र के रूप में
उभरती है जो स्वयं के जीवन में अपार कष्ट पाकर भी सदा दूसरों के लिए केवल सुख की
ही आकांक्षा रखती है। उसके मन में अपनी परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के
लिए कोई कटुता नहीं और न ही वह किसी को दोषी मानती है। मृणाल अपने जीवन में जिससे
भी जुड़ना चाहती है या जुड़ी वह केवल सत्य और पूरी निष्ठा के साथ, फिर उस पर अपना
सर्वस्व न्योछावर करना चाहा। समाज की नजरों में वह एक बाज़ारू औरत है किन्तु तन
देकर धन की उम्मीद करना वह बेमानी समझती है। जीवन में मिली ठोकरों की प्रतिक्रिया
वह केवल मौन आत्मसंघर्ष के रूप में व्यक्त करती है। अपने संघर्षमय जीवन में
सामाजिक नियमों का वह सदा तिरस्कार करती है। मृणाल जैसा स्त्री चरित्र तथाकथित सभ्य
समाज की ‘सभ्यता’ पर सवालिया निशान लगाता है, समाज के भीतर दोहरा स्वरूप लेकर
विचरण करते लोगों को बेनक़ाब करता है और विवश करता है बुद्धिजीवी वर्ग को सामाजिक
नियम-कानून, नैतिकता, आदर्श की परिभाषाओं पर पुनर्विचार करने हेतु।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि वर्तमान समय का स्त्री विमर्श जिस दिशा में गतिमान है उसके आरम्भिक
कदम जैनेन्द्र जैसे रचनाकारों के साहित्य की देन है और स्त्री विमर्श की यही नीँव
है।
आधार ग्रन्थ सूची-
§ ‘परख’ (उपन्यास)- जैनेन्द्र कुमार
प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, लोधी रोड, नई दिल्ली-110003
§ ‘सुनीता’ (उपन्यास)- जैनेन्द्र कुमार
प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, लोधी रोड, नई दिल्ली-110003
§ ‘त्यागपत्र’ (उपन्यास)- जैनेन्द्र कुमार
प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ, लोधी रोड, नई दिल्ली-110003
सन्दर्भ सूची-
1.
‘सुनीता’-
प्रस्तावना- जैनेन्द्र कुमार, पृष्ठ- 8
2.
‘परख’- जैनेन्द्र
कुमार, पृष्ठ- 44
3.
‘त्यागपत्र’-
जैनेन्द्र कुमार, पृष्ठ- 25
4.
‘नारी’
(निबंध-संग्रह) - जैनेन्द्र कुमार, पृष्ठ- 92
पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली
5.
‘भारतीय साहित्य के निर्माता
जैनेन्द्र कुमार’- गोविन्द मिश्र, पृष्ठ- 27
प्रकाशन- साहित्य अकादमी, फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली-110001
अंजलि कुमारी
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
ई-मेल - anju11091992@gmail.com
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