आलेख:रीतियुगीन विरह-वर्णन में व्यक्त सामाजिक वास्तविकता/सौरभ कुमार

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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                 रीतियुगीन विरह-वर्णन में व्यक्त सामाजिक वास्तविकता/सौरभ कुमार
       
स्त्री और नर परस्पर उन्मुखी भाव में, किसी अवरोध के कारण जब एक पक्ष दूसरे पक्ष की अभाव-पीड़ा का अनुभव करता हुआ उसकी प्राप्ति और प्राप्ति के सुख के लिए विकल हो उठता है, तब उसकी वेदना को विरह भावना से अभिहित किया जाता है। विरह भावना का पूर्ण समाधान सिर्फ संयोग हो, ऐसा नहीं है, क्योंकि एक शय्या पर शयन करते हुए दंपत्ति में ईर्ष्या, दुर्भावना आदि विद्यमान हो, तो वहाँ विरह विद्यमान रहेगा।

       
रीतिकालीन समाज में साम्राज्यवादी और सामंतवादी सामाजिक शक्तियां विकसित होती गयीं। पुरूष प्रधान समाज की मान्यता बढ़ती गई और नारी की स्थिति हीन होती गई। वह उपहार की वस्तु, विजयोपहार, दासी आदि अनेक रूप ग्रहण करती हुई, इन शक्तियों के साथ चलती रही। उसके अधिकारों के प्रति पुरूष अधिक अनुदार, उसकी स्वतंत्रता के प्रति सशंक और कर्तव्यों के प्रति निष्ठुर होता गया। उसके ज्ञानार्जन का द्वार भी बन्द हो गया और जीवन के उच्च आचारों में भी उसका स्थान नहीं रहा। रीतिकालीन समाज में उसके जीवन का सहारा बना वह पुरूष जो रसिक, वासनाग्रस्त था, और इसकी पूर्ति के लिए उपक्रम करता रहता था। नारी के हिस्से में आया पुरूष के विरहिनी के रूप में जीवन गुजार देना। रीतियुगीन विरह-वर्णन की रचनाओं में यह सामाजिक वास्तविकता स्पष्ट लक्षित होती है कि नारी समाज की एक चेतन इकाई न होकर बहुत कुछ जीवन का उपकरण मात्र हो गई थी। पुरूष प्रधान समाज में उसकी स्थिति हीनता की ओर ही उन्मुख रही। सामंतवादी व्यवस्था ने नारी को अबला बना दिया। वे अधिकारवंचित होती गईं और पुरूष अधिकार प्रबल हो अपना जीवन कई के साथ गुजारता था, जबकि नारी की जिन्दगी घर की चारदीवारी में बन्द हो गयी थी। भिखारीदास, इस बात की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं कि पतिव्रताएँ तो इस युग में थीं, पर एकपत्नीव्रत पति इस युग में अप्राप्य हो गये थे।

                 नारी पतिव्रत है बहुतै पतिनीव्रत नायक
                             और न कोऊ।

पूरे रीतियुगीन विरह-वर्णन की कविताओं में सामन्ती युग की विवश-नारी के हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है, जो विद्रोह नहीं कर सकती, केवल आह भर सकती है, उसके मन में केवल क्षोभ हो सकता है। कृपाराम लिखते हैं कि पति की अधरकान्ति की शोभा इन्द्रधनुष के समान देखकर, नायिका समझ लेती है कि प्रिय अन्य स्त्री के समीप होकर आया है और दुखी हो जाती है।

                   इन्द्रधनुष सी पति अधरन की शोभा
                    निरखि वधूमन उपजो पूरन क्षोभा।।

                                      डॉ. नगेन्द्र, रीतिश्रृंगार (कुपाराम), पृ.-3

यहाँ आहत नायिका पीड़ा पहुँचाने वाले को दंड नहीं दे सकती। जकड़नभरे इस पुरूषप्रधान समाज में न ही स्वतंत्र रहने की हिम्मत जुटा पाती है। इस सामाजिक व्यवस्था में केवल आह भर सकती है और प्रतिपक्षी स्त्री से ईर्ष्या कर सकती है। ठाकुर लिखते हैं कि ईर्ष्या भाव नायिका की असहाय अवस्था को और भी कचोट रहा है। बहुत रोने-धोने के स्थान पर वह अपने अन्धकारमय वर्तमान और भविष्य की यातना सहती हुई अतीत के उज्ज्वल क्षणों की स्मृति में डूब जाती है।

                    कवि ठाकुर कूबरी के बस ह्है
                               रस में बिस बावरो बो गयो है।
                    मनमोहन के टिलिबो मिलिबो
                               दिन चारिक चाँदनी हो गयो है।

                                        डॉ. नगेन्द्र, रीतिश्रृंगार (ठाकुर), पृ.-201

जाहिर है रीतिकालीन सामाजिक जीवन में स्त्रियों का जीवन अभिशापित हो गया था, उनकी दशा मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में दयनीय हो गई थी। बिहारी लिखते हैं-

                     इति-आवत चलि-जात-उत
                               चलि छः सातक हाथ।
                     चढ़ि हिंडरौ-सी रहै
                               चलि उसाशन साथ।।

                                         विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, बिहारी, पृ.-98

यद्यपि यह ऊहात्मक पद्धति तथा अतिश्योक्तिपूर्ण रचना है, तथापि इसका सामाजिक आधार है, कि नायिका के लिए सिर्फ एक का सहारा है, जो भी उससे दूर विदेश में रहता है, और उसकी विरहाग्नि में तड़पकर शरीर गला देना ही उसका भाग्य है, क्योंकि वह उसके साथ विदेश नहीं जा सकती। मध्यकाल के सामन्ती युग में लोक-लाज के आवरण में स्त्री का पति के साथ विदेश जाने का हठ उच्छृंखल ही समझी जाती। केशव की नायिका इस बात की ओर संकेत करती हुई कहती है –

                    जो हो कहूँ रहिये तो प्रभुता प्रकट होत,
                     चलन कहौं तो हित हानि नाहिं सहनौ।
                     भावै सो करहु तो उदास भाव प्राननाथु,
                     साथ लै चलहु कैसे लोकलाज सहनो।।

                                           डॉ. नगेन्द्र – रीतिश्रृंगार (केशव), पृ-11

रीतिकालीन समाज तमाम् बंधनों से बंधा हुआ समाज था और अधिकांश बंधन स्त्रियों के उपर ही थीं। स्त्रियां न तो स्वच्छंद रूप से प्रेम कर सकती थीं और न ही उसे व्यक्त कर सकती थीं। गंग की नायिका का प्रिय पड़ौस में रहता है, मन सब प्रकार से उसका हो चुका है, किन्तु लोकलाज की बड़वाग्नि नायिका को प्रेम के समुंद्र में डुबने नहीं देती –

                      गुपाल परोस बसे बस माइ हो,
                                को लगि अँचर आँखि दुराऊँ।।
                       ........................................
                      देख सखि बढ़वानल लाज ते,
                                प्रेम समुद्र न बादन पाऊँ।।

                                         डॉ. नगेन्द्र – रीतिश्रृंगार (गंग), पृ-7

यद्यपि रीतियुगीन विरह-वर्णन की तमाम् रचनाएँ अतिश्योक्तिपूर्ण है जिसमें विरह को आग, लू आदि का प्रतीक माना गया है तथापि इसमें वास्तविकता है। क्योंकि रचनाकार अपने विषय का प्रतीक समाज की तत्कालीन परिस्थिति के अनुकूल गढ़ता है। अतएव रीतिकालीन कवि उस समय की नारी की स्थिति का स्वाभाविक चित्रण करने के लिए उनके विरह के दुख को तमाम् अतिश्योक्तियों के माध्यम से प्रदर्शित किया है। बिहारी की नायिका की आँखों के आँसू छाती पर गिरते ही हृदय की आग से छनछनाकर सूख जाना –

                  पलनु प्रगटि बस्मीनु बढ़ि, नहिं कपोल ठहरात्।
                   अँसुबा परि छतिया, छिनकु, छनछनाई, छिप जात।।
                                             बिहारी रत्नाकर, दोहा – 656.

सखियों का गीले वस्त्र करके जाना –

                  आड़ दै आले वसन जाड़े हूँ की राति।
                   साहसु कर कै सनेह-बस सखी सबै ढिंग जाति।।
                                            बिहारी रत्नाकर, दोहा 283.

तथा कृशता की दशा इस प्रकार हो जाना कि मृत्यु को भी चश्मा की अवाश्यकता होना-

                   करी विरह ऐसी, तऊ गैल न छाड़तु नीचु।
                    दीने हूँ चसमा चखनु चाहै लहै न मीचु।।

                                           बिहारी रत्नाकर, दोहा 140.

और प्रियतमा के जिंदा होने का अनुमान माघ के महीने में लू चलने से लगाना-

                    सुनत पथिक-मुँह माह निसि, चलति लुवैं उहि गाम,
                    बिनु बुझै, बिनु ही कहै जियति बिचारि बाम।।

                                           बिहारी रत्नाकर, दोहा 285.

आदि अतिश्योक्तिपूर्ण विरह-वर्णन होते हुए भी अपने कलेवर में रीतिकालीन सामाजिक वास्तविकता के सारे चित्र समेटे हुए है कि नारियों का जीवन वर्तमान और भविष्य की चिंताओं से दुखी, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना में व्यतीत होता था। सामान्याओं और वेश्याओं की ओर आकर्षित युवक समाज कुटुंब की मर्यादा भी नहीं रख पाया। खंडित समाज अनुभव पूर्ण नारी की रति, मुक्ति से अभिन्न मानने लगा। फलतः वैवाहिक संस्था बहुत हद तक प्रभावित हुई और कौटुंबिक रिश्ते शिथिल पड़ने लगे। जिसकी झलक बिहारी की कविताओं में मिलती है-

                 भावै तुम्हें सोई करौ नाथ,
                                      हम हाथ में चाहत् चार चुड़ियै।

ऐसे एक नहीं हजारों रीतिकालीन विरह-वर्णन के उदाहरण हैं जिससे मालूम होता है कि तत्कालीन नारियों और उनका गार्हस्थ जीवन कितना यातनापूर्ण था, उनकी स्थिति कितनी भयावह थी। तत्कालीन समाज में उनका व्यक्तित्व, व्यक्तित्व की अपनी अस्मिता, उनके विचारों का स्वातन्त्र्य समाज को स्वीकृत नहीं था। समाज उसे स्वीकार नहीं कर रहा था। तत्कालीन रीतिकालीन नारी केवल घुट सकती थी। उसके पास रोने-धोने-कलपने के विकल्प ही शेष थे। पत्नि घुटन से रो रही है – पति के पूछने पर वह कहती है-

                   रौवरो रूप भर्यो अँखियन
                   भर्यो-सु-भर्यो, उभर्यो-सु-भर्यो पर्यो।।

यानी आपकी सूरत तो आँखों में बसी रहती है, और रात में जो चित्र भरी थी, वह तुम्हारा इस सुन्दर सूरत देखकर रात की तस्वीर आँसू बनकर निकल रही है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी विकट थी कि विवाहिता पत्नी मान भी नहीं कर सकती थी। मतिराम के एक छन्द में इसकी अभिव्यक्ति बेजोड़ तरीके से हुई है। कृष्ण रात-भर क्रीड़ा कर रहे थे। सबेरे आते हैं। आने के साथ तरह-तरह के बहाने बना रहे हैं। राधा कहती है-

                   कोऊ नहीं बरजै मतिराम,
                           रहो तितही जितही मन भायो।
                    काहे का सौह हजार करो,
                           तुम तो कबहूँ अपराध न ठायो।
                    सोवन दीजै न दीजे हमें दुख,
                           यों ही कहा रसवाद बढ़ायो।
                    मान रहोई नहीं मन मोहन,
                         मानिनी होय सो मानै मनायो।

तुम्हे कोई बरज रहा है? तुम्हें कोई मना कर रहा है? जहाँ तुम्हें मन करे वहाँ तुम रहो, वहाँ तुम जाओ। क्यों हजार कसमें खा रहे हो। तुमने कोई अपराध नहीं किया है। हमें सोने दीजिए। हमको दुख मत दीजिए। यों ही रसवाद क्यों बढ़ा रहे हैं? तब कृष्ण कहते हैं कि अरे! अब ज्यादा मान न करो, तो राधा कहती है मान रहोई नहीं मनमोहन हे मनमोहन मेरा मान तो रहा ही नहीं। मेरा मान तो तुमने रखा ही नहीं। जो मानिनी होगी वो मानेगी। जाकर उसे मनाओ। (मतिराम-डॉ. नित्यानन्द, अपूर्व जनगाथा-71)। उपर्युक्त सवैया में नारी की दयनीय दशा तथा यातना का विराट स्वरूप लक्षित होता है। रीतिकालीन विरह-वर्णन में तत्कालीन समाज के विविध रूप चित्रित हैं जो अतिश्योक्तिपूर्ण होते हुए वास्तविकता से ओत-प्रोत है।
                                
                
सौरभ कुमार
शोध छात्र (हिंदी विभाग) अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद.
संपर्क-सूत्र:–7842820824, ईमेल saurabh15190@gmail.com

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