चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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आलेख:रामविलास शर्मा की इतिहास-दृष्टि/डॅा.आनन्द कुमार यादव
चित्रांकन
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रामविलास शर्मा मूलतः मार्क्सवादी रचनाकार हैं इसीलिए मार्क्सवाद
और सामन्त विरोधी जनवादी विचारधारा इनके सम्पूर्ण चिन्तन का केन्द्र है। इन्होंने
इतिहास व साहित्य को परखने के लिए प्राच्यवाद एवं उत्तरऔपनिवेशिक दृष्टि का सहारा
लिया। प्राच्यवाद व उत्तरऔपनिवेशिक दृष्टि को केन्द्र में रखकर रामविलास एक ओर
यूरोप केन्द्रित इतिहास-दृष्टि का खण्डन करते हैं
तो दूसरी ओर इतिहास एवं साहित्य को देखने की विशुद्ध भारतीय दृष्टि देते
हैं। इन सब के बावजूद हिन्दी साहित्य के सामाजिक आधार, राजनैतिक परिर्वतन, इतिहास के क्रमिक विकास तथा राष्ट्रीय चेतना पर
पड़ने वाले साहित्य के प्रभाव को विश्लेषित करते हैं ।
रामविलास शर्मा की इतिहासिक-दृष्टि मार्क्सवादी
इतिहास-दृष्टि पर आधृत होने पर भी अपनी निजी पहचान बनाये हुए है। उन्होंने साहित्य
की प्रवृत्तियों के सामाजिक आधार की तलाश गहराई में जाकर की है एवं उनका सम्पूर्ण
लेखन पूर्वाग्रहों से मुक्त है। इन्होने ने इतिहास को समझने की जो दृष्टि दी वह
अल्पसंख्यक, दलित और स्त्री
के नजरिये से तो इतिहास को परखती ही है साथ ही साम्राज्यवादी यूरो-केन्द्रित
इतिहास दृष्टि का खण्डन भी करती है। रामविलास इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते
हैं कि पता नहीं कैसे लोग औपनिवेशिक और
साम्राज्यवादी दृष्टिकोंण से लिखे गये इतिहास पर विश्वास करते हैं ? आगे इसका कारण अशिक्षा को मानते हुए लिखते हैं -‘‘अंग्रेजी राज्य ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को
मिटाया, हिन्दुस्तानियों
से एक रूपये ऐठा तो उसमें से छः दाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार
अंग्रेजों पर बलि-बलि जाते हैं ।’’1 रामविलास शर्मा जी अंग्रेजों को उस हद तक प्रगतिशील भी नहीं मानते हैं ,
जितना अन्य साहित्यकार
मानते हैं यह अंग्रेजों की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहते हैं कि -‘‘अंग्रेज उदारपन्थियों के आदर्श प्रजातन्त्र संयुक्तराज्य
अमेरिका में गुलामों से खेती कराकर बड़ी-बड़ी रियासतें कायम की थीं। गुलामों के
व्यापार से लाभ उठाने में अंग्रेज सौदागर सबसे आगे थे। यह गुलामी प्रथा न तो
पूँजीवादी थी, न सामन्ती थी;
समाजशास्त्र के पंडित उसे
सामन्तवाद से भी पिछड़ी हुई प्रथा मानते हैं
। इस प्रथा का विकास एवं प्रसार करके अंग्रेज सौदागरों ने कौन सा प्रगतिशील
काम किया कहना कठिन है ।’’2 स्पष्ट है कि रामविलास शर्मा बिना
किसी वास्तविक तर्क के सर्वस्त्र अंग्रेजों की प्रगतिशील भूमिका का समर्थन नहीं
करते बल्कि अपने लेखन में उन तथ्यों को उभारने का प्रयास करते हैं जो अंग्रेजों से भिन्न कहीं अधिक प्रगतिशील
हैं।
रामविलास शर्मा ने एक मार्क्सवादी विचारक के रूप में तब काम
शुरू किया जब हिन्दी साहित्य इतिहास में कोई विकसित आलोचना पद्धति नहीं थी।
उन्होंने अनेक अवसरों पर ठेठ मार्क्सवादी विचारकों के मतों से अपने को अलग रखा है।
यान्त्रिक भौतिकवाद एवं द्वन्दात्मक भौतिकवाद में अन्तर किया और साहित्य एवं
संस्कृति को समाज के आर्थिक विकास का प्रतिबिम्ब न मानकर उनकी सापेक्ष स्वायत्तता
का समर्थन किया है। रामविलास शर्मा साहित्य के सन्दर्भ में इतिहास के स्थान पर
परम्परा शब्द का प्रयोग करना उचित समझते हैं। इसीलिए ये इतिहास एवं परम्परा को
समान महत्व देते हुए प्रगतिशील आलोचना के लिए समाज का ज्ञान आवश्यक मानते हैं । वे
कहते हैं कि ‘‘जो महत्व
ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। इतिहास के
ज्ञान से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद का विकास होता है, साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील
आलोचना का विकास होता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के ज्ञान से समाज में व्यापक परिवर्तन
किये जा सकते हैं और नयी समाज व्यवस्था का विकास किया जा सकता है। प्रगतिशील
आलोचना के ज्ञान से साहित्य की धारा मोडी जा सकती है और नये प्रगतिशील साहित्य का
निर्माण किया जा सकता है।’’3 यान्त्रिक भौतिकवाद चेतना को आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब मानता है।
द्वन्दात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानता है,
आर्थिक सम्बन्धों से
नियन्त्रित नहीं। रामविलास शर्मा का कथन है कि - ‘‘आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है,
उनके द्वारा चेतना का
निर्धारित होना और बात है।’’4 इसीलिए रामविलास शर्मा मनुष्य की चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करते
हैं । वे कहते हैं - ‘‘यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थियाँ भी मनुष्य की नियामक
नहीं हैं। दोनों का सम्बन्ध द्वन्दात्मक है। यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप
में स्वाधीन होता है।’’5
डॉ0 शर्मा मानव-चेतना को आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब नहीं मानते। उनका तर्क
है कि चेतना को आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब मानने पर संस्कृति और साहित्य को
भी आर्थिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब मानना पड़ेगा। यदि संस्कृति और साहित्य आर्थिक
सम्बन्धों के प्रतिबिम्ब होते तो किसी भी देश में पुराने आर्थिक ढाँचे के बदलाव पर
संस्कृति का स्वरूप भी पूरी तरह बदल जाता। रूस का उदाहरण लीजिए। ‘सोवियत समाज’ जारसाही रूस के समाज’ से भिन्न है। दोनों के आर्थिक ढाँचें मे आधारभूत
अन्तर है। ‘टोलस्टाय’
जारसाही जमाने का कवि है,
किन्तु आज भी वे अत्यधिक
लोकप्रिय है। उसकी लोकप्रियता का कारण उसके साहित्य में निहित वह ‘जातीय अस्मिता’ है जिस पर रूस को गर्व है। इसी प्रकार
सेक्सपियर साम्राज्यवादी था फिर भी मार्क्स उसके साहित्य का अभिनन्दन और समर्थन
करते थे इसलिए कि सामन्ती संस्कृति के विरूद्ध नवजागरण का नेता सेक्सपीयर निश्चिय
ही एक विद्रोही कवि था। 6
रामविलास शर्मा जिस हिन्दी संस्कृति की चर्चा करते हैं उसका
निर्माण केवल हिन्दुओं ने नहीं किया। इस संस्कृति के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, सिक्ख, जैन आदि अनेक धर्मालवाम्बियों तथा समाज के अनेक वर्गों का योगदान रहा है। रामविलास शर्मा की हिन्दी अवधारणा के
पीछे उनका गहन अध्ययन है। डा0 शर्मा संस्कृति और साहित्य का सम्बन्ध जातीय अस्मिता से जोड़ते हैं और
समाज-व्यवस्था तथा जातीय अस्मिता दोनों की इतिहास दृष्टि में अन्तर करते हैं। उनके
अनुसार -‘‘समाज व्यवस्था के
विचार से इतिहास का प्रभाव विछिन्न है
जातीय अस्मिता की दृष्टि से यह प्रभाव अविछिन्न है।’’7 अजय तिवारी के शब्दों में -‘‘हिन्दी समाज व्यापक दरिद्रता का गढ़ है।
जैसे-जैसे यह समाज शिक्षित होगा, समाज अपना भाग्य बदलने के लिए संघर्ष करेगा, वैसे-वैसे रामविलास जी का महत्व बढ़ता जायेगा।
उस संघर्ष का आधार अपनी सांस्कृतिक पंहचान और अपनी वर्गीय एकता होगी रामविलास इसी
बात के लिए लड़े थे।’’8
जातीय अस्मिता को डा0 शर्मा ने बहुत महत्व दिया है। समाज व्यवस्था
का परिवर्तन जातीय अस्मिता को खण्डित नहीं करता। जातीय अस्मिता का सम्बन्ध वे
जातियों की स्वतंत्र इकाई से जोड़ते हैं और
इस इकाई की पहिचान वे भाषा विशेष की व्यवहार सीमा के आधार पर निर्धारित करते
प्रातीत होते हैं उनके अनुसार -‘‘हिन्दी, बंगला, मराठी, तमिल आदि भाषायें बोलने वाले समुदायों को जाति कहते हैं ।’’9 जातियों के सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी के
लिए वे प्राचीन गण समाजों को प्रस्थानबिन्दु मानकर चलने की बात कहते हैं ‘क्योंकि आधुनिक वर्गों में विभाजित समाज वाली
जाति की विकास प्रक्रिया का मूल वे ‘रक्त सम्बन्ध पर आधारित समूह श्रम करने वाले गण समाज’
को मानते हैं। उनके
अनुसार गण समाजों के विघटन के बाद नये श्रम विभाजन के आधार पर संगठित वर्ण
व्यवस्था वाले जनपदों का विकास हुआ और जनपदों के विघटन के बाद आधुनिक वर्गों में
विभाजित समाज वाली जाति’ संगठित हुई। इस प्रकार आधुनिक वर्ग भेद युक्त जाति का आदि स्त्रोत प्राचीन गण
समाज है। प्राचीन भारत में भरत, कोशल और मगध यह तीन गण-समाज प्रमुख थे। प्राचीन गण समाज फिर वर्ण व्यवस्था
वाले जनपद, फिर आधुनिक
वर्गों में विभाजित जाति और फिर समाज, ये कई ढाँचें अतीत से वर्तमान तक एक-दूसरे से विछिन्न
लक्षित किये जा सकते हैं , किन्तु जातीय अस्मिता का प्रवाह संस्कृति व साहित्य के माध्यम से अभिछिन्न रूप
में आज तक प्रवाहित है। वाल्मीकि और कालिदास राजसत्ता के समर्थक कवि हैं। तुलसी
अपने समय की राजसत्ता से असंतुष्ट एक
आदर्श राजसत्ता की कल्पना से समृद्ध मानस के कवि हैं । निराला स्वतन्त्रता
प्राप्ति के लिए साम्राज्यवादी शक्ति से टकराने वाले संघर्ष चेतना के कवि हैं।
किन्तु वाल्मीकि और कालिदास , तुलसी और निराला के लिए प्रणम्य और वंद्य रहे हैं । इन सभी के माध्यम से हमारे
सांस्कृतिक साहित्यक इतिहास की धारा अभिछिन्न रूप में आज तक प्रवाहित है।
भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की यह विशेषता रही है कि इसमें
हमेशा वर्तमान तत्वों की जगह प्राचीन तत्वों को अधिक महत्व मिलता रहा है; यहाँ प्राचीन इतिहासकारों ने इतिहास की
व्याख्या भी इसी दृष्टिकोण से की अर्थात उन्होंने
घटनाओं व क्रिया-कलापों की व्याख्या भौतिक उपलब्धियों एवं वैयक्तिक सफलताओं की
दृष्टि से न करके समष्टि-हित की दृष्टि से की है इसलिए महाभारत में इतिहास को
पूर्व वृत्त मानते हुए इसके महत्व को निम्नलिखित प्रकार से स्थापित किया गया है -
‘‘ धमार्थ काम मोक्षमुपदेश समन्वितम् ।
पूर्व वृत्त कथा युक्तिमितहास प्रचक्षते ।।’’10
अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में मानव सभ्यता एवं मानव व्यवहार का प्रत्येक क्षेत्र है।
घटनाओं की आवृत्ति मात्र युद्धों तक सीमित रखना इतिहास की एकांगिता निर्धारित करना
है। इतिहास सम्राटों की गाथा नही गाता वह मनुष्य को शिक्षा भी देता है।
रामविलास शर्मा भारत में अंगे्रजी राज्य की प्रगतिशील भूमिका
के कट्टर विरोधी हैं । आर्यों के भारतीय होने की मान्यता को लेकर उठे प्रश्न पर
रामविलास शर्मा आग्रह की सीमा तक पहुँच गये हैं । रामशरण शर्मा के अनुसार - ‘‘1960 के बाद जो शोध कार्य हुआ है, उसके आधार पर हिन्द - यूरोपियों के मूल वास
स्थल के विषय में एक दर्जन से अधिक प्रकार के मत दिये गये हैं । यदि यूरोप से
प्रारम्भ करें तो उत्तरी यूरोप, मध्य यूरोप, वल्कन प्रायद्वीप,
यूक्रेन, दक्षिणी रूस, वैक्ट्रिया इत्यादि में से प्रत्येक को
भारोपियों के मूल निवास का क्षेत्र माना गया है।’’11 रामविलास जी को इस विषय में थोड़ा खुले मन से
विचार करना चाहिए था जबकि इस सन्दर्भ में रामविलास कहते हैं कि -‘‘अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार किया, भारत के इतिहास को ब्रिटेन के इतिहास का अंश
बना दिया।’’12 आगे वे
यूरोपियों पर टिप्पणी करते हुए लिखिते हैं -‘‘18वीं 19वीं शताब्दी के यूरोपीय बुद्धजीवी अपना प्रभुत्व स्थापित
करने के लिए हमारे इतिहास को तोड-मरोड़कर प्रस्तुत कर रहे थे।’’13 यूरोपियों ने अपने औपनिवेशिक हित के लिए
इतिहास के इस प्रश्न की व्याख्या करना प्रारम्भ किया तो सबसे पहले हमारी ही भूमि
पर हमें ही विदेशी साबित किया। कहा ‘आर्य विदेशी थे’ यह कहकर वह अपने शासन को औचित्यपूर्ण आधार दे रहे थे। इनकी
व्याख्या थी ‘‘आर्य विदेशी थे,
वे जिस समय आये उनकी
संस्कृति द्रविड संस्कृति से अधिक समुन्नत थी और उन्होंने द्रविडों पर शासन करके
उन्हें सभ्य बनाया आज इन आर्यों की तुलना में हमारी संस्कृति अधिक समुन्नत है और
हम इन पर शासन कर इन्हें वैज्ञानिक सीख दे रहे हैं ।’’14 प्रश्न उठता है कि आखिर अंग्रेजों को ऐसे आधार
तलाशने की आवश्यकता क्यों पडी? तो हमें याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन सहित यूरोप में एक ऐसा बौद्धिक वर्ग था,
जो लगातार भारत सहित अन्य
उपनिवेशों में अनौचित्यपूर्ण शासन की निन्दा कर रहा था। उन्हें तुष्ट करने के लिए
उपनिवेशवादियों ने इस प्रकार की थोथी व्याख्यायें की थी।
आर्य देशी थे या विदेशी सत्यशोधक विषय अवश्य है। जिस पर
मदभेद का उद्भव अनुचित नहीं परन्तु डा0 शर्मा ने इसका प्रबल विरोध किया है कि आर्य विदेशी थे ।
बल्कि इनका मानना है कि आर्य यहां से बाहर गये और आर्यों के साथ द्रविड भी। यह
लिखते हैं-‘‘दूसरी सहत्राब्दी
ईशा पूर्व में जब बहुत से भारतीयजन पश्चिमी एशिया में फैल गए, तब ऐसा लगता है, उनमें द्रविडजन भी थे। इस कारण ग्रीक आदि यूरोप
की भाषाओं में द्रविड भाषा तत्व मिलते हैं तथा तमिल , ग्रीक पुर-अग्नि, तमिल अत्तन-पीडित होना, ग्रीक अलगोस-पीड़ा, तमिल अन-पिता, ग्रीक अत्य-पिता। यूरोप की भाषाओं में 12-19 तक संख्या सूचक शब्द कहीं आर्य पद्धति से बनते
हैं , कहीं द्रविड
पद्धति से।’’15 रामविलास शर्मा
ने इसी अध्याय पर जानहाफमैन का उल्लेख किया है, जिन्होंने ने मुण्डा परिवार की मुण्डारी भाषा
पर एक बड़ा ग्रन्थ ‘इनसाईक्लोपीड़िया
मुण्ड़ारिका’ तैयार किया था।
इसकी भूमिका पर हाफमैन आश्चर्य प्रकट करते हैं - मुण्डा भाषा परिवार के जो शब्द
आर्य भाषाओं में नहीं हैं वे भी यूरोप की भाषाओं पर मिल जाते हैं । इस सन्दर्भ में
उन्होनें अनेक उद्धरण भी दिये हैं । रामविलास का मानना है कि-‘‘पाश्चात्य विद्वानों ने जैसे-इण्डोयूरोपियन
परिवार की कल्पना की है और समझते हैं , उसकी एक शाखा भारत आयी वैसे ही उन्होंने एक फिनो-उग्रियन
परिवार की कल्पना की है जिसकी एक द्रविड शाखा भारत आयी वास्तव में दूसरी
सहत्राब्दी ईशा-पूर्व में जब बहुत से भारतीयगण और जन पश्चिम एशिया में फैले,
तब उनके घुल-मिल जाने से
स्लाव, ग्रीक, लैट्रिन, जर्मन आदि समुदायों की भाषा का निर्माण हुआ।
उनकी भाषा सम्पदा में भारतीय तत्व घुलमिल गये। इन समुदायों को मिलाकर इण्डोजमैनिक
अथवा इण्डोयूरोपियन परिवार की कल्पना की गयी। इसी प्रक्रिया से फिनो-उग्रियन
परिवार का निर्माण हुआ।’’16 इसी विवेचन में आगे कहते हैं -‘अवश्य ही इन प्रवासीजनों पर पीछे से बराबर दबाव पड़ता रहा
होगा, जिससे ये यूरोप
के उत्तर की ओर बढ़ते गये और इण्डोयूरोपियन परिवार की भाषायें बोलने वाले यूरोप की
अधिक उपजाऊ प्रशस्ति भूमि पर बस गये। फिनो-उग्रियन परिवार की भाषायें बोलने वाले
और भी उत्तरी ठंड़े प्रदेशों की ओर ठेल दिये गये।’ रामविलास शर्मा यह भी मानते हैं कि -‘भारतीय द्रविण भाषाओं की तुलना में फिनो-उग्रियन परिवार की
भाषाओं में साहित्य का निर्माण बहुत बाद में हुआ।’ यह सत्य हो सकता है किन्तु रामविलास शर्मा से
पूर्व आर्यों के मूल निवास के प्रश्न पर लोकमान्य तिलक, रमेशचन्द्र मजूमदार, के0ऐ0नीलकण्ठ शास्त्री, रामकृष्ण भण्डारकर, हेमचन्द्रराय चैधरी आदि राष्ट्रीय विचारधारा के भारतीय विद्वानों के मतों पर
तो ध्यान दिया ही जा सकता है। डा0 शर्मा रणजीत सिंह गुह के हवाले से लिखते हैं -‘‘भारतीय इतिहास लेखन को स्वायत्त बनाने का अर्थ
था भारत पर ब्रिटेन के शासन करने के अधिकार को चुनौती देना।’’17
इसीलिए इस प्रकार के प्रश्नों पर खुलकर बहस नहीं हो सकी एवं इसके निष्कर्ष
हेतु उसी आधार सामाग्री का अधिकतर प्रयोग किया गया जिसके आधार पर उपर्युक्त धारणा
कायम की गई थी।
रामविलास शर्मा का मानना है कि इतिहास लेखन, अन्वेषण, विवेचन की नये सिरे से आवश्यकता है जिसके आधार
पर आधुनिक भारत का निर्माण हो सके, आज तक यह कार्य क्यों नहीं हो सका इसके कारणों को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -‘‘अंग्रेजी राज्य के समय बहुत सी बातें लोग डर के
मारे न कहते थे न लिखते थे। कहते थे तो किताब जब्त हो जाती थी। इसलिए इस ढंग से कहते थे कि कानून की
पकड़ में न आए । अपेक्षा यह की जा सकती थी कि भारत के स्वाधीन होने पर लोग अंग्रेजी
राज का सही रूप लोगों के सामने पेश करेंगे। लेकिन प्रयत्न विल्कुल दूसरे ढंग का हो
रहा है। नये सिरे से इतिहास लिखना जरूरी था जिससे अंग्रेजी राज का सही रूप
अंग्रेजों के सामने आये, साथ ही भारत की सांस्कृतिक उपलब्धि का चित्रण भी होना चाहिए था जिसके आधार पर
नये भारत का विकास हो सके। लेकिन भारत पर जो विदेशी पूँजी का दबाव बना हुआ है उसके
फलस्वरूप अनेक विद्वान यह बताने लगे हैं कि भारत की ऐतिहासिक विरासत उल्लेखनीय
नहीं है। ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश अंग्रेजों के आने के बाद फैला।’’18
इसी क्रम में हिन्दी नवजागरण से सम्बन्धित डा0 शर्मा की स्थापनाओं का जितना महत्व साहित्य के
सन्दर्भ में है, उससे कहीं अधिक
भारतीय इतिहास और विशेष रूप से हमारे राष्ट्रीय मुक्ति-आन्दोलन के सामन्त-विरोधी
और साम्राज्य-विरोधी पहलुओं से है। डा0 शर्मा हिन्दी नवजागरण का आरम्भ सन् 1857 की राज्यक्रान्ति से मानते हैं , जो भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम है । यह
गदर हिन्दी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है, डा0 शर्मा लिखते हैं -‘‘हिन्दी प्रदेश में नवजागरण 1857 ई0 के स्वाधीनता संग्राम से शुरू होता है।’’19
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग इसकी दूसरी मंजिल है तथा महावीरप्रसाद
द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल हिन्दी नवजागरण की तीसरी मंजिल है। भारत
के राष्ट्रीय नवजागरण का सम्बन्ध प्रायः राममोहन राय से जोड़ा जाता है। डा0 शर्मा इस धारणा का खण्डन करते हैं उनकी मान्यता है कि-‘‘हो सकता है बंगाल के लिए यह सही हो। आवश्यक
नहीं कि हर प्रदेश में वैसी ही प्रक्रिया घटित हुई हो।’’ वे मानते हैं कि हिन्दी नवजागरण बंगाल या
गुजरात के नवजागरण से भिन्न है। उसकी अपनी कुछ मौलिक विशेषतायें हैं । यह
विशेषतायें भारतेन्दु युग से मिलती हैं और द्विवेदी युग से भी मिलती हैं ।
द्विवेदी जी व उनके सहयोगियों का महत्व यह है कि उन्होनें अपने युग की समस्याओं का
विवेचन बडी गहराई और दूर-दृष्टि से किया है।
रामविलास शर्मा महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके सहयोगियों के
कार्यकाल को और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - सन् 1900 में ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरम्भ हुआ और 1920 में द्विवेदी जी उससे अलग हुए इन दो दशकों की अवधि को ‘द्विवेदी युग’ कहा जा सकता है। निराला साहित्य को रामविलास
इसी नवजागरण की अगली कड़ी मानते हैं। यह लिखते हैं -‘‘इस तरह जो नवजागरण 1857 के स्वाधीनता संग्राम से आरम्भ हुआ, वे भारतेन्दु युग में और व्यापक बना, उसकी साम्राज्य विरोधी, सामन्त विरोधी प्रवृत्तियाँ द्विवेदी युग में
पुष्ट हुई। फिर निराला के साहित्य में कलात्मक स्तर पर तथा उसकी विचारधारा में यह
प्रवृत्तियाँ क्रांति कारी रूप में व्यक्त हुयीं।’’20 डा0 शर्मा नवजागरण की समाप्ति यहीं पर नहीं मानते
उनका कहना है कि नवजारगण की प्रक्रिया अब भी जारी है। आज नवजारगण का संघर्ष पूंजीवाद
से है।
19वीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के
आरम्भ में देश में जगह-जगह उभरने वाले समाज सुधार के आन्दोलनों की तरह हिन्दी
नवजागरण भी समाज का ढाँचा बदलना चाहता था। पतनशील संस्कारों और पुराने ढाँचों को
कायम रखने वाले सामन्ती-तत्व थे। अंग्रेजी-राज इनका संरक्षक था। अनेक प्रदेशों के
समाज सुधार आन्दोलन सामन्ती अवशेषों को कायम रखते हुए अंग्रेजी-राज का समर्थन करते
थे। डा0 शर्मा ने हिन्दी
नवजागरण की प्रखर सामन्त-विरोधी चेतना के साथ ही अंग्रेजी की संरक्षक भूमिका के
विरोध को भी इस आन्दोलन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता बतलाया है। उनके मतानुसार
हिन्दी प्रदेश के नवजारण के जातीय व राष्ट्रीय महत्व को समझते हुए उसे एशिया के
नवजागरण का सूत्रधार समझना चाहिए। इस दृष्टि से यह आन्दोलन विश्व के साम्राज्यवाद
विरोधी मुक्ति आन्दोलन की एक शक्तिशाली धारा है। यह क्रान्तकारी धारा पूँजीवादी
उदारपन्थी चेतना से भी कई ड़ग आगे दिखाई देती है। डा0 शर्मा ने हिन्दी नवजागरण की चेतना को उन मार्क्सवादी
विचारकों की चेतना से आगे बताया है जो समाज सुधार, आद्योगिकीरण और आधुनिकता को अंग्रेजी राज्य के
वरदान के रूप में चित्रित करते हैं और यह
साबित करने का प्रयास करते हैं कि
अंग्रेजी राज्य की प्रगतिशील भूमिका यहाँ का सामन्ती ढाँचा तोड़ने में है।
रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति की धारणा इतिहाससिद्ध
अवधारणा है। यह न इतिहास विरूद्ध है और न ही प्रतिगामी है। ये जाति शब्द का प्रयोग
‘नेशन’ के अर्थ में करते हैं। इस अर्थ में जाति शब्द
का प्रयोग सर्वप्रथम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने किया उसके बाद कार्तिकप्रसाद व
महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भी, जिसकी चर्चा रामविलास करते हैं । यह
लिखते हैं -‘‘हिन्दी में तथा
भारत की अन्य भाषाओं में जाति शब्द विरादरी पेशेवर, नस्ल और कौम के लिए प्रयुक्त होता रहा है। कौम
के लिए उसका प्रयोग अपेक्षाकृत नया नहीं है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘जातीय संगीत नाम के निबंध में प्रदेशगत जाति के
संगीत की चर्चा की थी, किसी पेशेवर बिरादरी के संगीत की नहीं। श्यामसुन्दर दास सम्पादित जनवरी 1902 की सरस्वती में कार्तिकप्रसाद के लेख का
शीर्षक था-‘महाराष्ट्रीय
जाति का अभ्युदय’। जाति और
साहित्य के सम्बन्ध में महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 1923 में साहित्य सम्मलेन के कानपुर अधिवेशन में
कहा था; ‘‘जिस जाति विशेष
में जाति का अभाव या उसकी न्यूनता आपको दिखाई पडे, आप यह निःसन्देह निश्चित समझिए कि वह जाति
असभ्य किंवा अपूर्ण सभ्य है। जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका
साहित्य भी ठीक वैसा ही होता है।’’21
रामविलास शर्मा की दृष्टि में हिन्दी जाति का निर्माण और
इसका भारत के संघीय ढाँचे में एक राजनीतिक इकाई के रूप में पुनर्गठन भारतीय इतिहास
का एक अधूरा एजेण्डा है। अतः वे इस प्रक्रिया में अवरोधक तत्वों का रेखांकन एवं
विवेचन करते हैं भाषा एवं समाज में उन्होनें दो मुख्य समस्याओं की चर्चा की है। एक
हिन्दी-उर्दू विवाद जिससे हिन्दी जाति की संस्कृति दो परस्पर विरोधी दिशाओं में
लगती है और साम्प्रदायिक सन्दर्भ भी उभरते रहते हैं, और दूसरी है हिन्दी की बोलियाँ या हिन्दी
प्रदेश की लघु जातीय भाषाओं से जुड़ी सम्वेदनशीलता।22 क्या
हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग कौमों की अलग-अलग भाषायें हैं ? और क्या जातीय भाषा के रूप में हिन्दी अपनी
बोलियों (बृज, अवधी, मैथली, इत्यादि) के साथ वही करेगी जो फारसी और अंग्रेजी ने भारत की
देशी भाषाओं के साथ किया? क्या यह स्वाधीन भारत में सांस्कृतिक दमन और उत्पीड़न का शिकर होंगी? पुस्तक के तीन-चार अध्यायों में इन समस्याओं पर
तथ्य परख विवेचन किया गया है और व्याप्त भ्रमों एवं आशंकाओं को दूर करने का यथा
संभव प्रयास किया गया है ।
उपर्युक्त समस्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि डा0 शर्मा की इतिहास-दृष्टि मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि
पर आघृत होने पर भी अपनी निजी पहिंचान बनाये हुए है। उन्होंने साहित्य की
प्रवृत्तियों के सामाजिक आधार की तलाश गहराई में जाकर की है। सामाजिक विकास की
प्रक्रिया से साहित्य विकास की प्रक्रिया को अलग करके और उसकी परम्परा को अविछिन्न
प्रमाणित करके उन्होनें पूरी साहित्य परम्परा में, जातीय अस्मिता की दृष्टि से, एक प्रकार से सात्वत्त देखने की चेष्ठा की है।
यान्त्रिक भौतिकवाद से द्वन्दात्मक भौतिकवाद को अलग करके उन्होनें साहित्य की जो
सापेक्ष स्वायत्तता सिद्ध की है वह भी एक महत्वपूर्ण स्थापना है। यह सत्य है कि
उन्होनें हिन्दी साहित्य का कोई पूर्ण और व्यवस्थित इतिहास नहीं लिखा है किन्तु
साहित्य की अनेक प्रवृत्तियों, कवियों तथा लेखकों की, पूरे इतिहास के विकास क्रम में जिस प्रगतिशील भूमिका का उन्होनें विवेचन किया
है उससे हिन्दी साहित्य के विद्यार्थियों को नवीन दृष्टि प्राप्त होती है ।
संदर्भ:
1. सन् सत्तावन की
राज्यक्रान्ति एवं माक्र्सवाद, रामविलास शर्मा, इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन से, पृष्ठ-67
2. वही, पृष्ठ-53
3. परम्परा का
मूल्यांकन, रामविलास शर्मा,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-9
4. वही, पृष्ठ-12
5. भाषा युगबोध और
कविता, रामविलास शर्मा,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-32
6. परम्परा का
मूल्यांकन, रामविलास शर्मा,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-14
7. कल के लिए,
अप्रैल-जून2002, जयनारायण, अनुभूति, विकास भवन, बहराइच, पृष्ठ -28
1. परम्परा का
मूल्यांकन, रामविलास शर्मा,
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ -16
2. साहित्य का
इतिहास दर्शन, रामविलास शर्मा,
राजकमल प्रकाशन, दिल्लीए प्रथम संस्करण की भूमिका, पृष्ठ-1-2
3. संस्कृति की खोज,
रामशरण शर्मा, भूमिका
4. भारतीय संस्कृति
एवं हिन्दी प्रदेश(भाग-2), रामविलास शर्मा, किताब घर,
दिल्ली, पृष्ठ-191
5. वही, पृष्ठ-191-192
6. वही, पृष्ठ -191
7. वही, पृष्ठ -673
8. वही, पृष्ठ -673
9. वही, पृष्ठ -291
10. वही, पृष्ठ -300
11. महावीर प्रसाद
द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली, भूमिका
12. वही, पृष्ठ -18
13. हिन्दी जाति का
साहित्य, रामविलास शर्मा,
राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृष्ठ -15, 16
14. भाषा और समाज
रामविलास शर्मा, पीपुल्स
पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृष्ठ -282
डॅा.आनन्द कुमार यादव
अध्यापक,राजापुर रोड़, कमासिन, बांदा (उ.प्र.) 210125
संपर्क सूत्र :-9450227302, ईमेल-anandy071@gmail.com
अध्यापक,राजापुर रोड़, कमासिन, बांदा (उ.प्र.) 210125
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